हैदराबाद, 14 अक्टूबर, 2015: साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ के तत्वावधान में खैरताबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज की अध्यक्षता में आयोजित एक समारोह में तीन पुस्तकों को लोकार्पित किया गया. तेवरी काव्यांदोलन के प्रवर्तक प्रो. ऋषभदेव शर्मा की समीक्षात्मक कृति ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण ‘भास्वर भारत’ के प्रधान संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने किया. प्रो. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ का लोकार्पण महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज ने किया. एटा, उत्तर प्रदेश के युवा समीक्षक डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह कृत ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ का लोकार्पण ‘पुष्पक’ की प्रधान संपादक तथा कादंबिनी क्लब और आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, हैदराबाद की संयोजक डॉ. अहिल्या मिश्र ने किया.
अध्यक्षीय भाषण में प्रो. देवराज ने लोकार्पित पुस्तकों की प्रासंगिकता के बारे में कहा कि ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ और ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ जैसी पुस्तकों के सृजन और संपादन की पृष्ठभूमि में इतिहासबोध के साथ समसामयिक प्रश्नों की गहरी समझ विद्यमान है. उन्होंने जोर देकर कहा कि एक भाषा के रूप में हिंदी भी अन्य भारतीय भाषाओँ के समान विकसित हो रही है तथा हिंदी सत्ता की भाषा नहीं बल्कि जनता की भाषा रही है. भाषायी राजनीति पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यदि राजनैतिक लाभ के लिए हिंदी से मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि को अथवा विद्यापति, तुलसी और जायसी को अलग कर दिया जाएगा तो उसके माध्यम से देश की संस्कृति को समझना संभव नहीं रह जाएगा जिससे हिंदी का ही नहीं हमारी राष्ट्रीय पहचान का भी नुकसान होगा इसलिए आज हिंदी भाषा की साहित्यिक योग्यता को पहचानने और उसमें निहित राष्ट्रीय मिथकों एवं सांस्कृतिक इतिहास को समझने की बड़ी आवश्यकता है. डॉ. देवराज ने याद दिलाया कि ‘’उत्तर आधुनिकता का जन्म निकारागुआ में हुआ था जो तीसरी दुनिया का देश है. 1912 में अमेरिका ने जबरदस्ती वहाँ के राजा को हटाकर सुनोजा नामक गुंडे को शासक बनाया. वहाँ के कवियों ने उसके खिलाफ कविताएँ लिखीं और अपनी कविताओं की उत्तर आधुनिक व्याख्या की थी और पहली बार ‘पोस्ट मोर्डनिज्म’ शब्द का प्रयोग किया था तथा यह शब्द जनहितैषी सरकार की स्थापना करने की परिकल्पना का द्योतक था.’’ उन्होंने संतोष व्यक्त किया कि लोकार्पित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ लीक से हटकर है क्योंकि इस पुस्तक की सामग्री अमेरिका और यूरोप द्वारा थोपी गई उत्तर आधुनिकता की जुगाली के खिलाफ है.
‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण करते हुए डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि एक ओर यह किताब हिंदी भाषा के विकास के विविध आयामों की गहरी पड़ताल करती है तो दूसरी ओर ठोस राजभाषा तथा विवेकपूर्ण भाषा-नीति की जरूरत की. उन्होंने हिंदी के विकास में दक्खिनी के योगदान को रेखांकित करने और साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी के पठन-पाठन और शोधकार्य तक का जायजा लेने के लिए लेखक की प्रशंसा की.
इसी क्रम में ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ शीर्षक पुस्तक पर बोलते हुए डॉ. अहिल्या मिश्र ने कहा कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के उस कवि रूप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है जिसे उनके अध्यापक रूप और समीक्षक रूप ने जबरन ढक रखा है. इस पुस्तक में कवि ऋषभदेव शर्मा की सामाजिक चेतना, राजनैतिक चेतना, लोक चेतना, स्त्रीपक्षीय चेतना और जनपक्षीय चेतना का सोदाहरण विवेचन है. उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के अट्ठावन वर्ष की आयु प्राप्त करने के संदर्भ में तैयार की गई है. इसमें कवि के लंबे साक्षात्कार के साथ साथ उनकी प्रतिनिधि कविताएँ और तेवरी काव्यांदोलन का घोषणा पत्र भी सम्मिलित हैं.
इस अवसर पर ‘साहित्य मंथन’, ‘श्रीसाहिती प्रकाशन’, ‘परिलेख प्रकाशन’, ‘कादम्बिनी क्लब’, ‘सांझ के साथी’, ‘विश्व वात्सल्य मंच’, शोधार्थियों और छात्रों द्वारा डॉ. ऋषभदेव शर्मा का सारस्वत सम्मान किया गया तथा प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ऋषभदेव शर्मा के परिचय-पत्रक का लोकार्पण किया. अभिनंदन-भाषण देते हुए प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि ‘’ऋषभदेव शर्मा के लेखन में विस्तार है, गहराई है. उनके लेखन में विशेष रूप से भाषा, साहित्य और संस्कृति के अनेक आयाम हैं. उनके साहित्य में भारतीय एकता की मौलिकता को देखा जा सकता है. हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं के साहित्य के मर्म को उन्होंने स्वाध्याय द्वारा आत्मसात किया है. विशेष रूप से तेलुगु साहित्य के प्रति उनका अनुराग उल्लेखनीय है.’’
तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के शताधिक हिंदी प्रेमियों ने उपस्थित होकर इस समारोह को भव्य बनाया. संयोजिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा और डॉ. मंजु शर्मा ने लोकार्पित कृतियों का परिचय कराया तथा समारोह का संचालन डॉ. बी. बालाजी ने किया.
अध्यक्षीय भाषण में प्रो. देवराज ने लोकार्पित पुस्तकों की प्रासंगिकता के बारे में कहा कि ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ और ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ जैसी पुस्तकों के सृजन और संपादन की पृष्ठभूमि में इतिहासबोध के साथ समसामयिक प्रश्नों की गहरी समझ विद्यमान है. उन्होंने जोर देकर कहा कि एक भाषा के रूप में हिंदी भी अन्य भारतीय भाषाओँ के समान विकसित हो रही है तथा हिंदी सत्ता की भाषा नहीं बल्कि जनता की भाषा रही है. भाषायी राजनीति पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यदि राजनैतिक लाभ के लिए हिंदी से मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि को अथवा विद्यापति, तुलसी और जायसी को अलग कर दिया जाएगा तो उसके माध्यम से देश की संस्कृति को समझना संभव नहीं रह जाएगा जिससे हिंदी का ही नहीं हमारी राष्ट्रीय पहचान का भी नुकसान होगा इसलिए आज हिंदी भाषा की साहित्यिक योग्यता को पहचानने और उसमें निहित राष्ट्रीय मिथकों एवं सांस्कृतिक इतिहास को समझने की बड़ी आवश्यकता है. डॉ. देवराज ने याद दिलाया कि ‘’उत्तर आधुनिकता का जन्म निकारागुआ में हुआ था जो तीसरी दुनिया का देश है. 1912 में अमेरिका ने जबरदस्ती वहाँ के राजा को हटाकर सुनोजा नामक गुंडे को शासक बनाया. वहाँ के कवियों ने उसके खिलाफ कविताएँ लिखीं और अपनी कविताओं की उत्तर आधुनिक व्याख्या की थी और पहली बार ‘पोस्ट मोर्डनिज्म’ शब्द का प्रयोग किया था तथा यह शब्द जनहितैषी सरकार की स्थापना करने की परिकल्पना का द्योतक था.’’ उन्होंने संतोष व्यक्त किया कि लोकार्पित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ लीक से हटकर है क्योंकि इस पुस्तक की सामग्री अमेरिका और यूरोप द्वारा थोपी गई उत्तर आधुनिकता की जुगाली के खिलाफ है.
‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण करते हुए डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि एक ओर यह किताब हिंदी भाषा के विकास के विविध आयामों की गहरी पड़ताल करती है तो दूसरी ओर ठोस राजभाषा तथा विवेकपूर्ण भाषा-नीति की जरूरत की. उन्होंने हिंदी के विकास में दक्खिनी के योगदान को रेखांकित करने और साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी के पठन-पाठन और शोधकार्य तक का जायजा लेने के लिए लेखक की प्रशंसा की.
इसी क्रम में ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ शीर्षक पुस्तक पर बोलते हुए डॉ. अहिल्या मिश्र ने कहा कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के उस कवि रूप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है जिसे उनके अध्यापक रूप और समीक्षक रूप ने जबरन ढक रखा है. इस पुस्तक में कवि ऋषभदेव शर्मा की सामाजिक चेतना, राजनैतिक चेतना, लोक चेतना, स्त्रीपक्षीय चेतना और जनपक्षीय चेतना का सोदाहरण विवेचन है. उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के अट्ठावन वर्ष की आयु प्राप्त करने के संदर्भ में तैयार की गई है. इसमें कवि के लंबे साक्षात्कार के साथ साथ उनकी प्रतिनिधि कविताएँ और तेवरी काव्यांदोलन का घोषणा पत्र भी सम्मिलित हैं.
इस अवसर पर ‘साहित्य मंथन’, ‘श्रीसाहिती प्रकाशन’, ‘परिलेख प्रकाशन’, ‘कादम्बिनी क्लब’, ‘सांझ के साथी’, ‘विश्व वात्सल्य मंच’, शोधार्थियों और छात्रों द्वारा डॉ. ऋषभदेव शर्मा का सारस्वत सम्मान किया गया तथा प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ऋषभदेव शर्मा के परिचय-पत्रक का लोकार्पण किया. अभिनंदन-भाषण देते हुए प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि ‘’ऋषभदेव शर्मा के लेखन में विस्तार है, गहराई है. उनके लेखन में विशेष रूप से भाषा, साहित्य और संस्कृति के अनेक आयाम हैं. उनके साहित्य में भारतीय एकता की मौलिकता को देखा जा सकता है. हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं के साहित्य के मर्म को उन्होंने स्वाध्याय द्वारा आत्मसात किया है. विशेष रूप से तेलुगु साहित्य के प्रति उनका अनुराग उल्लेखनीय है.’’
तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के शताधिक हिंदी प्रेमियों ने उपस्थित होकर इस समारोह को भव्य बनाया. संयोजिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा और डॉ. मंजु शर्मा ने लोकार्पित कृतियों का परिचय कराया तथा समारोह का संचालन डॉ. बी. बालाजी ने किया.
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