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बुधवार, 25 मार्च 2015

कहानी : उजला सच - आनंद कुमार 'गौरव'

आनंद कुमार 'गौरव'

आनंद कुमार 'गौरव' मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। विषय-वस्तु के स्तर पर जितना सहज एवं सजग है यह रचनाकार, उतना ही उसके पास मधुर एवं कोमल कंठ है - जब गाये तो बाँसुरी-सी बजने लगती है और बोले तो फूल झड़ते हैं। एक बात और- कोई रचनाकार अच्छा लिख सकता है, अच्छा गा-गुनगुना सकता है, किन्तु यह यह जरूरी नहीं कि वह जीवन-व्यवहार में भी अच्छा हो, जबकि गौरव जी इस त्रिसूत्रीय डोर पर बखूबी संतुलन बनाए हुए हैं यह कोई घोषणा नहीं है, बल्कि मेरा अनुभव है जिसे सहृदयी मित्रों-विद्वानों के समक्ष विनम्रता से प्रस्तुत कर रहा हूँ 

आनंद कुमार 'गौरव' का जन्म १२ दिसंबर १९५८ को ग्राम-भगवानपुर रैहनी, जनपद-बिजनौर (उ.प्र.) में हुआ। आँसुओं के उस पार’ (उपन्यास), ‘थका-हारा सुख’ (उपन्यास), ‘मेरा हिन्दुस्तान कहाँ है?’ (गीत-संग्रह), ‘शून्य के मुखौटे’ (मुक्तछंद-संग्रह) एवं सांझी-साँझ (गीत संग्रह) आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। 'सुबह होने तक’ (ग़ज़ल-संग्रह) प्रकाशन के इंतजार में हैं । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा राष्ट्रीय काव्य संकलनों में आपकी 300 से अधिक रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं । दूरदर्शन (दिल्ली) एवं आकाशवाणी (रामपुर) से आपकी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है। समवेत संकलन 'नवगीत : नई दस्तकें' में शुमार गौरवजी न केवल वेब पत्रिका गीत-पहल के संपादक है बल्कि विप्रा कला साहित्य मंच, मुरादाबाद के संयोजक भी हैं। उत्तरायण (लखनऊ ) का 'प्रथम पुरुष सम्मान' आदि से सम्मानित गौरवजी वर्तमान में हिमगिरि कॉलोनी, काँठ रोड, मुरादाबाद-२४४००१ (उ0प्र0) में निवास कर रहे हैं। आपका मोबाइल नंबर- 097194-47843 है। यहाँ गौरव जी एक कहानी प्रस्तुत कर रहा हूँ:-


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 
किसी हिल स्टेशन का दो दिवसीय भ्रमण प्रस्ताव उसने यह कहकर अस्वीकार कर दिया, "मैं मानती हूँ आपका संयम ,धैर्य और काम तत्व पर पूर्णतः अधिकार है ,पर नितांत एकाकी वातावरण में सम्भव है आप संयमित रहें, लेकिन मैं भी तो भगवान नही हूँ एक सामान्य स्त्री हूँ और मैं अपनी भावनात्मकता पर नियंत्रण रख पाऊँ ऐसा दावा नहीं कर सकती। मैं आपके व्यक्तित्व का पूर्ण सम्मान करती हूँ और आपका सात्विक नेह सम्बन्ध मेरी आवश्यकता बन चुका है।

मेरी समझ में यह सब तर्कसंगत नहीं था। एक क्षण को मुझे लगा कि मैं जिसे अपनी सोनजुही मानकर आराधन के स्तर तक प्यार करने लगा हूँ, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह पहले से ही किसी अभिन्न मित्र की चाहना के बंधन में बंधी हो और उसके प्रति समर्पण की सीमा तक जा चुकी हो, अतः एक प्रातः भेंट में एक प्रशन साहस करके मैंने उछाल दिया था -"सोनू कहीं ऐसा सम्बन्ध जो मैं तुमसे मांग रहा हूँ - किसी अन्य मित्र से तो नहीं है तुम्हारा?"  प्रतिउत्तर "नहीं ऐसा तो कुछ नहीं है अन्नू, मेरी किसी से भी ऐसी चाहना नहीं जुडी है जो मन और देह पर अधिकार जता सकती हो 'सुनकर मेरी शंकाओं के सारे बादल छंट गए थे और मेरी सांस को आस की राह मिल गयी थी जैसे। सच कहूँ तो इस निकटता का बीज मैंने ही बोया था--जीवन भर की प्यास को मिली अवसादों की काई आंसुओं से धोने की तमाम कोशिशें बेकार साबित होने के बाद मैं और मेरी प्यास दोनों अवसादी हो चुके थे। 

