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शनिवार, 25 अप्रैल 2015

साँझी साँझ : सपनों के टुकड़े सँजोये गीत-नवगीत — मधुकर अष्ठाना

कृति : साँझी साँझ (गीत संग्रह)
कवि : आनंद कुमार गौरव 
प्रकाशक: नमन प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली 
प्रकाशन वर्ष : 2015 
मूल्य : 200,  पृ : 127 

आनंद कुमार गौरव 
साहित्य मानवता की पाठशाला है, तो गीत उस पाठशाला का प्राचार्य है, जिसमें संस्कृति, परंपरा, संस्कार, रीति-रिवाज तथा सामाजिक संबंधें को व्याख्यायित करने की सामर्थ्य निहित है। वस्तुतः गीत सभ्य समाज की आंतरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है, जिसमें मानव-जीवन के समस्त सुख-दुख, राग-विराग और जीवन-संघर्ष की जिजीविषा का छान्दसिक शिल्प में दर्शन होता है, जो पाठक को मुग्ध् एवं आकर्षित करता है। मानव की उत्पत्ति के साथ ही गीत की उपस्थिति इसके कालजयी होने का संज्ञान कराती है, बाह्य वातावरण से प्रभावित मन जब अन्तःप्रेरणा से मुखर होता है, तो उस समय जो गुनगुनाता शब्द-रूप हमारे सम्मुख प्रकट होता है वह गीत ही है। जन्म से मृत्यु तक जीवन में गीत की परिव्याप्ति, उसके महत्वपूर्ण होने का संकेत करती है, जिससे स्पष्ट है कि गीत हमारी अपरिहार्य आवश्यकताओं में सम्मिलित है और इसके अभाव में जीवन के किसी भी रूप की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। इस प्रकार गीत का इतिहास ही मानवता का इतिहास है। आदिकाल से अब तक गीत के मार्ग में अनेक विरोधी पड़ाव आये, अनेक वाद आये किंतु गीत को समाज से पृथक नहीं कर सके। इस क्रम में गीत ने देश, काल, परिस्थिति के अनुसार स्वयं को निरंतर चुनौतियों से संघर्ष करने को प्रस्तुत किया और समयानुसार परिवर्तन को शिरोधर्य करता रहा। परिवर्तनों के अनुसार उसके अनेक नामकरण भी होते रहे, यद्यपि गीत का कोई स्वरूप कभी समाप्त नहीं होता, किंतु वह धरा से अलग होकर पिछड़ जाता है।

इन्द्र जी ने गीत और नवगीत का अंतर स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘यह एक अकाट्य सत्य है कि नवगीत एवं पारंपरिक गीत में जन्य-जनक संबंध् होता है। जैसे पिता के अस्तित्व से पुत्र की अपनी एक पृथक सत्ता होती है, तथापि दोनों में कुछ न कुछ रूप, गुण, लक्षण तथा स्वभाव सादृश्य रहता है। वैसे ही पारंपरिक गीत की भाँति नवगीत भी छन्दाश्रित होता है, किन्तु उनमें छान्दसिक अंतर भी स्पष्टतः लक्षित होता है। पारंपरिक गीत की भाषा से नवगीत की भाषा को भी सहजतया अलगाया जा सकता है। दोनों में स्पष्ट अंतर कथ्य को लेकर है, पारंपरिक गीत घूम-फिरकर व्यष्टिमुखी होता है तो नवगीत बहुत हद तक समष्टिमुखी। व्यष्टिपरक दृष्टि कहीं न कहीं रचनाकार को कल्पना केन्द्रित और स्वप्न जीवी भी बना देती है, जिसके विपरीत गीत जब समष्टिगत यथार्थ की दिशा में अग्रसर होता है तब वह नवगीत की दहलीज़ पर ठिठककर दस्तकें देने लगता है और उसकी आंतरिक संवेदना बाह्य बोध् से जुड़ जाती है और उसमें इर्द-गिर्द की सच्चाइयाँ बिंबित होने लगती हैं। इन सच्चाइयों का दायरा आंचलिकता से बढ़ता हुआ नगरबोध् तथा जीवन के बहुकोणीय-वास्तव से वलयित होकर वैश्वीकरण तक फैलता चला जाता है। भाई आनंद कुमार ‘गौरव’ के गीतों में भी यही प्रवृत्ति आद्योपान्त लक्षित होती है। विशिष्ट परिध्यिों से उध्र्वमुखी उनके गीत वर्तमान जीवन की भयानक विसंगतियों से रूबरू करने में सफल प्रतीत होते हैं। उनके गीतों में सौंधी माटी की महक, जन सामान्य के सुख-दुःख, नैसर्गिक परिदृश्य, सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना की झलक संस्कारित रूप में प्रस्तुत हुई है जिसमें सामूहिक अभाव-स्वभाव की परिव्याप्ति है। रागात्मक अनुभूतियों के नैसर्गिक रस से अभिसिंचित उनका शाब्दिक प्रतिसंसार सर्वथा मौलिक है जो उनके उज्ज्वल भविष्य की संभावना जगाता है।

छिहत्तर उत्तम गीतों का यह संग्रह ‘साँझी-साँझ’ अपने शीर्षक से ही सामूहिक सामंजस्य का भाव जगाता है जो सहिष्णुता, समरसता और परस्पर सौहार्द की प्रेरणा देता है। विघटन के युग में संग्रह का शीर्षक वास्तव में आकर्षित करते हुए पठनीयता का वातावरण निर्मित करता है, जिसकी मूल प्रवृत्ति आशावादी होती है। सात्विक कामना के साथ कृति का प्रारंभ होना दर्शाता है कि रचनाकार भारतीय संस्कृति, संस्कार एवं मानवीय चेतना से समृद्ध है, जिसमें वीणापाणि से अन्धकार को ज्ञान-ज्योति से प्रकाशमय’ कर देने की कामना की गयी है। रागात्मक अन्तश्चेतना से उपजे शृंगार गीत भी भाव-विभोर करने में क्षमतावान हैं। प्रारंभिक गीतों में वियोग की पीड़ा के साथ रसाग्रता लक्षित होती है, जिनकी सहज, सरल, प्रवाहपूर्ण एवं प्रसादगुण सम्पन्नता संप्रेषणीयता में अभिवृद्धि करती है, यथा-

कैसे कहूँ चाह के कितने 
मधुर मिलन अनुबंध् बह गये।
तुम क्या गये आँसुओं में सब
नवगीतों के छन्द बह गये।

हर्ष महल थी कुटिया मेरी
ताजमहल था आँगन मेरा
सावन सी चाहना तुम्हारी
चंदन जैसा मन था मेरा
तुम रूठे तो सावन रूठा
पल-पल के आनंद दह गये।

पत्र सांत्वना कब तक देते
चित्र कहाँ तक धीर बँधाते।
दंश मधुर यादों के पल-पल
घायल उर करते, मुस्काते
रोदन हुए गात कोकिल के
दीन-हीन बासंत रह गये।

रचनाकार श्री गौरव की उद्भावनाओं का फलक विशाल है और आंचलिक पुट देने का प्रयास नवगीत के अभ्युदय के पूर्व की स्थिति से जोड़ता है, जिसमें नूतनता के प्रति रुझान उनकी प्रगति का संज्ञान कराता है, क्योंकि अगले गीत में ही कवि निजता के बोझ को उतार फेंकने की कोशिश करता दिखाई पड़ता है और कहता है- ‘सरल नहीं है विहँस गरल को पी जाना। और नहीं है सहज अकेले जी पाना', जिससे व्यष्टि से समीष्ट की ओर अग्रसर होने का बोध् होता है और इसका दर्शन हमें प्रस्तुत गीत में मिल ही जाता है -

