पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

शनिवार, 6 जून 2015

‘कविता का ‘क’ : छन्दोबद्ध काव्य के विविध आयामों से परिचित कराती — राजेंद्र वर्मा

कृति : कविता का 'क'
कृतिकार : डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ‘मृदुल’
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, 
210, चिंटल्स हाउस, स्टेशन रोड, लखनऊ  
संस्करण : प्रथम, 2014 
मूल्य: 200 रुपये 

डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ‘मृदुल’ हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं में सृजनरत लोकप्रिय कलाकार हैं. गीत-नवगीत, ग़ज़ल, कहानी, निबंध-समीक्षा आदि विधाओं में वे साधिकार लेखन करते हैं. अब तक उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें पांच गीत-ग़ज़ल-मुक्तक आदि की हैं. समीक्ष्य पुस्तक, ‘कविता का ‘क’ उनकी नवीनतम कृति है. यह हिंदी छंदोबद्ध काव्य की विभिन्न विधाओं- गीत, ग़ज़ल, घनाक्षरी छंद आदि में उद्धरणीय रचनाओं अथवा उनके रचनांशों सहित काव्य-विमर्श की सहज और सार्थक प्रस्तुति देने वाले निबंध की श्रेणी तक पहुँचने वाले लेख है. 

पुस्तक तीन खण्डों में व्यवस्थित की गयी है- प्रथम खंड है- ‘काव्य-विमर्श’, जिसमें कविता का ‘क’, कविता और वक्रोक्ति, कविता और अलंकार, कविता और संवेदना, कविता की भाषा, कविता और छंद, गीत बनाम नवगीत, हिंदी साहित्य में ग़ज़ल आदि विषयों पर १९ लेख हैं. दूसरे खंड में ‘हिंदी काव्य में ऋतुएँ एवं पर्व’ पर ८ लेख हैं. तीसरे और अंतिम खंड में ‘कवि और उनकी काव्य-साधना’ शीर्षक के अंतर्गत ६ लेख दिए गये हैं. ये विभूतियाँ हैं- गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, जगदम्बा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’, श्रीनारायण चतुर्वेदी ‘श्रीवर’, रामजी दास कपूर, नीलम श्रीवास्तव और अम्बिकेश शुक्ल. तीनों खण्डों के लेख रचनाकार के अनुसार, ‘चेतना साहित्य परिषद्’, लखनऊ द्वारा प्रकाशित, ‘चेतना स्रोत’ पत्रिका के स्तम्भ- ‘चिंतन’ के लिए लिखे गये हैं जो, “कभी फ़ुर्सत में सोच-विचार कर और कभी व्यस्तताओं के बीच हड़बड़ी में लिखे गये हैं. अतः इन लेखों को विभिन्न कव्यांगों, हिंदी काव्य और सम्बंधित कवियों पर मेरे निजी विचार के रूप में लिया जाना चाहिए. निजी आग्रहों के कारण नयी कविता, नवगीत आदि काव्य के अनेक रूपों पर व्यक्त मेरे विचार से मनीषियों की असहमति होना भी स्वाभाविक ही है....”

रचनाकार की कविता के भविष्य के प्रति गहरी आस्था है. शीर्षक लेख, ‘कविता का ‘क’ में वह कहता है- “प्रायः सुनने में आता है की आज के भौतिकवादी युग में कविता मर गयी है. अभियांत्रिकी व्यवस्था में फँसी-बझी ज़िन्दगी में कविता चूर-चूर होकर बिथर गयी है. किन्तु यह सही नहीं है. कविता थी, है और रहेगी. कविता उस दिन मारेगी जिस दिन आत्मा मर जाएगी, क्योंकि कविता तो आत्मा की लय और उसका संगीत है. आत्मा यदि अजर-अमर है, तो कविता भी अजर-अमर है. उसके अस्तित्त्व को कोई खतरा नहीं है. सच कहा जाये, तो न केवल कविता, वरन उसका सर्जक भी जरा-मरण से परे है और ‘कबीर’ के शब्दों में वह बेधडक कह सकता है- ‘हम न मरब, मरिहै संसारा/हमकूं मिल्या जियावण हारा!”
कविता की वर्तमान स्थिति को लेकर रचनाकार को यह चिंता सालती है कि आज कविता के नाम पर खर-पतवार अधिक उगा है. मुद्रण तकनीक के विकास के दुष्परिणामतः कविता के नाम पर कुछ भी छपाया जा रहा है. इससे कविता, ‘वाक्यं रसात्मकं हि काव्यं’ की विस्तृत फलक वाली परिभाषा से भी छिटक कर बाहर आ गयी है. ऐसे-ऐसे क्लिष्ट गद्यांशों को कविता के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्हें पढ़कर रसानुभुति तो दूर, सिरदर्द की दवा खोजनी पड़ती है. कविता के कालजयी स्वरूप को दर्शाने हेतु वह रहीम के इस दोहे के दो चरणों को प्रस्तुत करता है:

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून.
पानी गये न ऊबरे, मोती-मानुस-चून.


वह कहता है, “कविता तो वह जादू है, जो दूसरों के सर चढकर बोलता है. महाकवि रहीम ने बस एक बार कह दिया कि- ‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून’ उसके बाद तो दुसरे लोग ही इसे दोहरा रहे हैं. रहीम न तो अब इस काव्यांश को कह रहे हैं और न सुन रहे हैं, किन्तु इसे लगातार शताब्दियों से कहा-सुना जा रहा है. यही वह कविता है जो कालजयी है. कालजयी कविता अपने सर्जक को भी अमरत्व प्रदान करती है.” अपनी शक्ति के बल पर कविता कैसे सामाजिक मुहावरे के रूप में बदल जाने का जादू दिखाती है? यह रचनाकार ने उपर्युक्त रचनांश में बहुत ही सलीके से बताया है.
इस प्रकार के अन्य उद्धरण लेख को पठनीय और महत्वपूर्ण बनाते हैं, वह चाहे अनुभवजन्य सत्य को कविता का विषय बनाना हो, संवेदना के स्तर पर ह्रदयस्पर्शी अथवा कलात्मक अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना हो. अपनी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए वह बहुश्रुत छंदों की बानगी भी देता है, यथा:
                
अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं,
तहां सांचे चलैं तजि आपुनपौ, झझकै कपटी जे निसाँक नहीं.

xx xx

सीस पगा न झगा तन पै, प्रभु जानै को आहि बसै केहि ग्रामा.
धोती फटी सी लटी दुपटी, अरु पांय उपनाहु की नहिं सामा. 


xx xx
कूलन में, केलि में,कछारन में, कुंजन में, क्यारिन में, कलिन कलीन, किलकंत है.
बीथिन में ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में, बनन में, बगर_यो बसंत है.

कविता अभिव्यक्ति की पारंपरिक शैली की मोहताज़ नहीं होती- इसे सिद्ध करने के लिए  रचनाकार नागार्जुन की उन पंक्तियों का उल्लेख करता है जो उन्होंने महारानी एलिजावेथ द्वितीय के भारत आगमन पर कांग्रेस पार्टी के स्वागत-निर्णय पर लिया था:
               
आओ, रानी! हम ढोयेंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की.
        
रचनाकार का मत है कि अधिकाधिक काव्य-सृजन से अधिक महत्वपूर्ण है श्रेष्ठ काव्य का सृजन. इससे पूर्व कविता की समझ का विकास आवश्यक है जिसके लिए योग्य गुरु की आवश्यकता है. स्वाध्याय द्वारा भी अपनी समझ को विकसित किया जा सकता है.
        
कृति का दूसरा खंड है- ऋतुओं और पर्वों में काव्य के वर्णन का. अपना देश 6 ऋतुओं के चक्र से सुसज्जित है. वसंत कवियों का मनभावन रहा है. वसंत बुद्धि की देवी सरस्वती पूजन के दिन से होलिका-दहन तक अपनी प्रभा बिखेरता है.  रचनाकार ने वसंत ऋतु तथा होली पर विभिन्न कवियों के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं जो पाठक के ह्रदय को रस से भर देते हैं. महाकवि देव, मतिराम, ठाकुर प्रसाद मिश्रा, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. भगीरथ मिश्र, द्विजदेव, हरिऔध, नीरज, जानकीबल्लभ शास्त्री, सूर्य भानु गुप्त, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. इसाक अश्क, नचिकेता, राधेश्याम बंधु, कैलाश गौतम आदि. महाकवि देव का वसंत पर यह छंद कालजयी है:
                
डार दुम पलना, बिछौना नव पल्लव के, सुमन झंगूला सोहै तन छवि भारी दै.
पवन झुलावै केकी कीर बहरावै ‘देव’, कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै.
पूरित पराग सों उतारो करै राई लोन, कंज कलि नायिका लतानि सिर सारी दै.
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि, प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै.