अचानक मेरी पोस्टिंग क़स्बे के स्वरूप वाले गाँव जोधी की ब्रांच में हुई और वहाँ कार्यरत स्टाफ सोनजुही के मुखमण्डल की आभा ने कुछ ही दिनों में मेरी सो चुकी अवसादी प्यास को आशान्वित स्वरूप दे दिया था.. उसकी आँखों का नैराश्य मिश्रित प्रश्नात्मक देख मुझे निरंतर आकर्षित करता रहा और मैं अपने अतीत के अनुभवों से भयभीत सा उस आकर्षण से अनजाना व्यवहार करना ही उचित मानता रहा, लेकिन मेरा संयम लम्बे समय तक उसके अदभुत आकर्षण के सामने अडिग नहीं रह सका। कविता लिखने के शौक़ के सहारे मैनें उससे निकटता बनाने और उसके आचार व्यवहार को समझ पाने की कोशिश प्रारम्भ कर दी थी। पहले एक -दो बार उसने कविता पढ़ने को देने पर झिझक और प्रश्नात्मक दृष्टि अवश्य अभिव्यक्त की पर धीरे धीरे वह स्तिथि बन गई कि एक दो दिन कोई कविता पढ़ने को न देने पर वह पूछने लगी -"कुछ नया नहीं लिखा क्या ". कविता लिखना और सोनजुही को देने का एक क्रम सा बन गया, वह कविता की पर्याप्त समझ भी रखती थी ---जहाँ कुछ प्रेम प्रदर्शन का आधिक्य लगता तो वह कह भी देती थी --"यह अंश कुछ समझ नहीं आया " मेरा

आशान्वित मन तब डर सा जाता था--सोनजुही की व्यतीत कथा अनेक बार लम्बी फ़ोन वार्ता द्वारा मुझे उसी की आवाज़ में सुनने को मिली--तब मुझे ज्ञात हुआ कि --सोनजुही जो मेरे -चिंतन मन में किसी परी की खूबसूरत मुस्कान सी व्यवस्थित है ,वास्तव में उसका जीवन अतीत अत्यंत अव्यवस्थित और दुखद रहा ---अब तक निरंतर उसी क्रम को जी रही है वह -- 

बरेली -पीलीभीत मार्ग पर स्थित नवाबगंज कसबे की जानी मानी हस्ती एक व्यापारी स्वo मुकुंद जैन की पांच संतानों, बहन भाइयों में सबसे छोटी और सबकी लाड़ली होने के कारण वह बड़े ही लाड़ प्यार में पली बढ़ी, अतीत के अनेक संस्मरण बताते हैं कि संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार की होने के नाते सामाजिक सम्मान की भी सदैव पात्र रही और स्कूल में उसके चंचल व्यवहार को अमर्यादित श्रेणी में रखने वाली स्कूल प्रिंसिपल का उसे दण्डित करने की चेष्टा में स्कूल से निकालने की धमकी का जवाब "हाँ हाँ निकालो, मैं भी मुकंद जैन की बेटी हूँ देखती हूँ कैसे निकालते हो" की भाषा में देने वाली रही सोनजुही। युवा अवस्था में कोलेज के एक छोरे का प्रेम प्रस्ताव पत्र देना और मिलने का स्थान पूछने पर बड़े भाई की कपड़े की दुकान या फिर प्रेस ऑफिस में आने को कहना और उस मंजनू का मुंह लटक जाना --- ज़रा सी चोट लगने पर कोहराम मचा देना और पूरे परिवार का चिंतित -होकर उसके इर्द-गिर्द सेवा चिंतन में केंद्रित हो जाना---- भाई के चिढ़ाने पर रो रोकर घर भर देना -- और सबको पिता जी से डांटफटकार लगवाना "कम्बख्तों ये क्या खा रही है तुम्हारा खबरदार जो किसी ने भी कुछ कहा" जैसी प्रतिक्रिया पर सबको मुंह चिढ़ाना और कूद कूद कर ताली बजाना और कहना "ये देखा मज़ा चखा दिया।" इस सब लाड़ प्यार को छोड़कर साजन के घर जाने का दिन आना और एक दिन एक संपन्न परिवार में उसका विदा हो जाना, वहाँ भी मायके जैसी अनुकूलता में शान का जीवन जीना -- पति के अगाध प्रेम सागर में डूब डूब जाना और कुछ ही वर्षॊं में सात वर्षीय बेटे को आँचल में बांधे विधवा जीवन जीने की विवशता को प्राप्त हो जाना -- पति मृत्यु उपरान्त ससुराल के वातावरण में विषदंशों का उग आना---- और विवशतः बेटे के साथ परिवार से अलग - आज के भेड़िया समाज में स्वयं और बेटे की जीविका जुटाने को नौकरी करने की विवशता का विषपान करने को बाध्य हो जाना और फिर सामाजिक चलन सा अकेली नारी का कई नामों के साथ जोड़कर बदनाम किया जाना -- मायके वालों का भी -- शनैः शनैः दायित्व बोध का लुप्त होते जाना और विशेष अवसरों पर रस्म निभाने तक सीमित होते जाना -- किन्तु सोनजुही का अथक संघर्षबद्धता के कंटक मार्ग पर अबाध बढ़ते जाना -- ये सारे निष्कर्ष मैंने फ़ोन पर बातचीत के आधार पर अनुभव किये -- - तब मुझे अनुभूति हुई कि क्यों वह मेरे अतिसामीप्य को ठुकराना चाहती है।

एक दीपावली पर्व की पूर्वप्रातः जब मैं यह सोचकर सोनजुही के घर गया कि आज उसे आलिंगन में भरकर कह दूंगा "मैं हर बदनामी ओढ़ने को तैयार हूँ पर तुमसे दूर रहकर जीने को तैयार नहीं हूँ "तो मैनें जाना - कि वह थोड़ी देर पहले ही सीढ़ियों से फिसल गयी थी और उसके नितम्बों पर गम्भीर चोट पहुँची थी वह चलने फिरने में भी कराह रही थी ----- एक पल को मुझे सूझा कि चोटिल स्थान पर कोई मरहम लगा कर उसका माथा चूमकर भावनात्मक उपचार करना चाहिए लेकिन संकोच और उसकी मेरे प्रति अभिव्यक्त सात्विक - स्नेह - सम्मान - धारणा की दीवार मैं भेद न सका -- और इस घुटन में मैं रो पड़ा था उसने मेरे शीश को दोनों हाथों से थामकर सामीप्य दिया ,मेरा गर्दन से ऊपर का भाग उसके पेट से सटा था,पर मेरे हाथ उसकी कमर को घेरे में लेने का साहस न कर सके। मेरे प्रति उसकी मर्यादित व्यवहार की सम्मान अभिव्यक्ति ने मुझे बांधकर रख दिया था।

अगली मुलाक़ात में मैंने अफ़सोस जता दिया था -- "मैं तो इतने संकोच में बंधा था कि मेरी बांहें उस समय तुम्हारी कमर भी नहीं बांध सकीं " उसने तुरंत ज़वाब दिया था "रोने से फुर्सत मिलती तब ना।" मेरे विवेक ने इस प्रत्युत्तर को मौन स्वीकृति युक्त निमंत्रण की संज्ञा दी और मेरी चाहना की राह में अनगिनत आशा दीप बल उठे। प्रातः भ्रमण और सायंकाल भ्रमण के समय मेरा और सोनजुही का मिलना होता रहा -- एक दिवस मुझे कहा गया "अन्नू तुम फ़ोन मत किया करो मुझे,और यदि आवश्यक ही हो तो अपने मोबाइल से नहीं बल्कि पी सी ओ से करना यह मेरा करबद्ध निवेदन है" कारण पूंछने पर जो उत्तर मिला वह मेरी संवेदना को पूर्णतः आहत करने निमित्त पर्याप्त था - "बात यह है अन्नू कि मेरा तुम्हें या तुम्हारा मुझे फोन करना शनि को पसंद नहीं आ रहा -- वह इस बात को लेकर बहुत नाराज़ है -- तीन दिन से वह मुझसे बात तक नहीं कर रहा -- उसने यह बात भैया के भी संज्ञान में डाल दी है और भैया भी बहुत नाराज़गी जता रहे थे, मैं तो पहले ही उसके नाम के साथ बदनाम कर दी गयी हूँ। अब समाज ने उसके साथ मेरा नाम जोड़ ही दिया है तो मैं केवल उसी एक के साथ बदनाम होकर रहना पसंद करती हूँ। 
मैं नहीं चाहती कि दुःख सुख का वह सहारा जो चार पांच साल से तमाम बदनामी सहन करके मेरे साथ जुड़ा हुआ है वह मुझसे अलग हो जाये - फिर मैं अपने स्वार्थ के लिए तुम्हारे जैसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले ,सामाजिक और साहित्यिक सम्मान के अधिकारी का नाम अपने नाम के साथ जोड़कर बदनाम करना बिलकुल नहीं चाह सकती, और दूसरा पक्ष यह भी है कि शनि को तो मेरे घर आने जाने के लिए मेरे भाइयों और मेरे बेटे ने भी स्वीकार लिया है --- पर एक और नाम जोड़कर मैं अपने बेटे और समाज की दृष्टि में चरित्रहीन और आवारा औरत नहीं कहलाना चाहती -- " 