मन-आँगन जंगल वीराने जैसा है
जीवन झूठे एक बहाने जैसा है

चिंतन का हर बिंदु धुंध से घिरा हुआ
गीतों का मुख आज छन्द से फिरा हुआ
सावन का हर बिंब सताने जैसा है
लौट-फेर कर यहीं खड़े रह जाना है
सबने अपनी मंज़िल ख़ुद को माना है
सारा कुछ बेबस मुस्काने जैसा है।

अपने परिवेश और आम आदमी के जीवन-संघर्ष से प्रेरित उनके गीतों में कहीं पीड़ाओं को अभिव्यक्ति देने का प्रयास है तो कहीं व्यक्ति भावना को त्याग कर समाज में विलीन हो जाने की कामना है और यही प्रक्रिया भविष्य के अच्छे नवगीतकार के प्रति आश्वस्ति जगाती है और विश्वास दिलाती है कि यह लघु बीज कभी विशाल वट-वृक्ष बनने की क्षमता रखता है- ‘द्वेष-क्लेष मिट जायें ऐसा गीत रचें, मैं-तुम हम हो जायें ऐसा गीत रचें।' अथवा ‘सपनों की चाहत सपना बना गयी हमको, हर झूठी आहट घटना बना गयी हमको, मत पूछो कितनी बार शूली पे लटका मन, बंजारा बन भटका मन।’ इसी प्रकार के गीत हैं जिनमें मैं से हम बनने की उत्कंठा है। भले ही कोई प्रगति के अंतिम सोपान पर पहुँच जाए किंतु भोजन दायें हाथ से ही ग्रहण करता है, प्रगतिशीलता का यह तात्पर्य नहीं कि रचनाकार अपनी परंपरा, संस्कार और संस्कृति को भूल जाये, नैसर्गिक सौंदर्यबोध् के साथ वर्तमान विरूपता में सामंजस्य बना कर ही रचनाकार गतिशील रह सकता है। यही समन्वय की क्षमता का अभाव उसके सपनों को तोड़ देता है। गौरव जी में समन्वय की क्षमता है जो उन्हें महत्वाकांक्षा की पूर्ति की ओर अग्रसर रखती है, उन्हें सहज बनाती है, नूतन उद्भावनाओं एवं नवीनतम बिंबों की खोज गौरव जी की रचनाओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित की जा सकती है, यथा-

मन टँगा है अरगनी पर
देह की लय अनमनी है

फि र कहीं सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है
फिर कहीं आक्रांत उपहासित हुआ है
फिर कहीं आराधना आतंक की
बंधक बनी है 

फिर उजालों पर लगा प्रतिबंध्-सा है
इन अंधेरों ने रचा षड्यंत्रा-सा है
ज़िंदगी की ज़िंदगी से जंग चहुँदिशि
फिर ठनी है।

अपने परिवेश को पूरे वातावरण को, घरेलू जिंदगी और विघटन में कठोर जीवन-संघर्ष को तथा सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विसंगति, विषमता और विरूपता को प्रस्तुत संग्रह ‘साँझी-साँझ’ के प्रत्येक गीत में देखा जा सकता है। नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रवृतियाँ गीतों में व्याप्त हैं। एक ओर संस्कृति का पतन, मूल्यों का क्षरण, संस्कारों का लोप गीतों को प्रभावित करता है तो दूसरी और नैसर्गिक सौंदर्य, शृंगार के दोनों पक्षों वियोग-संयोग के गीत भी इस कृति में द्रष्टव्य हैं। कहीं रुदन है तो कहीं हँसी-ख़ुशी के क्षण भी हैं। इस प्रकार विविध्तापूर्ण गीतों की छटा पाठक को आकर्षित करने में सक्षम है। इस क्रम में बैंककर्मी गौरवजी ने वहाँ की कार्यप्रणाली से भी बिंब उठाये हैं, जो उन्हें काव्य रचनाकारों से पृथक करते हैं, उदाहरणार्थ -

हर गुणा पर भाग हावी है यहाँ
हर घटाने से जमा सहमा हुआ।

नामी-गिरामी नेता जब आता है तो उसको दिखाने के लिए दैनिक मज़दूरों को ट्रेनों-बसों में भरकर स्थानीय नेता लाते हैं। नेता भी केवल झूठे भाषण में भविष्य के सुनहरे स्वप्न दिखाता है और मज़दूर-किसान उसकी हर मिथ्या सांत्वना पर तालियाँ पीटते हैं, नारे लगाते हैं और अंत में वह नेता अपने दल को वोट देने की शिक्षा देकर लौट जाता है। यही युग सत्य है जहाँ चरित्र-नैतिकता का दूर-दूर तक पता नहीं चलता। इन विडंबनाओं और विद्रूपताओं को गौरव जी ने पर्याप्त स्वर दिया है और एक गीत में कहते हैं -

अर्थ का प्रभाव बढ़ा
व्यर्थ का जमाव बढ़ा
भीड़ उगी है नारों की

स्वार्थवाद के विषधर 
सुविधा ने पाले हैं
पीड़ा के होठों पर सत्ता के ताले हैं
नीलामी पर हैं नैतिकता उपचारों की

नित्य समाचारों में
पर्चों-अखबारों में 
सेवा का भाषण और त्याग के उभारों में
मेहनत पर है फिर भी सत्ता अँधियारों की। 

वर्तमान राजनीति शोषण-उत्पीड़न को बढ़ावा दे रही है, ग़रीब और ग़रीब होता जा रहा है और अमीर दिन-दूना रात चैगुना समृद्ध हो रहा है। आरक्षण-संरक्षण की व्यवस्था समाज में अलगाव एवं विद्वेष के बीज बो रही है। प्रत्येक उत्तरदायी पद पर अक्षम अध्किारी क़ाबिज़ हैं। जो निर्णय लेने की क्षमता नहीं रखते और राजनीति के प्रभाव में अनैतिकता के पथ पर अग्रसर हैं। अराजकता और अपराधें की बाढ़ आ गयी है, हर व्यक्ति आतंकी दहशत में अपनी साँसें गिन रहा है और राजनीति अपना वोट-बैंक बनाने में संलग्न है, जिससे देश गर्त में जा रहा है। एक बार एम.पी., एम.एल.ए. चुन लिए जाने के उपरांत नेता जी पाँच वर्षों तक झाँकने नहीं आते। आम जनता का कोई पुर्साहाल नहीं है। इन विषम परिस्थितियों को गौरव जी ने निम्नांकित शब्दों में व्यक्त किया है-

जो सुमन तुम दे गये, उनमें कोई रंगत नहीं है
चंद घायल ताल हैं, बाकी कोई संगत नहीं है
धरणा व्याकुल पथिक-सी, दर-बदर भटकी फिरी है
पाँव में बेड़ी सजाये, मूक अभिलाषा खड़ी है
अनमने कितने घरौंदे टूटकर बिखरे पड़े हैं
पर तुम्हारे आगमन की आज भी आहट नहीं है।

नेह का दामन कटा-फटा है, सभ्यता के राग का अर्थ मुरझा गया है, सपनों की लाश सिर पर उठाये हुए लोग हथेलियों पर आँसू सजा रहे हैं। उजियारा भी अंधियारे लिबास में दिखाई पड़ रहा है। उम्मीद की कोई किरन भी लक्षित नहीं होती पिफर भी अपने मन में असंतोष तथा आक्रोश का ज्वालामुखी लिए लोग परिवर्तन की दिशा में अग्रसर नहीं होते। आम आदमी का ख़ून इतना ठंडा हो गया है कि तेज़ आँच में भी उबाल नहीं आता, यथा -

एक भगदड़-सी मची है
शहर फिर भी शांत है

आज मानव के लहू का
चुप रहो सिद्धांत है
आवरण क्या देखना
जब आचरण अंधा हुआ
पश्चिमी हर सोच का अब
अनुकरण नंगा हुआ
भाव भौंडे, खोखले स्वर
सब हुआ अतुकांत है। 

