पंकज त्रिवेदी |
हिन्दी और गुजराती के सुपरिचित रचनाकार और ‘विश्वगाथा’ के संपादक पंकज त्रिवेदी का जन्म 11 मार्च 1963 गुजरात के सुरेंद्रनगर के पास खेराली गाँव में हुआ। संप्राप्तकथा (लघुकथा-संपादन-गुजराती), भीष्म साहनीनी श्रेष्ठ वार्ताओ (भीष्म साहनी की श्रेष्ठ कहानियाँ-हिंदी से गुजराती अनुवाद), अगनपथ (लघुउपन्यास-हिंदी), आगिया (जुगनू-रेखाचित्र संग्रह-गुजराती), दस्तख़त (सूक्तियाँ-गुजराती), माछलीघरमां मानवी (मछलीघर में मनुष्य-कहानी संग्रह-गुजराती), झाकळना बूँद (ओस के बूंद-लघुकथा संपादन-गुजराती), कथा विशेष (कहानी संग्रह संपादन- गुजराती), सामीप्य (स्वातंत्र्य सेना के लिए आज़ादी की लड़ाई में सूचना देनेवाली उषा मेहता,अमेरिकन साहित्यकार नोर्मन मेलर और हिन्दी साहित्यकार भीष्म साहनी के साक्षात्कार पर आधारित संग्रह), मर्मवेध (निबंध संग्रह-गुजराती) तथा झरोखा (निबंध संग्रह-हिन्दी) आदि आपकी कृतियाँ काफ़ी चर्चित रहीं। पिछले वर्ष आपका निबंध संग्रह ‘झरोखा’ गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत। आपने 1994 में गुजराती के जाने-माने कवि श्री मीनपियासी के जीवन पर फ़िल्माई गई दस्तावेज़ी फ़िल्म का लेखन और दिग्दर्शन किया। संप्रति: श्री. सी.एच. शाह मैत्री विद्यापीठ महिला कॉलेज, सुरेन्द्रनगर, गुजरात में प्राध्यापक। ई-मेल: pankajtrivedi102@gmail.com
खिडकी से आती धूप
न जाने कब मेरे अंदर तक उतर जाती है
और एक नई ताकत के साथ दिनभर की
ऊर्जा भर देती है मुझमें
किताबों के पन्नों पर खिलती धूप से
काले अक्षर भी सुनहरे बन जाते हैं
और मेरे मन को समृद्ध कर देते हैं
अच्छे विचारों से उभरते शब्द मेरे
मेरे अंदर जी रहे संवेदनशील इंसान को
नेक कार्यों के लिये आगे बढने को सदा
प्रोत्साहित करते रहते हैं
यही सुनहरी धूप
मेरे गाँव के खेतों में मिली थी मुझे
जो लहलहाते पौधों को
नया जीवन देती है और उन्हीं पौधों ने
ठंडी हवाओं की झप्पीयों से डोलते हुए
मेरा स्वागत किया था
इसी धूप ने मेरे गाँव के बड़े से तालाब के
पानी पर नृत्य करते हुए मेरी आँखों को
चकाचौंध कर दिया था और मैं उसके तेज से
मेरे भीतर दिव्य उजास फैल गया था
मेरी प्रसन्नता बढ़ाती हुई ये धूप आज भी
मेरे पर बरस रही है
जैसे कि मेरी मेहनतकश माँ के आशीर्वाद!
(2) जीतकर भी हारता रहा
इस हवा का रूख बदलना तय था
तुम्हारे सपनों का बदलना तय था
उम्र गुज़रती है दिन-प्रतिदिन मगर
तुम्हारा डेरा डालना भी तय था
नया जीवन देती है और उन्हीं पौधों ने
ठंडी हवाओं की झप्पीयों से डोलते हुए
मेरा स्वागत किया था
इसी धूप ने मेरे गाँव के बड़े से तालाब के
पानी पर नृत्य करते हुए मेरी आँखों को
चकाचौंध कर दिया था और मैं उसके तेज से
मेरे भीतर दिव्य उजास फैल गया था
मेरी प्रसन्नता बढ़ाती हुई ये धूप आज भी
मेरे पर बरस रही है
जैसे कि मेरी मेहनतकश माँ के आशीर्वाद!
