ऊर्जावान रचनाकार डॉ. मनोज मोक्षेंद्र का जन्म 8 अगस्त 1970 को वाराणसी, उत्तरप्रदेश, भारत में हुआ। शिक्षा: काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. एवं पीएच.डी.। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रकाशित कृतियाँ: कविता संग्रह- पगडंडियाँ, चाहता हूँ पागल भीड़, एकांत में भीड़ से मुठभेड़। कहानी संग्रह- धर्मचक्र राजचक्र और पगली का इन्कलाब। व्यंग्य संग्रह- अक्ल का फलसफा। अप्रकाशित कृतियाँ: दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), परकटी कविताओं की उड़ान (काव्य संग्रह)। सम्मान: 'भगवत प्रसाद स्मृति कहानी सम्मान-२००२' (प्रथम स्थान), रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान-2012, ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक घोषित, राजभाषा संस्थान द्वारा सम्मानित। लोकप्रिय पत्रिका "वी-विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक और दिग्दर्शक। नूतन प्रतिबिंब, राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक। आवासीय पता: सी-६६, नई पंचवटी, जी०टी० रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत। सम्प्रति: भारतीय संसद (राज्य सभा) में सहायक निदेशक (प्रभारी- सारांश अनुभाग) के पद पर कार्यरत। मोबाईल नं: ०९९१०३६०२४९। ई-मेल पता: drmanojs5@gmail.com
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मुंशीजी ने उसके कान से अपना मुँह सटा दिया, "बर्खुरदार, जब तुम कार से बाहर आते हो तो खाली अटैची भी साथ लाया करो..."
मुंशीजी को जितना भरोसा अपने ड्राइवर पर है, उतना तो उन्हें अपनी बीवी पर भी नहीं है।
वह निश्चिंत मुद्रा में वापस चैंबर में आकर अपनी चेयर पर बैठ गए। तभी अर्दली ने आकर उन्हें सलाम दाग़ा, "हज़ूर, पंडिज्जी आए हैं।"
पंडितजी के आगमन की ख़बर सुनकर उनके चेहरे की झुर्रियाँ मुस्कराने के अंदाज़ में सिमट गईं और उनके गालों पर कुल खाया-पीया माल-मलाई नज़र आने लगा। उन्होंने जैसे ही गिलास के पानी की घूँट हलक से नीचे उतारकर अपने किसी आत्मीय जन से बतरस का मजा लेने का मूड बनाया, एक अज़ीबोगरीब ताज़गी उनके व्यक्तित्व में घुलने लगी। उन्होंने गुहार लगाई, "मियाँ मुसुद्दी! पंडिज्जी को मलाई मारके अदरख की निखालिस दूध वाली चाय पिलाओ।"
पंडितजी को मुसलमान के हाथ की बनी चाय पीने में अब कोई एतराज़ नहीं है। हाँ, उन्होंने पहली बार अपना एतराज़ ज़रूर दर्ज़ कराया था, "मुंशीजी, मैं शांडिल्य ब्राह्मण हूँ जबकि आप एक मुसलमान के हाथ की बनी चाय पिलाकर मेरा परलोक बिगाड़ रहे हैं।"
तब मुंशीजी ने फलसफाना अंदाज़ में जाति और धर्म के ख़िलाफ जो तर्क-कुतर्क का बवंडर चलाया, उससे पंडितजी का सनातनी संस्कार धूल की माफिक उड़ गया। उस वाकया के कोई हफ्ते भर बाद मुंशीजी ने मुसुद्दी मियां के खानदान का लेखा-जोखा पेश किया, "पंडितजी, मुसुद्दी के पुरखे ठाकुर जमींदार थे। औरंगज़ेब के सल्तनत में सियासी फायदा उठाने के लिए उन्होंने इस्लाम कबूल किया था। वरना, तुम क्या, बाबा विश्वनाथ मंदिर के मठाधिराज को भी उसके हाथ का पानी पीकर फ़ख्र होता।"
पंडितजी एकदम से मुँह बिचकाने लगे, "यों तो सभी हिंदुस्तानी मुसलमान मूल रूप से हिंदू होते हैं; लेकिन, इसका मतलब यह तो नहीं कि हम इनके हाथ का बना चाउ-पकौड़ा उड़ाएं?"
मुंशीजी बेतहाशा फट पड़े, "देखो पंडिज्जी! मैंने तो अस्सी फीसदी खांटी बांभनों को चिकेन-लेग चिचोरते देखा है। अपनी रसोई में तो प्याज-लहसुन का छिलके तक से परहेज़ करते हो। लिहाजा, होटलों में मांसखोर रिश्तेदारों के लिए नान-वेज़ डिश मंगाने में कोई हिचक नहीं होती।"
उन्होंने पीकदान को कृतार्थ करते हुए अपनी बात जारी रखी,"सुनो पंडिज्जी! मांसखोरी अब फैशन में शुमार होने लगा है। जो लोग इससे नाक-भौंह सिकोड़ते हैं, उन्हें उजड्ड और देहाती समझा जाता है और भला, ऐसे लोग हैं कितने!..."
उस दिन पंडितजी ने घुटने टेक दिए। मुंशीजी से मन-मुटाव पैदा करने की कुव्वत उनमें कहाँ थी? आख़िर, वे ही तो उनके सारे मुकदमों की पैरवी कर रहे थे। चाहे पंचायत की जमीन कब्ज़ाने वाला मुकदमा हो या साली की आबरू पर हाथ डालने का लफड़ा; वेलफेयर सोसायटी के फंड से घोटाला करने का केस हो या सड़क-निर्माण के ठेके में ग्राम-पंचायत को चूना लगाने का जग-जाहिर मुआमला, पंडितजी तो चारो और से घनघोर घिरे हुए हैं। अगर मुंशीजी के हाथ में पंडितजी की डगमाती नाव का पतवार नहीं होता तो वे कभी के डूब चुके होते।
सो, पंडितजी को मुंशीजी की काबलियत पर बेहद भरोसा है। उन्हें कोई बड़ा कांड करने में हिचक नहीं होती और मुंशीजी को उनका केस हैंडिल करने में तनिक झिझक नहीं होती है। बहरहाल, वक़ालत के पेशे में मुंशीजी को खानदानी तज़ुर्बा है। उनके वालिद सुरेंद्र प्रताप अंग्रेजों के जमाने के जाने-माने वकील थे और उनके वालिद के वालिद यानी नरेंद्र प्रताप बेशक, एक बड़े मुख्तार थे। बड़े मुख्तार साहब बड़े फ़ायदे में थे। अंग्रेज अफ़सरों ने शहर के एक अहम हिस्से में उन्हें पाँच सौ गज में बनी बड़ी आलीशान कोठी मुहैया कराने के अलावा माली, फराश और घरेलू नौकर-चाकर भी उनकी खिदमत में तैनात कर रखे थे। कुल मिलाकर उनका रुतबा बर्तानिया से आए किसी आला अफ़सर से कम न था।
पर, इसे क्या कहा जाए, ऊपर वाले की मर्जी या किस्मत का बदा कि बड़े मुख्तार साहब की एक दिन अचानक सड़क हादसे में मौत हो गई। सो, अंग्रेज़ों की ख़िदमत करने की ज़िम्मेदारी उनके सुपुत्र के कंधों पर आ गई जो अभी-अभी बिलायत से वक़ालत पढ़कर हिंदुस्तान लौटे थे। यों तो उनकी मंशा बर्तानिया में ही प्रैक्टिस करने की थी, लेकिन वे अपने वालिद के काम को अधूरा कैसे छोड़ सकते थे? इसलिए, मजबूरन ही सही, बड़े मुख्तार साहब के लायक बेटे वकील साहब अपने वालिद के नक्शे-कदम पर चलते हुए उन सभी ऐशो-आराम के ताउम्र हक़दार बने रहे जो उनके वालिद को मुहैया थी।
बहरहाल, जिस मनहूस घड़ी में आज़ादी का ऐलान हुआ, उसने बड़े मुख्तार साहब के ख़ानदानी ऐश पर फुफुंद उगा दिए। वकील साहब को ऐसा सदमा लगा कि वे बेड पर पड़े तो उठ न सके। आख़िरकार, अस्सी सेर से छटाँक भर रह गए वकील साहब ने दुनिया को अलविदा कहने से पहले अपने कुलदीपक को बुलाकर कुछ गुरुमंत्र दिए--"माय सन! इन ज़ाहिल औ' कमबख़्त हिंदुस्तानियों की ख़िदमत करना हमारे ख़ानदानी उसूलों के ख़िलाफ रहा है। हमारी डायरी में कुछ रहम-दिल अंग्रेज़ अफसरों के नाम-पते हैं। तुमसे गुज़ारिश है कि तुम अपना ग़ुरूर छोड़कर उनसे संपर्क करना, मदद की दर्ख़्वास्त करना। अगर उनसे मदद मिल जाय तो सीधे बिलायत जा-बसना।"
