समीक्षित कृति : दिन क्या बुरे थे! (नवगीत संग्रह)
कवि : वीरेन्द्र आस्तिक
प्रकाशक : कल्पना प्रकाशन, बी-1770,
जहांगीरपुरी, दिल्ली - 33
मो. - 09826420452
वर्ष : 2012, मूल्य : 250/-, पृष्ठ : 150
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ख्यातिलब्ध कवि श्री वीरेन्द्र आस्तिक के नवीन गीत संग्रह से गुजरते हुए मेरी स्मृति में मेरे गुरू आ गए। मेरे गुरू डाॅ प्रेम शंकर कहा करते थे कि ऐसा कभी संभव नहीं होता कि रात को आप डाका डालें और सुबह बैठकर ‘कामायनी’ लिखने लगे। पहले हमें अपने भीतर की यात्रा करनी पड़ती है यानी अपने भीतर का रचाव। यह रचाव ऊर्जा-ऊष्मा सम्पन्न होकर प्रज्ञा शिखर की सीढ़ियां दिखलाता है और मनुष्य अपनी सामाजिक आध्यात्मिक चेतना से आप्लावित हो उठता है। वीरेन्द्र आस्तिक का कवि आत्मस्थ और ऊर्जावान होकर चैतन्य होने की बात कहता है। जाहिर है कि उसकी साहित्यिक मान्यताएँ और धारणाएं उच्चकोटि की सर्जना के सही मानदंड है।
एक सार्थक रचना अपने समय से साक्षात्कार करती हुई उससे टकराने और मुठभेड़ करने का माद्दा भी रखती है। वह जमीनी हक़ीकत का सामना करते हुए परिवेशगत सच्चाइयों का समूचा परिदृश्य पेश करती है और बेहतर जीवन जीने की तलाश का उपक्रम बन जाती है। साहित्य की कोई भी विधा सामाजिक दायित्व से किनाराकशी नहीं कर सकती और न बदलते युग के तेवरों को अनदेखा कर सकती है। वह बदलते समय की नई प्रचलित शब्दावली को भी अनसुना नहीं कर सकती। हमें इस सत्य को स्वीकारना होगा कि कला जीवन के लिए हैं। जीवन की विकासशील धारा में मनुष्य के आत्यांतिक कल्याण को ओझल नहीं किया जा सकता।
हमें इस बात की सहज प्रसन्नता है कि वीरेन्द्र आस्तिक अपनी बहुआयामी गीत-यात्रा में मानव हित, नैतिक मूल्य, अन्वेषण तथा ज्ञात से अज्ञात को जानने की कोशिश को सर्वोपरि मानते हैं। रचनाकार का निर्विकार मन स्वतः ही संवेदनाओं की गहराई के साथ मानवता से जुड़ जाता है। वीरेन्द्र की खोज का विषय यह है कि -
वो क्या है जो जीवन-तम में
सूरज को भरता है
पतझर की शुष्क, थकी-हारी
डाली में खिलता है।
गीतों में हमेशा एक ही विचार, भाव या घटनाक्रम की अन्विति का शुरू से अंत तक निर्वाह किया जाता है। रचनाकार अपनी अनुभूतिजन्य वैचारिकता या विचारजन्य अनुभूति से यहां-वहां भटक नहीं सकता अन्यथा गीत अपनी समग्रता में प्रभावहीन हो जाता है। गीत की जो उठान शुरू में होती है वही उठान समापन तक बनी रहना चाहिए। गेयता तथा संक्षिप्तता की दृष्टि से भी आस्तिक के गीत निर्दोष हैं। मशीनीकरण के युग में भी वे अपनी प्रकृति-जन्य संवेदना और विचार जन्य संवेदना को छोड़कर व्यवसायी-संवेदना के शिकार नहीं हुए।
वीरेन्द्र के पास, पैनी अभिव्यक्ति हैं। शब्द और अर्थ सहचर हैं। अबूझ को सहज बनाते हैं। पैनी अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है कि सार्थक शब्दों का मिव्ययता से प्रयोग हो- ‘आओ! बोलो वहाॅ, जहां शब्दों को प्राण मिले/पोथी को नव अर्थो में पढ़ने की आॅख मिले/ बोलो आमजनों की भाषा/ खास न कोई बाकी।' हम इक्कसवी सदी के दूसरे दशक में जा रहे हैं फिर हमारी भाषा बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध की क्यों हो? बासी-तिबासी अभियक्ति से बचने के लिए जरूरी है कि हम आज की प्रचलित नयी शब्दावली को काव्यात्मकता प्रदान करें या पुराने शब्दों में नयी अर्थवत्ता को भरने की कोशिश करें। वीरेन्द्र आस्तिक ने नये समय की कम्प्यूटराइज्ड शब्दावली को अपनाकर गीतों को नयी कल्पना और ताजगी प्रदान की है जो काबिलेतारीफ है। विण्डो, मेमोरी, चैटिंग, कूल, मार्केटिंग, ग्लोबल, वायरस, एण्ट्री, संसेक्स और केमिस्ट्री आदि शब्दों को काव्य-माला के धागे में पिरोकर कवि ने युगानुरूप नयापन लाने का प्रयास किया है।
कई गीतों में रचनाकार ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ऐसा ‘कान्ट्रास्ट’ पैदा किया है कि हम अतीत और वर्तमान की सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का तुलनात्मक विश्लेषण करने पर बाध्य हो जाते हैं। ‘जंगे-आजादी के ‘दिन क्या बुरे थे’ या ‘अब न पहले सी रहीं ये लड़कियाॅं’ जैसी पंक्तियां इसका प्रमाण है।
वीरेन्द्र की प्रकृति जन्य संवेदना उन्हें टेेसू, मंजरी, कोयल, निबुआ-अंबुआ, जमुनिया, बनस्थली की ओर ले जाती है और वे प्रकृति-सुदंरी के रोमानी रूप में खो जाते हैं। गीतकार को इस बात की बड़ी शिकायत है कि हमारी संवेदनाएं पथरा गई हैं। 'तोते को पिंजड़े का डर है', प्यासी चोचों और जलते हुए नीड़ों ने जीवन से मोह भंग कर दिया है। सेक्स, क्राइम तथा मीडिया बाजार में हमें किसानों तक की चिंता नहीं रही- ‘लग न जाए रोग/ बच्चों को/ कुछ बचा रखिए/ जमीनी चेतना/ अब कहां वो आचरण/ रामायणी/ पाठ से बाहर हुई/ कामायनी।' रचनाकार को इस बात की पीड़ा है कि -
मुखड़ा मोहक आजादी का
पाॅव धॅसे लेकिन कीचर में।
मेरी स्पष्ट धारणा है कि जब तक माँ-पिता के वात्सल्य पूर्ण त्याग और संरक्षण को हार्दिक श्रद्धा के साथ नहीं देखा जाता तब तक स्वस्थ समााजिकता संभव नहीं। परिवार जन्य संस्कार ही योग्य नागरिकता का और जीवन का शुद्ध पाठ पढ़ा सकते हैं। ‘माँ’ पर कविता की कुछ मर्मस्पर्शी पंक्तियां देखिये -
माँ
तुम्हारी जिंदगी का
गीत गा पाया नहीं
आज भी इस फ्लैट में तू ढू़ंढ़ती छप्पर
झूठे बासन माॅजने को जिद्द करती है
आज भी बासी बची रोटी न मिलने पर
बहू से दिन भर नहीं तू बात करती है
मैं न सेवा कर सका
अर्थात्
असली धन कमा पाया नहीे।
इसी तरह पिता का स्वतंत्रता संग्राम याद करते हुए गीतकार की चिंता का विषय, बालू पर लोट रहे, कंचे खेल रहे घरौंदे बनाते हुए बच्चों पर केन्द्रित होता है क्योंकि देश का भावी नक्शा इन्हीं के जिम्मे हैं। चाहे हरित वन का मनुष्यों की स्वार्थपूर्ण आरी से काटने की बात हो, या नदियों के जल-बॅटवारे की, चाहे कश्मीर-गोधरा हादसे का दर्द हो या औरत पर पुरूष दासता की नीयत- सब पर वीरेन्द्र की कलम चली है। अखिल सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध इसी का नाम है या फिर साॅसों की डिबिया में ब्रह्मांड का समा जाना’ भी कहा जा सकता है। ‘स्व’ से ‘पर’ के विस्तारण की कोई हद नहीं होती। फिर भी निराशा-अवसाद-अनास्था का स्वर नकारात्मकता की ओर नहीं जाता- ‘इस महानाश में/ नव-संवेदन/ मुझको रचना होगा। हारा-सा सूना खंडहर हॅू/ बिरवा-सा उगना होगा।' यह आशापूर्ण संघर्ष का स्वर है।
जाहिर है वीरेन्द्र आस्तिक ने नए शब्द-विन्यास और अभिनव शैली-शिल्प से गीतों को संवारा है, नई धुनें दी है और इस मिथक को तोड़ने में सबसे ज्यादा हाथ बँटाया है कि गीतों के लिए तो बस दो दर्जन शब्दावली पर्याप्त है- हथेली, मेंहदी, महावर, चांदनी, सागर, लहर, .........मुखड़ा, चमेली आदि। वे आधुनातन शब्द विन्यास के पक्षधर हें और इस मामले में अपने ही तटबंधों का अतिक्रमण करते हैं। विषय-वैविध्य इतना है कि इस प्रतिस्पर्धा में गीत-नवगीत नयी कविता का ग्राफ लगभग एक सा है। मेरी विनम्र राय में वीरेन्द्र आस्तिक नयी कविता को गीत-नवगीत के जवाब हैं।
समीक्षक :
(स्व) डाॅ संतोष कुमार तिवारी
(सागर (म.प्र.) के एक बड़े आलोचक-लेखक के रूप में जाने जाते रहे। आज वह हमारे बीच नहीं हैं। उनकी पावन स्मृतियों को नमन।)
अच्छी समीक्षा. खोजकर पढ़ूँगा .
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