अवनीश सिंह चौहान |
व्हाट्सएप्प पर आदरणीय रामकिशोर दाहिया जी द्वारा संचालित 'संवेदनात्मक आलोक' समूह में रविवार (03 मार्च 2016) को नवगीत विशेषांक में मेरे कुछ नवगीत प्रकाशित हुए थे, जिस पर सुधी विद्वानों/ मित्रों ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणियां और बधाई सन्देश भी दिए थे। मैं दाहिया जी सहित सभी विद्वानों/ मित्रों का ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ। साथ ही आप सभी के अवलोकनार्थ समूह पर प्रकाशित अपनी रचनाएँ और उन पर टिप्पणियां यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :
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।। विशेषांक पर एक दृष्टि ।।
वाट्सएप पर संचालित 'संवेदनात्मक आलोक' नवगीत साहित्य विचार समूह के रविवारीय विशेषांक 'मेरी अपनी पसंद' में हम अपने सुधी पाठकों के समक्ष इस बार एक युवा कवि, अनुवादक, संपादक डॉ अवनीश सिंह चौहान जी पर अपना यह अंक केंद्रित कर स्वयं गौरवान्वित हैं। उनके छायाचित्र, जीवन परिचय के साथ समूह में चर्चार्थ आठ नवगीत प्रस्तुत हैं। एक अच्छा रचनाकार होने के साथ-साथ उस विधा को और समृद्ध करने में जिनकी भूमिका होती है वह मेरे लिये स्तुत्य और वंदनीय हो जाता है। विगत कई वर्षों से अवनीश सिंह चौहान यही कार्य करते आ रहे हैं। आपने आज तक अनेकानेक नवोदित प्रतिभाओं को एक विस्तृत और समृद्ध सोच देकर नई ज़मीन के साथ उन्हें एक नया फलक भी दिया है।
अवनीश सिंह चौहान जी की रचनाधर्मिता सघन कथ्य में भाषा, शिल्प, प्रतीक, बिम्ब के साथ एक प्रवाह में आगे बढ़ती और उभरती है। रचना में शब्द पाठक से बोलने बतियाने से लगते हैं। सामाजिक विडम्बनाओं, मानव मन की स्थितियों, समय सापेक्षता को रचते-कसते वे हर परिदृश्य पर एक रेखा चित्र तैयार करते हुए चलते हैं। घर-द्वार, रिश्ते-नाते, पास-पड़ोस से लेकर जो कुछ उन्हें दिखता है वे अपनी रचनाओं में उस संवेदना को सार्थक शब्द व्यंजना के साथ जब बाँधते हैं पाठक मन रोमांचित हो उठता है। डॉ चौहान पर ज्यादा कुछ न कहते हुए उनकी रचनाधर्मिता पर आप सबके भाव एवं विचार समीक्षात्मक टिप्पणी के रूप में सादर आमंत्रित हैं। समूह पटल पर आप सबकी सार्थक टिप्पणी का हार्दिक स्वागत है।
- रामकिशोर दाहिया
प्रमुख एडमिन
संवेदनात्मक आलोक
नवगीत सा.विचार समूह
वाट्सएप मोबा.097525-39896
प्रमुख एडमिन
संवेदनात्मक आलोक
नवगीत सा.विचार समूह
वाट्सएप मोबा.097525-39896
दिनाँक 03 मार्च 2016
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डॉ.अवनीश सिंह चौहान
।। संक्षिप्त जीवन परिचय ।।
नाम : डॉ. अवनीश सिंह चौहान
युवा कवि, अनुवादक, सम्पादक
युवा कवि, अनुवादक, सम्पादक
जन्म : 04 जून, 1979, चन्दपुरा (निहाल सिंह), इटावा, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: अंग्रेज़ी में एम.ए, बी.एड, एम.फिल एवं पीएचडी
माँ : श्रीमती उमा सिंह चौहान
पिता : श्री प्रह्लाद सिंह चौहान
कृतित्व एवं व्यक्तित्व :
(1) 'शब्दायन', उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
(2) 'गीत वसुधा', युगान्तर प्रकाशन, दिल्ली
(3) मेरी शाइन (आयरलेंड) द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह 'ए स्ट्रिंग ऑफ़ वर्ड्स', 2010
(4) डॉ चारुशील एवं डॉ बिनोद द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कवियों का संकलन 'एक्जाइल्ड अमंग नेटिव्स'
(5) आधा दर्जन से अधिक अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों में पढ़ी-पढाई जा रही हैं
(6) 'टुकड़ा कागज़ का' (नवगीत संग्रह), 2013 (प्रथम संस्करण) एवं 2014 (द्वितीय संस्करण- पेपरबैक)
(7) 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' पुस्तक का संपादन, 2013
(8) वेब पत्रिका पूर्वाभास का सम्पादन
(9) वेब पत्रिका कविताकोश से 'प्रथम अंतर्राष्ट्रीय कविता कोश सम्मान'
(10) मिशीगन-अमेरिका से 'बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड'
(11) राष्ट्रीय समाचार पत्र 'राजस्थान पत्रिका' का 'सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार' प्राप्त
(11) अभिव्यक्ति विश्वम् (अभिव्यक्ति एवं अनुभूति वेब पत्रिकाएं) का 'नवांकुर पुरस्कार'
(11) अभिव्यक्ति विश्वम् (अभिव्यक्ति एवं अनुभूति वेब पत्रिकाएं) का 'नवांकुर पुरस्कार'
(13) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान- लखनऊ का 'हरिवंशराय बच्चन युवा गीतकार सम्मान'
संप्रति : प्राध्यापक- अंग्रेजी
स्थाई संपर्क:
ग्राम व पोस्ट चन्दपुरा (निहाल सिंह)
जनपद- इटावा-206127 (उत्तर प्रदेश)
ईमेल : abnishsinghchauhan@gmail.com
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अवनीश सिंह चौहान के नवगीत
।। एक ।।
।।कौन उबारे ।।
।। एक ।।
।।कौन उबारे ।।
बिना नाव के माँझी देखे
मैंने नदी किनारे
मैंने नदी किनारे
इनके-उनके
ताने सुनना
दिन भर देह गलाना
तीन रुपैया
मिले मजूरी
नौ की आग बुझाना
अलग-अलग है राम कहानी
टूटे हुए शिकारे
बढ़ती जाती
रोज़ उधारी
ले-दे काम चलाना
रोज़-रोज़
झोपड़ पर अपने
नये तगादे आना
घात सिखाई है तंगी ने
किसको कौन उबारे
भरा जलाशय
जो दिखता है
केवल बातें घोले
प्यासा तोड़ दिया
करता दम
मुख को खोले-खोले
अपने स्वप्न, भयावह कितने
उनके सुखद सहारे।
।। दो ।।
।। रामभरोसे ।।
धूप सुनहरी, माँग रहा है
रामभरोसे आज
नदी चढ़ी है
सागर गहरा
पार उसे ही करना
सोच रहा वह
नैया छोटी
और धार पर तिरना
छोटे-छोटे चप्पू मेरे
साहस-धीरज-लाज
खून-पसीना
बो-बोकर वह
फसलें नई उगाए
तोता-मैना की
बातों से
उसका मन घबराए
चिड़ियाँ चहकें डाल-डाल पर,
करें पेड़ पर राज
घड़ियालों का
अपना घर है
उनको भी तो जीना
पानी तो है
सबका जीवन
जल की मीन-नगीना
पंख सभी के छुएँ शिखर को
प्रभु दे, वह परवाज़।
घड़ियालों का
अपना घर है
उनको भी तो जीना
पानी तो है
सबका जीवन
जल की मीन-नगीना
पंख सभी के छुएँ शिखर को
प्रभु दे, वह परवाज़।
।। तीन ।।
।। पगडंडी ।।
सब चलते चौड़े रस्ते पर
पगडंडी पर कौन चलेगा?
पगडंडी जो
मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से
जिसका भारत
केवल-केवल
खेतों से औ' गाँवों से
इस अतुल्य भारत पर बोलो
सबसे पहले कौन मरेगा?
जहाँ केन्द्र से
चलकर पैसा
लुट जाता है रस्ते में
और परिधि
भगवान भरोसे
रहती ठण्डे बस्ते में
मारीचों का वध करने को
फिर वनवासी कौन बनेगा?
कार-क़ाफिला
हेलीकॉप्टर
सभी दिखावे का धंधा
दो बित्ते की
पगडंडी पर
चलता गाँवों का बन्दा
कूटनीति का मुकुट त्यागकर
कंकड़-पथ को कौन वरेगा?
।। चार ।।
।। चिड़ियारानी ।।
दिन भर फोन धरे कानों पर
चिड़ियाँ बैठीं क्या बतियाएँ
बात-बात पर खुश हो जाना
जरा देर में खुद चिढ़ जाना
अपनी, उनकी, उनकी, अपनी
जाने कितनी कथा सुनाना
एक दिवस में कट जाती हैं
कई साल की दिनचर्याएँ
बातें करतीं घर-आँगन की
सूने भुतहे पिछवारे की
क्या खोया, क्या पाया जग में
बातें होती उजियारे की
कभी-कभी होती कनबतियाँ
आँखें लज्जा से भर जाएँ
ढीली अंटी कभी न करती
मिसकालों से काम चलाना
कठिन समय है सस्ते में ही
ऊँगली के बल उसे नचाना
टाइमपास किया करती हैं
रचकर कल्पित गूढ़ कथाएँ
जाल तोड़कर कैसे-कैसे
खोज-खोज कर दाना पानी
धीरे-धीरे चिड़ियारानी
हुई एक दिन बड़ी सायानी
फुर्र हो गईं सारी बातें
घेर रही भावी चिंताएँ।
।। पाँच ।।
।। जरे कमलनी पात ।।
टूट गए पर
तुम बिन मेरे
पिंजरे में दिन-रात
रजनीगन्धा
दहे रात भर
जागे हँसे चमेली
देह हुई निष्पंद
कि जैसे
सूनी खड़ी हवेली
कौन भरे
मन का खालीपन?
कौन करेगा बात?
कोमल-कोमल
दूब उगी है
तन-मन ओस नहाए
दूर कहीं है कोई वीणा
दीपक राग सुनाए
खद्योतों ने
भरी उड़ानें
जरे कमलनी पात
बिना नीर के
नदिया जैसी
चंदा बिना चकोरी
बिना प्राण के लगता जैसे
माटी की हूँ छोरी
प्राण प्रतिष्ठा हो
सपनों की
टेर रही सौगात।
।। छः ।।
।। मन का तोता ।।
मन का तोता
करता रहता
नित्य नये संवाद
महल-मलीदा, पदवी चाहे
लाखों-लाख पगार
काम न धेले भर का करता
सपने आँख हजार
इच्छाओं की
सूची मेरे
सिर पर देता लाद
अपने आम बाग के मीठे
कुतर-कुतर कर फेंके
किन्तु पड़ोसी का खट्टा भी
चँहके उसको लेके
समझाने पर
करता रहता
अड़ा-खड़ा प्रतिवाद
विज्ञापन की भाषा बोले
'यह दिल माँगे मोर'
देख-देख बौराया तोता
देता खीस निपोर
बात न माने
करने लगता
घर में रोज़ फ़साद।
।। सात ।।
।। घर की दुनिया ।।
घर की दुनिया माँ होती है
खुशियों की क्रीम परसने को
दुःखों का दही बिलोती है
पूरे अनुभव
एक तरफ हैं
मइया के अनुभव
के आगे
जब भी उसके
पास गए हम
लगा अँधेरे में
हम जागे
अपने मन की परती भू पर
शबनम आशा की बोती है
घर की दुनिया माँ होती है
उसके हाथ का
रूखा-सूखा-
भी हो जाता
है काजू-सा
कम शब्दों में
खुल जाती वह
ज्यों संस्कृति की
हो मंजूषा
हाथ पिता का खाली हो तो
छिपी पोटली का मोती है
घर की दुनिया माँ होती है।
घर की दुनिया माँ होती है
खुशियों की क्रीम परसने को
दुःखों का दही बिलोती है
पूरे अनुभव
एक तरफ हैं
मइया के अनुभव
के आगे
जब भी उसके
पास गए हम
लगा अँधेरे में
हम जागे
अपने मन की परती भू पर
शबनम आशा की बोती है
घर की दुनिया माँ होती है
उसके हाथ का
रूखा-सूखा-
भी हो जाता
है काजू-सा
कम शब्दों में
खुल जाती वह
ज्यों संस्कृति की
हो मंजूषा
हाथ पिता का खाली हो तो
छिपी पोटली का मोती है
घर की दुनिया माँ होती है।
।। आठ ।।
।। असंभव है ।।
चौतरफा है
जीवन ही जीवन
कविता मरे असंभव हैं
अर्थ अभी
घर का जीवित है
माँ, बापू, भाई, बहनों से
चिड़िया ने भी
नीड़ बसाया
बड़े जतन से, कुछ तिनकों से
मुनिया की पायल
बाजे छन-छन
कविता मरे असंभव है
गंगा में
धारा पानी की
खेतों में चूनर धानी की
नये अन्न की
नई ख़ुशी में
बसी महक है गुड़धानी की
शिशु किलकन है
बछड़े की रंभन
कविता मरे असंभव है।
■ डॉ.अवनीश सिंह चौहान
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जीवन ही जीवन
कविता मरे असंभव हैं
अर्थ अभी
घर का जीवित है
माँ, बापू, भाई, बहनों से
चिड़िया ने भी
नीड़ बसाया
बड़े जतन से, कुछ तिनकों से
मुनिया की पायल
बाजे छन-छन
कविता मरे असंभव है
गंगा में
धारा पानी की
खेतों में चूनर धानी की
नये अन्न की
नई ख़ुशी में
बसी महक है गुड़धानी की
शिशु किलकन है
बछड़े की रंभन
कविता मरे असंभव है।
■ डॉ.अवनीश सिंह चौहान
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[4/4, 1:07 PM] X: आदरणीय अवनीश जी की रचनाए पढकर अत्यधिक आनंद आया । उनके जैसे एक समर्थ रचनाकार का क्रियाशील रहना समस्त गीत परंपरा के लिए सौभाग्य का विषय है । अकिंचन को आपके गीतो में निहित आशावाद और गीतों की लयात्मकता तथा आतंरिक सहजता बहुत भाती है। समाज से, पास-पड़ोस से उपजी रचनाएँ भीतर तक घर कर जाती है। आपका आभार।
■ चित्रांश वाघमारे, भोपाल, म.प्र.
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश सिंह चौहान के सभी गीत मौलिक अभिव्यक्ति देते हुए भाव और विचार के संतुलन को डिगने नहीं देते। बधाई उन्हें।
■ रमाकान्त, रायबरेली, उ.प्र. 9415958111
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[4/4, 1:07 PM] X: नवगीत के माध्यम से डा. अवनीश सिंह चौहान अपने भीतर एवं बाहर की दुनिया को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। बिखरे जीवन मूल्यों को पचाकर अभिव्यक्ति करना नवगीत की कसौटी है, डा. चौहान जी उसमें खरे उतरे हैं। मंच संचालक आ. दाहिया जी एवं नवगीतकार दोनों को बहुत-बहुत बधाई। ■ डॉ.रणजीत पटेल, मुजफ्फरपुर, बिहार
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश जी के गीत बहुत उम्दा हैं। बिम्ब सार्थक और समसामायिक हैं। हार्दिक बधाई।
■ शशि पुरवार
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश जी समृद्ध नवगीतकार हैं। बहुत अच्छे नवगीत आपने लिखे हैं। सामयिकता, बिम्बों का श्रेष्ठ चयन आपके नवगीतों का सहज प्रवाह उन्हें श्रेष्ठ बना देता हैं। मंच को शुक्रिया इन नवगीतों को प्रस्तुत करने के लिए।
■ सुवर्णा दीक्षित मंडला, म.प्र.
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[4/4, 1:07 PM] X: अँग्रेजी विषय के प्राध्यापक होकर डॉ अवनीश सिंह चौहान का हिन्दी में नवगीत सृजन, प्रभु प्रदत्त कर्म ही माना जायेगा । संवेदनात्मक आलोक के पटल पर प्रस्तुत रचनाकार के नवगीत सशक्त व प्रभावी हैं। अपने देश व परिवेश के प्रति कवि की चिंता जायज है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी हमारे गाँव राजपथ से नहीं जुड़ पाये हैं, इनके विकास हेतु केन्द्र से मिलने वाले अनुदान का बीच में ही बंदरबाँट कर लिया जाता है । चतुर्थ रचना पगडंडी इसी भाव को रेखांकित करती है-
पगडंडी जो
मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से।
■ चित्रांश वाघमारे, भोपाल, म.प्र.
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश सिंह चौहान के सभी गीत मौलिक अभिव्यक्ति देते हुए भाव और विचार के संतुलन को डिगने नहीं देते। बधाई उन्हें।
■ रमाकान्त, रायबरेली, उ.प्र. 9415958111
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[4/4, 1:07 PM] X: नवगीत के माध्यम से डा. अवनीश सिंह चौहान अपने भीतर एवं बाहर की दुनिया को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। बिखरे जीवन मूल्यों को पचाकर अभिव्यक्ति करना नवगीत की कसौटी है, डा. चौहान जी उसमें खरे उतरे हैं। मंच संचालक आ. दाहिया जी एवं नवगीतकार दोनों को बहुत-बहुत बधाई। ■ डॉ.रणजीत पटेल, मुजफ्फरपुर, बिहार
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश जी के गीत बहुत उम्दा हैं। बिम्ब सार्थक और समसामायिक हैं। हार्दिक बधाई।
■ शशि पुरवार
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश जी समृद्ध नवगीतकार हैं। बहुत अच्छे नवगीत आपने लिखे हैं। सामयिकता, बिम्बों का श्रेष्ठ चयन आपके नवगीतों का सहज प्रवाह उन्हें श्रेष्ठ बना देता हैं। मंच को शुक्रिया इन नवगीतों को प्रस्तुत करने के लिए।
■ सुवर्णा दीक्षित मंडला, म.प्र.