गौरव जी की रचनाओं में ग़ज़ल की भी ख़ुशबू रची-बसी है। जो इन्हें पढ़ने पर स्पष्ट झलकता है, आख़िर हो भी क्यों नहीं? मुरादाबाद के गज़लगो शायरों के साथ उठते-बैठते उनके गीतों में भी ग़ज़लियत आ जाना स्वाभाविक है। प्रायः उनके गीत छन्द और बहर दोनों रूप में सधे हैं और उनका निर्वाह यथोचित हुआ है। अपने परिवेश को वे अभिव्यक्त करने में सफल होने के साथ ही यथार्थ को बेहिचक लिखने में संकोच नहीं करते हैं। कथ्य के अनुकूल भाषा एवं छन्द का निर्वाह उन्होंने समुचित रूप से किया है जिससे भविष्य के महान रचनाकार की छवि स्पष्ट उभरती है। गद्य में भी लेखन के फलस्वरूप उन्हें भाषा का यथेष्ट ज्ञान है जिससे गीतों में प्रत्येक पंक्ति में उचित शब्दों का चयन करने में उन्हें असुविधा नहीं प्रतीत होती है, प्रसाद गुण संपन्न भाषा में सरस प्रवाह सृजन की गरिमा में अभिवृद्धि करने में सहायक है, जिसमें कहीं-कहीं लक्षणा एवं व्यंजना का चमत्कार अन्य रचनाकारों के ईष्र्या का विषय हो सकता है। उपमा के स्थान पर प्रायः उन्होंने उसका मानवीकरण किया है जो वर्तमान में नवगीत की प्रवृत्ति है-

घर-शहर की बत्तियाँ गुल हैं
ख़्वाब छत पर हैं टहलते
खोजते संभावनाएँ

रोज़ मदिरा सोच में गुम
पीढ़ियाँ हैं जागरण पर
चंद नंगे तन सुझाते
सभ्यताएँ आचरण पर
वासना की दलदलों 
ध्ँसतीं सृजक नवकल्पनाएँ। 

इस प्रकार के गीत पूरी तरह नवगीत के खाँचे में फिट हो जाते हैं जो उन्हें नवगीतकार की श्रेणी में स्थान दे सकते हैं। गीतों-नवगीतों का यह संग्रह उनके क्रमिक विकास का द्योतक है और भविष्य में जहाँ तक मैं समझता हूँ, वे केवल नवगीत का संग्रह प्रकाशित कर नवगीत में अपना स्थान सुरक्षित कर सकेंगे। वास्तव में छन्दों में सिद्धि प्राप्त करने के उपरांत रचनाकार गीत की साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार गीत में सिद्ध होने पर नवगीत सृजन सहज हो जाता है। इस संग्रह में कुछ नवगीतों को संग्रहीत कर उन्होंने पूर्वाभास करा दिया है, उनके गीत-सिद्धि का दर्शन कराने हेतु निम्नांकित पंक्तियाँ पर्याप्त होंगी -

पाँखी रे उड़ने से पहले
डाल-पात-तरु माथ चूम ले
कभी वापसी संभव हो तो
सुगम रहे नाता समझाना

रात हाथ पर हाथ धरे है
आज दुपहरी बनी चोर है
साँझी साँझ कभी होती थी
अब अलगावों बंधी भोर है
और साधना की वाणी है
भिक्षुक को दाता बतलाना। 

ऐसे गीत कोई सिद्ध गीतकार ही लिख सकता है, जिसमें प्रगति की आहट भी है और यथार्थ अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है। इसी प्रकार के अनेक गीत इस संग्रह में व्याप्त हैं, जो आकर्षित करते हैं। अंतर्मन का स्पर्श करते हैं और चेतना को झकझोर कर सोचने को विवश करते हैं जैसे- 

बिकने के चलन में यहाँ 
हम-तुम बाजारों में हैं

बेटे का प्यार बिका है
माँ का सत्कार बिका है
जीवनसाथी का पल-पल
महका शृंगार बिका है
विवश जो करे क्रय पीड़ा
ऐसे व्यवहारों में हैं।

‘अथवा’ 
चाह स्वर्णिम भोर की
आकर बौने जागरण के
प्रावधनों की उलझती
भीड़ जीवन हो गई है।

‘अथवा’
आ गिलहरी फिर ठुमककर
नाच क्यारी और
छत-आँगन-अटारी
एक तेरी सादगी के साथ
तन-मन जी उठेगा
पीर के भीतर दबा
कोई समर्पण जी उठेगा
है रहा जीवन सदा से
एक लेकिन की उधरी। आदि

अनेक विचारकों ने गीत का उत्स विरह-वेदना से माना है, किंतु मेरा विचार है कि प्रीति ही गीत को जन्म देने के लिए पर्याप्त है जो देश के प्रति, समाज के प्रति, परिवार के प्रति अथवा किसी शिशु के प्रति भी हो सकती है। गीत में भावना मुख्य होती है, योग्यता का स्थान नहीं है। अध्कि योग्य व्यक्ति गीत लिखने में असमर्थ होते हैं, परंतु यह आश्चर्य का विषय है कि श्री गौरव जी योग्य भी हैं और अच्छे गीतकार भी हैं, साथ ही निरंतर प्रगतिशील हैं। गौरव जी के इस संग्रह की यात्रा करने के उपरांत मैं समझ सका कि उनकी गीत-संवेदना विरह-वेदना से उत्पन्न है। वे भाव प्रधान रचनाकार हैं, किन्तु कालांतर में वे व्यष्टि से समष्टि की ओर निरंतर गतिशील हैं अर्थात् उनकी साधना को लक्ष्य की प्राप्ति में विलंब नहीं है। किंतु प्रायः नवगीत के खुरदरेपन और कठोर यथार्थ से मुक्ति लेकर उनका रचनाकार गीत में भी शांति की तलाश करता है, यथा-

फिर से कोई गीत लिखूँ मन कहता है
फिर तुमको मनमीत लिखूँ मन कहता है

उलझे-बिखरे टूटे रिश्तों के धागे 
जोड़ नहीं पाये हम जीवन भर भागे
अहम् छोड़ कर प्रीत लिखूँ मन कहता है

वह सावन जिसमें न मिले तुम बस मैं था
वह आँगन जिसमें न रहे तुम बस मैं था
पीड़ा की वह रीत लिखूँ मन कहता है

निष्ठुर हो तुम जितने, उतने कोमल हो
जितना बिसराते हो, उतने विह्नल हो
चाहत का संगीत लिखूँ मन कहता है।

भले ही यह रचना गीत की श्रेणी में आती हो, किंतु इसमें नवता का अभाव नहीं है। वस्तुतः गीत-नवगीत दोनों अन्योनाश्रित हैं जिनका मूल एक ही है। परिवर्तन समय की माँग है और अनजाने भी सृष्टि की प्रत्येक वस्तु, विचार, अवधारणा, भाषा, शिल्प परिवर्तित होते रहते हैं। इस क्रम में गौरव जी के सृजन में भी परिवर्तन हो रहा है जिससे हमें पूरी उम्मीद है कि उनका आगामी संग्रह नवगीतों का ही प्रकाशित होगा। सुविचारित कथ्य को अनुकूल भाषा, शिल्प में नवता के साथ बाँधने में वे पूरी तरह सफल हैं। निश्चित रूप से गीत-नवगीत के जगत में इस कृति को यथोचित सराहना एवं प्रशंसा प्राप्त होगी। गौरव जी में अंतर्निहित संभवानाओं के प्रति मैं आशावान हूँ और उनके सुयश की कामना करता हूँ।


समीक्षक : मधुकर अष्ठाना 
विद्यायन, एस.एस. 108-9
सेक्टर-ई., एल.डी.ए. कालोनी
कानपुर रोड, लखनऊ - 226012
अचलभाष: 0522-2437901
सचलभाष: 09450447579

Sanjhee Sanjh by Anand Kumar Gaurav

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