कृति : समय की आँख नम है कवि : विनय मिश्र प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर मूल्य : 110/- रूपये वर्ष : 2014, पृष्ठ : 114 |
विनय मिश्र |
हिन्दी नवगीत-कविता की चैथी-पाँचवीं पीढ़ी छान्दसिक कविता को दीर्घकालीन आश्वस्ति देती है। इधर इक्कीसवीं सदी के लेखन और सदी के दूसरे दशक में प्रकाषित हो रहे नवगीत संग्रहों को पढ़ने के पश्चात् मेरा अनुभव नवगीत के आगत के लिए निश्चिन्त हुआ है। छान्दिक कविता और आलोचना के व्यवहार को लेकर इधर असंतोष और शंकाओं पर कवियों ने बहुत ध्यान दिया है, किन्तु उनके सुर लगभग एक-से ही रहे हैं। रबर की तिरपाल को खींचते ही चले जाने जैसे, लगभग विलाप के मानिन्द, कथन की नवता कहीं भी नहीं। सच कहा जाए तो छन्दमुक्त या समकालीन कविता का आलोच्य-गद्य इनके पास आया ही नहीं। कथ्य की गहराई से पकड़, अनपढ़-मग्नता का आखेट होकर रह गई। छन्द का एक भी सुधी आलोचक तैयार नहीं हो पाया और छान्दिक कविता के कवि, आलोचकों की आलोचना का ही संताप ढोते रह गए किन्तु इस दशक के नवगीत कवियों ने अपने सृजन में आलोचकों पर नहीं, अपने पर भरोसा किया है और भरोसेमंद लेखन कर भी रहे हैं।
अभी-अभी मेरे पास ‘‘समय की आँख नम है’’ नवगीत संग्रह आया है जिसके मुख-पृष्ठ पर ‘समकालीन गीत संग्रह’ छपा है। मुझे लगता है कि नवगीत संग्रह के स्थान पर ‘‘समकालीन गीत’’ लिखना कथित जनगीत का नया संस्करण है जबकि अपने को मुखर जनवादी कवि मानने वाले फिर ‘नवगीत-कवि’ संज्ञा के लिए वापसी की शीघ्रता में है। सच यही है कि गीत के बाद नवगीत ही छान्दिक कविता की मुख्य विधा है और इसे नामवर सिंह, शिवकुमार मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डेय जैसे प्रगतिशील आलेचक भी पूरी मान्यता दे रहे हैं।... तो यह संग्रह मूलतः नवगीत संग्रह ही है, जिसके कवि विनय मिश्र हैं। विनय का यह पहला नवगीत संग्रह है जिसके स्वर में मानवीय त्रासदी और विसंगतियाँ हैं और इनसे लड़ने की अपराजेय आकांक्षा है-
‘‘एक लड़ाई और लड़ेंगे
हार मिले या जीत,
बखिया उधड़ी वर्तमान की
उजड़ा मिला अतीत।’’
कितना आश्चर्य है कि जिन विडम्बनाओं को लेकर अपने समय में मुक्तिबोध चिन्तित थे और जिसे अपनी रचनाओं में व्यक्त कर रहे थे- आज की परिस्थितियों में आज के कवि भी लगभग उन्हीं दुश्चिंताओं से घिरे हैं। बाजार की आहट कल भी थी। आज उसकी वैश्विकता पहचान में है। पहचान ही क्यों उपस्थिति में है-
‘‘हरदम उड़ती हुई
हवाओं में विपदाएँ
बाजारों में महिमामंडित
हैं छलनाएँ।’’
बाजार का सच ‘छल’ है। हमारे संवेदन में चेहरे नहीं केवल मुखौटे हैं। अपनत्व संवादहीन हो रहे हैं। विनय की संवेदना में फिर भी आशा शेष है.... ‘‘इस पतझर में/कोई फूल बचा हो शायद।’’ यही कवि की जिजीविषा है, पर आकांक्षा है, कवि समाज के मन में उतरता है, तभी वह उसके सुख-दुख और सपनों से जुड़ पाता है। आदमी के टूटे-बिखरे सपनों को वह अपनी अँजुरी में भरता है और उसे पीता भी है। उसे आर-पार सब कुछ दिखता है। विवषताओं के बँधे हाथ, खलों के सधे हाथ और ताक में मुँह खोले अजगर भी। कवि का चरित नायक देहाती है और उसका साथी ‘वर्तमान समय’ शातिर है।
नई कविता का एक समय ऐसा भी था, जब कविता आदमी और समय की विडम्बनाओं से लथपथ थी और पारम्परिक गीत आँसू और देह में डूबे हुए। किन्तु आज न कविता ही लथपथ है और न ही गीत (नव) डूबे हुए। बल्कि दोनों ही सच और मानवीय संवेदना की यथार्थ अभिव्यक्ति हैं। गीत आज नवगीत के रूप में अपने बदलते हुए स्वरूप, शिल्प और कथ्य में प्रतिष्ठित है। कल के गीत के कुछ ढाँचे ही शेष रह गए हैं। विनय मिश्र उस ढाँचे में नहीं समाते। इनके ये नवगीत, नवगीत-काल की उपज है और इनकी ये कविताएँ नवगीत हैं.... देशज पत्र हैं। यह बात निस्संदेह कही जा सकती है। इस संग्रह के नवगीत वर्तमान की यथास्थिति को रेखांकित और खोलने वाले नवगीत हैं। आज की विकट और त्रासद जीवन-सरणि को कवि पूरी संवेदना के साथ अभिव्यक्त करता है। इस दुख-तंत्र में बाजारू और मुखौटों वाले सम्बंधों के बीच जीने को लाचार कवि सुखों और ईमान की चर्चा कर भी कैसे सकता है। इस पराजित होते जाते समाज में जयघोष असंभव है-
‘‘अब कौन करे
आदिम अनुबंधों की खेती
आँखों में उड़ती है
सम्बंधों की रेती
चाहों में थी जो बची-खुची
बरसात गई।’’
विनय मिश्र के इस संग्रह ‘‘समय की आँख नम है’’ का भाव, भाषा और शिल्प समकालीनता से अभिन्न है। हिन्दी कविता की आज यह सबसे बड़ी खूबी और जरूरत भी है। विनय मिश्र अपने समय, समाज और व्यक्ति के एहसासों को छान्दिक वाणी देते हैं। उनकी रचनाएँ अपना मंतव्य परत-दर-परत खोलती हैं और इनमें आयातित कुछ नहीं है वरन् समाज और व्यवस्था का दिया हुआ जीवन-सच है। दलीय वैचारिकता की जगह आदमी की करुणा और संवेदना है जिसे विनय मिश्र की अनुभूति से अभिव्यक्ति मिली। उनकी नवगीत कविता का फलक बहुत व्यापक है। नवगीत में जन समाहित है। इसे अंग-भंग कर कोई व्यक्तिगत सुविधाजनक नाम नहीं दिया जा सकता। ऐसी कोई चेष्टा सफल भी नहीं हुई। कविता में विचार लिए नहीं जाते, विचार कविता से निकलते हैं। संग्रह के नवगीतों में विचार और स्व-चिन्तन भीतर से फूटता है। यह सुखद है। आज के संसार में सच वही है, जो अनुभूत है।
विनय मिश्र की सिद्धि जितनी नवगीत कविता में है उतनी ही गजल में भी है। यह अच्छा है कि गजलों की लोकप्रियता और रंजनता में विनय का कवि भटका नहीं। कविता की स्थाई विधा से प्राथमिकता से जुड़ा रहा। विनय के नवगीतों की आंतरिकता में सामाजिकता हैं और इसीलिए वे कह पाते हैं-‘‘अपने मन का सन्नाटा भी/ शोर मचाता है।’’ और सच की दरकी हुई जमीन पर उन्हें झूठे महल दिख जाते हैं। इस बहुरूपिए समय के हाथों की छल की चरखी को वे पकड़ पाते हैं। बाहुबली की बस्ती में लाठी के बाजार की गरमाहट का ताप उन्हें विचलित करता है। आज के परिवेश का कथा-नायक झूठ है और उसे सच व्यक्त नहीं कर पाता अपनी कलम से। जबकि जरूरत है बर्फ के परिवेश में चिन्गारियाँ रखने की। कवि का मन इस पाषाणी सदी से विरक्त है। इस समाज और बाजार के कार्य-व्यापार की मंशा को वह खूब समझता है। तभी तो वह कहता है-
‘‘हत्यारे हुए पुरस्कृत
जब हकलाई न्यायसभाएँ।’’
.................
‘‘जीकर ये देखा है मैंने
जीना, मरने का प्रबंध है।’’
इस निर्मम नैराश्य के बीच कवि के मन में जिजीविषा और आशा का स्तंभ इतने पर भी खड़ा है-
‘‘तम के पाँव उखड़ने को हैं
डटे रहो’’
.......................
‘‘नमी बचाने की कोशिश में
लगे रहो।’’
कवि चिन्ताओं की धरती को भी चाहों का पर्याय मानता है। मनुष्य की इस जीवटता के साथ कवि का कोई आन्तरिक अनुबंध जैसा है। विनय मिश्र के नवगीतों में बिम्ब अपनी नई छवि के साथ उपस्थित होते हैं-
‘‘नींद में डूबा पड़ा है/ इस नदी का तट,
...........
भोर ने ली तब कहीं जा/ काजली करवट।’’
‘‘चाँदनी की छाँह में/जलते रहे
...........
खुफिया पुलिस-सी/ हवाएँ बहीं।’’
कतिपय कमियों के होते हुए भी विनय मिश्र अन्य गीतकारों की तरह समय को देखते हुए दोनों पाटों पर पाँव नहीं रखते, बल्कि उनमें स्वाभाविक स्वरूप में नवगीत अपना आकार ग्रहण करता है। नवगीत समय का रुख नहीं देखता, यह समय को दिशा देता है। यह संग्रह इस दिशा में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है।
अभी-अभी मेरे पास ‘‘समय की आँख नम है’’ नवगीत संग्रह आया है जिसके मुख-पृष्ठ पर ‘समकालीन गीत संग्रह’ छपा है। मुझे लगता है कि नवगीत संग्रह के स्थान पर ‘‘समकालीन गीत’’ लिखना कथित जनगीत का नया संस्करण है जबकि अपने को मुखर जनवादी कवि मानने वाले फिर ‘नवगीत-कवि’ संज्ञा के लिए वापसी की शीघ्रता में है। सच यही है कि गीत के बाद नवगीत ही छान्दिक कविता की मुख्य विधा है और इसे नामवर सिंह, शिवकुमार मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डेय जैसे प्रगतिशील आलेचक भी पूरी मान्यता दे रहे हैं।... तो यह संग्रह मूलतः नवगीत संग्रह ही है, जिसके कवि विनय मिश्र हैं। विनय का यह पहला नवगीत संग्रह है जिसके स्वर में मानवीय त्रासदी और विसंगतियाँ हैं और इनसे लड़ने की अपराजेय आकांक्षा है-
‘‘एक लड़ाई और लड़ेंगे
हार मिले या जीत,
बखिया उधड़ी वर्तमान की
उजड़ा मिला अतीत।’’
कितना आश्चर्य है कि जिन विडम्बनाओं को लेकर अपने समय में मुक्तिबोध चिन्तित थे और जिसे अपनी रचनाओं में व्यक्त कर रहे थे- आज की परिस्थितियों में आज के कवि भी लगभग उन्हीं दुश्चिंताओं से घिरे हैं। बाजार की आहट कल भी थी। आज उसकी वैश्विकता पहचान में है। पहचान ही क्यों उपस्थिति में है-
‘‘हरदम उड़ती हुई
हवाओं में विपदाएँ
बाजारों में महिमामंडित
हैं छलनाएँ।’’
बाजार का सच ‘छल’ है। हमारे संवेदन में चेहरे नहीं केवल मुखौटे हैं। अपनत्व संवादहीन हो रहे हैं। विनय की संवेदना में फिर भी आशा शेष है.... ‘‘इस पतझर में/कोई फूल बचा हो शायद।’’ यही कवि की जिजीविषा है, पर आकांक्षा है, कवि समाज के मन में उतरता है, तभी वह उसके सुख-दुख और सपनों से जुड़ पाता है। आदमी के टूटे-बिखरे सपनों को वह अपनी अँजुरी में भरता है और उसे पीता भी है। उसे आर-पार सब कुछ दिखता है। विवषताओं के बँधे हाथ, खलों के सधे हाथ और ताक में मुँह खोले अजगर भी। कवि का चरित नायक देहाती है और उसका साथी ‘वर्तमान समय’ शातिर है।
नई कविता का एक समय ऐसा भी था, जब कविता आदमी और समय की विडम्बनाओं से लथपथ थी और पारम्परिक गीत आँसू और देह में डूबे हुए। किन्तु आज न कविता ही लथपथ है और न ही गीत (नव) डूबे हुए। बल्कि दोनों ही सच और मानवीय संवेदना की यथार्थ अभिव्यक्ति हैं। गीत आज नवगीत के रूप में अपने बदलते हुए स्वरूप, शिल्प और कथ्य में प्रतिष्ठित है। कल के गीत के कुछ ढाँचे ही शेष रह गए हैं। विनय मिश्र उस ढाँचे में नहीं समाते। इनके ये नवगीत, नवगीत-काल की उपज है और इनकी ये कविताएँ नवगीत हैं.... देशज पत्र हैं। यह बात निस्संदेह कही जा सकती है। इस संग्रह के नवगीत वर्तमान की यथास्थिति को रेखांकित और खोलने वाले नवगीत हैं। आज की विकट और त्रासद जीवन-सरणि को कवि पूरी संवेदना के साथ अभिव्यक्त करता है। इस दुख-तंत्र में बाजारू और मुखौटों वाले सम्बंधों के बीच जीने को लाचार कवि सुखों और ईमान की चर्चा कर भी कैसे सकता है। इस पराजित होते जाते समाज में जयघोष असंभव है-