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[4/4, 1:07 PM] X: अँग्रेजी विषय के प्राध्यापक होकर डॉ अवनीश सिंह चौहान का हिन्दी में नवगीत सृजन, प्रभु प्रदत्त कर्म ही माना जायेगा । संवेदनात्मक आलोक के पटल पर प्रस्तुत रचनाकार के नवगीत सशक्त व प्रभावी हैं। अपने देश व परिवेश के प्रति कवि की चिंता जायज है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी हमारे गाँव राजपथ से नहीं जुड़ पाये हैं, इनके विकास हेतु केन्द्र से मिलने वाले अनुदान का बीच में ही बंदरबाँट कर लिया जाता है । चतुर्थ रचना पगडंडी इसी भाव को रेखांकित करती है-
पगडंडी जो
मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से।
मानव का मन चंचल है । उसकी अनंत इच्छाएँ, अभीप्साएँ व लालसाएँ हैं जो कभी पूरी नहीं होतीं। छठवाँ गीत 'मन का तोता' द्रष्टव्य है --
मन का तोता
करता रहता
नित्य नये संवाद।
कवि के आठवें गीत 'घर की दुनिया' ने सर्वाधिक मन को छुआ। माँ से बढ़कर दुनिया में कोई रिश्ता नहीं होता। माँ के अनुभव, स्नेह व ममता के आगे सभी सारहीन है । कितनी सादगी के साथ वे कह जाते हैं -
घर की दुनिया माँ होती है
खुशियों की क्रीम परसने को
दुःखों का दही बिलोती है।
सभी गीतों की भावाभिव्यक्ति सुंदर व सहज है ।रचनाकार को मेरी हार्दिक बधाई एवं आदर.दाहिया जी को मेरे समीपवर्ती जनपद के समृद्ध रचनाकार से परिचित कराने हेतु कोटि -कोटि आभार ।।
■ डाॅ. राकेश सक्सेना, एटा, उ.प्र., मोबा. 09412282235 ......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश जी ने बहुत अच्छे नवगीत लिखे। बिषयगत आधार पर समय के सार्वजनिक यथार्थ को ब्यक्त करना उनके नवगीतों की बिशेषता है।
■ शीलेंद्र सिंह चौहान
......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: संवेदनात्मक आलोक मंच पर आज एक युवा सशक्त, चर्चित कलमकार भाई अवनीश चौहान जी के आठ नवगीत साझा हुए हैं। अवनीश जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। जाल पत्रिकाओं और कई ब्लॉग्सों में उनकी सक्रिय उपस्थिति सहज ही देखी जा सकती है। प्रस्तुत नवगीतों में उनका जीवट देखते ही बनता है- 'चौतरफा है /जीवन ही जीवन/ कविता मरे असम्भव है।'
अवनीश जी के कवि का यही मूल स्वर है। आज हमें ऐसे ही संदेसात्मक नवगीतों व नवगीतकारों की जरूरत है जो खुरदुरे समय में भी आशा के साथ लय को बचाये रखने की बात करते हों, लोक सम्वेदना की बात करते हों। यों तो प्रियवर अवनीश जी के सभी नवगीत मनभावन हैं फिर भी उनका 'रामभरोसे' गीत मुझे खूब भाया।
■ डाॅ. राकेश सक्सेना, एटा, उ.प्र., मोबा. 09412282235 ......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश जी ने बहुत अच्छे नवगीत लिखे। बिषयगत आधार पर समय के सार्वजनिक यथार्थ को ब्यक्त करना उनके नवगीतों की बिशेषता है।
■ शीलेंद्र सिंह चौहान
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[4/4, 1:07 PM] X: संवेदनात्मक आलोक मंच पर आज एक युवा सशक्त, चर्चित कलमकार भाई अवनीश चौहान जी के आठ नवगीत साझा हुए हैं। अवनीश जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। जाल पत्रिकाओं और कई ब्लॉग्सों में उनकी सक्रिय उपस्थिति सहज ही देखी जा सकती है। प्रस्तुत नवगीतों में उनका जीवट देखते ही बनता है- 'चौतरफा है /जीवन ही जीवन/ कविता मरे असम्भव है।'
अवनीश जी के कवि का यही मूल स्वर है। आज हमें ऐसे ही संदेसात्मक नवगीतों व नवगीतकारों की जरूरत है जो खुरदुरे समय में भी आशा के साथ लय को बचाये रखने की बात करते हों, लोक सम्वेदना की बात करते हों। यों तो प्रियवर अवनीश जी के सभी नवगीत मनभावन हैं फिर भी उनका 'रामभरोसे' गीत मुझे खूब भाया।
इस गीत की अपनी विशेषताएं हैं। इसमें कवि मुझे दार्शनिक लगा और दर्शन रचना को कालजयी बनाने में महती भूमिका का निर्वहन करता है। कवि की मांगलिक भावना यहां अत्यंत प्रशंसनीय है- 'पंख सभी के/ छुएं शिखर को /प्रभु दे वह परवाज।'
प्रियवर अवनीश जी का चिंतन और और उर्ध्वगामी बने, इसी मंगल कामना के साथ में कवि और प्रस्तोता श्रद्धेय रामकिशोर दाहिया जी को हार्दिक बधाई देना चाहूंगा जिनने वैश्विकस्तर क्षितिज पर नवगीत के लिए दिए गए योगदान में अपनी तरफ से एक बड़ी लकीर खींचने में सफल दिखाई दे रहे है। उन्हें मेरा हादिक धन्यवाद।
■ मनोज जैन मधुर, भोपोल, म.प्र.
......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: डॉ. अवनीश सिंह जी चौहान के नवगीत हृदय में गहराई तक पैठ बनाते हैं। उनका नवगीत संग्रह "टुकड़ा कागज का" मैंने पढ़ा है । भाषा, भाव, बिम्ब, शिल्प सभी मापदंडों पर मेरी समझ के अनुसार बहुत उत्कृष्ट हैं। "मन का तोता" और "घर की दुनियाँ" के लिए कवि की लेखिनी को मेरा हृदय से नमन ।
रविवारीय अंक में आज डॉ.चौहान जी की रचनाओं का आस्वादन कराने के लिए आदर.दाहिया जी का बहुत बहुत आभार। साधुवाद । सादर।
■ अशोक शर्मा "कटेठिया"
......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: डॉ अवनीश सिंह चौहान जी के नवगीत मंच पर पढे। प्रस्तुत करने के लिए आ. दाहिया जी का हार्दिक आभार। अवनीश जी से पहले से ही परिचित हूँ। उनके नवगीत आमजन की पीडाएं बयान करते हैं, तभी तो कहते हैं कि तीन पेसे में नौ जनों का पेट भरना है। लेकिन कवि की नजर साहस, लाज, घीरज के चप्पू पर है, जो आम जन को टूटने से बचाता है। कवि की नजर घर-अागंन की खुशहाली पर भी है, इसीलिए वह कहता है कि कविता मरे असम्भव है। चौहान जी को अच्छी रचनाओं की बधाई।
■ कृष्णमोहन अम्भोज, राजगढ़, मध्य प्रदेश
......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: आदरणीय भाई अवनीश सिंह चौहान जी के आठ नवगीत आज आ. दाहिया जी के कुशल संचालन के बरक्स पढ़ने को मिले। नवगीतों में धड़कते जीवन और जीवन की समूची हार-जीत के दर्शन उनके नवगीतों की उपलब्धि है। माँ पर लिखा उनका नवगीत सबसे प्यारा बन पड़ा है। उनको हार्दिक साधुवाद। नवगीतों की सरसता वे उत्तरोत्तर प्राप्त कर रहे हैं अपने नवगीतों में। यह उनके साहित्यिक कौशल का द्योतक भी है।
उनके उज्ज्वल भविष्य की अनंत शुभकामनाओं के साथ ......
■ विजय प्रकाश भारद्वाज
......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश चौहान जी समर्थ गीतकार है। इसकी पुष्टि इनके नवगीतों से होती है। उनकी भाषा की तरलता, बिम्बों की सघनता और यथार्थ की संरचनात्मक प्रस्तुति विरल है। दाहिया जी सहित उन्हें बहुत-बहुत बधाई! ■ राजेन्द्र वर्मा, लखनऊ, उ.प्र.
......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: डॉ. अवनीश सिंह चौहान के नवगीत नवीनता व विविधता लिये हुए हैं। इन मंजुल रचनाओं के लिए उन्हें बहुत बहुत बधाई।
■ सुमन ढींगरा दुग्गल
......................................................................................
[4/4, 1:07 PM] X: आज मंच पर युवा कवि अवनीश चौहान के नवगीत प्रस्तुत करने के लिए सबसे पहले दाहिया जी को धन्यवाद। अवनीश जी ऐसे युवा रचनाकार हैं जिन्होंने अपने श्रेष्ठ सृजन के द्वारा अल्प समय में ही हिंदी साहित्य में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया है। नवगीतों के सृजन के साथ नवगीतों के प्रचार-प्रसार में भी उनका महत्वपूर्ण अवदान है। अविनीश जी नवगीतों मे अपने समय को सहज भाषा, टटके बिम्बों में अभिव्यक्त कर रहे हैं। उनके नवगीत कहीं शोषित-पीड़ित को हक दिलवाने में प्रवत्त हैं, तो कहीं कविता के सुखद जीवन की कामना करते हैं। सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों के प्रति चिंतित हैं। व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी है। जहाँ वे जीवन को सच्चे अर्थो को उकेरेने में चिंतन की गहराई मे उतर जाते हैं, वहाँ उनके दार्शनिक स्वरूप के दर्शन भी होते हैं। जीवन के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त करने के लिए उनका प्रयास सराहनीय है। सुंदर और पुष्ट नवगीतों के लिए अवनीश जी को हार्दिक बधाई।
■ विनय भदौरिया रायबरेली
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[4/4, 1:07 PM] X: डॉ अविनाश सिंह जी के गीत या कहें कोई भी रचना मैंने पहली बार पढ़ी है। सभी आठो गीत बेहद सुन्दर हैं और हृदय झकझोरने वाले हैं। सभी गीत मानव जीवन, खासकर भारतीयों के जीवन के यथार्थ (गरीबी, कम मजदूरी, विवशता, आशा और निराशा साथ सरकारी तंत्र की उदासीनता) को प्रतबिम्बित कर रहे हैं। भाषा शैली, भाव, बिम्ब,शिल्पविधान काबिले तारीफ हैं। ऐसे रचनाकार के गीतों का रसास्वादन कराने लिए आदरणीय रामकिशोर जी का बहुत-बहुत आभार।
इतने बड़े रचनाकार की रचनाओं के शिल्प पर टिप्पणी करना धृष्टता जैसा लग रहा है। लेकिन जैसा पटल की और से आदेश है और जैसा मैंने महसूस किया है वह इस प्रकार है-
1. "रामभरोसे" में " नदी चढ़ी है सागर गहरा" नदी और सागर का एक साथ होना मेरी मंदबुध्दि को कुछ अटपटा सा लग रहा है। इसी गीत के दूसरे अंतरा में ऐसा लगता है कृषक मेहनत करने वाला और चिड़ियाँ लूटखसोट करने वालों की प्रतीक हों।
2. असंभव है -
इसके मुखड़े के खंड "चौतरफा है जीवन ही जीवन" जो 18 मात्राओं का है, को मैंने अपनी यथाशक्ति से नाना प्रकार से पढ़कर देखा। पर सब कुछ करने के बाद भी मैं प्रवाह न ढूँढ़ पाया। मेरे हिसाब से यह खंड 16 मात्रिक "चौतरफा जीवन ही जीवन" होना चाहिए। यह मेरी अल्पज्ञता भी सकती है। क्योंकि यह 18 मात्रिक खंड हर अंतरा में आ रहा है।
3. मन का तोता-
इसमें मुखड़ा और अंतरा 16/11 और अंत दीर्घ, लघु (21) के विधान पर निर्धारित है। जो बहुत ही सुन्दर लय प्रदान कर रहा है। पर दूसरे अंतरे में विधान बदल कर 16/12 और अंत में दीर्घ, दीर्घ (22) गया है। जो मेरे हिसाब से नहीं होना चाहिए।
शेष सभी गीतों का शिल्प विधान मुझे उच्चकोटि का लगा है। डॉ.अवनीश जी की लेखनी को सादर नमन।
■ रणवीर सिंह "अनुपम", गाजियाबाद
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।। मूल्यों के संकट से जूझकर 'टूटे हुए शिकारे' से भी जीवन का सागर तिरने का साहस भरने वाले नवगीत ।।
■ विजय प्रकाश भारद्वाज
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश चौहान जी समर्थ गीतकार है। इसकी पुष्टि इनके नवगीतों से होती है। उनकी भाषा की तरलता, बिम्बों की सघनता और यथार्थ की संरचनात्मक प्रस्तुति विरल है। दाहिया जी सहित उन्हें बहुत-बहुत बधाई! ■ राजेन्द्र वर्मा, लखनऊ, उ.प्र.
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[4/4, 1:07 PM] X: डॉ. अवनीश सिंह चौहान के नवगीत नवीनता व विविधता लिये हुए हैं। इन मंजुल रचनाओं के लिए उन्हें बहुत बहुत बधाई।
■ सुमन ढींगरा दुग्गल
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[4/4, 1:07 PM] X: आज मंच पर युवा कवि अवनीश चौहान के नवगीत प्रस्तुत करने के लिए सबसे पहले दाहिया जी को धन्यवाद। अवनीश जी ऐसे युवा रचनाकार हैं जिन्होंने अपने श्रेष्ठ सृजन के द्वारा अल्प समय में ही हिंदी साहित्य में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया है। नवगीतों के सृजन के साथ नवगीतों के प्रचार-प्रसार में भी उनका महत्वपूर्ण अवदान है। अविनीश जी नवगीतों मे अपने समय को सहज भाषा, टटके बिम्बों में अभिव्यक्त कर रहे हैं। उनके नवगीत कहीं शोषित-पीड़ित को हक दिलवाने में प्रवत्त हैं, तो कहीं कविता के सुखद जीवन की कामना करते हैं। सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों के प्रति चिंतित हैं। व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी है। जहाँ वे जीवन को सच्चे अर्थो को उकेरेने में चिंतन की गहराई मे उतर जाते हैं, वहाँ उनके दार्शनिक स्वरूप के दर्शन भी होते हैं। जीवन के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त करने के लिए उनका प्रयास सराहनीय है। सुंदर और पुष्ट नवगीतों के लिए अवनीश जी को हार्दिक बधाई।
■ विनय भदौरिया रायबरेली
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[4/4, 1:07 PM] X: डॉ अविनाश सिंह जी के गीत या कहें कोई भी रचना मैंने पहली बार पढ़ी है। सभी आठो गीत बेहद सुन्दर हैं और हृदय झकझोरने वाले हैं। सभी गीत मानव जीवन, खासकर भारतीयों के जीवन के यथार्थ (गरीबी, कम मजदूरी, विवशता, आशा और निराशा साथ सरकारी तंत्र की उदासीनता) को प्रतबिम्बित कर रहे हैं। भाषा शैली, भाव, बिम्ब,शिल्पविधान काबिले तारीफ हैं। ऐसे रचनाकार के गीतों का रसास्वादन कराने लिए आदरणीय रामकिशोर जी का बहुत-बहुत आभार।
इतने बड़े रचनाकार की रचनाओं के शिल्प पर टिप्पणी करना धृष्टता जैसा लग रहा है। लेकिन जैसा पटल की और से आदेश है और जैसा मैंने महसूस किया है वह इस प्रकार है-
1. "रामभरोसे" में " नदी चढ़ी है सागर गहरा" नदी और सागर का एक साथ होना मेरी मंदबुध्दि को कुछ अटपटा सा लग रहा है। इसी गीत के दूसरे अंतरा में ऐसा लगता है कृषक मेहनत करने वाला और चिड़ियाँ लूटखसोट करने वालों की प्रतीक हों।
2. असंभव है -
इसके मुखड़े के खंड "चौतरफा है जीवन ही जीवन" जो 18 मात्राओं का है, को मैंने अपनी यथाशक्ति से नाना प्रकार से पढ़कर देखा। पर सब कुछ करने के बाद भी मैं प्रवाह न ढूँढ़ पाया। मेरे हिसाब से यह खंड 16 मात्रिक "चौतरफा जीवन ही जीवन" होना चाहिए। यह मेरी अल्पज्ञता भी सकती है। क्योंकि यह 18 मात्रिक खंड हर अंतरा में आ रहा है।
3. मन का तोता-
इसमें मुखड़ा और अंतरा 16/11 और अंत दीर्घ, लघु (21) के विधान पर निर्धारित है। जो बहुत ही सुन्दर लय प्रदान कर रहा है। पर दूसरे अंतरे में विधान बदल कर 16/12 और अंत में दीर्घ, दीर्घ (22) गया है। जो मेरे हिसाब से नहीं होना चाहिए।
शेष सभी गीतों का शिल्प विधान मुझे उच्चकोटि का लगा है। डॉ.अवनीश जी की लेखनी को सादर नमन।
■ रणवीर सिंह "अनुपम", गाजियाबाद
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।। मूल्यों के संकट से जूझकर 'टूटे हुए शिकारे' से भी जीवन का सागर तिरने का साहस भरने वाले नवगीत ।।
इधर एक पखवाड़े से भी अधिक समय के लिए चीन से भारत उड़ गया था। इसलिए
अंतर्जाल के साथ-साथ 'संवेदनात्मक आलोक' से भी कट गया। लौटने पर जितना मिल
सका पढ़ा। सबसे पहले अवनीश सिंह चौहान के नवगीत पढ़े। एक बार में मन नहीं
भरा तो पलटकर फिर पढ़े। मुझे लगता है कि किसी भी रचनाकार की काव्य प्रतिभा का
यह सबसे प्रामाणिक अलिखित प्रमाण पत्र है। उसकी यही क्षमता उसे सर्वग्राही
और पठनीय भी बनाती है।
भाषा, प्रतीक, बिंब और आलंकारिक समृद्धि तो नवगीतों की पहचान ही है और कमोबेश सभी नवगीतों में होती भी है। लेकिन ऋजुता बिरलै ही मिलती है, वह यहाँ बिना किसी कट के मौज़ूद है। जीवन की इसी ऋजुता के साथ-साथ प्रवाहित इनके गीत सहज भाव से 'बिना नाव के माझी' जैसे धन-साधन हीन मानव जीवन के साथ भी उल्लास पूर्वक जलक्रीड़ा करते हुए मिलते हैं- "बिना नाव के /माझी देखे, मैंने नदी किनारे/...अलग अलग है राम कहानी/ टूटे हुए शिकारे।"
दृश्य-अदृश्य विद्रूपताओं और अझेल विडंबनाओं के अमूर्त दृश्यबंधों को मूर्त कर सकने की अद्भुत शब्द शक्ति से संपन्न डॉ. अवनीश सिंह चौहान के शब्द-शब्द उस घात और आघात से रखे गए हैं कि उनके कहीं भी रखते-उठाते समय जल-तरंग की-सी स्वर लहरी फूटती है- "भरा जलाशय जो दिखता है/ केवल बातें घोले/ प्यासा तोड़ दिया करता दम/ मुख को खोले-खोले।"
जन-जीवन की आशाओं की सूखती बेलें, दुर्घटनाओं की शिकार होती अपेक्षाएँ और सबसे बड़ी विडंबना यह कि यह सब उन्हीं वट वृक्षों की छाँव तले हो रहा है जिसे जनता-जनार्दन ने अपने खून-पसीने से सींचा है- "खून-पसीना बो-बोकर वह/ फसलें नई उगाए।"
इसके बाद उनका सूख जाना किसी किसान के लिए कितना पीड़ादायी है । उनके और उनके अपनों के सपनों का असमय मर जाने का कारण भी इन्हीं बरगदों और पीपलों की शाखाओं में झूलती उनकी लाशों से पूछा जा सकता है- "अपने स्वप्न भयावह कितने/ उनके सुखद सहारे।"
शिल्प संबंधी जिन कमियों की ओर अवनीश सिंह जी ने ध्यान आकृष्ट कराया है, उनसे सहमति रखते हुए भी कथ्य में किसी तरह की असंगति मुझे नहीं दिखी। प्रायः हर गीत में कथ्य का निर्वाह और प्रवाह मुझे अबाधित ही लगा है। इस दृष्टि से इन गीतों की उत्कृष्टता को असंदिग्ध कह सकता हूँ। वह इसलिए की चढ़ी हुई नदी की लहरों पर सवार नाविक जब गहरे सागर के मुहाने पर पहुँचता है तो उसका भयग्रस्त हो जाना स्वाभाविक है।
चढ़ी नदी विसंगतियों भरी ज़िंदगी है जिसकी ऊंची-ऊंची लहरें जीवन की भूलभूत जररूरतें हैं, जिन्हें अपने सीमित साधन के चप्पू चलाते हुए पार करना है, यानी पूरा करना है। 'सुनहरी धूप' मांगने वाले राम भरोसे वह आम आदमी है, जिसे जीवन के इस भयप्रद मुहाने से रूबरू होना भर नहीं है, उसे पार भी करना है-
नदी चढ़ी है
भाषा, प्रतीक, बिंब और आलंकारिक समृद्धि तो नवगीतों की पहचान ही है और कमोबेश सभी नवगीतों में होती भी है। लेकिन ऋजुता बिरलै ही मिलती है, वह यहाँ बिना किसी कट के मौज़ूद है। जीवन की इसी ऋजुता के साथ-साथ प्रवाहित इनके गीत सहज भाव से 'बिना नाव के माझी' जैसे धन-साधन हीन मानव जीवन के साथ भी उल्लास पूर्वक जलक्रीड़ा करते हुए मिलते हैं- "बिना नाव के /माझी देखे, मैंने नदी किनारे/...अलग अलग है राम कहानी/ टूटे हुए शिकारे।"
दृश्य-अदृश्य विद्रूपताओं और अझेल विडंबनाओं के अमूर्त दृश्यबंधों को मूर्त कर सकने की अद्भुत शब्द शक्ति से संपन्न डॉ. अवनीश सिंह चौहान के शब्द-शब्द उस घात और आघात से रखे गए हैं कि उनके कहीं भी रखते-उठाते समय जल-तरंग की-सी स्वर लहरी फूटती है- "भरा जलाशय जो दिखता है/ केवल बातें घोले/ प्यासा तोड़ दिया करता दम/ मुख को खोले-खोले।"
जन-जीवन की आशाओं की सूखती बेलें, दुर्घटनाओं की शिकार होती अपेक्षाएँ और सबसे बड़ी विडंबना यह कि यह सब उन्हीं वट वृक्षों की छाँव तले हो रहा है जिसे जनता-जनार्दन ने अपने खून-पसीने से सींचा है- "खून-पसीना बो-बोकर वह/ फसलें नई उगाए।"
इसके बाद उनका सूख जाना किसी किसान के लिए कितना पीड़ादायी है । उनके और उनके अपनों के सपनों का असमय मर जाने का कारण भी इन्हीं बरगदों और पीपलों की शाखाओं में झूलती उनकी लाशों से पूछा जा सकता है- "अपने स्वप्न भयावह कितने/ उनके सुखद सहारे।"
शिल्प संबंधी जिन कमियों की ओर अवनीश सिंह जी ने ध्यान आकृष्ट कराया है, उनसे सहमति रखते हुए भी कथ्य में किसी तरह की असंगति मुझे नहीं दिखी। प्रायः हर गीत में कथ्य का निर्वाह और प्रवाह मुझे अबाधित ही लगा है। इस दृष्टि से इन गीतों की उत्कृष्टता को असंदिग्ध कह सकता हूँ। वह इसलिए की चढ़ी हुई नदी की लहरों पर सवार नाविक जब गहरे सागर के मुहाने पर पहुँचता है तो उसका भयग्रस्त हो जाना स्वाभाविक है।
चढ़ी नदी विसंगतियों भरी ज़िंदगी है जिसकी ऊंची-ऊंची लहरें जीवन की भूलभूत जररूरतें हैं, जिन्हें अपने सीमित साधन के चप्पू चलाते हुए पार करना है, यानी पूरा करना है। 'सुनहरी धूप' मांगने वाले राम भरोसे वह आम आदमी है, जिसे जीवन के इस भयप्रद मुहाने से रूबरू होना भर नहीं है, उसे पार भी करना है-
नदी चढ़ी है
सागर गहरा
पार उसे ही करना
सोच रहा वह नैया छोटी
और धार पर तिरना
छोटे-छोटे चप्पू मेरे
साहस-धीरज-लाज।
विद्रूप और विसंगतियों से भरे जीवन के बावज़ूद गीतकार के सृजनधर्मी अन्तःकरण का रस स्रोत सूखा नहीं है। अपने इसी स्रोत के बल पर वह पूरे परिवेश को सींचकर हरा-भरा कर लेने की अद्भुत क्षमता रखता है। यह किसी रचनाधर्मी के ही बूते की बात है कि रिश्तों की सूखती बेल को हरा-भरा रख सकता है। दुकाल में भी वही जीवन के मंगल गीत गा सकता है और दावा कर सकता है कि उसके चारों तरफ जीवन ही जीवन है। वर्ना सुकाल में भी मौत का रोना रोते हुए तो बहुतेरे मिल जाते हैं - "चौतरफा है/जीवन ही जीवन/कविता मरे असंभव है।" यहाँ अवनीश सिंह की राय से इत्तिफ़ाक रखते हुए मुझे भी पहला 'है' अनावश्यक लग रहा है। यह बड़े शिलाखंड की तरह प्रवाह को बाधित कर रहा है।
आठवें गीत में 'माँ' को जिस संवेदना के साथ रचा गया है, निश्चय ही निष्कलुष है। इसमें माँ के वात्सल्य से नहाई नेह बिन्दु छलकाती देह अपने सम्मोहन से बांधती है - "घर की दुनिया माँ होती है....उसके हाथ का रूखा-सूखा/ भी हो जाता है काजू-सा/ कम शब्दों में खुल जाती वह /ज्यों संस्कृति की हो मंजूषा।" इस गीत में यत्र-तत्र प्रवाह बाधित है। जैसे-"खुशियों की क्रीम /परसने को/ दुखों का दही बिलोती है।" यहाँ वाकई विलक्षणता है, विदग्धता भी है पर रसात्मकता गायब होने से यह अंश गद्य वाक्य बनकर रह गया है।
गीतकार युवा हो तो उससे प्रेम गीत की आशा होगी ही होगी। दाहिया जी ने अपने पाठकों को इस अर्थ में भी निराश नहीं किया है और इस यथार्थ जीवी युवा गीतकार का एक प्रेमगीत भी बड़ी सादगी सहेज के ऐसे रख दिया है जैसे तंबाकू की कड़ुवाहट को कम करने के लिए थोड़ा-गुलकंद रख दिया जाए- "रजनीगंधा दहे रात भर / जागे हँसे चमेली/ देह हुई निष्पंद कि जैसे/ सूनी खड़ी हवेली।"
ज़रूरत पड़ने पर डॉ. अवनीश चौहान जी पीछे भी मुड़ते हैं और नवगीत से हाथछुड़ा बिंब, प्रतीक, रूपक का खटराग भरा शास्त्रीय आँगन फलांग कर सीधे अभिधा में गीत के गले में में गलबहियाँ डालकर अबोध बच्चे की तरह झूलने लगते हैं- "कार-काफिला हेलीकोफ्टर / सभी दिखावे का धंधा/ दो बित्ते की पगडंडी पर/ चलता गांवों का बंदा।"
यहाँ व्याकरण की दृष्टि से 'सभी' बहुवचन है और 'धंधा' एक वचन। इस तरह की साधारण असंगति के बावज़ूद अर्थ में किसी तरह की असंगतता न होने से 'सभी दिखावे के धंधे' न कहने पर भी गीत का सौन्दर्य कम नहीं हुआ है। यही गीतकार की सफलता है।
'मिसक़ाल', टाइम पास',' यह दिल मांगे मोर' जैसी शब्दावली केवल समकालीनताबोध के लिए नहीं प्रयुक्त हुई है। वह अनावश्यक अंग्रेजी प्रेम के कारण भी नहीं है। वे तो बस मंथर गति साधु-सरल जीवन की कथा के बीच-बीच उसके द्रुतगामी और चतुर-चालाक होते जाने की अंतर्कथा की तरह प्रयुक्त हुए हैं। मानुष जीवन ही क्या। इसका विस्तार मानवेतर जगत में भी देखा जा सकता है - "दिन भर फोन धरे कानों पर/ चिड़ियाँ बैठी क्या बतियाएँ।"
इतने सुंदर श्रव्य बिंब के साथ इतना सहज और स्वाभाविक मानवी करण किसी भी मानस में अपने मधुर स्वर के साथ काव्य चेतना जगा देने के लिए काफ़ी है।
कुल मिलाकर डॉ. अवनीश के नवगीत अपनी मौलिकता में अप्रतिम हैं और मूल्यों के संकट से जूझ-जूझ कर 'टूटे हुए शिकारे' से भी जीवन का सागर तिरने का साहस भरने वाले नवगीत हैं। वे अपने शिल्प के रचाव, कसाव और कथ्य सभी से अपनी ओर खींचते हैं।
डॉ. अवनीश चौहान के साथ-साथ नवगीतों के इस अविरल प्रवाह को बनाए रखने के लिए दहिया जी को भी हार्दिक बधाई !
■ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर', चीन
पार उसे ही करना
सोच रहा वह नैया छोटी
और धार पर तिरना
छोटे-छोटे चप्पू मेरे
साहस-धीरज-लाज।
विद्रूप और विसंगतियों से भरे जीवन के बावज़ूद गीतकार के सृजनधर्मी अन्तःकरण का रस स्रोत सूखा नहीं है। अपने इसी स्रोत के बल पर वह पूरे परिवेश को सींचकर हरा-भरा कर लेने की अद्भुत क्षमता रखता है। यह किसी रचनाधर्मी के ही बूते की बात है कि रिश्तों की सूखती बेल को हरा-भरा रख सकता है। दुकाल में भी वही जीवन के मंगल गीत गा सकता है और दावा कर सकता है कि उसके चारों तरफ जीवन ही जीवन है। वर्ना सुकाल में भी मौत का रोना रोते हुए तो बहुतेरे मिल जाते हैं - "चौतरफा है/जीवन ही जीवन/कविता मरे असंभव है।" यहाँ अवनीश सिंह की राय से इत्तिफ़ाक रखते हुए मुझे भी पहला 'है' अनावश्यक लग रहा है। यह बड़े शिलाखंड की तरह प्रवाह को बाधित कर रहा है।
आठवें गीत में 'माँ' को जिस संवेदना के साथ रचा गया है, निश्चय ही निष्कलुष है। इसमें माँ के वात्सल्य से नहाई नेह बिन्दु छलकाती देह अपने सम्मोहन से बांधती है - "घर की दुनिया माँ होती है....उसके हाथ का रूखा-सूखा/ भी हो जाता है काजू-सा/ कम शब्दों में खुल जाती वह /ज्यों संस्कृति की हो मंजूषा।" इस गीत में यत्र-तत्र प्रवाह बाधित है। जैसे-"खुशियों की क्रीम /परसने को/ दुखों का दही बिलोती है।" यहाँ वाकई विलक्षणता है, विदग्धता भी है पर रसात्मकता गायब होने से यह अंश गद्य वाक्य बनकर रह गया है।
गीतकार युवा हो तो उससे प्रेम गीत की आशा होगी ही होगी। दाहिया जी ने अपने पाठकों को इस अर्थ में भी निराश नहीं किया है और इस यथार्थ जीवी युवा गीतकार का एक प्रेमगीत भी बड़ी सादगी सहेज के ऐसे रख दिया है जैसे तंबाकू की कड़ुवाहट को कम करने के लिए थोड़ा-गुलकंद रख दिया जाए- "रजनीगंधा दहे रात भर / जागे हँसे चमेली/ देह हुई निष्पंद कि जैसे/ सूनी खड़ी हवेली।"
ज़रूरत पड़ने पर डॉ. अवनीश चौहान जी पीछे भी मुड़ते हैं और नवगीत से हाथछुड़ा बिंब, प्रतीक, रूपक का खटराग भरा शास्त्रीय आँगन फलांग कर सीधे अभिधा में गीत के गले में में गलबहियाँ डालकर अबोध बच्चे की तरह झूलने लगते हैं- "कार-काफिला हेलीकोफ्टर / सभी दिखावे का धंधा/ दो बित्ते की पगडंडी पर/ चलता गांवों का बंदा।"
यहाँ व्याकरण की दृष्टि से 'सभी' बहुवचन है और 'धंधा' एक वचन। इस तरह की साधारण असंगति के बावज़ूद अर्थ में किसी तरह की असंगतता न होने से 'सभी दिखावे के धंधे' न कहने पर भी गीत का सौन्दर्य कम नहीं हुआ है। यही गीतकार की सफलता है।
'मिसक़ाल', टाइम पास',' यह दिल मांगे मोर' जैसी शब्दावली केवल समकालीनताबोध के लिए नहीं प्रयुक्त हुई है। वह अनावश्यक अंग्रेजी प्रेम के कारण भी नहीं है। वे तो बस मंथर गति साधु-सरल जीवन की कथा के बीच-बीच उसके द्रुतगामी और चतुर-चालाक होते जाने की अंतर्कथा की तरह प्रयुक्त हुए हैं। मानुष जीवन ही क्या। इसका विस्तार मानवेतर जगत में भी देखा जा सकता है - "दिन भर फोन धरे कानों पर/ चिड़ियाँ बैठी क्या बतियाएँ।"
इतने सुंदर श्रव्य बिंब के साथ इतना सहज और स्वाभाविक मानवी करण किसी भी मानस में अपने मधुर स्वर के साथ काव्य चेतना जगा देने के लिए काफ़ी है।
कुल मिलाकर डॉ. अवनीश के नवगीत अपनी मौलिकता में अप्रतिम हैं और मूल्यों के संकट से जूझ-जूझ कर 'टूटे हुए शिकारे' से भी जीवन का सागर तिरने का साहस भरने वाले नवगीत हैं। वे अपने शिल्प के रचाव, कसाव और कथ्य सभी से अपनी ओर खींचते हैं।
डॉ. अवनीश चौहान के साथ-साथ नवगीतों के इस अविरल प्रवाह को बनाए रखने के लिए दहिया जी को भी हार्दिक बधाई !
■ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर', चीन
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[4/4, 1:07 PM] X: आज पटल पर आ. दाहिया जी ने मेरी अपनी पसन्द के रचना कार में डॉ. अविनीश सिंह चौहान जी के गीतों को प्रस्तुत किया। डॉ. अविनीश ने अपनी काव्य प्रतिभा से नवगीतों में बहुत जल्दी ही महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है और सभी की पसन्द बन गये हैं। यही कारण है कि उन पर इतनी सारी टिप्पणी आ रही हैं। उनके गीतों में व्याप्त मौलिकता और नवीनता और विषयगत विविधता उन्हें एक पहचान देती हैं। और अभी वे युवा हैं, इसलिये उनमें नवगीत के सुखद सम्भावनाऔं की उम्मीद की जा सकती है। सभी गीत श्रेष्ठ है। बहुत-बहुत बधाई डॉ. अविनीश जी को। आ. दाहिया जी का आभार। ■ मधु शुक्ला, भोपाल
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[4/4, 1:07 PM] X: आदरणीय अवनीश जी चौहान जी के नवगीत नई ऊर्जा से ओतप्रोत हैं। आपने आमजन की पीड़ा को अपने हृदय में जिया है।एक-एक शब्द अनुभव में पगा हुआ है। बहुत-बहुत नमन आपकी सशक्त लेखनी को।
[4/4, 1:07 PM] X: आज पटल पर आ. दाहिया जी ने मेरी अपनी पसन्द के रचना कार में डॉ. अविनीश सिंह चौहान जी के गीतों को प्रस्तुत किया। डॉ. अविनीश ने अपनी काव्य प्रतिभा से नवगीतों में बहुत जल्दी ही महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है और सभी की पसन्द बन गये हैं। यही कारण है कि उन पर इतनी सारी टिप्पणी आ रही हैं। उनके गीतों में व्याप्त मौलिकता और नवीनता और विषयगत विविधता उन्हें एक पहचान देती हैं। और अभी वे युवा हैं, इसलिये उनमें नवगीत के सुखद सम्भावनाऔं की उम्मीद की जा सकती है। सभी गीत श्रेष्ठ है। बहुत-बहुत बधाई डॉ. अविनीश जी को। आ. दाहिया जी का आभार। ■ मधु शुक्ला, भोपाल
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[4/4, 1:07 PM] X: आदरणीय अवनीश जी चौहान जी के नवगीत नई ऊर्जा से ओतप्रोत हैं। आपने आमजन की पीड़ा को अपने हृदय में जिया है।एक-एक शब्द अनुभव में पगा हुआ है। बहुत-बहुत नमन आपकी सशक्त लेखनी को।
■ अजय जादौन
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[4/4, 1:07 PM] X: आज पटल पर प्रिय अनुजवत डॉ अवनीश चौहान जी के नवगीतों से जुड़ने का अवसर मिला। जीवन की विसंगतियों, गरीबी, भविष्य की चिंताएं, आशाएँ, अंतर्द्वन्द् तथा अंत में माँ को प्रेषित सुंदर गीत-नवगीतों ने ह्रदय में गहरी छाप छोड़ी। भाव, भाषा, कथ्य, शिल्प की दृष्टि से भी नवगीत उत्तम हैं। मेरी उन्हें हार्दिक बधाई।
■ देवेन्द्र सफल, कानपुर
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[4/4, 1:07 PM] X: डॅा. अवनीश सिंह चौहान के नवगीत, गाँव-क़स्बे के व्यक्ति, उसके जीवन, असहाय स्थिति तथा "माँ" जैसे रिश्तों को जहाँ एक ओर संवेदनात्मक धरातल पर आँकते हैं, वहीं दूसरी ओर हताशापूर्ण विषम स्थितियों को यथार्थपरकता के साथ शब्दांकित कर लेने के बावजूद, उम्मीद की किरन व सकारात्मकता का सूत्र, नियोजनत:, मुट्ठियों में मज़बूती के साथ थामे रहते हैं। उत्प्रेरणा का आधार बन सकने की संभावनाओं से युक्त हैं, कविता के सन्दर्भ में भी। अच्छे नवगीतों के लिए बधाई!
श्री दाहिया जी आपको धन्यवाद कि आपने डॅा. अवनीश जी के नवगीतों को पटल पर प्रस्तुत किया, उन्हें मेरा हृदय से साधुवाद।
■ डॅा० सुभाष वसिष्ठ, नई दिल्ल्ली
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[4/4, 1:07 PM] X: डॉ. अवनीश सिंह चौहान के नवगीतों में समकालीनता और विविधता का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है । अवनीश जी को हार्दिक वधाई ।
■ डॉ जगदीश व्योम, दिल्ली
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[4/4, 1:07 PM] X: आदरणीय डॉ अवनीश सिंह चौहान जी की रचनाएँ आज 'संवेदनात्मक आलोक मंच' को आलोकित कर रही हैं, जिसके लिए आदरणीय रामकिशोर दाहिया जी का हार्दिक आभार जिनने इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ पटल पर रखीं।
डॉ चौहान का कृतित्व एवं व्यक्तित्व पढ़ने के बाद कुछ कहने बताने को शेष नहीं रह जाता। फिर भी मैं इतना कहना चाहूँगा कि प्रत्येक रचना हृदय स्पर्श करती है, गुदगुदाती है, मन को तरंगित करती है। आदरणीय अवनीश जी को हार्दिक बधाई और मेरी शुभकामनाएँ। धन्यवाद सहित।
■ अनिल कुमार श्रीवास्तव
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश जी नवगीत के नवनीत है। बहुत कम लोग उनकी ऊँचाई को छू पाएँगे। उनकी बहुमुखी प्रतिभा भी उनकी लेखनी की तेजस्विता का बखान करती है। अद्वितीय प्रतिभा के धनी अवनीश जी को मेरी बहुत-बहुत बधाई।
■ रंजना गुप्ता, लखनऊ
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[4/4, 1:07 PM] X: भाई अवनीश चौहान जी की सहज रचनाएँ मन को छूती हैं। नवगीत रचने में वे परांगत हैं। उन्हें मेरी अशेष शुभकामनाएं ।
■ मुकुट सक्सेना
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[4/4, 1:13 PM] X: डाँ. अवनीश सिंह चौहान के सभी नवगीत मन को आह्लादित तथा मस्तिष्क को संतुष्ट करते हैं। आम तौर पर नये प्रतीकों के माध्यम से सहज भावाभिव्यक्ति उनकी सामर्थ्य को दर्शाता है। उन्हें मेरी बधाई ।
■ दिवाकर शर्मा
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[4/4, 1:14 PM] X: आ. अनिल कुमार श्रीवस्तव जी आज के प्रस्तुत विशेषांक 'मेरी अपनी पसंद' पर समूह में अपने भाव एवं विचार पोस्ट करने के लिये हम आप सभी का हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित कर आह्लादित हैं। सादर।
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आज पटल पर प्रिय अनुजवत डॉ अवनीश सिंह चौहान के नवगीतों से जुड़ने का अवसर मिला। जीवन की विसंगतियों, गरीबी, भविष्य की चिंताएँ, आशाएँ, अंतर्द्वन्द्व तथा अंत में माँ को प्रेषित सुंदर गीत-नवगीतों ने ह्रदय में गहरी छाप छोड़ी। भाव, भाषा, कथ्य, शिल्प की दृष्टि से भी नवगीत उत्तम हैं। मेरी उन्हें हार्दिक बधाई।
— देवेन्द्र सफल, कानपुर
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अवनीश जी की कविताएँ यथार्थ के कलेवर में हैं। उनका प्रत्येक गीत पाठक को सोचने के लिए मजबूर करता है। उनके गीत गाँव एवं शहर के यथार्थ की सच्ची अभिव्यक्ति हैं। तीसरे गीत— 'चौतरफा है जीवन ही जीवन,/ कविता मरे असंभव है' में कवि कविता की प्रगति के लिए पूर्णरूपेण आश्वस्त है। यदि मैं कहूँ कि उनका यह गीत मील का पत्थर साबित होगा तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अवनीश जी के स्वर्णिम भविष्य की आकांक्षा के साथ
— जयराम सिंह गौर, कानपुर
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'मंतव्य-5' में भी आपके बड़े ख़ूबसूरत गीत छपे हैं। बधाई और शुभकामनाएँ। — अनिल जनविजय, मास्को
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गीतों की भाषा में सौंधापन है और शब्दों की जादूगरी भी कमाल की है। इन अद्भुत गीतों के लिए बधाई। दाहिया जी को सुंदर संयोजन के लिये साधुवाद।
— ज्योति खरे, कटनी
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Congratulations, Abnish Singh Chauhan ji. These Neo-lyrical poems are very touching. Your sympathetic attitude towards the common man is commendable. The dexterously crafted terminology of the peasants, river men, birds, cell phones, flowers, villa etc is the evidence of your poetic talent. Nice to enjoy the beauty of pastoral poetry by a competent pen. Thank you to let me have a chance to be benefited by your lyrical poems. — Prof A P Saran, Shahdol
समूह पर अवनीश जी के गीत पढ़े। इन गीतों पर प्रस्तुत टिप्पणियां तथा एक समीक्षा भी पढ़ी। अवनीश जी में नवगीत के जटिल यथार्थ को भी ललित भाषा में रचने का हुनर है। यह विशेषता अन्यत्र दिखाई नहीं देती। गीत व्याकरण सम्मत होते हुए भी व्याकरण के अधीन नहीं होता। गीत के लहजे, गीत की बोलियों-मुहावरों में ज्यादा मिठास होती है। मैं समूह प्रभारी श्री रामकिशोर दाहिया को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
— वीरेंद्र आस्तिक, कानपुर
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- रामकिशोर दाहिया
प्रमुख एडमिन
संवेनात्मक आलोक
नवगीत सा.विचार समूह
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[4/4, 1:07 PM] X: आज पटल पर प्रिय अनुजवत डॉ अवनीश चौहान जी के नवगीतों से जुड़ने का अवसर मिला। जीवन की विसंगतियों, गरीबी, भविष्य की चिंताएं, आशाएँ, अंतर्द्वन्द् तथा अंत में माँ को प्रेषित सुंदर गीत-नवगीतों ने ह्रदय में गहरी छाप छोड़ी। भाव, भाषा, कथ्य, शिल्प की दृष्टि से भी नवगीत उत्तम हैं। मेरी उन्हें हार्दिक बधाई।
■ देवेन्द्र सफल, कानपुर
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[4/4, 1:07 PM] X: डॅा. अवनीश सिंह चौहान के नवगीत, गाँव-क़स्बे के व्यक्ति, उसके जीवन, असहाय स्थिति तथा "माँ" जैसे रिश्तों को जहाँ एक ओर संवेदनात्मक धरातल पर आँकते हैं, वहीं दूसरी ओर हताशापूर्ण विषम स्थितियों को यथार्थपरकता के साथ शब्दांकित कर लेने के बावजूद, उम्मीद की किरन व सकारात्मकता का सूत्र, नियोजनत:, मुट्ठियों में मज़बूती के साथ थामे रहते हैं। उत्प्रेरणा का आधार बन सकने की संभावनाओं से युक्त हैं, कविता के सन्दर्भ में भी। अच्छे नवगीतों के लिए बधाई!
श्री दाहिया जी आपको धन्यवाद कि आपने डॅा. अवनीश जी के नवगीतों को पटल पर प्रस्तुत किया, उन्हें मेरा हृदय से साधुवाद।
■ डॅा० सुभाष वसिष्ठ, नई दिल्ल्ली
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[4/4, 1:07 PM] X: डॉ. अवनीश सिंह चौहान के नवगीतों में समकालीनता और विविधता का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है । अवनीश जी को हार्दिक वधाई ।
■ डॉ जगदीश व्योम, दिल्ली
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[4/4, 1:07 PM] X: आदरणीय डॉ अवनीश सिंह चौहान जी की रचनाएँ आज 'संवेदनात्मक आलोक मंच' को आलोकित कर रही हैं, जिसके लिए आदरणीय रामकिशोर दाहिया जी का हार्दिक आभार जिनने इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ पटल पर रखीं।
डॉ चौहान का कृतित्व एवं व्यक्तित्व पढ़ने के बाद कुछ कहने बताने को शेष नहीं रह जाता। फिर भी मैं इतना कहना चाहूँगा कि प्रत्येक रचना हृदय स्पर्श करती है, गुदगुदाती है, मन को तरंगित करती है। आदरणीय अवनीश जी को हार्दिक बधाई और मेरी शुभकामनाएँ। धन्यवाद सहित।
■ अनिल कुमार श्रीवास्तव
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[4/4, 1:07 PM] X: अवनीश जी नवगीत के नवनीत है। बहुत कम लोग उनकी ऊँचाई को छू पाएँगे। उनकी बहुमुखी प्रतिभा भी उनकी लेखनी की तेजस्विता का बखान करती है। अद्वितीय प्रतिभा के धनी अवनीश जी को मेरी बहुत-बहुत बधाई।
■ रंजना गुप्ता, लखनऊ
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[4/4, 1:07 PM] X: भाई अवनीश चौहान जी की सहज रचनाएँ मन को छूती हैं। नवगीत रचने में वे परांगत हैं। उन्हें मेरी अशेष शुभकामनाएं ।
■ मुकुट सक्सेना
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[4/4, 1:13 PM] X: डाँ. अवनीश सिंह चौहान के सभी नवगीत मन को आह्लादित तथा मस्तिष्क को संतुष्ट करते हैं। आम तौर पर नये प्रतीकों के माध्यम से सहज भावाभिव्यक्ति उनकी सामर्थ्य को दर्शाता है। उन्हें मेरी बधाई ।
■ दिवाकर शर्मा
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[4/4, 1:14 PM] X: आ. अनिल कुमार श्रीवस्तव जी आज के प्रस्तुत विशेषांक 'मेरी अपनी पसंद' पर समूह में अपने भाव एवं विचार पोस्ट करने के लिये हम आप सभी का हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित कर आह्लादित हैं। सादर।
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आज पटल पर प्रिय अनुजवत डॉ अवनीश सिंह चौहान के नवगीतों से जुड़ने का अवसर मिला। जीवन की विसंगतियों, गरीबी, भविष्य की चिंताएँ, आशाएँ, अंतर्द्वन्द्व तथा अंत में माँ को प्रेषित सुंदर गीत-नवगीतों ने ह्रदय में गहरी छाप छोड़ी। भाव, भाषा, कथ्य, शिल्प की दृष्टि से भी नवगीत उत्तम हैं। मेरी उन्हें हार्दिक बधाई।
— देवेन्द्र सफल, कानपुर
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अवनीश जी की कविताएँ यथार्थ के कलेवर में हैं। उनका प्रत्येक गीत पाठक को सोचने के लिए मजबूर करता है। उनके गीत गाँव एवं शहर के यथार्थ की सच्ची अभिव्यक्ति हैं। तीसरे गीत— 'चौतरफा है जीवन ही जीवन,/ कविता मरे असंभव है' में कवि कविता की प्रगति के लिए पूर्णरूपेण आश्वस्त है। यदि मैं कहूँ कि उनका यह गीत मील का पत्थर साबित होगा तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अवनीश जी के स्वर्णिम भविष्य की आकांक्षा के साथ
— जयराम सिंह गौर, कानपुर
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'मंतव्य-5' में भी आपके बड़े ख़ूबसूरत गीत छपे हैं। बधाई और शुभकामनाएँ। — अनिल जनविजय, मास्को
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गीतों की भाषा में सौंधापन है और शब्दों की जादूगरी भी कमाल की है। इन अद्भुत गीतों के लिए बधाई। दाहिया जी को सुंदर संयोजन के लिये साधुवाद।
— ज्योति खरे, कटनी
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Congratulations, Abnish Singh Chauhan ji. These Neo-lyrical poems are very touching. Your sympathetic attitude towards the common man is commendable. The dexterously crafted terminology of the peasants, river men, birds, cell phones, flowers, villa etc is the evidence of your poetic talent. Nice to enjoy the beauty of pastoral poetry by a competent pen. Thank you to let me have a chance to be benefited by your lyrical poems. — Prof A P Saran, Shahdol
समूह पर अवनीश जी के गीत पढ़े। इन गीतों पर प्रस्तुत टिप्पणियां तथा एक समीक्षा भी पढ़ी। अवनीश जी में नवगीत के जटिल यथार्थ को भी ललित भाषा में रचने का हुनर है। यह विशेषता अन्यत्र दिखाई नहीं देती। गीत व्याकरण सम्मत होते हुए भी व्याकरण के अधीन नहीं होता। गीत के लहजे, गीत की बोलियों-मुहावरों में ज्यादा मिठास होती है। मैं समूह प्रभारी श्री रामकिशोर दाहिया को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
— वीरेंद्र आस्तिक, कानपुर
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- रामकिशोर दाहिया
प्रमुख एडमिन
संवेनात्मक आलोक
नवगीत सा.विचार समूह
वरिष्ठ साहित्यकार श्रद्धेय श्री इन्द्र बहादुर सिंह भदौरिया उर्फ़ इन्द्रेश भदौरिया
(रायबरेली, उ. प्र.) द्वारा मेरी फेसबुक पर की गयी छंदबद्ध टिप्पणियाँ यहाँ
प्रस्तुत कर रहा हूँ :
करत सदा सब सुन्दर कामा/ दो कर जोरि करउ परनामा।
बढ़ते पुत्र मातु-पितु धरमा/ अवगुण त्यागैं करैं सुकरमा।
ऐसे पितु पावत बड़ भागी/ बनो मातु-पितु पग अनुरागी।
कोटिक तुमहिं बधाई ताता/ करो सुकर्म वन्धु निज गाता।
वन्दहुँ परम पिता के चरना/ शोक विनाशक पातक हरना।
ताको सुत सुन्दर सुविचारी/ रहें खुशी कामना हमारी।
पिता पुत्र दोनो अविकारी/ धर्मनिष्ठ सुन्दर सुविचारी।
करत सदा सब सुन्दर कामा/ दो कर जोरि करउ परनामा।
बढ़ते पुत्र मातु-पितु धरमा/ अवगुण त्यागैं करैं सुकरमा।
ऐसे पितु पावत बड़ भागी/ बनो मातु-पितु पग अनुरागी।
कोटिक तुमहिं बधाई ताता/ करो सुकर्म वन्धु निज गाता।
वन्दहुँ परम पिता के चरना/ शोक विनाशक पातक हरना।
ताको सुत सुन्दर सुविचारी/ रहें खुशी कामना हमारी।
पिता पुत्र दोनो अविकारी/ धर्मनिष्ठ सुन्दर सुविचारी।
श्री अवनीश जी आपके स्वतः स्फूर्त नवगीत वंचितों की पीड़ा को हृदय स्पर्शी शैली में सम्प्रेषित करते हैं मौलिक बिम्ब और प्रतीक भाषा की सम्प्रेषणीयता सम्मोहक है |बधाई| डॉ मनोहर अभय
जवाब देंहटाएंआपके नवगीत देखे, आपके नवगीतों में जो दुनिया है, आज वह कहीं खो सी गई है. उसे बचने का हम सब प्रयास करें. साहित्य के शेत्र में आप अपना अच्छा योगदान कर रहे हैं. बहुत बहुत शुभकामनाएं....
जवाब देंहटाएं(04 जून 2021 को फेसबुक पर टिप्पणी)
जवाब देंहटाएं"आज वैश्विक पटल पर बड़े सर्जकों की जो चिंताएँ हैं, अवनीश सिंह चौहान उनमें बराबर भागीदार हैं। अपने गीतों के जरिये वे इन चिन्ताओं को स्वर देते हैं। साझी सोच के बावजूद कवि अवनीश सिंह चौहान का का शिल्प सबसे अलग है। कह सकते हैं कि कवि स्वनिर्मित मार्ग पर चलता है। लोकप्रचलित लय और काॅमन कथ्य से समझौता न करते हुए मौलिक और परिपक्व दृष्टि के परिचायक हैं अवनीश सिंह के गीत। लोक तथा जन और प्रगतिशील भाषा का समन्वय भाव है कवि का भाषा-मुहावरा। उसका प्रयत्न श्लाघनीय है। यह प्रयत्न सायास न होकर अनायास ही है, जैसे अनायास होती है बच्चों की सोच। अध्ययनशीलता एवं चिन्तन-मनन के द्योतक हैं उनके मधुर गीत। परिवेश को उसने भी खुली आँखों से देखा, भुगता है। पर इनमें साहित्य का छाद्मिक चातुर्य नहीं, निर्दाेष मन की झलक है। यही झलक पाठकों की दिलचस्पी बन जाती है।"
मधुर गीतकार, कवि अवनीश सिंह चौहान को उनके जन्मदिवस पर असीम शुभकामनाएं !
- बोधि प्रकाशन, जयपुर
चुनौतियां कितनी भी बड़ी क्यों न हों, आपके उत्साह के आगे सभी बौनी हैं। जो अपने संघर्ष की मिसाल पेश करते हैं, वे नए रास्ते बनाते हैं। बनी बनाई लीक पर चलना आपकी फितरत में नहीं है।आपकी रचनात्मक ऊर्जा के अप्रत्याशित स्तर, अवधारणात्मक तथ्यपरक ज्ञान और समावेशी व्यक्तित्व की अद्भुत उदारता आश्चर्य का विषय है। जहां एक तरफ आपके समृद्ध शैक्षिक अवदान, अतुलनीय आधिकारिक सहजता व उत्कृष्ट अकादमिक चिंतन जैसे दुर्लभ चारित्रिक गुण जनमानस को अभिप्रेरित करते हैं तो दूसरी ओर आपकी वैचारिक विदग्धता, बौद्धिक कुशलता व सबके साथ असाधारण सामंजस्य की खूबी सार्वजनिक हिताय होकर सभी को आनंदित, आल्हादित, उमंगित व तरंगित करती है। वंचितों के जीवन को परिवर्तित करने के आपके अथक निश्वार्थ समर्पित प्रयास सभी के लिए कौतूहल, अनुकरण व शोध का विषय है जिनकी नकल हो सकती है पर बराबरी कभी नहीं। अगर शुभेच्छा पुष्प होती तो आपके लिए हम सबने हजारों चुन लिए होते। अगर आप जैसे लोग नहीं होते तो समस्त नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले संस्थान खंडहर हो गए होते। आज का दिन तो आपके जीवन मंज़िल का एक सामयिक पड़ाव भर है, जहां खड़े होकर हम सब आपके भविष्य के सपनों के लिए आपको और अधिक प्रभावी, विवेकशील व नैसर्गिक सौंदर्य से प्रेरक बने रहने की दुआ करते हैं। आपके विषम परिस्थितियों में उत्साहपूर्ण भविष्यदृष्टा विरले नेतृत्व, मिशनरीवत कार्यसिद्धि हेतु लगन और समर्थन के विशेषाधिकार प्राप्त संरक्षण से बहुतेरे लाभान्वित हुए हैं जिनकी एक लंबी फेहरिस्त है। आपके पवित्र कार्यों, बहुआयामी आकर्षक व्यक्तित्व की आभा व पर सतत सक्रियता के केंद्र में हमेशा मानवीय संवेदनाएं रही हैं। स्वयं हमने आपसे अपने जीवन को वस्तुपरक, लक्ष्य केंद्रित व स्वाभाविक रूप से सरल बनाने में आपसे बहुत कुछ सीखा है। आपके व्यक्तित्व की समग्रता सभी के लिए प्रेरणा का सदैव स्त्रोत बनी रहेगी। आप ईश्वर के अनंत आशीर्वादों का भाजन बनी रहें, ऐसी हमारी उत्कंठा है, आकांक्षा है और कामना है। आपको सामाजिक व शैक्षिक जिम्मेदारी उठाने की सभी सिद्धियां ईश्वर प्रदान करे। अवनीशजी आपको जन्मदिन की असीम हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएं- प्रो अमर सिंह, छत्तीसगढ़
डा. अवनीश सिंह चौहान के जन्मदिन पर (04 जून 2021) :-
जवाब देंहटाएंजीवन तो अनवरत बहस है
जले दिया-सा दूर निकष है
भोर स्वप्न है खग कहें, उठो
चार जून है जन्म दिवस है।
- वीरेंद्र आस्तिक, कानपुर