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रविवार, 20 मार्च 2016

रामशंकर वर्मा और उनके पाँच नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

रामशंकर वर्मा

रामशंकर वर्मा का जन्म 08 मार्च 1962 को ग्राम-रानी जयदेई खेड़ा, पोस्ट-लउवा, जनपद-उन्नाव, उत्तर प्रदेश में हुआ। लेखन विधाएँ : गीत, नवगीत, दोहा, कुण्डलिया, हाइकु, मुक्तक, सवैया, घनाक्षरी, फाग इत्यादि। प्रकाशन : गीत-नवगीत संग्रह ‘चार दिन फागुन के’ के साथ सहयोगी काव्य संकलनों - समय का सारांश, कुंडलिया कानन, अभिव्यक्ति के इंद्रधनुष आदि में रचनाएँ प्रकाशित। सम्मान : अंतर्जाल पर प्रतिष्ठित संस्थान रक्षक फाउन्डेशन द्वारा प्रायोजित अंतरराष्ट्रीय काव्य प्रतियोगिता 'गौरव गाथा' के लिए लिखे गये गीत को प्रथम पुरस्कार। सम्प्रति : सिंचाई विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ में कार्यरत। संपर्क : टी-3/21, वाल्मी कॉलोनी, उतरेठिया, लखनऊ-226 025, मोबा : 09415754892, ई-मेल : rsverma8362@gmail.com।

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
(1) दूर हमारे गाँव में
 
सोच रहा बैठा मन मारे
बेड़ी डाले पाँव में
धूम मची होगी होली की
दूर हमारे गाँव में

महुआरी में टपकी होंगी
खुशबू भरी गिलौरी
गूलर की शाखों पर रक्खी
होंगी लाल फुलौरी
सौ-सौ घूँघरू बांधे होंगे
अरहर ने करिहांव में

फगुनाहट ने बदले होंगे
सम्बन्धों के तेवर
नयी नवेली को बाबा में
दिखते होंगे देवर
दो पल को फंस जाते होंगे
दुख उत्सव के दांव में

हेलमेल के रंगों वाला
झोला धरे बिसाती
“सदा अनंद रहै यहु ट्वाला”
फाग टोलियाँ गाती
ऐसे नयनसुखों से वंचित
उलझा कांव-कांव में।

(2) नौ लोटा भंग

चढ़ी फागुन को
नौ लोटा भंग रे
फिरे गलियों में करता
हुड़दंग रे

माथे पे टेसू का
केसरिया साफा
हल्दी की छाप लगा
हाथ में लिफाफा
सप्तपदी
बाँचे उमंग रे

नेह लगे बटनों का
पहने सलूका
सबरंग गुलाल मले
चेहरा भभूका
मन मथुरा
तन है मलंग रे

कौली के बंधन से
कोई न छूटे
आज कोई अपना
पराया न रूठे
गाये हुरियारों
के संग रे।
 
(3) खाली-खाली दिन

रूप, रंग, रस, गंधों की
कलई को खोते दिन
जंग लगे लोहे के टिन से
खाली-खाली दिन

सिर पर अक्षय आशीषों की
छतरी थामे हाथ
हर अनिष्ट का चूर्ण बनाते
वक्ष-शिला के पाट
इनको कर अपदस्थ
जमें अगियाबैताली दिन

रेशम-रेशम सम्बन्धों की
उधड़ गयी सीवन
कस्तूरी को चंचल हिरना
खोजे कदली वन
अनुरागों की फसल रोपकर
गायब माली दिन

झुकी रीढ़ पर खच्चर जैसी
पकड़ाई-पकड़म
भिनसारे से गए रात तक
बिकने की तिकड़म
बिन छेड़े फुँकार मारते
गेहुंवन ब्याली दिन।

(4) श्रवण कुमारों वाली दुनिया

श्रवण कुमारों वाली दुनिया
अब केवल आख्यान
गया कर रही माई-बाप की
जीते जी संतान

मर्मांतक पीड़ा में भी
अधरों पर फूल खिले
जब भी ये नौ माह पेट में
माँ के हिले-डुले
आज बने उसकी खुशियों के
राहु-केतु बलवान

एक पिता की टोका-टाकी
पर सौ-सौ फतवे
किचकिच सुनकर भूखे रहते
चूल्हे और तवे
साँय-साँय चौबीसों घंटे
करता घर-शमशान

माँ की सीख पिता का दर्शन
लगते हैं विषबान
अपने ढंग से जीना हमको
कहते हैं श्रीमान
कहते पैदा करके कोई
किया नहीं एहसान

पर साधो इस व्यथा-कथा पर
डालो भी अब धूल
देखो उधर उठी पतवारें
सजे हुए मस्तूल
समय लिखेगा इस यात्रा की
औंधी गिरी उड़ान।

(5) अभी लाखों बहाने

पेट से बटुए तलक का
सफर तय करते मुसाफिर
बात तू माने न माने
देश पर अभिमान करने
के अभी लाखों बहाने

शीशमहलों राजपथ जलसाघरों के
मध्य स्थित जो शिवाले
श्वेत वस्त्रों में यहाँ तैनात
जीवन दूत
जिनके हाथ में आले

जिंदगी की मौत पर
जय हो सुनिश्चित
हैं यही प्रण ठाने

शहर होगा भूख से व्याकुल
निरखती दूधिये की राह माँयेँ
याद रखता है अभी भी गाँव
सूट-टाई में अघायी
शख्सियतें अब भी
अदब से पीर के छूती हैं पाँव

झुर्रियों का
कवच पहने हाथ
देते हैं सभी को
चिर दुआओं के खजाने

सींकिया तन पर, पहन कर
हरित चूनर स्वर्ण झाले
आज भी फसलें थिरकतीं
झूम बीहू नृत्य करतीं
पर्व की गुझियाँ सिवइयाँ
एकता की थाल में हैं स्वाद भरतीं

हैं अभी भी
पेड़ के कोटर में सुग्गे
चोंच में गौरैया के दाने।


Ramshankar Verma, Lucknow, U.P.

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