राकेश जोशी |
अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद पर मुंबई में कार्यरत रहे। मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया। उनकी कविताएं/ग़ज़लें अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनकी एक काव्य-कृति 'कुछ बातें कविताओं में', एक ग़ज़ल संग्रह 'पत्थरों के शहर में', तथा हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक 'द क्राउड बेअर्स विटनेस' अब तक प्रकाशित हुई है। ईमेल: joshirpg@gmail.com
(1)
क्या कभी इस ज़मीं पे इंतज़ाम बदलेगा
या हमेशा की तरह बस निज़ाम बदलेगा
झूठ और सच की जंग जब छिड़ेगी दुनिया में
कोई न कोई तो फिर अपना नाम बदलेगा
इस अन्याय से भरी हुई व्यवस्था को
कोई राजा नहीं, कोई ग़ुलाम बदलेगा
वो तो ज़ारी रहेगा खेल जो कि ज़ारी है
जब भी बदलेगा तो केवल इनाम बदलेगा
तेज चलता है जो घोड़ा तो हम समझते हैं
अब वो घोड़ा नहीं उसकी लगाम बदलेगा
ये जो बच्चे हैं उठाते हैं अभी तक कचरा
ये पढ़ेंगे तभी तो इनका काम बदलेगा
वो सुबह को भी ज़मीं पर उतार लाया था
लौटकर आएगा तो फिर ये शाम बदलेगा
(2)
उसने जब-जब कोई मुझसे सवाल पूछा है
मैंने तब-तब पलट के उसका हाल पूछा है
युग बदल जाने की बातें तो बड़ी हैं शायद
कैसे गुज़रेगा ग़रीबों का साल, पूछा है
अपने हाथों में कटोरा लिए इस धरती ने
कब से मिलने लगेगी सबको दाल, पूछा है
इक शिकारी को परिंदों की मिली है चिट्ठी
कब तलक लेके वो आएगा जाल, पूछा है
ये हवा अब भी हिलाती है पत्तियों को मगर
कब ये ताक़त से हिलाएगी डाल, पूछा है
कब हक़ीक़त में बदल पाएंगे सपने अपने
कब से धरती पे होगा ये कमाल, पूछा है
उनके शहरों में तो होते हैं हमेशा बलवे
अपने गांवों में होगा कब बवाल, पूछा है
(3)
मंज़िलों का निशान बाक़ी है
और इक इम्तहान बाक़ी है
एक पूरा जहान पाया है
एक पूरा जहान बाक़ी है
आसमां, तुम रहो ज़रा बचकर
अब भी उसकी उड़ान बाक़ी है
खेत बंज़र कभी नहीं होगा
एक भी गर किसान बाक़ी है
इससे आगे तो बस उतरना है
अब तो केवल ढलान बाक़ी है
बाढ़ आने से बह गए हैं सब
एक तन्हा मकान बाक़ी है
ज़िंदगी, तुझसे पूछता हूं मैं
और कितना लगान बाक़ी है
(4)
हर नदी के पास वाला घर तुम्हारा
आसमां में जो भी तारा हर तुम्हारा
बाढ़ आई तो हमारे घर बहे
बन गई बिजली तो जगमग घर तुम्हारा
तुम अभी भी आँकड़ों को गढ़ रहे हो
देश भूखा सो गया है पर तुम्हारा
कोई भी तुमको मदारी क्यों कहेगा
छोड़कर जाएगा जब बन्दर तुम्हारा
ये ज़मीं इक दिन उसी के नाम पर थी
वो जिसे कहते हो तुम नौकर तुम्हारा
दूर उस फुटपाथ पर जो सो रहा है
उसके कदमों में झुकेगा सर तुम्हारा
(5)
बादल गरजे तो डरते हैं नए-पुराने सारे लोग
गाँव छोड़कर चले गए हैं कहाँ न जाने सारे लोग
खेत हमारे नहीं बिकेंगे औने-पौने दामों में
मिलकर आए हैं पेड़ों को यही बताने सारे लोग
मैंने जब-जब कहा वफ़ा और प्यार है धरती पर अब भी
नाम तुम्हारा लेकर आए मुझे चिढ़ाने सारे लोग
गाँव में इक दिन एक अँधेरा डरा रहा था जब सबको
खूब उजाला लेकर पहुँचे उसे भगाने सारे लोग
भूखे बच्चे, भीख माँगते कचरा बीन रहे लेकिन