इसी लेख में, होली पर, नयी कविता के पुरोधा कवि, डॉ. जगदीश गुप्त के सवैया छंद की छटा भी कुछ कम द्रष्टव्य नहीं:

मारि गयो पिचकारी अचानक, थोरी सरीर पै थोरी हिये में.
भीजि गयी सगरी अंगिया, रसधार बही बरजोरी हिये में.
चोरति प्रीति, निचोरति चीर, संकोचति-सोचति गोरी हिये में.
भाल अबीर, गुलाल कपोलनि, नैननि मैं रंग, होरी हिये में.

लेख ‘फागुन फगुनाया है’ और ‘आँखिन-आँखिन खेलत होरी’,  में फाग, फगुआ, होरी, होली की मस्ती बिखरी पड़ी है. पद्माकर के इस बहुश्रुत छन्द के बिना बात जैसे अधूरी है:

फाग की भीर अबीरन में, गहि गोविन्द लै गई भीतर गोरी.
भाइ करी मन की पद्माकर, ऊपर नाइ अबीर की झोरी.
छीनि पितम्बर कम्मर तें, सु विदा दई मीजि कपोलन रोरी.
नैन नचाइ कह्यो मुस्काइ, लला फिर आइयो खेलन होरी.


अन्य लेख, ‘हिंदी काव्य में शरद-सुषमा’ में रचनाकार ने आज के अनेक कवियों के छंदों को स्थान दिया है. इनमें प्रमुख हैं: भानुप्रताप सिंह ‘भानु’, अम्बिकेश शुक्ल, डॉ. लक्ष्मीशंकर निशंक, डॉ. भगीरथ मिश्र व रामजी दास कपूर. इसी खंड में वर्षा ऋतु, ग्रीष्म पर भी कवितायेँ संकलित की गयी हैं.

‘दहकती धूप की छवियाँ’ नामक लेख में रचनाकार मानता है कि हेमंत और ग्रीष्म, दो ऐसी ऋतुएं हैं जिनमें अन्य ऋतुओं की अपेक्षा काम काव्य-सृष्टि हुई है, पर प्रातिभ कवियों ने इन पर भी बड़े मनोहारी काव्यदृश्य उपस्थित किये हैं. बिहारी, सेनापति, शेखर भट्टाचार्य, पन्त, शिव ओम अम्बर, बुद्धिनाथ मिश्र, यश मालवीय आदि की काव्य-पंक्तियाँ भी दी गयी है. बिहारी का दोहा अदभुत है:

कहलाने एकत बसत, अहि-मयूर, मृग-बाघ.
जगत तपोवन सो कियो, दीरघ दाघ निदाघ.

ग्रीष्म ऋतु स्नेह संबंधो पर कैसे भारी पड़ती है? यह किसी समर्थ कवि की लेखनी से ही निसृत हो सकता है. शेखर भट्टाचार्य के छंद की ये पंक्तियाँ देखिए:

‘शेखर’ कहाँ लौ कहों करनी कठिन तेरी, मोह को, मया को महा प्रेम-तार तूरी तैं,
कीन्हो है विलग माँ सों पूत, पतिनी सों पति, नीरस निठुर ऐसो ग्रीषम गरूरी तैं
.

कवि और कविता वही है जो कुछ अनकहा कहे. यश मालवीय गर्मी के मौसम के चित्रण में सामाजिक और राजनैतिक विद्रूपता को रेखांकित करते हैं:

बंटवारे हो रहे धूप में छाँव के,
प्यास जी रहे कुएं हमारे गाँव के.


इस प्रसंग में कृतिकार जो स्वयं समर्थ कवि है, ग्रीष्म की तीव्रता पर अपनी भी रचना उद्धृत करता है:

संकुचित हैं ताल/मेरे आपके मन/द्वेष के अंधे कुंए/कुछ और गहरे हो गये हैं,
चीखती फिरती हवाएं/सूर्य का आक्रोश बढ़ता जा रहा है/सख्त पहरे हो गये हैं.