(2) जीतकर भी हारता रहा
इस हवा का रूख बदलना तय था
तुम्हारे सपनों का बदलना तय था
उम्र गुज़रती है दिन-प्रतिदिन मगर
तुम्हारा डेरा डालना भी तय था
मौसम के साथ तुम कदम मिलाती हो
और मैं बिन मौसम-सा खड़ा हूँ ठूंठ बनकर
गज़ब के अरमाँ पल रहे है तेरे ज़हन में
और मैंने सपनों को भी कुरबान कर दिया
और मैं बिन मौसम-सा खड़ा हूँ ठूंठ बनकर
गज़ब के अरमाँ पल रहे है तेरे ज़हन में
और मैंने सपनों को भी कुरबान कर दिया
हालातों से तुमने जो खेल खेला है
उन हालातों से जीतकर भी हारता रहा
कोई तो होगा तुम्हारी मंज़िल के नाम
मेरी मंज़िल पे तुम्हारा नाम ही लिखा था
मेरे ऐ दोस्त! क्या पता था मुझे कि
मंज़िल को भी अपनी मंज़िल ढूंढनी पडती है!
(3) तुम भी शायद
उन पहाड़ियों से
उतरती पगडंडी पर चलती हुई
मध्यरात्रि को तुम चुपके से आती हो
और मैं अपने फ़ार्म हाउस में
मोमबत्ती के सहारे अपने अतीत को
खंगालता हुआ कविता लिखता रहता हूँ
और न जाने कब काँच की खिडकी से
झांकती हुई तुम
मेरे दिल में उतर जाती हो और मैं
अपनी कलम को उसी अतीत में डुबोकर
लम्हा-लम्हा आलेखता हुआ
फिर से तुम्हारे साथ एक नई ज़िंदगी
बसर करने का मन मनाता हूँ मगर
देखता हूँ तो मेरे अहसासों की स्याही अब
बर्फ बन गई हैं और तुम भी शायद
ऐसा ही महसूस करती हुई
लौटने लगती हो उसी पगडंडी से
पहाड़ियों की ओर
जिसके उस पार कल्पना भी नहीं
पहुँच पाती।
(4) मैं तो इंसान हूँ
चंद दिनों की तो बात थी
मेरी व्यस्तता भी तुम्हें मंज़ूर न थी
एक बार कह भी दिया होता
आसमाँ पर
उन हालातों से जीतकर भी हारता रहा
कोई तो होगा तुम्हारी मंज़िल के नाम
मेरी मंज़िल पे तुम्हारा नाम ही लिखा था
मेरे ऐ दोस्त! क्या पता था मुझे कि
मंज़िल को भी अपनी मंज़िल ढूंढनी पडती है!
(3) तुम भी शायद
उन पहाड़ियों से
उतरती पगडंडी पर चलती हुई
मध्यरात्रि को तुम चुपके से आती हो
और मैं अपने फ़ार्म हाउस में
मोमबत्ती के सहारे अपने अतीत को
खंगालता हुआ कविता लिखता रहता हूँ
और न जाने कब काँच की खिडकी से
झांकती हुई तुम
मेरे दिल में उतर जाती हो और मैं
अपनी कलम को उसी अतीत में डुबोकर
लम्हा-लम्हा आलेखता हुआ
फिर से तुम्हारे साथ एक नई ज़िंदगी
बसर करने का मन मनाता हूँ मगर
देखता हूँ तो मेरे अहसासों की स्याही अब
बर्फ बन गई हैं और तुम भी शायद
ऐसा ही महसूस करती हुई
लौटने लगती हो उसी पगडंडी से
पहाड़ियों की ओर
जिसके उस पार कल्पना भी नहीं
पहुँच पाती।
(4) मैं तो इंसान हूँ
चंद दिनों की तो बात थी
मेरी व्यस्तता भी तुम्हें मंज़ूर न थी
एक बार कह भी दिया होता
आसमाँ पर
अपने बादशाही आधिपत्य के बावजूद
सूरज भी शाम होते हुए इसी
धरती की आगोश में समा जाता है
मैं तो इंसान हूँ।
(5) नाम नहीं...!
तुम्हारे चेहरे को मैं यहाँ से पढ़ सकता हूँ
तुमको मैंने दोस्त कहा
यानि हम समान है
उम्र और विचार से भी हम समान दोस्त हैं
तुम्हें मेरे लिए सम्मान है तो मुझे भी
हम एक-दूजे को समझते हैं
धरती की आगोश में समा जाता है
मैं तो इंसान हूँ।
(5) नाम नहीं...!
तुम्हारे चेहरे को मैं यहाँ से पढ़ सकता हूँ
तुमको मैंने दोस्त कहा
यानि हम समान है
उम्र और विचार से भी हम समान दोस्त हैं
तुम्हें मेरे लिए सम्मान है तो मुझे भी
हम एक-दूजे को समझते हैं
हमें जब दोस्त बनाया तो नॉट गुड, नॉट बेड
क्यूंकि- प्रत्येक इंसान चाहता है
पूरे परिवार के बावजूद... कोई ऐसा हो,
जिसे हम सबकुछ कह सके खुले मन से
ये मानव स्वभाव है
कोई इससे परे नहीं
अब तुम कहो, मै गलत हूँ?
अहसासों के इस रिश्ते को
मैंने भी स्वीकार किया है
जानता हूँ कि हम दोनों
किसी ऐसी डगर पर आये हैं,
जहाँ पहुँचना हमारा मन भी चाहता था
जो सबकुछ मिलकर भी अधूरा था
शायद वही सबकुछ हम एक-दूजे से पा रहे हैं
हाँ शायद ऐसा ही है
इस संबंध का नाम नहीं,
शरीर नहीं, मौजूदगी भी नहीं-
फिर भी यह सब है हम दोनों के साथ
इन सब के साथ ही हम मिलते है
और यही अहसास हमारे दिल को –
मन को अच्छा लगता है
तुम्हारे पास सबकुछ है,
क्यूंकि- प्रत्येक इंसान चाहता है
पूरे परिवार के बावजूद... कोई ऐसा हो,
जिसे हम सबकुछ कह सके खुले मन से
ये मानव स्वभाव है
कोई इससे परे नहीं
अब तुम कहो, मै गलत हूँ?
अहसासों के इस रिश्ते को
मैंने भी स्वीकार किया है
जानता हूँ कि हम दोनों
किसी ऐसी डगर पर आये हैं,
जहाँ पहुँचना हमारा मन भी चाहता था
जो सबकुछ मिलकर भी अधूरा था
शायद वही सबकुछ हम एक-दूजे से पा रहे हैं
हाँ शायद ऐसा ही है
इस संबंध का नाम नहीं,
शरीर नहीं, मौजूदगी भी नहीं-
फिर भी यह सब है हम दोनों के साथ
इन सब के साथ ही हम मिलते है
और यही अहसास हमारे दिल को –
मन को अच्छा लगता है
तुम्हारे पास सबकुछ है,
फिर भी मेरी भी जगह है अलग
शायद तुम भी इसी तरह मेरे अंदर हो
तुम मुझसे जुदा नहीं हो... कही भी
शायद धड़कने लगी हो मेरे साथ
सच कितना अच्छा लगता है...है न?
शायद तुम भी इसी तरह मेरे अंदर हो
तुम मुझसे जुदा नहीं हो... कही भी
शायद धड़कने लगी हो मेरे साथ
सच कितना अच्छा लगता है...है न?
सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंप्रिय संदीप तोमर जी,
हटाएंमेरी रचनाओं को पसंद करने के लिए दिल से शुक्रिया
मेरी रचनाओं को 'पूर्वाभास' में प्रकाशित करके मुझे विशेष सम्मान देने के लिए मैं पूरी टीम और डॉ. अवनीश सिंह चौहान का विशेष रूप से आभारी हूँ | - पंकज त्रिवेदी
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अति सुंदर
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