हिमांशु ‘मोहन’ जायसवाल का जन्म 27 नवम्बर 1992 को निगोही, जनपद - शाहजहाँपुर, उ. प्र. में हुआ। वर्तमान में आप राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, अगरतला से बी.टेक. कर रहे हैं। संपर्क : him.mohan@yahoo.in। प्रस्तुत है आपकी एक कहानी :
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
इंजिनीयरिंग की पढाई के बीच माँ न जाने कितने दफा घर बुलाती थी। बोलती थी कम से कम गर्मी की छुट्टियों में तो घर आ जाया कर। पर मैं उस समय आगे और आगे की महत्वाकांक्षा लिए बहुत कुछ पीछे भी छोड़ता चला जा रहा था।
आज जब सब कुछ फिर से सोंचता हूँ तो बहुत गुस्सा आता है... खुद पर.... बहुत खीझ-सी उठती है। सबसे ज्यादा रंज तब होता है जब वीणा की याद......उसका किया हुआ लम्बा इंतज़ार बनकर आती है.... और अंतर्मन को झकझोर जाती है।
बात उस समय की है जब मै २० साल का था। बारहवीं की परीक्षा अच्छे अंको से पास करने के पश्चात एक वर्ष कोटा, राजस्थान से आई.आई.टी की तैयारी कर रहा था। मेरा छोटा भाई भी उसी की तैयारी कर रहा था, मेरी एक छोटी बहन भी है जिसे प्यार से मै छुटकी कहता हूँ वो काफी छोटी थी उस समय। मेरे पापा कोई बड़े आदमी नहीं थे लेकिन सभी उनकी इज्ज़त करते थे। वे बहुत ही शालीन स्वाभाव के है और आज भी उनका स्वाभाव वैसा ही है। पहले जब वो माँ से लड़ाई कर गर उन्हें मनाते नहीं थे...माँ को ही आना पड़ता था उन्हें मानाने...पुचकारकर खाना उन्हें ही खिलाना पड़ता था..... और आज वो नाराज़ हो भी जाते हैं.... तो खाना के लिए मना नहीं करते ना ही कहीं दूर निकल जाते हैं..... बस चुपचाप से परोसा हुआ खाना गुस्से को ऐसे पीस कर खाते हैं जैसे खिचड़ी के संग पुदीने की चटनी। उस समय माँ की कही एक-एक बात मुझे ऐसे याद आ जाती है जैसे वो आज भी सामने से यही सब कह रही हो।
मई में मै आई.आई.टी. की परीक्षा देकर घर आया था। गर्मी के दिन थे। उन दिनों उत्तर प्रदेश में गर्मी का अपना प्रकोप रहता है। मैंने और मेरे छोटे भाई ने नानी के यहाँ जाने का प्लान बना लिया, क्यूंकि वहां के बाग़-बगीचों के स्मरण से ही एक भीनी सी खुशबू सांसो में तैर जाती। पता नहीं क्यूँ गाँव से हमेशा से ही मेरा खिचाव रहा है।आज की सदी में जब बच्चे किसी कैफेटेरिया में जाना पसंद करते हैं, किसी मॉल में घूमना पसंद करते हैं, उस समय मुझे वही ख़ुशी गाँव की आवोहवा में मिलती थी। वहां की खुशबू में एक अलग एहसास होता था। लेकिन रिज़ल्ट आने की चिंता में कहीं भी नहीं जा पाया।
उन दिनों माँ ने सिलाई-कढ़ाई का काम घर पर ही शुरू कर दिया था। कुछ ज्यादा बड़ा नहीं, बस मोहल्ले की लड़कियां माँ से ये सब सीखने आती थी। पड़ोस में ही एक और परिवार रहता था, बिलकुल मेरे परिवार जैसा, मिस्टर शर्मा और उनकी मिसेज। उन्हें मैं चाचा-चाची कहता था। उनकी एक ही लड़की थी उसका नाम था - वीणा। वह कला वर्ग की प्रथम वर्ष की छात्रा थी। वह भी रोज सिलाई-कढ़ाई सीखने आती थी।
यूँ तो मै हमेशा बाहर ही रहा हूँ, सात साल नवोदय विद्यालय में और फिर एक वर्ष कोटा में। मोहल्ले में मेरी जान-पहचान ज्यादा किसी से नहीं थी और न ही मैं किसी से ज्यादा बोलता था। मेरी माँ की पहली छात्रा वह ही थी। देखने में वह बहुत सुन्दर थी और स्वाभाव की उतनी ही सरल थी। उसमे ना जाने क्या था...कि मन में उसकी सूरत इस कदर बस गयी थी कि उसके सिवा कुछ और सूझता ही न था। मैं तो ये भी भूल गया था कि मेरे किसी एग्जाम का रिजल्ट भी आने वाला है। उसकी आवाज़ से ही ह्रदय की धड़कन तीव्र हो उठती, साँसे और जोर से चलने लगती। उसकी हंसी से वातावरण में मधुर संगीत बज उठता था। पर उसके सामने होते ही न जाने कैसे मेरी जुबां लड़खड़ाने लगती थी, मै उससे कभी आंख तक नहीं मिला पता था।
वह जब भी आती थी मैं अपने कमरे में चला जाता था और कोई काम करने लगता था। जानबूझकर ऐसी जगह बैठता था जहाँ से वह तो मुझे दीख पड़ती थी पर वह मुझे नहीं देख पाती थी। कभी उससे लम्बी बातचीत भी नहीं हुई पर कभी-कभी स्कूल, पढाई, परीक्षा इत्यादि की बातें हो जाती थी। तुम्हारे स्कूल में क्या क्या होता है? परीक्षा कब है? बस.....
मुझे उसको देखना बहुत अच्छा लगता था, परन्तु क्या करता ... मैं हमेशा से ही अंतर्मुखी स्वाभाव का रहा हूँ...किसी से अपने मन की बात खुल कर कभी नहीं कह पाता। एक दिन की बात है मैं रोज की तरह बाइक से अपने दोस्तों से मिलकर लौट रहा था तो सामने दूर से ही सड़क पर मुझे वीणा दीख पड़ी, और साथ में बेजान-सी खड़ी उसकी स्कूटी....मैंने पास जाकर अपनी बाइक रोक दी। मैंने पूछा क्या हुआ? वो रोने-सा मुँह बनाकर बोली– “पता नहीं शुभम स्कूटी बंद हो गयी, अचानक, और अब स्टार्ट ही नहीं हो रही, जबकि तेल की टंकी फुल है।"
मैंने बाइक किनारे पर खड़ी की और स्कूटी स्टार्ट करने की नाकाम कोशिश की। मैंने कहा – “चलो मैं तुम्हें घर तक छोड़ देता हूँ, पास में ही मेरे दोस्त का घर है स्कूटी वहां खड़ी कर देते हैं।” स्कूटी को मेरे दोस्त के यहाँ खड़ी करने के बाद मैंने उसे बाइक पर बैठने को कहा, पहले तो वो थोडा झिझकी फिर मुस्कुराते हुए बैठ गयी।
मुझे तो यकींन ही नहीं हो रहा था की वह बाइक पर मेरे साथ बैठी है। मेरा मन ख्वाब का वो परिंदा बन गया था जिसे उसके ख्वाबो में ही सारा आसमान मिल गया हो। मन की ख़ुशी सातवें आसमान पर थी। पर रास्ते में हम कुछ नहीं बोले। एक-दो बार ध्यान न होने की वजह से बाइक थोडा लड़खड़ा भी गयी, उसने मुझे कस के पकड लिया और बोली शुभम संभल के कोई जल्दी नहीं है। आराम से चलो। कुछ ही देर में हम घर पहुँच गए थे। जाते हुए उसने मुस्कुराते हुए धन्यवाद दिया।
अगली सुबह स्कूटी ठीक करवा दी और चाची के घर दे आया। मैं वीणा के घर जाने का कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाहता था। चाची ने बहुत धन्यवाद दिया और आशीर्वाद भी। पर जिस कारण मै वहां गया वो ही मुझे नहीं दिखी। मैंने चाची से पूछा- “चाची वीणा कहाँ है?” चाची ने बताया कि वह अपने कमरे में है, न जाने आज सुबह से ही किताबों को चारों तरफ फैलाये बैठी है। मैं उसके कमरे की तरफ गया। वह कोई डायरी लिख रही थी। किसी की आहट पाकर झट से उसने डायरी को पीछे छुपा लिया। मैं उसे देखकर मुस्कुरा दिया और वह भी। मैंने उसे कहा – “तुम्हारी स्कूटी ठीक हो गयी है। बस थोडा कचरा अटक गया था अब ठीक है।” उसने बोला – “ थैंक्स शुभम, आओ बैठो मैं चाय बनाती हूँ तुम्हारे लिए।” उस दिन हमने काफी देर बातें की। पर उन बातों में सारी बातें उसी की थी मुझे कुछ सूझता ही नहीं था कि क्या कहूँ।
ऐसे ही एक महीना गुजर गया। आज मेरा रिजल्ट आने वाला था। सुबह से रिजल्ट का इंतज़ार कर रहा था। माँ, पापा सभी किसी रिश्तेदार की शादी में गए हुए थे। जाना जरुरी था पर मै नहीं गया, मेरा रिजल्ट जो आने वाला था। वैसे भी काफी परेशान था, मुझे पता था आई.आई.टी. में कम चांस थे पर एन आई टी की परीक्षा अच्छी हुई थी।
आज भी रोज की तरह ही वीणा मेरे घर आई। उसे शायद पता नहीं था माँ घर पर नहीं है। उसने मुझसे पूछा कि शुभम चाची कहाँ है? मैंने जबाब दिया– "माँ शादी में गयी हैं। इतना कहकर मैंने सोंचा वह चली जाएगी। मैं ऑंखें नीचे किया स्टाचू बना खड़ा था । पर वो नहीं गयी....सामने सोफे पर बैठ गयी। मेरा दिल जोर से धड़कने लगा। मैंने हकलाते हुए कहा.....ब..ब..बैठो म..मैं तुम्हारे लिए पानी लाता हूँ।
उसने पानी पिया और बोली–“शुभम मुझे लगता है कि तुम मुझसे कुछ कहना चाहते हो?” मेरे पैरों के नीचे से तो जमीन ही खिसक गयी।
मैंने हकलाते हुए कहा- "न..नहीं.. तो.. कु...कुछ भी तो नहीं।"
उसने फिर से अपनी मीठी आवाज़ में कहा- “मै कई दिनों से महसूस कर रही हूँ कि तुम कुछ कहना चाहते हो, अगर ऐसा है तो कहो मै बुरा नहीं मानूंगी।"
मैं चुप खड़ा रहा....गले से एक भी अल्फ़ाज़ नहीं निकल पा रहा था।
उसने फिर कहा- "मुझे पता है शुभम तुम कुछ नहीं कह पाओगे, मैं तुम्हें बचपन से जानती हूँ। पर मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ। मैं तुम्हे पसंद करती हूँ।”
मुझे तो जैसे ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। मैंने पहली बार उससे नज़रे मिलाने की हिम्मत जुटा पायी। कुछ देर उसे यूँ ही देखता रहा फिर बोला– “वीणा मैं सच में तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। ना जाने क्यूँ तुम्हें देखकर मेरा दिल धड़कने लगता है। ये कहकर मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।
उसकी आँखों से आंसू की बूंदे छलछला आयीं। शायद उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि जिस प्यार की तलाश में लोग जिंदगी भर इधर-उधर भटकते रहते हैं वह उसे इतनी जल्दी मिल जायेगा।
उसकी आँखों से आंसू की बूंदे छलछला आयीं। शायद उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि जिस प्यार की तलाश में लोग जिंदगी भर इधर-उधर भटकते रहते हैं वह उसे इतनी जल्दी मिल जायेगा।
उसने डबडबायी आँखों से पूछा – “शुभम, क्या तुम मुझे हमेशा ही इसी तरह प्यार करोगे?”
मैंने उसकी भीगी आँखों को पोछते हुए कहा- "हाँ, और एक भी आंसू तुम्हारी आँखों में नहीं आने दूंगा। हम दोनों कस के एक दूसरे के गले लग गए। बाहर किसी की आहट पाकर दोनों अलग हो गये कि कहीं कोई ऐसे हमको देख न ले।
मैंने कहा– “आज मेरा रिजल्ट आने वाला है, वीणा और मुझे बहुत चिंता हो रही है। पता नहीं कौन-सा कालेज मिलेगा।”
"तुम चिंता मत करो, शुभम। जो भी होगा अच्छा ही होगा क्यूंकि आज का दिन सबसे अच्छा है" - उसने मुस्कुराते हुए मेरा हाथ अपने हाथो में ले लिया और उसे हलके से सहलाने लगी जैसे अपना सारा प्यार, सारा लाड आज ही मुझ पर उड़ेल देगी।
फिर हम दोनों टेबलेट पर रिजल्ट देखने बैठ गए। सुबह के दस बज चुके थे और समय हो गया था भविष्य के निर्धारित होने का। मैंने एन.आई.टी. की काउन्सलिंग अच्छे से की थी और भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि काश कोई अच्छी-सी एन.आई.टी. मिल जाये। वह भी आँखे बंद किये प्रार्थना कर रही थी। मैंने अपना रोल नंबर और पासवर्ड डाला और ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। मुझे एन.आई.टी.- सूरत में कंप्यूटर साइंस में बी.टेक का कोर्स मिला था। वह भी ख़ुशी से झूम उठी और उसकी आँखों में आंसू आ गये।
उसने मेरे दोनों हाथ अपने हाथो में पकडे और कहा– “वादा करो वहां अपना ख्याल रखोगे और मुझे कभी नहीं भूलोगे।” मैंने आगे बढ़कर उसके दोनों हाथों को चूम लिया। फिर हम दोनों देर तक बाते करते रहे। आज जीवन में पहली बार लग रहा था कि मैं कितना भाग्यशाली हूँ। आज मुझे कितना कुछ मिल गया।
अगले दिन माँ, पापा सभी घर लौट आये थे। सभी रिजल्ट से खुश थे और जगह-जगह मेरे कालेज मिलने की खबर बता रहे थे। दोस्तों, रिश्तेदारों से फ़ोन आने शुरू हो गये थे। वह दिन किसी जश्न से कम नहीं था। मुझे दो दिन बाद कालेज के लिए निकलना था। फ्लाइट की टिकट भी करवा ली थी। पूरा दिन पैकिंग में ही बीत गया।जाने से एक दिन पहले घर में छोटी-सी पार्टी रखी गयी। वीणा और उसके मम्मी, पापा भी आने वाले थे पर वो नहीं आ पाए। मैं भी वीणा का इंतज़ार करता रह गया। फोन किया तो पता चला वीणा को बहुत तेज बुखार है। मैं रात भर सो नहीं सका। बस तारों को एकटक लगाये देखता रहा और सोंचता रहा कैसे सारे तारे जल्दी से गायब हो जाएँ। पर रात थी कि जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। मुझे सुबह ही निकलना भी था। तारों को घूरते-घूरते न जाने कब आँख लग गयी मुझे पता ही नहीं चला। सुबह जब उठा तो फटाफट नहा धोकर वीणा के घर पहुँच गया। चाची ने बैठाया और कालेज मिलने की बधाई दी। उन्होंने चाय दी और फिर घर के काम में लग गयी।
मै वीणा के पास गया। वह बिस्तर पर लेटी थी। बिलकुल मुरझाई सी लग रही थी। उसे पता था कि मैं जाने वाला हूँ। उसने हलकी करुण आवाज़ में कहा- "शुभम, इधर आओ।" मै उसके पास गया। उसने मेरे दोनों हाथ कस के पकड़ लिए और धीरे से कहा– “मैं तन और मन से सिर्फ तुम्हारी हूँ इसे तम्हारे अलावा और कोई नहीं छू सकेगा।तुम जाओ और अच्छे से अपनी पढाई करो। मुझे पता है लाइफ में तुम्हें क्या करना है। मेरी चिंता बिलकुल मत करना और मुझे कभी भूलना नहीं।”
मै उसकी बात कभी नहीं टाल सकता था, पर उसे इस हालत में छोड़ के भी तो नहीं जा सकता था। उसने उठकर सबसे नजरें छुपाते हुए मेरे माथे को चूम लिया और फिर इसके आगे मैं उससे कुछ भी न कह सका।
Himanshu Mohan Jaiswal
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-08-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2066 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत आभार आपका... dilbag virk ji.... :)
हटाएंअच्छा लेखन ।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत धन्यवाद ... सर ...:)
हटाएंnice bro
जवाब देंहटाएंthnkyou.. Bro.. :) keep reading...
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