‘‘अब कौन करे
आदिम अनुबंधों की खेती
आँखों में उड़ती है
सम्बंधों की रेती
चाहों में थी जो बची-खुची
बरसात गई।’’
विनय मिश्र के इस संग्रह ‘‘समय की आँख नम है’’ का भाव, भाषा और शिल्प समकालीनता से अभिन्न है। हिन्दी कविता की आज यह सबसे बड़ी खूबी और जरूरत भी है। विनय मिश्र अपने समय, समाज और व्यक्ति के एहसासों को छान्दिक वाणी देते हैं। उनकी रचनाएँ अपना मंतव्य परत-दर-परत खोलती हैं और इनमें आयातित कुछ नहीं है वरन् समाज और व्यवस्था का दिया हुआ जीवन-सच है। दलीय वैचारिकता की जगह आदमी की करुणा और संवेदना है जिसे विनय मिश्र की अनुभूति से अभिव्यक्ति मिली। उनकी नवगीत कविता का फलक बहुत व्यापक है। नवगीत में जन समाहित है। इसे अंग-भंग कर कोई व्यक्तिगत सुविधाजनक नाम नहीं दिया जा सकता। ऐसी कोई चेष्टा सफल भी नहीं हुई। कविता में विचार लिए नहीं जाते, विचार कविता से निकलते हैं। संग्रह के नवगीतों में विचार और स्व-चिन्तन भीतर से फूटता है। यह सुखद है। आज के संसार में सच वही है, जो अनुभूत है।
विनय मिश्र की सिद्धि जितनी नवगीत कविता में है उतनी ही गजल में भी है। यह अच्छा है कि गजलों की लोकप्रियता और रंजनता में विनय का कवि भटका नहीं। कविता की स्थाई विधा से प्राथमिकता से जुड़ा रहा। विनय के नवगीतों की आंतरिकता में सामाजिकता हैं और इसीलिए वे कह पाते हैं-‘‘अपने मन का सन्नाटा भी/ शोर मचाता है।’’ और सच की दरकी हुई जमीन पर उन्हें झूठे महल दिख जाते हैं। इस बहुरूपिए समय के हाथों की छल की चरखी को वे पकड़ पाते हैं। बाहुबली की बस्ती में लाठी के बाजार की गरमाहट का ताप उन्हें विचलित करता है। आज के परिवेश का कथा-नायक झूठ है और उसे सच व्यक्त नहीं कर पाता अपनी कलम से। जबकि जरूरत है बर्फ के परिवेश में चिन्गारियाँ रखने की। कवि का मन इस पाषाणी सदी से विरक्त है। इस समाज और बाजार के कार्य-व्यापार की मंशा को वह खूब समझता है। तभी तो वह कहता है-
‘‘हत्यारे हुए पुरस्कृत
जब हकलाई न्यायसभाएँ।’’
.................
‘‘जीकर ये देखा है मैंने
जीना, मरने का प्रबंध है।’’
इस निर्मम नैराश्य के बीच कवि के मन में जिजीविषा और आशा का स्तंभ इतने पर भी खड़ा है-
‘‘तम के पाँव उखड़ने को हैं
डटे रहो’’
.......................
‘‘नमी बचाने की कोशिश में
लगे रहो।’’
कवि चिन्ताओं की धरती को भी चाहों का पर्याय मानता है। मनुष्य की इस जीवटता के साथ कवि का कोई आन्तरिक अनुबंध जैसा है। विनय मिश्र के नवगीतों में बिम्ब अपनी नई छवि के साथ उपस्थित होते हैं-
‘‘नींद में डूबा पड़ा है/ इस नदी का तट,
...........
भोर ने ली तब कहीं जा/ काजली करवट।’’
‘‘चाँदनी की छाँह में/जलते रहे
...........
खुफिया पुलिस-सी/ हवाएँ बहीं।’’
कतिपय कमियों के होते हुए भी विनय मिश्र अन्य गीतकारों की तरह समय को देखते हुए दोनों पाटों पर पाँव नहीं रखते, बल्कि उनमें स्वाभाविक स्वरूप में नवगीत अपना आकार ग्रहण करता है। नवगीत समय का रुख नहीं देखता, यह समय को दिशा देता है। यह संग्रह इस दिशा में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है।
Samay ki Ankh Nam Hai by Vinay Mishra, Alwar, Raj.
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