‘मन के दीप जलाओ साथी’ दीपावली पर उद्धरणों पर आधारित लेख है. ‘श्रम-सीकर की सुगंध’ लेख इस खंड का प्राणतत्व प्रतीत होता है. कृतिकार का मानना है, “जिस प्रकार यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म के श्रम का सुफल है, ठीक उसी प्रकार वर्तमान सभ्यता द्वारा सदियों में अर्जित किया गया ज्ञान, विज्ञान, वैभव-सम्पदा मनुष्य के श्रम का परिणाम है.” निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता के पक्ष में खड़ा रचनाकार अनेक परिचित-अपरिचित कवियों की रचनाओं से हमें परिचित कराता है. एक रचना के अंशों का आनंद लीजिए:

खेतों-खलिहानों में, दूर खड़े धानों में
इधर-उधर सोने की खान रे!
स्रोत तू ही जीवन का मेरुदंड तू ही है
स्वेद-सुधा-बिंदु तू ही, श्रम प्रचंड तू ही है
देश का भविष्य वर्तमान रे! (आनंद वल्लभ शर्मा ‘सरोज’)


कृति के अंतिम खंड में, ‘कवि और उनकी काव्य-साधना’ के अंतर्गत गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, जगदम्बा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’, श्रीनारायण चतुर्वेदी ‘श्रीवर’, रामजी दास कपूर, नीलम श्रीवास्तव और अम्बिकेश शुक्ल के ऊपर लेख हैं. इनमें कवियों के जीवन-चरित पर टिप्पणियां हैं, तो उनकी काव्यगत विशेषताओं पर भी यथेष्ट प्रकाश डाला गया है.

कवित्त-सवैया के सिद्धहस्त कवि एवं ‘सुकवि’ के संपादक, ‘सनेही’ जी (१८८३-१९७२) की राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत रचनाएँ अविस्मरणीय हैं. उनकी ये पंक्तियाँ आज भी लोगों की जुबान पर है:

जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं,
वह ह्रदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं.


‘हितैषी’ जी (१८९५-१९५६) खड़ी बोली के समर्थ कवि तथा दृढ प्रतिज्ञ राष्ट्रभक्त थे. उन्होंने हिंदी कविता के विविध रूपों में अप्रतिम रचना की- वह चाहे सवैया छंद हो अथवा ग़ज़ल. दुष्यंत कुमार के पहले ही उन्होंने हिंदी ग़ज़ल को प्रतिष्ठित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी. उनका यह शेर आज भी हर राष्ट्रीय पर्व पर सुना-सुनाया जाता है:

शहीदों के मज़ारों पर लगेंगें हर बरस मेले,
वतन पर मिटने वालों का यही बाक़ी निशां होगा.


गंज मुरादाबाद (उन्नाव) में हितैषी जी की समाधि पर इस समीक्षा के लेखक को भी श्रद्धा-सुमन अर्पित करने एवं उनकी स्मृति में काव्यपाठ का अवसर मिला है.

श्रीनारायण चतुर्वेदी (१८९३-१९९०) कुशल प्रशासक, शिक्षक तथा मनीषी साहित्यकार थे. गद्य और पद्य में उनका समान अधिकार था. गद्य में भी उन्होंने निबंध, व्यंग्य लेख, जीवनी, संस्मरण, कला-पुरातत्व आदि पर अनेक ग्रंथों की रचना की. कविता वे ‘श्रीवर’ तथा व्यंग्य लेख ‘विनोद शर्मा’ के नाम से करते थे. हिंदी जगत में वे ‘भैया साहब’ के नाम से भी जाने जाते थे. उनके व्यंग्य साहित्य के अवदान को देखते हुए उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ “श्रीनारायण चतुर्वेदी नामित व्यंग्य पुरस्कार” वितरित करता है. संयोग से इन पंक्तियों के लेखक को वर्ष १९९९ का यह व्यंग्य-नामित पुरस्कार मिल चुका है.