नहीं निकलते इनका बचपन कभी बचाने सारे लोग
धरती पर खुद आग लगाकर भाग रहे जंगल-जंगल
ढूँढ रहे हैं मंगल पर अब नए ठिकाने सारे लोग
इनको भीड़ बने रहने की आदत है, ये याद रखो
अब आंदोलन में आए हैं समय बिताने सारे लोग
चिड़ियों के पंखों पर लिखकर आज कोई चिट्ठी भेजो
ऊब गए है वही पुराने सुनकर गाने सारे लोग
(6)
हमें हर ओर दिख जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
भुलाए किस तरह जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
यही है क्या वो आज़ादी कि जिसके ख़्वाब देखे थे
ये कूड़ा ढूँढती माँएं, ये कचरा बीनते बच्चे
तरक्की की कहानी तो सुनाई जा रही है पर
न इसमें क्यों जगह पाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
ये बचपन ढूँढते अपना, इन्हीं कचरे के ढेरों में
खिलौने देख ललचाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
वो जिनके हाथ में लाखों-करोड़ों योजनाएँ हैं
उन्हें भी तो नज़र आएं, ये कचरा बीनते बच्चे
वो जिस आकाश से बरसा है, इन पर आग और पानी
उसी आकाश पर छाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
वो तितली जिसके पंखों में, मैं सच्चे रंग भरता हूँ
कहीं उसको भी मिल जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
कभी ऐसा भी दिन आए, अंधेरों से निकलकर फिर
किताबें ढूँढने जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
(7)
सूखा आया तो कुछ तनकर बैठ गए
बाढ़ जो आई और अकड़कर बैठ गए
माँ की याद आने पर सारे लोग बड़े
छोटे-छोटे बच्चे बनकर बैठ गए
जिनके पैरों में थोड़ी हिम्मत कम है
वो तो थोड़ी देर ही चलकर बैठ गए
मंच पे रक्खी सबसे ऊंची कुर्सी पर
मंत्री जी जब गए तो अफसर बैठ गए
वो सच्चाई के हक में चिल्लाएंगे
वो हम जैसे नहीं कि डरकर बैठ गए
ज़िक्र वफ़ा का आया तो हम सब-के-सब
दीवारों के पीछे छुपकर बैठ गए
(8)
जगमगाती शाम लेकर आ गया हूँ
मत डरो, पैग़ाम लेकर आ गया हूँ
हम सभी गद्दार हैं, हक़ माँगते हैं
सर पे ये इल्ज़ाम लेकर आ गया हूँ
फिर गरीबों को उदासी बाँटकर
मैं ज़रा आराम लेकर आ गया हूँ
सब यहाँ तलवार लेकर आ गए हैं
मैं तुम्हारा नाम लेकर आ गया हूँ
आत्मा तुमने बहुत सस्ते में बेची
मैं तो ऊँचे दाम लेकर आ गया हूँ
आज अपने साथ मैं रोटी नहीं
कुछ ज़रूरी काम लेकर आ गया हूँ
डीज़ल ने आग लगाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
खूब बढ़ी महंगाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
पत्थर बनकर पड़ा हुआ हूँ धरती पर
याद तुम्हारी आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
बहुत उदासी का मौसम है ख़ामोशी है
मीलों तक तन्हाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
खेतों में फसलों के सपने देख रहा हूँ
नींद नहीं आ पाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
एक कुआँ है कई युगों से मेरे पीछे
आगे गहरी खाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
सरकारों ने कहा गरीबों की बस्ती में
खूब अमीरी आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
जंगल-जंगल आग लगी है और तुम्हारी
चिट्ठी फिर से आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
Nine Gazals by Dr Rakesh Joshiचित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
क्या कभी इस ज़मीं पे इंतज़ाम बदलेगा
या हमेशा की तरह बस निज़ाम बदलेगा
झूठ और सच की जंग जब छिड़ेगी दुनिया में
कोई न कोई तो फिर अपना नाम बदलेगा
इस अन्याय से भरी हुई व्यवस्था को
कोई राजा नहीं, कोई ग़ुलाम बदलेगा
वो तो ज़ारी रहेगा खेल जो कि ज़ारी है
जब भी बदलेगा तो केवल इनाम बदलेगा
तेज चलता है जो घोड़ा तो हम समझते हैं
अब वो घोड़ा नहीं उसकी लगाम बदलेगा
ये जो बच्चे हैं उठाते हैं अभी तक कचरा
ये पढ़ेंगे तभी तो इनका काम बदलेगा
वो सुबह को भी ज़मीं पर उतार लाया था
लौटकर आएगा तो फिर ये शाम बदलेगा
(2)
उसने जब-जब कोई मुझसे सवाल पूछा है
मैंने तब-तब पलट के उसका हाल पूछा है
युग बदल जाने की बातें तो बड़ी हैं शायद
कैसे गुज़रेगा ग़रीबों का साल, पूछा है
अपने हाथों में कटोरा लिए इस धरती ने
कब से मिलने लगेगी सबको दाल, पूछा है
इक शिकारी को परिंदों की मिली है चिट्ठी
कब तलक लेके वो आएगा जाल, पूछा है
ये हवा अब भी हिलाती है पत्तियों को मगर
कब ये ताक़त से हिलाएगी डाल, पूछा है
कब हक़ीक़त में बदल पाएंगे सपने अपने
कब से धरती पे होगा ये कमाल, पूछा है
उनके शहरों में तो होते हैं हमेशा बलवे
अपने गांवों में होगा कब बवाल, पूछा है
(3)
मंज़िलों का निशान बाक़ी है
और इक इम्तहान बाक़ी है
एक पूरा जहान पाया है
एक पूरा जहान बाक़ी है
आसमां, तुम रहो ज़रा बचकर
अब भी उसकी उड़ान बाक़ी है
खेत बंज़र कभी नहीं होगा
एक भी गर किसान बाक़ी है
इससे आगे तो बस उतरना है
अब तो केवल ढलान बाक़ी है
बाढ़ आने से बह गए हैं सब
एक तन्हा मकान बाक़ी है
ज़िंदगी, तुझसे पूछता हूं मैं
और कितना लगान बाक़ी है
(4)
हर नदी के पास वाला घर तुम्हारा
आसमां में जो भी तारा हर तुम्हारा
बाढ़ आई तो हमारे घर बहे
बन गई बिजली तो जगमग घर तुम्हारा
तुम अभी भी आँकड़ों को गढ़ रहे हो
देश भूखा सो गया है पर तुम्हारा
कोई भी तुमको मदारी क्यों कहेगा
छोड़कर जाएगा जब बन्दर तुम्हारा
ये ज़मीं इक दिन उसी के नाम पर थी
वो जिसे कहते हो तुम नौकर तुम्हारा
दूर उस फुटपाथ पर जो सो रहा है
उसके कदमों में झुकेगा सर तुम्हारा
(5)
बादल गरजे तो डरते हैं नए-पुराने सारे लोग
गाँव छोड़कर चले गए हैं कहाँ न जाने सारे लोग
खेत हमारे नहीं बिकेंगे औने-पौने दामों में
मिलकर आए हैं पेड़ों को यही बताने सारे लोग
मैंने जब-जब कहा वफ़ा और प्यार है धरती पर अब भी
नाम तुम्हारा लेकर आए मुझे चिढ़ाने सारे लोग
गाँव में इक दिन एक अँधेरा डरा रहा था जब सबको
खूब उजाला लेकर पहुँचे उसे भगाने सारे लोग
भूखे बच्चे, भीख माँगते कचरा बीन रहे लेकिन
नहीं निकलते इनका बचपन कभी बचाने सारे लोग
धरती पर खुद आग लगाकर भाग रहे जंगल-जंगल
ढूँढ रहे हैं मंगल पर अब नए ठिकाने सारे लोग
इनको भीड़ बने रहने की आदत है, ये याद रखो
अब आंदोलन में आए हैं समय बिताने सारे लोग
चिड़ियों के पंखों पर लिखकर आज कोई चिट्ठी भेजो
ऊब गए है वही पुराने सुनकर गाने सारे लोग
(6)
हमें हर ओर दिख जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
भुलाए किस तरह जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
यही है क्या वो आज़ादी कि जिसके ख़्वाब देखे थे
ये कूड़ा ढूँढती माँएं, ये कचरा बीनते बच्चे
तरक्की की कहानी तो सुनाई जा रही है पर
न इसमें क्यों जगह पाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
ये बचपन ढूँढते अपना, इन्हीं कचरे के ढेरों में
खिलौने देख ललचाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
वो जिनके हाथ में लाखों-करोड़ों योजनाएँ हैं
उन्हें भी तो नज़र आएं, ये कचरा बीनते बच्चे
वो जिस आकाश से बरसा है, इन पर आग और पानी
उसी आकाश पर छाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
वो तितली जिसके पंखों में, मैं सच्चे रंग भरता हूँ
कहीं उसको भी मिल जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
कभी ऐसा भी दिन आए, अंधेरों से निकलकर फिर
किताबें ढूँढने जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे
(7)
सूखा आया तो कुछ तनकर बैठ गए
बाढ़ जो आई और अकड़कर बैठ गए
माँ की याद आने पर सारे लोग बड़े
छोटे-छोटे बच्चे बनकर बैठ गए
जिनके पैरों में थोड़ी हिम्मत कम है
वो तो थोड़ी देर ही चलकर बैठ गए
मंच पे रक्खी सबसे ऊंची कुर्सी पर
मंत्री जी जब गए तो अफसर बैठ गए
वो सच्चाई के हक में चिल्लाएंगे
वो हम जैसे नहीं कि डरकर बैठ गए
ज़िक्र वफ़ा का आया तो हम सब-के-सब
दीवारों के पीछे छुपकर बैठ गए
(8)
जगमगाती शाम लेकर आ गया हूँ
मत डरो, पैग़ाम लेकर आ गया हूँ
हम सभी गद्दार हैं, हक़ माँगते हैं
सर पे ये इल्ज़ाम लेकर आ गया हूँ
फिर गरीबों को उदासी बाँटकर
मैं ज़रा आराम लेकर आ गया हूँ
सब यहाँ तलवार लेकर आ गए हैं
मैं तुम्हारा नाम लेकर आ गया हूँ
आत्मा तुमने बहुत सस्ते में बेची
मैं तो ऊँचे दाम लेकर आ गया हूँ
आज अपने साथ मैं रोटी नहीं
कुछ ज़रूरी काम लेकर आ गया हूँ
(9)
डीज़ल ने आग लगाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
खूब बढ़ी महंगाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
पत्थर बनकर पड़ा हुआ हूँ धरती पर
याद तुम्हारी आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
बहुत उदासी का मौसम है ख़ामोशी है
मीलों तक तन्हाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
खेतों में फसलों के सपने देख रहा हूँ
नींद नहीं आ पाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
एक कुआँ है कई युगों से मेरे पीछे
आगे गहरी खाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
सरकारों ने कहा गरीबों की बस्ती में
खूब अमीरी आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
जंगल-जंगल आग लगी है और तुम्हारी
चिट्ठी फिर से आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ
बहुत उम्दा यथार्थपरक ग़ज़लें
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, अनमोल जी!
हटाएंआसमां, तुम रहो ज़रा बचकर
जवाब देंहटाएंअब भी उसकी उड़ान बाक़ी है
अच्छी गज़लें हैं
शुक्रिया, प्रदीप कांत जी!
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