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रविवार, 6 मार्च 2016

प्रदीप शुक्ल और उनके नौ नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

प्रदीप शुक्ल

युवा रचनाकार डॉ. प्रदीप शुक्ल का जन्म 29 जून 1967 को लखनऊ जनपद के छोटे से गांव भौकापुर के एक किसान परिवार में हुआ। शिक्षा: बीएससी., एमबीबीएस, एमडी – बालरोग (स्वर्ण पदक)। वर्तमान में लखनऊ में एक हॉस्पिटल में कार्य करते हुए काव्य लेखन। प्रकाशित रचनाएँ : अ. संयुक्त काव्य संग्रह – नवगीत का लोकधर्मी सौन्दर्यबोध, वीथिका, पारिजात, अनुभूति के इन्द्रधनुष, कुण्डलिया संचयन। साथ ही विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, बालगीत, कुण्डलियाँ प्रकाशित। प्रकाशनाधीन : गुल्लू का गाँव (बालगीत संग्रह) एवं अम्मा रहतीं गाँव में (नवगीत संग्रह)। संपर्क : गंगा चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल, एनएच – 1, सेक्टर – डी, एलडीए कॉलोनी, कानपुर रोड, लखनऊ – 226012। ई-मेल : drpradeepkshukla@gmail.com

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. ओ मेरे मोबाइल

छूट गया हँसना बतियाना
भूल गया कहकहे लगाना
ओ मेरे मोबाइल!
तूने कैसा गज़ब किया

साथ-साथ बैठे हैं सारे
हर कोई स्क्रीन निहारे
सुई फेंक सन्नाटा
आखिर कैसा खींच दिया

होठों-होठों में मुस्काएँ
जल्दी-जल्दी बटन दबाएँ
कई प्रिया से एक साथ ही
चैटिंग करें पिया

एक नज़र है जली गैस पर
एक नज़र स्क्रीन के ऊपर
अरे-अरे वो टाइप कर रहा ...
धड़का जाय जिया

ओ मेरे मोबाइल!
तूने कैसा गज़ब किया।

2. गीत नये गायें
 
उन्ही पुरानी
बातों को
अब कब तक दुहरायें
नए स्वरों में
नई तरह से गीत नये गायें

कब तक
चाँद निहारे
गोरी खड़े-खड़े अँगना
मोबाइल से बात करे
जब याद करे सजना

सजनी बोले
आयें तो सब्जी लेते आयें

फूल-फूल पर
भंवरे गायें
गाने दो उनको
माली का बच्चा जो कहता
उसकी बात सुनो

बप्पा घर में
दाल नहीं है, खाना क्या खायें

रिमझिम
बारिश की
बातें तो बुधिया ही जाने
कैसे उसकी रात कटी
बिस्तर के पैताने

पुरवाई में
रुदन भरे सुर उसके लहरायें।

3. द्वारे पाहुन आये हैं  


बंदनवार

सजाओ
द्वारे पाहुन आये हैं

जब से
बने प्रधान
गाँव से बाहर ही रहते
कहते हैं पर लोग
गाँव की याद बहुत करते

यहाँ
गाँव में
नाली-नाले सब उफनाये हैं

गुर्गे उनके
सभी गाँव में
हैं डंडे वाले
सारे बड़े मकान
यहाँ पर हैं झंडे वाले

झुनिया के
दो भूखे बच्चे
फिर रिरियाये हैं

काफी थे
वाचाल
मगर अब हैं मौनी बाबा
भक्त कह रहे मुझे
न जाना अब काशी काबा

बड़े-बड़े
शाहों ने
अपने सर मुंडवाए हैं

बगल गाँव
के लोग
उन्हें बस शंका से ताकें
कभी मिलाएं हाँथ
कभी तो वो बगलें झांकें

कैसे उड़े
कबूतर
उसने पंख कटाये हैं।

4. यादों के पंछी उड़ते हैं


ये जुलाई की
रिमझिम बारिश
यादों के पंछी उड़ते हैं

सोमवार की
सुबह मची है
आपाधापी घर बाहर तक
चूल्हे पर जल रहा तवा है
अम्मा की चालू है खटखट

उधर पिताजी
मंदिर में बस
जल्दी-जल्दी कुछ पढ़ते हैं

कपड़े के बस्ते में
पोलीथिन से
लिपटी हुई किताबें
साथ उसी के खुंसी हुई है
टाट की बोरी, बाहर झाँके

हाँथ लिए
लकड़ी की पाटी
सरपट मेंड़ों पर बढ़ते हैं

बारिश रुकी
पढ़ाई चालू
गोल बना कर शुरू पहाड़ा
पंडित जी के हाँथ छड़ी है
छुपते बच्चे, सिंह दहाड़ा

कच्चे बर्तन हैं
कुम्हार की
चोटों से फूटे पड़ते हैं

हुई दोपहर
नन्हे शावक
कारागृह से छूट चुके हैं
और साथ ही सारे बंधन
उनके मन से टूट चुके हैं

झोला पाटी
फेंक अभी वो। 
जामुन की डाली चढ़ते हैं


5. मैं चाहूँगा
 

मैं चाहूँगा
राजा अपने यारों जैसा हो

महलों में
वो रहे मगर
कुटियों का दुख जाने
चतुर कुटिल मंत्री की
हरदम बात नहीं माने

बेईमान के
खातिर वो तलवारों जैसा हो

खुल कर
मन की बात कहे
हमको अच्छा लगता
कुछ बातों पर मौन मगर
सबको है अब खलता

चोर के साथ
सलूक न साहूकारों जैसा हो

देश मेरा
सोने की चिड़िया
भले न बन पाए
देखो मगर कबीरा की
चादर ना फट जाए

जुम्मन के
खातिर वो चाँद सितारों जैसा हो।

6. मैं कब डरता हूँ


तुम को रुकना हो रुक जाओ
मैं तो चलता हूँ

माना बहुत कठिन हैं राहें
आगे बढ़ने की
मन में लेकिन हैं इक्षायें
पर्वत चढ़ने की

तुम शिखरों के किस्से गाओ
मैं बस चढ़ता हूँ 


अभी-अभी तो सँभला था मैं
फिर से लुढ़क गया
देख सामने वाले का
दरवाजा उढ़क गया

तुम चाहो तो हँसी उड़ाओ
मैं फिर उठता हूँ

मान लिया है तुमने शायद
सब कुछ चलता है
सच को सच कहने में डर तो
सबको लगता है

तुम चाहो तो चुप रह जाओ
मैं कब डरता हूँ।

7. नहीं लौटे पुराने दिन

मेघ आये
पर नहीं लौटे, पुराने दिन

फिर घटा छाई
बुलाया
बादलों ने कर इशारे
बारिशें छत पर चढ़ीं
आवाज़ दें, हमको पुकारें

सुबह से
बाहर खड़ा है, ये बताने दिन

मखमली बूँदें
हवा के साथ
फिर से बहीं होंगी
मेघ की बातें जुही के
कान में कुछ कही होंगी

और हम
ऑफिस में हैं, ऐसे सुहाने दिन

सारसों का
एक जोड़ा
ताल पर फ़िर घूमता है
कोई आवारा जलद
फ़िर फुनगियों को चूमता है

लग गया है
राह में, किस्से सुनाने दिन।

8. बस जीने की कला नहीं आई

सब कुछ आया
बस जीने की कला नहीं आई

चाहा,
सब हों सुखी,
भले दुख हो जाए अपना
मगर देखते रहे हमेशा
सपनों में सपना

खुली आँख भी
सपने लेकिन भुला नहीं पाई

लगता था
इंसान हमेशा
अच्छा ही होता
ऐसा होता तो शायद
कितना अच्छा होता

संशय का पर
ज़हर जिंदगी पिला नहीं पाई

हम तो
जीवन में
ऐसे ही बेढंगे से हैं
भीतर बाहर मटमैले
रँग में रंगे से हैं

हुशियारी की कला,
हमें तो भला नहीं आई।

9. सुनिए राजन

ओ राजा जी !
मौन तोड़
कुछ तो बतियाओ

आँधी थी
जो उड़ा ले गई
राजमहल के कूड़ा घर को
ताज़ी हवा नई खुशबू है
ऐसा लगा मुझे पल भर को

फ़िर से वही
सड़ांध सुनो !
वापस मत लाओ

बदली नहीं
पुरानी चालें
बदले हैं केवल दरबारी
राजा जी को शिकन नहीं है
प्यादों की सेना है भारी

सुनिए राजन!
खेल सभी ये
बंद कराओ

सबक सीखिए
वरना आँधी तो
फिर-फिर आयेगी
फिर से कूड़ा राजमहल का
अपने साथ लिए जायेगी

केवल
अपने मन की बातें
नहीं सुनाओ
ओ राजा जी!
मौन तोड़
कुछ तो बतियाओ।

Dr Pradeep Shukla: Nine Navgeet

3 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ.प्रदीप शुक्ल10 मार्च 2016 को 9:24 pm बजे

    धन्यवाद अनुपमा जी

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  2. बहुत ही सुन्दर भीड़ से अलग ये नवगीत सही अर्थों में सृजन है . बहुत बहुत बधाई प्रदीप जी . सभी गीत बेजोड़ हैं .

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