मैं अन्तस तक झुलस गया था जैसे --- और अपनी झुंझलाहट पर मैं क़ाबू न रख सका --- "शनि शनि कौन है यह शनि ? और उसके स्वतन्त्र रूप से तुम्हारे एकांतवास में आने जाने को तुम्हारे घर परिवार वालों और विशेषकर तुम्हारे बेटे ने किस नीति से स्वीकृति दे दी ? और यह सारा कुछ मुझे आज तक न बताकर मुझे अँधेरे में रखने की क्या विवशता थी तुम्हारे सामने ?" वह संतुलित बनी रही और बिना किसी झुंझलाहट के या क्रोध के उसने कहा "अन्नू झुंझलाने की कोई बात नहीं है ,मेरा बेटा सामाजिक वातावरण और मेरे जीवन सन्दर्भों के असुरक्षित पक्षों को समझते हुए मेरे "आपत्ति तो नहीं" पूछने पर कहता है " आप अब अकेली रहती हो माँ-- मैं भी बाहर रहकर पढ़ रहा हूँ -घरेलू सामाजिक और व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति को कोई न कोई सहारा तो होना ही चाहिए "., 

"लेकिन सोनू तुम इस तरह मुझे --" मेरी बात बीच में ही अवरुद्ध कर उसने कहा "मेरी पूरी बात पहले सुन लो अन्नू फिर जो भी सोचना कहना हो वह करना -- एक औरत जब अकेली इस भेड़िया समाज में जीने और संतान को किसी योग्य बनाने को विवश होती है तो फिर उसके पास किसी न किसी का दामन थामने के सिवाय कोई चारा नहीं होता --- और फिर जब मुझे शनि के साथ समाज में बदनाम कर ही दिया गया तो मैंने भी समाज की इस भौंडी सोच के ख़िलाफ खड़ी हो जाना ही सही माना -- और रही बात तुम्हारी अन्नू, तुम बहुत बड़े हो व्यक्तित्व से कृतित्व से और उपलब्धियों से ---- तुम्हारा अपना परिवार भी है -- मैं तुम्हारे परिवार को तोड़ने की बात सपने में भी नहीं सोच सकती --- हाँ परिवार शनि का भी है उसके दो बच्चे भी हैं पर वह मेरी विवशता बन गई थी -- जिसे मैं जी रही हूँ -- इस जीने से मैं खुश हूँ ऐसा भी नहीं है --- मुझे यह एकाधिकार की चेष्टा बिलकुल नहीं भाती -- यह तुम्हें फोन करने पर बेवज़ह की आपत्ति और ये न करो वो न करो ,यहाँ न बैठो वहाँ न खड़े होओ --- तमाम पाबंदियों का फ़ज़ूल हज़ज़ूम इस साथ के साथ साथ जुड़ा रहता है --- कभी-कभी तो मैं तंग आकर इस घेराबंदी से आज़ाद हो जाने को तड़प उठती हूँ -- अन्नू -- लेकिन मेरे जैसी स्तिथि में जीवित औरतों को ये विवशताएँ ओढ़कर जीना ही जैसे नियति को स्वीकार है --- मैं हर बार हारती हूँ और हारती ही चली जाती हूँ -- दम घुटता है, पर यह घुटन जीना मेरी मज़बूरी है -- मैं भी उड़ना चाहती हूँ खुले आकाश में तुम्हारी सोच के विस्तार की तरह --- फिर ध्यान आता है कि मेरे पर तो बहुत घायल हैं -- और मैं --" सोनजुही फफक फफक कर रो पड़ी थी -- मेरे संकोच को उपेक्षित कर मैंने उसका चेहरा अपनी दोनों हथैलियों के बीच लेकर -- उसके आंसू पोंछ डाले --- अपनी भावुकता के वशीभूत उसे सीने से लगाकर मैं भी रो पड़ा था --- उसने स्वयं को नियंत्रित करते हुए मेरे आंसू पोंछे -- पर मेरे आंसू रुकने नहीं पा रहे थे ,मेरी हिड़की बंध गई -- मेरे रोने में केवल सोनजुही की असीम वह व्यथा ही नहीं बल्कि मेरे प्यार की अकाल मृत्यु का अहसास भी कारण स्वरूप सम्मिलित था --- 

एक बार फिर मेरे सीने से चिपक कर भावुकता के सागर में डूबकर वह बोली --- " अन्नू काश तुम सही समय पर मुझे मिले होते, मैं ---तुम्हारी असीम प्यार की दुनियां में अपना सर्वस्व निछावर करके खिलखिला पाती -- पर नसीब के फैंसलों पर किसी का ज़ोर कहाँ चलता है " और वह धीरे धीरे मुझसे अलग हट गई थी --- मुझे मेरी दुनियां ही उजड़ती दिखाई दे रही थी --मेरी मनस्थिति की जैसे अनुभूति हो रही हो उसे , वह बोल उठी थी ---- "अन्नू मैं तुम्हारी चाह का मन से सम्मान करती हूँ -- तुम्हें मिलकर मेरी एक अवधारणा का अंत साकार हुआ जिसकी मैनें कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कोई पुरुष किसी स्त्री को चाहे और पूर्ण एकांत में सीने से लगाकर भी -दैहिक मिलन की ईमानदारी से स्वीकृति का अनुरोध करे -- बार बार मिलने पर भी अनुरोध को ज़ोर ज़बरदस्ती का स्वरूप देने को प्यार का अपमान समझता रहे -- ऐसे इंसान को कौन प्यार नहीं करेगा भला -- तुम्हारा साथ मेरी कमजोरी बन गया है अन्नू मगर तुम्हें मेरी विवशताओं को भी अपनी चाहत के साथ जीना पड़ेगा -- अगर तुम ऐसा कर सके तो मैं जीवन के इस मोड़ पर पहली बार स्वयं को बड़ी भाग्यशाली समझूंगी -- मेरी विनती है मेरी यह खुशी मुझसे मत छीनना -- मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ अन्नू -- मेरी निगाहें रास्तों पर
आते जाते तुम्हारे कहीं होने की आशा में भटकती हैं -- कहीं तुम दिखाई दे जाओ -- अक्सर पी सी ओ जाकर तुम्हें फोन करती हूँ -- बस इसलिए कि तुम मेरी आवाज़ सुन लोगे तो तुम्हारी उदासी कुछ छंट जायेगी -- मेरे होने का एहसास तुम्हारे साथ बना रहेगा -- तुम मुझसे न मिलकर कितने बेचैन रहते हो मैं ख़ूब जानती हूँ, क्यूंकि वही दशा मेरे मन की भी है -- कभी कभी मन की प्यास सब कुछ भुलाकर हमेशा के लिए तुम्हें अपना लेने को मुझे बाध्य भी करती है -- पर जीवन के इस मोड़ पर -- मैं बेटे की नज़रों से गिरना और उसे आहत करना स्वीकार नहीं कर पाती -- अन्नू मेरे मोबाइल पर अपने मोबाइल से कभी फोन मत करना पी सी ओ से ही करना -- और रात को नौ बजे के ही करना ताकि कोई तुम्हारे फोन का आना जान न सके -- मेरी मज़बूरियाँ समझना और मुझे बेवफ़ा कहकर बदनाम मत करना -- मैं पूरी तरह तुममें समा जाने की कामना को लेकर ज़िंदा रहूंगी --- यही मेरे जीवन का उजला सच है।"

मैं सोनजुही के सिर पर हाथ रखकर "खुश रहो " -- कहकर उसे उसका एकांत सौंप कर वापस आ गया था -- दीवारों पर टंगी छत वाले उस घरनुमाँ शोर में जहां सबकी अपनी अपनी हंसी थी सबका अपना रुदन -- अपने अपने ठहाके, अपनी अपनी खुशियां, आवश्यकताएं और मेरी ओर सारी आशंकित /प्रश्नांकित दृष्टियाँ -- मुझे बताया गया कल मेरा जन्म दिन है ---- पर न तो मैं जन्म सका न मर सका और न ही सोनजुही की सांसों के बंधन भुला सका ---- क्यूंकि मेरे चिंतन में सोनजुही का स्थान मुझसे कहीं ऊंचा हो गया था --- यह भी उजला सच है। 


Hindi Story - Anand Kumar 'Gaurav'

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