नवगीतकार, नीलम श्रीवास्तव ने हिंदी कविता की सर्जना में दोहरा योगदान किया है. उन्होंने न केवल समकालीन कविता में साधिकार हस्तक्षेप किया, वरन मानक नवगीतों की भी सर्जना की. इसके अतिरिक्त उन्होंने हिंदी गीत-नवगीत की दशा और दिशा पर गहनता से विचार कर उसके समीक्षा पक्ष को गति प्रदान की. यद्यपि उन्होंने कम ही लिखा है, पर लेखन को समाज और राजनीति को दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य किया है. गीति काव्य की समीक्षा का भी कार्य उन्होंने साधा था जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित है, पर उस पर कोई पुस्तक नहीं आने के कारण उसका उचित मूल्यांकन नहीं संभव है. आम आदमी के प्रति लोकचेतना से उपजी जो गहरी संवेदना उनकी रचनाओं में दिखायी देती है, वह विरल है. उनके नवगीत भाव पक्ष और कला पक्ष, दोनों ही दृष्टियों से पुष्ट दिखायी देते है. बानगी देखिए-


खुले नहीं दरवाज़ा
तब तक, बैठो रहो भगत!
समझाया दो टूक महल के पहरेदारों ने
तुमको समय ग़लत बतलाया है अख़बारों ने
अभी तुम्हारी दीन-दशा पर बहस अधूरी है,
जब तक हो फैसला
भाग्य में जो है सहो भगत!


पुस्तक यद्यपि कविता को लेकर काफी कुछ समेटने में सफल है, पर उसकी सीमा यह है कि वह केवल छंद कविता को केंद्र में रखती है- वह भी प्रायः पुराने कवियों के सवैया-घनाक्षरी छंदों को. वर्तमान कविता के छान्दस स्वरुप पर उचटती हुई दृष्टि ही वह डाल पाती है. तत्कालीन स्त्री कवियों की ओर भी कृतिकार का ध्यान नहीं गया है, उदारहण के लिए- सुभद्राकुमारी चौहान (विशेषतः उनकी ‘बचपन’ और ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ के लिए) छायावाद की कवयित्री- महादेवी वर्मा. जयशंकर प्रसाद भी नदारद हैं. इसके अतिरिक्त, नयी कविता अथवा समकालीन कविता को कोई स्थान नहीं मिला है. आज के चर्चित कवियों को छोड़ भी दिया जाए, तो भी मुक्तिबोध, धूमिल, अज्ञेय, केदारनाथ सिंह, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवियों को कैसे छोड़ा जा सकता है. क्या उनका योगदान दृष्टि से ओझल किया जा सकता है. नयी कविता में आज भले ही में छंद की अनिवार्यता न रह गयी हो, पर अछूते विषयों पर उसकी पकड़, मानव-जीवन के अंतर्विरोधों के पड़ताल अथवा उसकी ऐन्द्रिक संवेदना की शक्ति से कैसे मुंह फेरा जा सकता है. रचनाकार स्वयम मानता है कि पुस्तक में संगृहीत लेख एक छंदोबद्ध कविता की पत्रिका के स्तम्भ के लिए लिखे गये हैं. इस लिहाज से ही पुस्तक को देखा जाना चाहिए. पर लेखक ने पुस्तक प्रकाशन से पूर्व उस पर कोई कार्य नहीं किया है, फलतः किताब बेतरतीब होकर रह गयी है. वह कविता के किसी ऐतिहासिक पहलू को भी वह पाठकों के सम्मुख नहीं रखती- चाहे वह छन्दस कविता का इतिहास हो, उसका क्रमिक हो, अथवा उसकी आज की स्थिति! १८५ पृष्ठीय पुस्तक में जैसे-तैसे लिखे ३३ लेख समाहित हैं. एक लेख के लिए साढ़े पृष्ठ का औसत आता है जिसके चलते न तो विषय की यथेष्ट विवेचना नहीं हो पायी है और न ही उसके साथ अपेक्षित न्याय. आशा की जानी चाहिए कि पुस्तक के नये संस्करण में यह कमी दूर होगी. इसके बावजूद ‘कविता का ‘क’ काव्य-प्रेमियों तथा नवोदित कवियों के लिए वरदानस्वरूप है, क्योंकि सभी लेखों में काव्य-सरसता में बिखरी हुई है जिसके कारण पुनः पुनः पठनीय हैं. अपनी विशिष्ट प्रकृति के कारण पुस्तक संग्रहणीय तो है ही. कृतिकार बधाई का पात्र है.

समीक्षक                                                

राजेंद्र वर्मा 
3/29 विकास नगर, लखनऊ.
मो. : 08009660096

ई-मेल : rajendrapverma@gmail.com                             

Dr Gopal Krishn Sharma / Rajendra Verma

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: