संजय मौर्य |
युवा रचनाकार संजय मौर्य पेशे से डिजाइन प्रोफेशनल हैं। सर जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट, मुम्बई से व्यावसायिक कला में स्नातक करने के पश्चात आपने कम्प्यूटर ग्राफिक्स, एनीमेशन, फोटोग्राफी और पेंटिंग में विशेष योग्यता हासिल की। बाल चित्रकार के रूप में आपको राष्ट्रीय स्तर पर कई विशिष्ट पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। संपर्क : मेरी गोल्ड-2, ई-203, बेवर्ली पार्क, नियर आर. बी. के. स्कूल, आॅफ मिरा, भयंदर रोड, मिरा रोड (पूर्व), थाणे, महाराष्ट्र। ई-मेल : sonjayemaurya@hotmail.com
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
हम दोनोें कला विद्यालय के प्रथम वर्ष में थे । सविता ललित कला शाखा मेें थी और मैं उपयोजित कला मेें । कला की सभी शाखाओं का प्रथम वर्ष समान होता है । उसके बाद विद्यार्थी अपनी रुचि व योग्यता के आधार पर आगे विषेशज्ञता के अभ्यासक्रम में प्रवेश ले सकते है ।
कुछ सामान्य सूत्रोें से सविता व मेरा परिचय हुआ और यह परिचय सविता के मन में, मेरे प्रति तीव्र आकर्षण कर गया । शायद इस आकर्षण का कारण मेरा कला में निपुण होना था या और कुछ, मैं कह नही सकता । मेरे कार्यों का उल्लेख हमारे प्राध्यापक ललित कला विभाग मेें किया करते थे, एवं अक्सर वहाॅं के विद्यार्थी मेरे प्रोजेक्टस देखने और मुझसे मिलने आया करते थे । यह आकर्षण हर मुलाकात में उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई पड़ता। पर मेरा स्वभाव अंर्तमुखी था । मुझसे कभी पहल न होती, न ही मैं कभी सविता से खुलकर बात कर सका । उल्टा उसे अपनी और बढते देख मैं बहटियाने या बगलें झांकने लगता।
प्रथम वर्ष के परीक्षा परिणाम घोषित हुए। मैं पहले से ही उपयोजित कला करना चाहता था। सविता के भी अच्छे अंकों ने उसे यह संधि दी, या शायद वह भी उपयोजित कला करना चाहती थी । या . . . खैर जो भी हो। कोर्स के दूसरे वर्ष में वह भी उपयोजित कला में आ गयी और वह भी मेरे ही वर्ग में। उसने बैठने के लिये मेरे बगल की ही सीट चुनी। हम अच्छे दोस्त बन गये। मेरे लिए इस दोस्ती में लडके-लडकी का फर्क न था। हमारी रुचियाॅं, हमारी समझ, हमारे विचारों आदि में समानता होने से हममें घनिष्टता बढती गयी। कक्षा व कक्षा के बाद भी हमारा अधिकतर समय एक दूसरे के साथ ही बीतता। पिकनीक, स्टडी टूर, फोटो लॅब, रेस्तराॅं, फिल्म देखने जाना या फिर टैकिंग में हमारी जोडी अभाज्य बन चुकी थी। हम चार वर्ष एक साथ बैठे। एक वर्ष की समाप्ति के उपरांत यदि अगले वर्ष हमारे नाम भिन्न वर्गों में आते, तो वह वर्ग बदली करा कर मेरे बगल की सीट पर आ बैठती। काॅलेज से उसके घर तक, आधा घंटा पैदल चलकर, उसे छोडने जाना, यह मेरा नित्यक्रम बन चुका था। फिर वहाॅं से लौटकर मैं ट्रैन पकड़ कर अपने घर जाता।
वर्ष बीतते गये । हमारा यह साथ सविता के कुंवारे मन में एक नये रिश्ते की आकांक्षा का बीज बोने लगा। उसके हाव भाव, उसकी आँखें यह सब सहज भाव से जताने लगी। मैंने उसकी चाहत को महसूस किया। इन सबके फलस्वरुप मैं भी उसे चाहने लगा। मेरे भी मन में प्रेम के अॅंकुर फूट चुके थे। इन सब क्रियाकलापों में आज के जैसा खुलापन न था। हमने कभी एक दूसरे का स्पर्श नही किया। हमने सामाजिक संस्कारों की मर्यादा को कभी नहीं लाॅंघा। इतने वर्षों के साथ के बावजूद भी हममेें एक शिष्ट दूरी बरकरार रही। हमारी भावनाएॅं और अपनापन एक अनकही कहानी था। फिर प्यार कब शब्दों का मोहताज रहा है। वह तो एक दूसरे के लिए उपजी चिंता और एक दूसरे के लिए किये छोटे-छोटे कामों से व्यक्त होता रहता है।
लेकिन हमारी स्थितियों में बहुत फर्क था। सविता दक्षिण मुुुंबई के एक संभ्रांत ईलाके में रहती थी। उसके पिता मिनिस्ट्री में उच्च पद पर कार्यरत थे। इसके विपरित मैं एक गरीब परिवार से था, जो मुंबई उपनगर के एक छोटे से कमरे में रह कर अपनी जिंदगी बेहतर बनाने के लिए सतत कार्यरत था। आमतौर पर काॅलेज में यह आर्थिक भेद दिखने में नही आता है। काॅलेज में आने वाला हर विद्यार्थी ‘फैशन स्ट्रीट’ से खरीदकर वैसी ही जीन्स और टी-शर्ट पहनता था। एक समान फीस देता था। एक जैसी कला सामग्री इस्तेमाल करता था। वैसे भी उसके स्वभाव में दिखावा न था। कोई वस्तु गुम जाने पर वह हर सामान्य छात्र की तरह दुखी हो जाती थी। पर काॅलेज जीवन एक बात है और घर बसाना दूसरी। मैंने अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाये रखा। मैं जानता था, हमारी स्थितियों के फर्क को पाट कर एक दूसरे का साथ निभाना आसान न होगा। मैं पहले अपनी शिक्षा पूरी करना चाहता था। फिर कुछ धनोपार्जन, घर खरीदना व ढंग से स्थापित हो जाने के बाद विवाह के बारे में सोचना चाहता था। इस मामले में उसके संस्कारी मन ने कभी पहल न की। वह हमेशा यही चाहती रही कि मैं लड़का होने के नाते उसके सम्मुख प्रेम का इजहार करुॅं या विवाह का प्रस्ताव रखूूूॅं।
कोर्स के अंतिम वर्ष के अंतिम दिन चल रहे थे। अब उसका धैर्य जबाब देने लगा था। वह जानती थी की अभी नहीं तो कभी नहीं। वह मेरे द्वारा पहल करने की आशा से हताश हो चुकी थी। कल काॅलेज खत्म और हम सब अलग हो जायेंगे हम दोनों। दूरियाॅं आ जायेंगी। तब न तो मोबाईल फोन थे, न ही आज की तरह हमें मिलने-जुलने की स्वच्छंदता। काॅलेज, घर व बाहर, हर कार्य पर माता-पिता की निगरानी हुआ करती थी। काॅलेज के बाद फिर हर विद्यार्थी उच्च शिक्षा या नौकरी के लिए चला जायेगा, और सभी अपनी-अपनी एक नयी दुनिया में व्यस्त हो जायेंगे। उसने अप्रत्यक्ष रुप से कई कोशिशें भी की। उसकी भाव भंगिमा में खासा परिवर्तन आ गया था। वह मुझसे यह सब जानने व बुलवाने के लिए आतुर हो चली थी, पर मेरा प्यार उसकी बलि नहीं ले सकता था। मैं उसे खुश देखना चाहता था। मैंने अपना नियंत्रण कायम रखा। फिर वही हुआ . . . काॅलेज खत्म व दूरियाॅं।
आज सोचता हुॅं, काश मैंने खुलकर बात की होती। उसे स्थितियों से अवगत कराया होता। अपनी योजनाओं के बारे में बताया होता। तो शायद वह मेरा साथ पाने के लिए मेरा इंतजार करती। उसके पास तो इंतजार करने व आशा लगाये रखने के लिये कोई कारण ही न था। उसे उसका जवाब तो कभी मिला ही नहीं। बाद में मैंने उससे संपर्क करने व मिलने की कई कोशिशें की। पर सब व्यर्थ। मैंने उसका इंतजार किया। कुछ वर्षों में मैं जीवन में ठीक से स्थापित हो गया, पर उससे संपर्क का कोई मार्ग निकल न पाया।
अब कुछ दिन पहले, अटठाइस वर्षों के अंतराल के बाद, इंटरनेट के माध्यम से उसकी जानकारी मिली। वह आज भरी-पुरी अड़तालीस वर्षीय विवाहित महिला है। दो किशोर बच्चों की गर्वीली माॅं, जो अच्छी शिक्षा में रत अपने बेहतरीन परिक्षाफलों से उसका मान बढा रहे हैं।
अब मैं इस इंतजार को क्या कहूँ? मैं भी तो सविता के लिये यही चाहता था . . . सुख!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: