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मंगलवार, 3 मई 2016

रविशंकर मिश्र 'रवि' और उनके छः नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

रविशंकर मिश्र 'रवि'

युवा गीतकवि रविशंकर मिश्र 'रवि' का जन्म 04 सितम्बर 1982 को राजापुर खरहर, रानीगंज, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ। शिक्षा: इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक। प्रकाशन: कई नवगीत प्रिंट पत्रिकाओं एवं ई–पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित। प्रकाशित कृति: महर्षि दधीचि (खण्डकाव्य, 1998)। समवेत संकलन: नचिकेता द्वारा संपादित गीतकोश 'गीत–वसुधा' व राधेश्याम 'बन्धु' द्वारा संपादित 'नवगीत का लोकधर्मी सौन्दर्यबोध' में रचनाएँ प्रकाशित। उपलब्धियाँ: सन् 1993 से आकाशवाणी से कविताओं का प्रसारण एवं पिछले कुछ वर्षों से अभिव्यक्ति–अनुभूति द्वारा आयोजित नवगीत कार्यशालाओं में सहभागिता। सम्मान: कविकुल, प्रतापगढ़ द्वारा  2014  का 'साहित्य–गौरव' एवं तुलसी साहित्य अकादमी, भोपाल द्वारा वर्ष 2014 के लिये 'हिन्दी–गौरव' सम्मान। सम्प्रति: भारत संचार निगम लि., प्रतापगढ़, उ. प्र. में कार्यरत। संपर्क: 2/2 टेलीफोन कॉलोनी, दहिलामऊ, प्रतापगढ़, (उ. प्र.) – 230001, मोबाइल: 9454313344, ई-मेल: ravishm55@gmail.com।

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
 1. पीढ़ा भर जमीन
 
ऊपर हम कैसे उठें
टूटी हैं सीढ़ियाँ
पीढ़ा भर जमीन को
लड़ीं कई पी़ढ़ियाँ

बैल बिके, खेत बिके
और बिके बर्तन
किन्तु सोच में नहीं
आया परिवर्तन
अमन-चैन की फसल
चाट गयीं टिड्डियाँ

थाना, कचहरी
कुछ भी न छूटा है
वजह मात्र इतनी है
गड़ा एक खूँटा है
खूँटे ने दिलों में भी
गाड़ी हैं खूँटियाँ

गाँवों के आदमी
भी अजीब दीखे हैं
दुखी देख सुखी हुये
सुखी देख सूखे हैं
तोड़ दी समाज ने
रीढ़ों की हड्डियाँ

2.
नयी बहू

धीरे-धीरे गुन-शऊर का
राज़ रहा है खुल
बाँध रहा घर नयी बहू की
तारीफ़ों के पुल

झटपट आटा गूँथ, पूरियाँ
तलती नरम-नरम
खाना बने कि सब जन उँगली
चाटें छोड़ शरम
ननद बताती सबसे
कैसे चलती है करछुल

पाँव महावर हाथों मेंहदी
माथे पर है बिंदिया
गवने आते उड़ा गयी है
दो नैनों की निंदिया
इक मन जब तब करता रहता
है कुलबुल कुलबुल

सुन्दर है सुशील तो है ही
मीठी कितनी बोली
पढी-लिखी गृहकार्यदक्ष है
पर मन की है भोली
नयी बहू को मिलना ही है
नम्बर सौ में फुल।

3.
जाने-अनजाने
 
उनके प्रति कृतज्ञ होने के
अपने माने हैं
जिनके आँसू के दमपर
अपनी मुस्कानें हैं

पड़ी बिवाई नहीं पाँव में
हम क्या जाने पीर पराई
फूल बिछे रस्तों पर चलकर
हमने अपनी मंज़िल पाई
कांटों पर चलकर जो
मंजिल से बेगाने हैं

अगर विश्व में सुख-दुख सबको
एक बराबर बाँटे जाते
तब तो अपने भी हिस्से में
दुख जाने कितने ही आते
मेरे दुख की गठरी भी
जिनके सिरहाने है

हमें मिला जो उसके कितने
ही हकदार रहे होंगे
हमसे बेहतर हमसे काबिल
भी किरदार रहे होंगे  
जिनका हक हमने छीना
जाने-अनजाने है 


4.
चलने की जुम्बिश

दुख हैं
पर खुश रहने की
कोशिश भी होती है
तेज धूप भी
हल्की-सी
बारिश भी होती है

हर सुख के
साधन के आगे
पैसा अड़ता है
उड़ने की सोचो
तो घर का
बजट बिगड़ता है
भली ज़िन्दगी जीने की
ख़्वाहिश भी होती है

अभी हमें
कितनी ही नदियाँ
पार उतरनी हैं
बढे हुए
ब्लड प्रेशर की
चिन्ता भी करनी है
पाँव थके, पर चलने की
जुम्बिश भी होती है

5.
लोकतंत्र की नाव

जाने कैसे हाथों में
ये देश-रसोई है
दूध चढ़ाकर चूल्हे पर
गुनवंती सोई है

भूखी जनता बाहर
राह निरखती रहती है
भीतर जाने क्या-क्या
खिचड़ी पकती रहती है
परस गया थाली में फिर
आश्वासन कोई है

पकें पुलाव ख़याली
सपनों में देशी घी है
मुखरित होते प्रश्नों का
उत्तर बस चुप्पी है
आज़ादी ने अब तक केवल
पीर सँजोई है

हमें पता है षड्यन्त्रों में
शामिल कौन रहा
नदी लुट गयी मगर
हिमालय पर्वत मौन रहा
राजनीति ने लोकतंत्र की
नाव डुबोई है

6. खिला न कोई फूल

खिला न कोई फूल
प्रफुल्लित टहनी नहीं हुयी
आज सुबह से मुस्कानों की
बोहनी नहीं हुयी

चाय अकेले पी है
मन ज्यों टूटा-टूटा है
कल से ही घर का मौसम
कुछ रूठा-रूठा है
बीच उठी दीवार अभी तक
ढहनी नहीं हुयी

गोंद नहीं आयी, मेरी
ममता भी रही ठगी
जाने क्यों बिटिया भी
रोते-रोते आज जगी
कैसे कह दूँ कोई पीड़ा
सहनी नहीं हुयी

भूली दवा पिताजी की
दिन कितना व्यस्त रहा
अम्मा का टूटा चश्मा भी
मुझसे त्रस्त रहा
पछतावे की व्यथा किसी से
कहनी नहीं हुयी। 


Ravishankar Mishra 'Ravi', Pratapgarh, U.P.

1 टिप्पणी:

  1. बहुत बढ़िया
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