मुंशीजी को अपने वालिद के मशविरे से बदहज़मी हो गई। जहाँ तक उनका अपने वालिद से बाप-बेटे जैसे ताल्लुकात का संबंध रहा, वह कभी नार्मल नहीं रहा। उन्हें फ़रमान मिला था कि वे बिलायत जाकर तालीम हासिल करें। लेकिन, वे तो हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए आवारगी ही करते रहे। उन्हें शादी करके घर बसाने का सबक दिया गया तो वे किसी बिस्मिल्ल का कोई 'सरफ़रोशी की तमन्ना' वाला जुमला सुनाकर सिर पर बंधे कफन की ओर इशारा कर देते। उन्हें बार-बार सख़्त हिदायतें दी गईं कि वे अपना दोस्ताना सिर्फ़ अंग्रेज़ लौंडों से निभाएं। पर, जब भी वे सैर-सपाटे से दो-तीन दिनों बाद चंद घंटों के लिए घर में नज़र आते तो उनकी गलबहियाँ में कुछ मुसलमान या सिख नौजवान होते। उस वक़्त, वकील साहब का मुँह गुस्से से फूलकर कुप्पा हो जाता। बेशक! इतना बेकहन कपूत इनके रईस ख़ानदान में पिछले सात पुश्तों से पैदा नहीं हुआ था।
मुंशीजी की आवारगी की लत आज़ादी के बाद भी नहीं छूटी। पर, उन्होंने एक काम अपने वालिद के कहे मुताबिक किया। कोई चालीस साल की उम्र में उन्होंने बयालीस साल की बेवा से शादी करने का फैसला किया--बाक़ायदा अपने पिता की आदमक़द तस्वीर के सामने संकल्प लेते हुए--"बाबूजी! आप हमेशा हमारे कौम के ख़िलाफ फिरंगी हुक़ूमत की तरफदारी करते रहे। यही बात मुझ पर बेजा गुजरती थी। दरअसल, मुझे अपने वतन से बेइंतेहां मुहब्बत रही है और इसलिए, हमारा आपसे और दादाजी से छत्तीस का आँकड़ा रहा है। हमें इस बात का पूरा इल्म है कि हमारी ख़ुदगर्ज़ी के चलते आपकी रूह आज भी बेचैन होगी। आपकी इसी बेचैनी को दूर करने के लिए आपके मन-मुताबिक मैं शादी करने जा रहा हूँ।"
उनके लड़कपन के बारे में सुनकर तो पत्थर को भी रोना आ जाता है जबकि उनके पिता उन्हें उस वक़्त भी दिल पर नश्तर चलाने वाली नसीहतें देने से बाज नहीं आते थे जबकि उनके पेट में एक भी दाने का जुगाड़ नहीं रहता था। बदन को ढंकने के लिए चिथड़े नहीं होते थे और पैरों में डालने को एक जोड़ी चमरौधा चप्पल भी नहीं। लेकिन, वे इसी हालत में आज़ादी के दीवानों की टोली में बड़ी तबीयत से शरीक़ हो जाते थे--किसी गाँधी, किसी नेहरू, किसी नेताजी की आवाज़ पर।
पर, उन पर मोहल्ले के एक रईस की रहम-दिल नज़र भी थी। नाम था--सेठ रज्जूमल। उस रईस ने उन्हें रहने के लिए एक कमरा दे रखा था और गद्दी में बैठकर मुंशीगिरी करने की मामूली आमदनी वाली नौकरी भी। यहीं से उन्हें मुंशीजी का तगमा मिला; वरना, मुख्तार साहब अर्थात महेंद्र प्रताप को मुंशीजी पुकारना उनके भारी-भरकम ख़ानदान पर कींचड़ उछालने जैसा था।
मातृभूमि की कसम खाकर फिरंगी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की बदतमीज़ी उनके ज़ेहन में तब समाई जबकि वे मिडिल पास कर चुके थे। जब वे पहली बार इन्क़लाबियों की जमात में शामिल हुए थे उनकी उम्र रही होगी कोई चौदह साल की। उन्हें इन्क़लाबियों के झुंड में देखकर कोतवाल आगस्टिन चींख उठा था, "अरे! ये तो वकील साहब का छोकरा है।"
वकील साहब के बेटे को सुरक्षित वापस सौंपते हुए कोतवाल ने फरमाया, "वकील सा'ब! अपने बेटे पर लगाम कसिए, वरना, उसकी कमसिन उम्र गोलियों की खुराक बन जाएगी।"
वकील साहब के पैरों तले जमीन खिसकती-सी नज़र आई। उन्होंने पहली बार अपने बेटे के गाल पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ा, "हम तुम्हें अपनी जमीन-ज़ायदाद से बेदखल कर देंगे। ख़बरदार! अगर तुम्हारे कदम उजड्ड हिंदुस्तानियों की पंगत में बढ़े तो हम तुम्हारी खाल उधेड़ देंगे।"
चुनांचे, वकील साहब को क्या मालूम था कि कि उनका तमाचा दोनों बेटे के बीच एक ऐसी दरार डाल देगा जिसे कभी नहीं भरा जा सकेगा।
सो, महेंद्र प्रताप, मुंशीजी के नाम से मकबूल होने तक अपने पिता से ताउम्र बग़ावत करते रहे। बहरहाल, अगर यह कहा जाए कि उन्हें अपने पिता से प्यार नहीं था तो यह बात सोलह आने सच नहीं है। अपने पिता की मौत पर वे फूट-फूट कर रोए थे और जब चिता पर सवार उनकी लाश को मुखाग्नि दे रहे थे तो वे पागलों की भाँति चींखने-चिल्लाने लगे थे। दरवक़्त, अगर भीड़ के असंख्य हाथ उन्हें थाम न लिए होते तो वे अपने पिता की जलती चिता में छलांग लगाकर लगभग मौत को गले लगा ही चुके थे।
हिंदुस्तान की आज़ादी के कोई सात साल पहले सुरेंद्र प्रताप उर्फ़ वकील साहब ने यह तय कर रखा था कि वे अपनी सारी ज़मीन-ज़ायदाद अपनी नालायक औलाद के बजाय फिरंगी सरकार के सुपुर्द कर देंगे। इसी कारण, उन्होंने वसीयत का पन्ना कोरा रखा था और जब उनका अचानक इंतकाल हुआ तो आज़ाद हिंदुस्तान की सरकार ने उनकी अकूत संपत्ति का ज़ब्ती फरमान जारी कर दिया। ऐसे में, मुंशीजी के नाम तो बस फुटपाथ रह गई थी।
मुंशीजी बेघर तो हो गए; लेकिन, उनकी बहस-पैरवी करने की महारत पुश्तैनी थी जिससे उनका वास्तविक संरक्षक सेठ रज्जूमल भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जो उनके पिता की मौत के बाद भी जिंदा रहे। सेठजी ने ही उन्हें सलाह दी थी, "महेंद्र! मेरी जान-पहचान के एक प्रिंसिपल साहब अपने कालेज में मुख्तारी का कोर्स चलाते हैं। अगर तुम वह कोर्स पास कर लो तो जिला कोर्ट में तुम वक़ालत का पेशा शुरू कर सकते हो। मेरी जिला कोर्ट में भी पैठ है। मैं तुम्हें वहाँ जगह दिला दूंगा। वैसे भी, कोर्ट में तुम्हारे पुरखों की बड़ी साख है।"
उस जमाने में हाईस्कूल पास तो विरले ही मिलते थे। सो, मिडिल पास को मुख्तारी के कोर्स में ऐडमीशन में कोई ख़ास एतराज़ नहीं था। इसका फायदा मुंशीजी को भी मिला और वह साल गुजरते-गुजरते मुख्तार साहब बन गए। उन्हें सदर कोर्ट में वकील की हैसियत से रजिस्टर्ड भी कर लिया गया।
लिहाजा, वे कोर्ट में भी मुंशीजी के नाम से ही विख्यात हैं। उम्र पचहत्तर की, लेकिन मुदमेबाजी का ज़ज़्बा उनमें पूरी रवानगी पर है। उन्होंने सफलता के कई मंजर देखे हैं और कानूनी दांव-पेंचों और तिकड़मों ने उन्हें यही सबक सिखाया है कि बदलते जमाने के हिसाब से अपना रंग बदलना कोई नामुराद हरकत नहीं है। वे अपने मुव्वकिलों से खुलेआम ऐलान करते हैं, "हमें दकियानूस बने रहना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है। बदलते जमाने के हिसाब से ख़ुद को बदलने में फायदा ही होगा, नुकसान नहीं।"
बिलाशक! आज की तारीख़ में सेठ रज्जूमल ज़िंदा होते तो वह उन्हें कैसी नसीहतें देते, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। क्योंकि सेठजी तो इनकी वतनपरस्ती पर ही फिदा होकर इनकी तहे-दिल से मदद किया करते थे।
जहाँ तक वक़ालत के पेशे का वास्ता है, मुंशीजी सीधे मुँह तब तक बात करना अपनी हैसियत के खिलाफ समझते हैं जब तककि मियां मुसुद्दी के मार्फ़त नया मुर्गा आते ही पहले से नीयत फीस से उनकी मुट्ठी गरम न कर दे। गत तीन-चार सालों से उनकी जिला मेयर नसीब ख़ान के साथ खूब छनने लगी है। मुंशीजी ने उनके कई मुकदमों में गहरी दिलचस्पी दिखाते हुए उन्हें फ़तह पर फ़तह दिलाई है और मेयर साहब ने उनके अहसानों को चुकाने के लिए उनकी नज़दीकियाँ एम.पी.--खनेजा सा'ब से बनाकर उनकी किस्मत में चार चाँद लगा दिए हैं। सो, गुलामी के दिनों में उनके पुरखे जो रबड़ी-मलाई उड़ा रहे थे, वही आज़ादी के इस खुशनुमा माहौल में मुंशीजी उड़ा रहे हैं।
अब उनमें पुराने मुंशीजी को तलाशना बड़ा मुश्किल हो गया है। उनके बारे में लोगबाग तरह-तरह की उलटी-सीधी बातें भी करने लगे हैं कि...जवानी के दिनों में तो वह देशभक्त बनने की नौटंकी ही खेला करते थे...वे अगर सचमुच वतनपरस्त होते तो अपने बेटों को तालीम दिलाने के बहाने विदेश नहीं भेजते...अब तो वे मुस्तकिल तौर पर बाल-बच्चों समेत विदेश में बसने की योजना पर गंभीरता से अमल भी कर रहे हैं...वग़ैरह, वग़ैरह...
मुंशीजी, पंडितजी से कुछ इस तरह फरमाते हैं, "यार, इस ज़ाहिल मुल्क में क्या रखा है? तुम तो पहले से ही कई मुकदमों में फँसे हो। मेरी राय मानो, तुमने गाहे-ब-गाहे जो जमीन-जायदाद बटोर रखी है, उसे औने-पौने दाम में भी बेचोगे तो कम से कम चार-पाँच करोड़ रुपए तो मिल ही जाएंगे। वरना, मेरे विदेश में बस जाने के बाद तुम्हारी ग़ैर-कानूनी संपत्ति पर गहण भी लग सकता है। मतलब ये है कि मेरी ज़ोरदार पैरवियों के बदौलत ही तुम और तुम्हारी मिल्कियत महफ़ूज़ है, ऐसा करो कि मैं तुम्हारे बाल-बच्चों को स्वीटज़र लैंड की नागरिकता दिलाने के लिए सोर्स-सिफ़ारिश भिड़ाता हूँ। मैं सियासी तिकड़म भी लगा सकता हूँ--आख़िर, नसीब खान कब और किस काम आएंगे? प्रेसीडेंट और पी.एम. तक से अपना टाँका भिड़ा हुआ है। बस, तुम्हारी रज़ामंदी की ज़रूरत है। स्वीटज़र लैंड की खुशनुमा वादियों में हम सब मिलकर खूब ऐश करेंगे..."
ताजा ख़बर ये है कि मुंशीजी ने अपनी सारी जमीन-ज़ायदाद बेच दी है और बैंक की रक़म भी स्वीटज़र लैंड के बैंक में ट्रांसफर करा दी है। परसों उनकी फ्लाइट है जबकि पंडितजी का और उनके परिवारवालों का वीज़ा और पासपोर्ट बस दो-चार दिनों में ही तैयार होने वाला है। आज सुबह उन्हें मुंशीजी की गलबहियाँ में देखा गया है। कह रहे थे, "तूँ चल मैं आता हूँ।" दोनों को यूँ अट्टहास करते हुए पहले कभी नहीं देखा गया गोयाकि उन्हें यह मुल्क़ काट-खाने को दौड़ रहा है और वे इसे तत्काल गुड-बाय करने को बेताब हैं।
लिहाज़ा, अब जाकर मुंशीजी के वालिद की रूह को सुकून मिलने वाला है। बेशक! परसों जैसे ही मुंशीजी अपनी बेग़म के साथ स्वीटज़र लैंड के लिए उड़ान भरेंगे, वैसे ही उनके वालिद की बेचैन रूह भी ज़न्नत में तशरीफ़ ले जाएगी। उनकी रूह भी ज़ाहिल हिंदुस्तानियों की शोहबत से उकता चुकी थी क्योंकि उसे अभी भी जो यहाँ रहना पड़ रहा था--अपने बेटे का हृदय-परिवर्तन करने के लिए।
कहानी हृदयस्पर्शीय है। भाषा-शैली लालित्यपूर्ण है। कदम-दर-कदम दिलचस्पी बढ़ती जाती है।
जवाब देंहटाएंकहानी में कटाक्ष है। देश-प्रेम के पाखंड को कितने बेहतरीन ढंग से पेश किया गया है।
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