जय राम सिंह गौर |
वरिष्ठ कथाकार जय राम सिंह गौर का जन्म 12 जुलाई 1943 को ग्राम रेरी, जनपद कानपुर (देहात) में हुआ। डाक विभाग से सेवानिवृत्त गौर जी वर्तमान में स्वाध्याय एवं लेखन कर रहे हैं। आपने न केवल कहानियाँ लिखी, बल्कि कविता, गीत एवं दोहे भी लिखे हैं। आपका एक कहानी संग्रह : ‘मेरे गाँव का किंग एडवर्ड’ प्रकाशित हो चुका है। संपर्क : 180/12, बापू पुरवा कालोनी, किदवई नगर, कानपुर (नगर)- 208023. मो:09451547042। ईमेल: jrsgaur@gmail.com। आपकी एक मार्मिक कहानी यहाँ प्रस्तुत है:-
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
आज मैं पहली बार अपनी बुआ जी के गाँव जा रहा था। उस इलाके के बारे में मेरी धारणा अच्छी नहीं थी जिसका एक कारण था कि यहाँ के लोग अपने यहाँ लड़कियों को पैदा होते ही मार डालते थे। माँओं से नवजात बच्चियों को जबरन छीन कर उनके मुँह में तम्बाकू भरकर या चारपाई के पावे के नीचे दबा कर मार डालते थे फिर उसे गाँव के बाहर स्थित एक कुएं मे फेंक आते थे। बड़ा अजीब लगता था यह सब सुनकर। पहले तो विष्वास ही नहीं होता था,पर बुआ जब रो-रो कर यह सब बतातीं थीं तो कलेजा काँप जाता था। मैंने बुआ से पूछा था,‘ दीदी कैसे बच गईं थीं?’
‘जब या पेट मा हती तौ हम तुम्हाए गाँव आयगए ते,जान्त हौ जाके मारे हमाए ससुर ने तिहाए फूफा को घर ते निकार दवो तो। तब वे गवालियर मा नौकरी करन लगे ते। जब तलक इनके बापू जिंदा रहे वे अपने घर मा नाय धंस पाए।’
मेरे सपनांे में वही कुँआ बार-बार दिखाई दिया करता था। मैंने तय कर लिया था कि वह कुँआ जरूर देखूंगा।
सुन रखा था उनका गाँव चंबल के बीहड़ों में है और वहाँ सवारियों की काफी किल्लत रहती है, इसलिए इटावा से एक मित्र की सायकिल लेली थी। चम्बल के पुल पर पहुँचा ही था कि एक सायकिल सवार नें राम-राम की। मैंने भी प्रतिउŸार में राम-राम की। उसने पूछा,‘भेटे(भाई) कहाँ से आय रहे?’
‘इटावा से।’
‘कहाँ के रहनवारे हो?’
‘कानपुर जिले के।’
‘किस जगह के?’
‘देहात के।’
‘देहात मे कहाँ के?’
अब मुझे उसके सवालों से उलझन होने लगी थी,सोचा कहीं फिर न पूछ बैठे कि रूरा के पास कौन सा गाँव है, इसलिए उसे अपने गाँव का पूरा पता बता दिया। गाँव का नाम सुनते ही उछल गया। उसने फिर पूछा,‘सच्ची तुम वा गाम के हो?’
‘मैं झूठ क्यों बोलूंगा, मैं उसी गाँव का हूँ। क्या आप मेरे गाँव को जानते हैं?’
‘हाँ भेटे, उस गाम में हमाए खानदानी रहत हैं।’
‘कौन?’
‘राम सिंह भदौरिया।’
‘उनका घर तो मेरे घर के पास ही है। वे मेरी चचेरी बुआ के लड़के हैं।’
तब तक हम लोगों ने चंबल का पुल पार कर लिया था। चढ़ाई के कारण हम लोग सायकिलों से उतर कर पैदल चल रहे थे। चढ़ाई चढ़ कर हम लोग ऊपर एक कस्बेनुमा गाँव में पहुँच गए। मेरे सह-यात्री ने कहा,‘आव भेटे कछु पनपिअव्वल ह्नै जाय।’ हम लोग एक हलवाई की दुकान की तरफ मुड़ गए। वहाँ हम लोगों ने थोड़ी लौकी की बर्फी खाकर पानी पिया। मैंने बड़ी कोषिस की पर मेरे सह-यात्री ने मंुझे पैसे नहीं देने दिए। उन्होने पानी पीने के बाद बीड़ी का बंडल निकाल कर मेरी तरफ बढ़ाया। मेरे इंकार करने पर उन्होने सुलगा ली। अब बातों का सिलसिला षुरू हो गया। एक दूसरे का पूरा परिचय होने के बाद उन्होने पूछा,‘रघवरपुरा कौनौ खास काम ते जाय रहे,परताप दद्दा से तिहाओ का रिष्ता?’
‘नही ंतो इटावा सरकारी काम से आए थे समय था सोचा बुआ जी का गाँव देख लिया जाय, प्रताप भाई मेरी बुआ के लड़के हैं।’
‘या तुम ठीक करी,आज काल तौ मनई अपनी ससुरारी तक अटक गए हैं। को इŸो पुरानेन को याद कŸा,भेटे तुम्हय अपनी बुआ की याद बनी रही यातो ईसुर की किरपै आय।’ यह कहते वक्त उनके चेहरे पर जो भाव दिखे वे मुझे अविभूत कर गए। जब हम लोगों ने चलने का उपक्रम बनाया तो उन्होने पूछा,‘रस्ता जान्त हौं?’
‘कहाँ, हमें बताया गया है कि फूफ के पास से एक सड़क वहाँ जाती है।’
‘अरे जबैं तक फूफ पहुँचिहैं तबैं तक अपने गाम होएंगे।’
मेरे सह-यात्री का नाम मोहर सिंह था। हम लोग गाँव की तरफ चल दिए। जैसे ही गाँव के बाहर निकले एक बड़ा सा तालाब दिखाई दिया। मोहर भाई ने बताया,‘लला जा विलायवर को ताल है। यहूँ कई बार दाऊजी ते पुलिस की मुठभेड़ भईती।’
‘यह दाऊ जी कौन हैं?’
‘अरे! तुम नहि जान्त, मान सिंह दाऊ को।’ यह कह वह मेरी तरफ देख कर मुस्कराए। षायद यह सोच रहे होंगें कि यह कैसा आदमी है जो उनके दाऊ जी को नहीं जानता। मोहर भाई ने अपने दाऊजी की विषेशताएं गिनानी षुरू की कि वह हर साल पचासों गरीब लड़कियों की षादियाँ करवाते थे,गरीबों की मदद करते थे, किसी गरीब को कोई सता नहीं सकता था। मेरे लिए यह सब सपना जैसा लग रहा था। एक डाकू ऐसा हो सकता है, यह मेरे सोच के परे था।
बीहड़ षुरू हो गया था। उस में करील,कीकर,बबूल,झरबेरियों आदि के पेड़ थे। गर्मी का महीना था, पूरा जंगल झुलसा हुआ था। मोहर भाई मेरे लिए गाइड का काम कर रहे थे। रास्ते भर वह यही बताते रहे यहाँ लाखन सिंह से यहाँ रूपा से पुलिस की मुठभेड़ हुई थी उसी के साथ-साथ पेड़ों और मिट्टी के टीलों में बने गोलियों के निषान भी दिखाते चल रहे थे। इतना सजीव वर्णन कर रहे थे कि कभी-कभी कानों में गोलियों की आवाजे बजने लगतीं और कभी वातावरण में बारूद की गंध महसूस होने लगती।ं अब उनकी बातो मे मुझे खूब रस आने लगा था, और खूब मनोरंजन हो रहा था जिससे सफर की थकान भी नहीं महसूस हो रही थी। तब तक बीहड़ में गाँव दिखा। गर्मी के दिन थे प्यास लग आई थी। हम लोग कुएँ के पास पहुँचे। वहाँ एक भद्र पुरुश नीम के पेड़ के नीचे दो मिट्टी के बड़े घड़ों मे पानी के साथ एक डलिया में खरपुरी( षकर के बड़े बताषे) लिए बैठे थे। मोहर भाई ने राम-राम की। उन्होने मुस्करा के स्वागत करते हुए पूछा,‘ आव मोहर, इŸो घाम मा कहाँ ते आय रहे?’
‘ददा,इटाए गए ते।’
‘साथ में जे लला कौन है?’
‘ ए मामा को लरिका है।’
मोहर भाई का इस तरह मेरा परिचय देना, मेरी नजर में उनका सम्मान और बढ़ा गया। इसके के बाद उन्होने पानी पीने का आग्रह किया। खरपुरी खा कर पानी पिया गया। जब हम लोगों ने विदा मंागी तो दुबारा आने के आग्रह के साथ उन्होने राम-राम की। जब मैने उनके पैर छुए तो उन्होने गद-गद होते हुए मुझे गले से लगा लिया।
रास्ते मे मैंने उनके बारे मे मोहर भाई से पूछा तो उन्होने बताया,‘ जे बौहरे हैं।’
‘बौहरे कौन होते हैं?’
‘ अरे तुम बौहरे नहि जांत, जो ब्याज पै रुपैया देत है वाको बौहरे कहत, यह भी हमाए परिवारी हैं। गर्मी भर सबै को पानी पिलात हैं, और जई को बे पूजा मान्त हैं ।’
मैं सोचने लगा एक मेरे षहर के आदमी हैं जो इस तरह के काम के बारे में सोच भी नहीं सकते,एक यह अति पिछड़े जंगली इलाके का संपन्न व्यक्ति लोगों की सेवा को पूजा मानता है, यहाँ के डाकू गरीब कन्याओं की षादियाँ करवाते हैं,गरीबों की मदद करते हैं तो इन लोगों पिछड़ा कैसे कह सकते हैं। फिर मेरे दिमाग में तिरने लगा कि जब यहाँ इतने अच्छे लोग बसते हैं तो फिर अपनी कन्याओं को कैसे मारते होंगे। समय पता ही नहीं लगा कि मोहर भाई ने बताया कि उनका गाँव आगया। जब मैने उनसे विदा माँगी तो वह बोले,‘लला इŸो तौ निर्मोही न बनव।’
‘कुछ गलती हुई क्या भाई साहब?’
‘अरे घर के पास ते आयकै बिना देहरी लांघें चल दए जे कछु अच्छी बात है का?’
मैं उनके आग्रह को न ठुकरा सका और उनके घर की तरफ चल पड़ा। उनके घर पहुँचने पर जिस तरह का मेरा स्वागत हुआ वह मेरी कल्पना से परे था। घर घुसते ही मोहर भाई ने अपनी माँ को पुकारते हुए कहा,‘ अम्मा देखव, हम तिहाए भतीजे को लै आए।’ वह बेचारी उनका मुँह ताकने लगीं। वह फिर बोले,’जो लला परताप ददा को मामा का लरिका आय तौ तिहाओ भतीजो न भओ का?’ इतना सुनते ही वह मेरे तरफ बढ़ती हुई बोलीं,‘ अरे यो लला हमायी जमुना जिजी को भतीजो है तौ हमाओ काहे नाँय।’
मैंने उनके पैर छुए, उन्होने मुझे गले से लगा लिया। उनके आँखों से आँसू बह रहे थे। थोड़ी देर बाद वह संयत हुईं। वह बोलीं,‘ लला जा तुम अच्छो करो जो तुम आय गए। तिहायी सौं लला तुम्हय देख कै अइसो लगो कि हमय हमाए भइया-भौजी मिल गए,अपनो गाँव देख लओ। जमना जिजी बड़ी भाग वाली हैं जिन्हय तिहाए जैसो भतीजो मिलो।’ उन्होने मेरा हाथ ऐसे पकड़ रखा था कि जैसे मैं उन को छोड़ कर कहीं भाग जाऊँगा। उस गाँव में मेरे गाँव के आस पास गाँवो की तमाम लड़कियाँ ब्याहीं थी जो आज उम्रदराज हो गईं है और रिस्ते में सब मेरी बुआ ही लगती हैं। सब की केवल एक ही षिकायत थी कि उनके भतीजों ने उन्हे भुला दिया है। उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर अपना मायका देखने की ललक उन्हे ब्याकुल किए है। वे सभी मुझे घेर कर इस तरह दुलार रहीं थीं जैसे वे सब की सब मेरी सगी बुआ हों। मेरे हिसाब से वे सब मेरी सगी बुआएं थीं। उनके स्नेह की फुहारें अनवरत झर रहीं थीं, जिन्होने मेरे तन-मन को पूरी तरह से भिगो दिया था। मैं उस समय कल्पना लोक में विचरण कर रहा था जहाँ स्नेह को छोड़ किसी चीज के लिए कोई स्थान नहीं था।
मैने जब चलने की आज्ञा मांगी तब तक मोहर भाई साहब की पत्नी भोजन लेकर आगईं। काफी ना-नुकर करने के बाद भी मेरी मुँहबोली बुवाओं ने जिस स्नेह से भोजन कराया आत्मा तृप्त हो गई। पर एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी कि जहाँ स्नेह का निरंतर प्रवाह हो वहाँ नवजात कन्याओं की हत्या? यह प्रष्न मेरे जेहन में बार-बार हाॅन्ट कर रहा था। मुझे यह लग रहा था कि इस इलाके के बारे में यह झूठी खबर फैलाई गई है। जब मैंने विदा मांगी तो मुझे इस षर्त पर विदा मिल पाई कि मैं लौटते समय उन लोगों से मिल कर जाऊंगा। बाहर आकर देखा तो मेरी सायकिल वहाँं नहीं थी। मोहर भाई ने बताया कि वह बुआ के गाँव भिजवा दी है। उन्होने अपनी फिरक(छोटी बैल गाड़ी) निकाली उस पर बैठ हम लोग बुआ के गाँव को चल दिए। गाँव के बाहर एक बिना जगत का कुँआ दिखा। मैने मोहर भाई साहब से पूछा,‘ गाँव के लोग इतनी दूर से पानी लेने आते हैं?’
‘जामे पानी नाँय,या तो अंधुआ आय।’ मैं उनकी ओर देखने लगा। तब वह फिर बोले,‘यासे पानी कभौं नाहि भरो गओ। जा दूसरे काम के खातिर बनाओ गओ हतो,अब जाको को काम खतम हुइगवो।’
‘किस काम के लिए बनाया गया था?’ मेरे इस सवाल ने उनके चेहरे को विवर्ण कर दिया। मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ।
मैंने माँफी माँगते हुए उनसे कहा,‘माफ करना भाई साहब लगता यह बात मुझे नहीं पूछना चाहिए थी।’
‘नहीं-नहीं ऐसी कछु बात नांय।’ इतना कह कर वह चुप हो गए। मैंने भी बातों का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया।
हम लोग इधर-उधर की बातें करते बुआ के गाँव पहुँच गए। मेरे उस प्रष्न से मोहर भाईसाहब सामान्य नहीं हो पाए थे। उनकी इस चुप्पी ने बहुत कुछ बता दिया था। खाना मोहर भाई साहब के यहाँ से खाके आए थे पर बुआ जी ने अपनी सौगंध देकर एक गिलास दूध पिला दिया। रात में मेरे जेहन में वही कुआँ घूमता रहा। सुबह उठ कर मैंने बुआ जी से उस कुएं के बारे में पूछा तो वह बोलीं,‘लला भोर होतइ का तुमने नठिया मनहूस को नांव लैदवौ।ं’
‘वह मनहूस क्यों है?’
‘वह मनहूस क्यों है?’
बुआ कुछ बतातीं तब तक भाई साहब आगए और बात अधर में रह गई। नाष्ता करने के बाद हम लोग बाहर आगए। प्रताप भाई साहब ने अपना गाँव दिखाने की पेषकष की मैं फौरन तैय्यार हो गया। उनका गाँव काफी बड़ा है। उस गाँव में कई थोक(मुहल्ले) हैं। उन्होने बताया कि उनके गाँव का रक़बा इतना बड़ा है कि इसके लिए यहाँ तीन पटवारी हैं। हम लोगों को गाँव घूमते और लोगों से मिलते जुलते काफी देर हो गई थी भोजन का समय हो गया था हम लोग घर लौट आए। षाम को हम गाँव के दूसरी तरफ गए । गाँव के उस हिस्से के आगे बीहड़ है। बीहड़ देखने की इच्छा से थोड़ी दूर आगे की तरफ बढ़े तो एक बड़ा सा कुआँ दिखाई दिया। उसकी जगत टूटी हुई थी तथा आस-पास झाड़ियाँ उगी हुईं थीं। जिससे यह मालूम पड़ रहा था कि सालों से इसका कोई इस्तेमाल नहीं हुआ है। तब तक भाई साहब की आवाज सुनाई दी,‘लला इतै आइयो।’ मैं कुएं से हट कर उनकी तरफ चल दिया। पास आने पर मैंने उनसे पूछा,‘ ददा,इस कुएं का अब इस्तेमाल नहीं होता है क्या?’
‘ कौन सो कुआँ?’
मैने उस कुँए की ओर इषारा करते हुए बताया,‘ वह कुआँ।’
‘ ना, वा अब नाँय बैपरो जात, तुम वाके पास काहे को गए?’
‘ ऐसे ही।’
‘ कौन सो कुआँ?’
मैने उस कुँए की ओर इषारा करते हुए बताया,‘ वह कुआँ।’
‘ ना, वा अब नाँय बैपरो जात, तुम वाके पास काहे को गए?’
‘ ऐसे ही।’
लगता था कि भाई साहब मेरे उŸार से संतुश्ट नहीं थे। उनके चेहरे पर चिंता की रेखाएं फैली हुईं थीं। हम लोग चुपचाप घर की तरफ चल रहे थे। माहौल को हल्का बनाने की गरज से मैंने भाई साहब से पूछा,‘दद्दा क्या मुझे उस कुँए के पास नहीं जाना चाहिए था? लगता है मैंने वहाँ जाकर गलती की है, मुझे नहीं मालूम था कि वहाँ नहीं जाना चाहिए था। यह सब अनजाने में हुआ, इसके लिए आप मुझे माफ करदें।’
‘नाँय-नाँय ऐसी कउनौ बात नाँय, जामे माफी की का बात।’ लेकिन मुझे जाने क्यों लग रहा था कि भाई साहब अब भी संतुश्ट नहीं थे। वह अपने रोक नहीं पाए। उन्होने फिर पूछा,‘ लला तिहाए को हमाई सौं, सही-सही बतइय्यो तुम वाके पास जानबूझ के गए हते?’
‘हाँ दद्दा।’
‘काहे?’
‘ हाँ, गाँव में अम्मा ने बताया था कि आपके यहाँ एक बुआ जू को कुआँ है जिसमें नवजात बच्चियों को मार कर फेंक दिया जाता है। यह वही कुआँ तो नहीं है?’
‘ तुम ठीक कहत, जे है तौ वई।’
‘नाँय-नाँय ऐसी कउनौ बात नाँय, जामे माफी की का बात।’ लेकिन मुझे जाने क्यों लग रहा था कि भाई साहब अब भी संतुश्ट नहीं थे। वह अपने रोक नहीं पाए। उन्होने फिर पूछा,‘ लला तिहाए को हमाई सौं, सही-सही बतइय्यो तुम वाके पास जानबूझ के गए हते?’
‘हाँ दद्दा।’
‘काहे?’
‘ हाँ, गाँव में अम्मा ने बताया था कि आपके यहाँ एक बुआ जू को कुआँ है जिसमें नवजात बच्चियों को मार कर फेंक दिया जाता है। यह वही कुआँ तो नहीं है?’
‘ तुम ठीक कहत, जे है तौ वई।’
उनके यह बताने पर उस कुएं को ठीक से देखने की इच्छा और तीव्र हो गई। मैंने उनसे पूछा,‘दद्दा, आप कहें तो एक बार उसे फिर देख लें?’ अबकी बार दद्दा ने नहीं रोका। मैं उस कुँएं के पास पहुँच गया। यहाँ के कुँएं वैसे ही काफी गहरे होते हैं। मैंने उसके भीतर झाँका पर सिवा अंधेरे के कुछ नहीं दिखा।
हम लोग घर की ओर चल दिए। घर आते-आते षाम हो गई थी। दद्दा बुआ से कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे थे। थोड़ी देर बाद बुआ ने मुझसे पूछा,‘लला तुम वा कुआँ पै गए हते।’
‘हाँ,बुआ।’
‘काहे के लए।’
‘आप ही तो एक बार गाँव में अम्मा से इस कुआँ के बारे में बता रहीं थीं।’ अब बुआ चुप हो गईं। मैंने उनसे पूछा,‘क्यों बुआ यह वही कुआँ है न जिसमे पैदा होते ही लड़कियों को मार कर फेंक दिया जाता था।’
बुआ ने रोते हुए बताया,‘हाँ लला, जा वई अभागो कुँआ है,जाने हमाई तीन बिटिना खाय लईं। या गाम के पुरखन की मूछें बहुत ऊँची हतीं। वे चाहत हते बिनके गाम मा बरात न आय,बिनको काहू के पांय न पूजने पड़ैं।’
आप लोग इस बात का विरोध नहीं करती थी।’ जब तक बुआ बोलतीं उनकी जेठानी बोल पड़ीं,‘ बिरोध कŸो तौ हमउ वाई कुआ मा पहुच जाते।’ फिर बुआ बोलीं,‘जांत हौ, जब तुम्हाई दीदी हमाए पेट मा आई हती ता हम तुम्हाए गाम चले गए ते। तुम्हाए फूफा हमय छोड़ आएते। जब हमाए ससुर का मालुम भयो तौ वे तिहाए फूफा ते बोले यातौ बहू का लइआव नाहि तौ घर ते निकर जाव।’
‘फिर?’
‘बे फौज मा भरती हुइगै। अपने बाप के मरँय के बादइ गाम गए।’
‘क्या अब भी लड़कियों के साथ अब भी वैसा होता है?’
‘ना अब अइसो ना होत, अब हम लोगन को राज है।’ यह कहते हूए उनके चेहरे की चमक और संतोश देखने लायक था।
‘इस कुआँ का नाम बुआ जू का कुआँ क्यों पड़ा?’
‘हमाए दाऊ की बड़ी बिटियव जाय गाम मा बिहाई हतीं। पर दाऊ के कोऊ लरिका नाय हतो तौ उन्नय जीजी को को अपनय ंिढगय रख लओ हतौ। उनकै एक बिटिया हती जो मैनपुरी मा बिहाई रहय। वा एक विहाए मा आई रहँय, वाई टेम वहिकी चाची नै बिटिया जनी, तौ उनके बब्बा नै वा बिटिया को मारन को हुकुम करदौ।’
‘फिर?’
‘फिर का वो बिटिया को गोद मा डाल कै बैठ गईं।’
‘फिर।’
‘उनके बब्बा नै उनकी गोद ते बिटीना को छीन कै वाके मुँह मै तमाखू भर दई औ वाको लइकै वई कंुआ मा डार दवो।’
‘फिर?’
हम लोग घर की ओर चल दिए। घर आते-आते षाम हो गई थी। दद्दा बुआ से कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे थे। थोड़ी देर बाद बुआ ने मुझसे पूछा,‘लला तुम वा कुआँ पै गए हते।’
‘हाँ,बुआ।’
‘काहे के लए।’
‘आप ही तो एक बार गाँव में अम्मा से इस कुआँ के बारे में बता रहीं थीं।’ अब बुआ चुप हो गईं। मैंने उनसे पूछा,‘क्यों बुआ यह वही कुआँ है न जिसमे पैदा होते ही लड़कियों को मार कर फेंक दिया जाता था।’
बुआ ने रोते हुए बताया,‘हाँ लला, जा वई अभागो कुँआ है,जाने हमाई तीन बिटिना खाय लईं। या गाम के पुरखन की मूछें बहुत ऊँची हतीं। वे चाहत हते बिनके गाम मा बरात न आय,बिनको काहू के पांय न पूजने पड़ैं।’
आप लोग इस बात का विरोध नहीं करती थी।’ जब तक बुआ बोलतीं उनकी जेठानी बोल पड़ीं,‘ बिरोध कŸो तौ हमउ वाई कुआ मा पहुच जाते।’ फिर बुआ बोलीं,‘जांत हौ, जब तुम्हाई दीदी हमाए पेट मा आई हती ता हम तुम्हाए गाम चले गए ते। तुम्हाए फूफा हमय छोड़ आएते। जब हमाए ससुर का मालुम भयो तौ वे तिहाए फूफा ते बोले यातौ बहू का लइआव नाहि तौ घर ते निकर जाव।’
‘फिर?’
‘बे फौज मा भरती हुइगै। अपने बाप के मरँय के बादइ गाम गए।’
‘क्या अब भी लड़कियों के साथ अब भी वैसा होता है?’
‘ना अब अइसो ना होत, अब हम लोगन को राज है।’ यह कहते हूए उनके चेहरे की चमक और संतोश देखने लायक था।
‘इस कुआँ का नाम बुआ जू का कुआँ क्यों पड़ा?’
‘हमाए दाऊ की बड़ी बिटियव जाय गाम मा बिहाई हतीं। पर दाऊ के कोऊ लरिका नाय हतो तौ उन्नय जीजी को को अपनय ंिढगय रख लओ हतौ। उनकै एक बिटिया हती जो मैनपुरी मा बिहाई रहय। वा एक विहाए मा आई रहँय, वाई टेम वहिकी चाची नै बिटिया जनी, तौ उनके बब्बा नै वा बिटिया को मारन को हुकुम करदौ।’
‘फिर?’
‘फिर का वो बिटिया को गोद मा डाल कै बैठ गईं।’
‘फिर।’
‘उनके बब्बा नै उनकी गोद ते बिटीना को छीन कै वाके मुँह मै तमाखू भर दई औ वाको लइकै वई कंुआ मा डार दवो।’
‘फिर?’
‘बुआ जू बब्बा के पाछे वा मोढ़ी के बचावन लाने भग रहीं ती जब बिन्ने देखे कै बब्बा ने वा बिटीना को कुआ मा डार दवौ वोऊ बाके पाछे वई कुआ मा कूद गईं। तबसों वा कुआ को नाम बुआ जू को कुआ हुइ गओ।’
मन बड़ा भारी हो गया था,उस रात बिना खाए सो गया। रात में ठीक से सो भी न पाया। जब आँख लगती तो सपने में बब्बा उस बच्ची को लिए कुँंआ के तरह भाग कर जाते हुए और उनका पीछा करती बुआ जू दिखाई देतीं थीं, और कभी हजारों लड़कियाँ मुझे घेरे सवाल कर रहीं थीं कि आखिर उनका दोश क्या है? मैं घबरा कर आखें खोल देता था,फिर डर के मारे सोने की हिम्मत नहीं कर पाता था।
मन बड़ा भारी हो गया था,उस रात बिना खाए सो गया। रात में ठीक से सो भी न पाया। जब आँख लगती तो सपने में बब्बा उस बच्ची को लिए कुँंआ के तरह भाग कर जाते हुए और उनका पीछा करती बुआ जू दिखाई देतीं थीं, और कभी हजारों लड़कियाँ मुझे घेरे सवाल कर रहीं थीं कि आखिर उनका दोश क्या है? मैं घबरा कर आखें खोल देता था,फिर डर के मारे सोने की हिम्मत नहीं कर पाता था।
दूसरे दिन मैं बुआ से विदा लेकर चल दिया। मोहर भाईसाहब अपने गाँव के बाहर मेरा इंतजार कर रहे थे। मुझे देखते ही बोले,‘लला तुम आयगए हम तौ तुम्हय लेन आय रहेय ते।’
‘आप ने कैसे सोच लिया था कि मैं बगैर आप लोगों से मिले चला जाऊँगा।’ मैं उनके घर पहँुचा बड़ा आत्मीयतापूर्ण स्वागत हुआ। मोहर भाई साहब की माता जी केवल उनकी माता जी ही नहीं रह गयीं थी,ं वे मेरी अपनी सगी बुआ बन चुकी थंी। मैं अभी तक नार्मल नहीं हो पाया था। मेरे उतरे चेहरे को देख कर बोलीं,‘लला काहू नै कछु कह दवौ का?’
‘नही ंतो बुआ।’
‘लला हम न मान सकत कि तुम एसैइ उदास हौ, तिहाए को हमाई सौं बताअ का बात है।’
मैंने बुआ को बुआ जू के कुँआ के बारे में सब बताया। वे भी सुन कर रोने लगीं फिर बोलीं,‘ लला ऐसे नठिया कुआ इतै सब गामन मा हैं, लला जे कुआ हमाई दुई बिटियन को खाय गओ।’
अब मुझे याद आया कि रास्ते में एक कुए के बारे मंे जबं मोहर भाई से पूछा था तो वह टाल गए थे। मैंने बुआ से पूछा,‘ क्या अब भी उस कुँएं का प्रयोग होता है?’
‘ना लला ना, अब कोऊ ऐसो सोचउ ना सकत, अब कोऊ वा लंग जातौ नाय।’
एक संतुश्टि का भाव लेकर वहाँ से विदा हुआ। मोहर भाई साहब मेरे साथ बीहड़ वाले गाँव तक जबरिया चले आए। बहुत मना करने पर बोले,‘ लला तुम जांत नाई जे बीहड़ को रास्तो आय कोऊ कहूं भटक जात तौ कहाँ ते कहाँ पहंुच जात, लला बरही तक बिना पहुंचाए हमे चैन न पड़ेगो।’
हम लोग बरही पहुचे, चंबल के पुल पर उन्होंनें अश्रुपूरित विदाई दी। मैं गंतब्य की ओर चल पड़ा। रास्ते में मुझे लगा कि बुआ जू मुझ से बार-बार यह पूछ रही हैं कि तुम उन कुओं की इतनी चिंता कर रहे हों जिनका वजूद भी मिट चुका है। क्या कभी अपने षहरों के उन कुओं के बारे में भीं सोचा है जो अस्पताल और नर्सिंग-होमों के रूप में खुद गए हैं, जिनमे हर साल हजारों कन्या भ्रूण फेंक दिए जाते हैं ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: