कहा जाता है कि आज का समय कविता विरोधी समय है।
अर्थात् हमारे समाज में पठन-पाठन का प्रतिशत पहले से कमतर हुआ है। यह एक
सच्चाई है। कारण कुछ भी रहे हो किन्तु इससे इन्कार नहीं किया जा सकता।
हांलकि इस परिदृष्य का एक दूसरा पहलू भी है। और वह है हिन्दी गीत-नवगीत की
विश्वसनीयता में बढ़त हुई है। मेरी समझ से इसके प्रमुख कारण हो सकते है-
उसकी जनोन्मुखता, लय-गेयता और सहजाभिव्यक्ति। निश्चित ही इन विशेषताओं के
कारण समकालीन गीत का समाजीकरण हो सका है। इतना ही नही ऐसी विकासोंन्मुखता
ने हमें अनेक गीतकवि भी दिए।
पिछले लगभग एक दशक में अनेक गीत संग्रहों से गुजरते हुए हमारी यह धारणा बनती गई है कि आज के गीतकवि के लिए गीत लेखन एक सामाजिक जिम्मेदारी है। कवि की समाजप्रियता और उसका अपना नजरिया उसे अपनी तरह का समकालीन रचनाकार बनाता है। ऐसे रचनाकार नवगीत की कथित समकालीनता और विचारधारा के झमेले में नही पड़े, किन्तु उनमें अपने समय को देखने और उससे जूझने का अपना तेवर है। काव्य भाषा गढ़ने का अपना विश्वास है। जिन गीत संग्रहों ने मुझे समकालीनता और सामाजिकता के अंतर-संबंधों पर विचार करने को बाध्य किया उनमें एक संग्रह ’मुट्ठी भर विश्वास’ भी है। इस संग्रह के रचनाकार हैं श्री रामावतार सिंह तोमर ’रास’।
रास जी सामाजिक सरोकारों के कवि हैं। किन्तु उनकी अध्ययनशीलता हमें पौराणिक काल तक ले जाती है। हिन्दी साहित्य में भारतीय मनीषा और वर्तमान व्यवस्था कभी-कभी दो विलोम ध्रुवों के रूप में सामने आती है, जहाॅ विलोम का दृन्दृ प्रकट करके भी जीवन मूल्यों की पहचान और उनकी हिफाजत की जाती है। कमोवेश सभी गीतकवियों ने उक्त तकनीक का प्रयोग किया है। इस दृष्टि से रास जी के भी अधिकांश गीत उल्लेखनीय है। यहाॅ गीत नं. 2 पर चर्चा की जा सकती है।
इस गीत की पौराणिकता उसके नेपथ्य से ध्वनित होती है। विचार करें तो लगता है कि भारत का जन्म ही यातनापूर्ण है। वास्तव में भारत का गौरवशाली इतिहास एक संघर्ष की गाथा है, किन्तु जीवन मूल्यों को स्थापित करने में इन्ही संघर्षो का महत्व है। यह गीत सांकेतिक भाषा में है। गीत की रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए रास जी के अवचेतन में दो मिथक बराबर कौंधते रहे होंगे। ये मिथक है अहिल्या और शकुन्तला। किन्तु गीत में इन दोनो की अनुपस्थिति गीत को संप्रेषणीय बना देती है। व्यक्ति का स्वभाव होता है। स्वप्न को देख्ना और उसको साकार करने का प्रयत्न करना, किन्तु तब, जब जीवन जीवन्तता से परिपूर्ण हो आशावान हो, उसमें स्वातंत्रयबोध हो। इसके विपरीत यदि व्यवस्था ने जीवन को परकटे पक्षी की तरह कर दिया है तो निश्चित है स्वप्न का ओझल हो जाना या मर जाना:-
पंख बिखरे रेत पर सपनों सरीखे
तब कहो कैसे सपन साकार हो।
इस तरह हमने देखा कि कवि के गीत भारतीय जीवन मूल्यों की पहचान को अधिकाधिक स्पष्ट और आस्थाप्रद बनाते है। जिसके लिए राजनीतिक उठा-पटक, वैश्विक घटनाक्रमों, प्रपंचों में न भटक कर जीवन की विसंगतियों, विरोधामासों आदि को आधार बनाया गया है। यह विरोधामास आधुनिक और पारम्परिक मूल्यों के टकराव के फलस्वरूप है। गाॅव और शहर आपस में अपरिचित हो रहे है। रिश्तों की जातीय संवदेना लुप्त हो, आक्रामक हो उठी है:-
घर का बरगद उखड़ गया है
एक झकोरे से
जब से घूॅघट खोल दिया है
नई बहुरिया ने।
यहाॅ घूॅघट खोल देने का संकेत है ’बाॅह चढ़ाना’ अर्थात मर्यादांए न केवल टूट गई बल्कि पुरानी और युवा पीढ़ियों के टकराव में बदल गई है। वे आमने-सामने हैं। इन गीतों में विसंगतियां अनेक रूपों में प्रकट हुई है, जैसे- तुलसी के स्थान पर कैक्टस है, मंदिर-मस्जिद व्यापारिक केन्द्र बन गए है, रोबोटी प्रवृत्तियां कविता लिख रही हैं, कौवों का मोतियों पर कब्जा है, रत्नाकर रत्नों से खाली हो गए, जहाँ ऐसे परिवेश में सच भी संदेहास्पद हो गया है। कहने का आशय यह है कि शब्द (मूल्य) अपने अर्थ खो रहे हें। ऐसे मानव विरोधी समय में रास जी बरगद और पीपल जो हमारे जीवन मूल्य है उनको पतझर जैसी अपसंस्कृति से बचाने मे प्रयत्नशील दिखाई देते हैं -
बड-पीपल बाहर बतियाते
सब की नजर बचा
किसके साथ भला क्या होगा
पतझर के अब दिन।" (पृष्ठ: 75)
रास जी को सामाजिक-सामूहिकतों में अटूट विश्वास है। ’अलाव’ संस्कृति से हम भलीभाॅति परिचित है। रास जी अलावा संस्कृति की वापसी पर जोर दे रहे है।
अनगिन यादें जुड़ जाएंगी
एक अलावा जलाकर देखें। (पृष्ठ: 21)
व्यक्ति का सर्वोत्तम आभूषण उसका आत्मबल होता हैं, उसका साहस होता हैं, भय तो आदमी के मन की दरार है। इन तथ्यों से कवि अनमिज्ञ नहीं है। उसके गीतों में उसका आत्मविश्वास कभी व्यंग्योंक्ति बनकर आता है, तो कभी साहस कवि की अभिव्यक्ति में काव्यत्व का अनूठा आस्वादन बन जाता है। यथा :-
कालीनों के पैर आजकल
कीलों की बातें करते है
तितली तक तो पकड़ न पाए
चीलों की बाते करते है।
पृष्ठ: 73-74
साहस जिनका साथी हो तो
उनके फिर क्या कहने।
पृष्ठ: 72
खण्डित वही हुआ करता है
जिसने मन में भ्रम को पाला। पृष्ठ: 77
रास जी स्वभाव से भावुक है। शायद यही वह प्रमुख कारण है जिसकी वजह से वे संघर्षशील है। आशावादी भी। उनका मानना सर्वथा उचित है कि ’भावना की जमीन पर ही कविता का विरवा उगता है।’ भावना को बुद्धि का स्पर्श मिलते ही भाषा में कविता समर्थ हो उठती है। किन्तु उनकी भाषा में काल्पनिकता या बिम्बात्मकता की जगह दार्षनिकता का प्रभाव अधिक दिखाई देता है।
जो मिला, वो ले लिया
फूल क्या अंगार क्या
जिन्दगीं तो है जुआ
जीत क्या है हार क्या
फिर लगाने हम चले
कीमती मन दाॅव में। पृष्ठ: 15
इसका कारण यही हो सकता है कि वे अनुभूतियों की बजाय अनुभवों को और प्रतीतियों से अधिक सूक्तियों को महत्व देते है। इसके बावजूद नवीनता उनकी दृष्टि में सर्वोपरि है।
चलो बसा लें नीड नया अब
तार-तार घर हुआ पुराना। पृष्ठ: 17
गीत की निर्मित अन्ततः भाषा की ही निर्मित होती है जो गीत के विभिन्न घटकों (छन्द, प्रास, कथ्य, शिल्प, आदि) की कीमिया से तैयार होती है, जिसे हम रचना प्रक्रिया कहा करते हैं। किन्तु-कभी कभी इन घटकों का असन्तुलन भाषा के प्रवाह को असहज बना देता है। इस दृष्टि से भी रचनाकार को मनन-चितंन करना चाहिए। कहा गया है - ’भाषा बहता नीर’। अतः भाषा के प्रवाह में निर्मलता और स्पष्टता आदि अपेक्षित है।
श्रीराम अवतार सिंह तोमर ’रास’ मुझे स्वभाव से संतोषी जान पड़ते है। इसका एक लाभ यह है कि वे अभावों और तनावों के बीच जीवन और गीत दोनों को एक साथ साध कर चलते है। उनकी रचनाधर्मिता में कथ्यगत चिंतन तो है ही काव्यत्व की दीप्ति भी दिखाई है। उन्हें न केवल देश की बल्कि दुनिया की भी खबर है क्योंकि उनके गीतों में ऐसे भी संकेत मिलते है जहां साम्राज्यवादी अवधाराणाएॅ अवसान की ओर जाती प्रतीत होती है। इस मायने में हिन्दी कविता के समकालीन परिदृष्य पर ’मुट्ठी भर विश्वास’ अपनी सोद्देश्यता अंकित करती है। साथ ही यह कृति आश्वस्त भी करती है कि कवि का अगला संग्रह अधिक पोटेंशियल होगा।
समीक्षक :
वीरेन्द्र आस्तिक
एल - 60, गंगविहार
कानपुर, उ प्र - 208010
मो. 9415474755
पिछले लगभग एक दशक में अनेक गीत संग्रहों से गुजरते हुए हमारी यह धारणा बनती गई है कि आज के गीतकवि के लिए गीत लेखन एक सामाजिक जिम्मेदारी है। कवि की समाजप्रियता और उसका अपना नजरिया उसे अपनी तरह का समकालीन रचनाकार बनाता है। ऐसे रचनाकार नवगीत की कथित समकालीनता और विचारधारा के झमेले में नही पड़े, किन्तु उनमें अपने समय को देखने और उससे जूझने का अपना तेवर है। काव्य भाषा गढ़ने का अपना विश्वास है। जिन गीत संग्रहों ने मुझे समकालीनता और सामाजिकता के अंतर-संबंधों पर विचार करने को बाध्य किया उनमें एक संग्रह ’मुट्ठी भर विश्वास’ भी है। इस संग्रह के रचनाकार हैं श्री रामावतार सिंह तोमर ’रास’।
रास जी सामाजिक सरोकारों के कवि हैं। किन्तु उनकी अध्ययनशीलता हमें पौराणिक काल तक ले जाती है। हिन्दी साहित्य में भारतीय मनीषा और वर्तमान व्यवस्था कभी-कभी दो विलोम ध्रुवों के रूप में सामने आती है, जहाॅ विलोम का दृन्दृ प्रकट करके भी जीवन मूल्यों की पहचान और उनकी हिफाजत की जाती है। कमोवेश सभी गीतकवियों ने उक्त तकनीक का प्रयोग किया है। इस दृष्टि से रास जी के भी अधिकांश गीत उल्लेखनीय है। यहाॅ गीत नं. 2 पर चर्चा की जा सकती है।
इस गीत की पौराणिकता उसके नेपथ्य से ध्वनित होती है। विचार करें तो लगता है कि भारत का जन्म ही यातनापूर्ण है। वास्तव में भारत का गौरवशाली इतिहास एक संघर्ष की गाथा है, किन्तु जीवन मूल्यों को स्थापित करने में इन्ही संघर्षो का महत्व है। यह गीत सांकेतिक भाषा में है। गीत की रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए रास जी के अवचेतन में दो मिथक बराबर कौंधते रहे होंगे। ये मिथक है अहिल्या और शकुन्तला। किन्तु गीत में इन दोनो की अनुपस्थिति गीत को संप्रेषणीय बना देती है। व्यक्ति का स्वभाव होता है। स्वप्न को देख्ना और उसको साकार करने का प्रयत्न करना, किन्तु तब, जब जीवन जीवन्तता से परिपूर्ण हो आशावान हो, उसमें स्वातंत्रयबोध हो। इसके विपरीत यदि व्यवस्था ने जीवन को परकटे पक्षी की तरह कर दिया है तो निश्चित है स्वप्न का ओझल हो जाना या मर जाना:-
पंख बिखरे रेत पर सपनों सरीखे
तब कहो कैसे सपन साकार हो।
इस तरह हमने देखा कि कवि के गीत भारतीय जीवन मूल्यों की पहचान को अधिकाधिक स्पष्ट और आस्थाप्रद बनाते है। जिसके लिए राजनीतिक उठा-पटक, वैश्विक घटनाक्रमों, प्रपंचों में न भटक कर जीवन की विसंगतियों, विरोधामासों आदि को आधार बनाया गया है। यह विरोधामास आधुनिक और पारम्परिक मूल्यों के टकराव के फलस्वरूप है। गाॅव और शहर आपस में अपरिचित हो रहे है। रिश्तों की जातीय संवदेना लुप्त हो, आक्रामक हो उठी है:-
घर का बरगद उखड़ गया है
एक झकोरे से
जब से घूॅघट खोल दिया है
नई बहुरिया ने।
यहाॅ घूॅघट खोल देने का संकेत है ’बाॅह चढ़ाना’ अर्थात मर्यादांए न केवल टूट गई बल्कि पुरानी और युवा पीढ़ियों के टकराव में बदल गई है। वे आमने-सामने हैं। इन गीतों में विसंगतियां अनेक रूपों में प्रकट हुई है, जैसे- तुलसी के स्थान पर कैक्टस है, मंदिर-मस्जिद व्यापारिक केन्द्र बन गए है, रोबोटी प्रवृत्तियां कविता लिख रही हैं, कौवों का मोतियों पर कब्जा है, रत्नाकर रत्नों से खाली हो गए, जहाँ ऐसे परिवेश में सच भी संदेहास्पद हो गया है। कहने का आशय यह है कि शब्द (मूल्य) अपने अर्थ खो रहे हें। ऐसे मानव विरोधी समय में रास जी बरगद और पीपल जो हमारे जीवन मूल्य है उनको पतझर जैसी अपसंस्कृति से बचाने मे प्रयत्नशील दिखाई देते हैं -
बड-पीपल बाहर बतियाते
सब की नजर बचा
किसके साथ भला क्या होगा
पतझर के अब दिन।" (पृष्ठ: 75)
रास जी को सामाजिक-सामूहिकतों में अटूट विश्वास है। ’अलाव’ संस्कृति से हम भलीभाॅति परिचित है। रास जी अलावा संस्कृति की वापसी पर जोर दे रहे है।
अनगिन यादें जुड़ जाएंगी
एक अलावा जलाकर देखें। (पृष्ठ: 21)
व्यक्ति का सर्वोत्तम आभूषण उसका आत्मबल होता हैं, उसका साहस होता हैं, भय तो आदमी के मन की दरार है। इन तथ्यों से कवि अनमिज्ञ नहीं है। उसके गीतों में उसका आत्मविश्वास कभी व्यंग्योंक्ति बनकर आता है, तो कभी साहस कवि की अभिव्यक्ति में काव्यत्व का अनूठा आस्वादन बन जाता है। यथा :-
कालीनों के पैर आजकल
कीलों की बातें करते है
तितली तक तो पकड़ न पाए
चीलों की बाते करते है।
पृष्ठ: 73-74
साहस जिनका साथी हो तो
उनके फिर क्या कहने।
पृष्ठ: 72
खण्डित वही हुआ करता है
जिसने मन में भ्रम को पाला। पृष्ठ: 77
रास जी स्वभाव से भावुक है। शायद यही वह प्रमुख कारण है जिसकी वजह से वे संघर्षशील है। आशावादी भी। उनका मानना सर्वथा उचित है कि ’भावना की जमीन पर ही कविता का विरवा उगता है।’ भावना को बुद्धि का स्पर्श मिलते ही भाषा में कविता समर्थ हो उठती है। किन्तु उनकी भाषा में काल्पनिकता या बिम्बात्मकता की जगह दार्षनिकता का प्रभाव अधिक दिखाई देता है।
जो मिला, वो ले लिया
फूल क्या अंगार क्या
जिन्दगीं तो है जुआ
जीत क्या है हार क्या
फिर लगाने हम चले
कीमती मन दाॅव में। पृष्ठ: 15
इसका कारण यही हो सकता है कि वे अनुभूतियों की बजाय अनुभवों को और प्रतीतियों से अधिक सूक्तियों को महत्व देते है। इसके बावजूद नवीनता उनकी दृष्टि में सर्वोपरि है।
चलो बसा लें नीड नया अब
तार-तार घर हुआ पुराना। पृष्ठ: 17
गीत की निर्मित अन्ततः भाषा की ही निर्मित होती है जो गीत के विभिन्न घटकों (छन्द, प्रास, कथ्य, शिल्प, आदि) की कीमिया से तैयार होती है, जिसे हम रचना प्रक्रिया कहा करते हैं। किन्तु-कभी कभी इन घटकों का असन्तुलन भाषा के प्रवाह को असहज बना देता है। इस दृष्टि से भी रचनाकार को मनन-चितंन करना चाहिए। कहा गया है - ’भाषा बहता नीर’। अतः भाषा के प्रवाह में निर्मलता और स्पष्टता आदि अपेक्षित है।
श्रीराम अवतार सिंह तोमर ’रास’ मुझे स्वभाव से संतोषी जान पड़ते है। इसका एक लाभ यह है कि वे अभावों और तनावों के बीच जीवन और गीत दोनों को एक साथ साध कर चलते है। उनकी रचनाधर्मिता में कथ्यगत चिंतन तो है ही काव्यत्व की दीप्ति भी दिखाई है। उन्हें न केवल देश की बल्कि दुनिया की भी खबर है क्योंकि उनके गीतों में ऐसे भी संकेत मिलते है जहां साम्राज्यवादी अवधाराणाएॅ अवसान की ओर जाती प्रतीत होती है। इस मायने में हिन्दी कविता के समकालीन परिदृष्य पर ’मुट्ठी भर विश्वास’ अपनी सोद्देश्यता अंकित करती है। साथ ही यह कृति आश्वस्त भी करती है कि कवि का अगला संग्रह अधिक पोटेंशियल होगा।
वीरेन्द्र आस्तिक
एल - 60, गंगविहार
कानपुर, उ प्र - 208010
मो. 9415474755
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