कृति : इस पानी में आग दोहाकार : विनय मिश्र बोधि प्रकाशन, जयपुर (राज) |
विनय मिश्र जी का दोहा संकलन 'इस पानी में आग'
वेधक और तीखी मार करने वाले शब्दों और संवेदनाओं में रची बसी वह अनुभूतियाँ है जो समय के साथ समय के सच को प्रतिबद्धता से लिखती रही है और इस दौरान विनय जी की लेखनी लगातार मनसा वाचा कर्मणा जन पीड़ा, जन सरोकार
और जन भावनाओं से जुड़ीं रही है।दोहा हज़ारों साल पुरानी एक ऐसी संक्षिप्त लेखन विधा है
जो लोक संवेदना के दर्द से सीधा संवाद करती रही है।
कबीर, रहीम और घाघ कवि के दोहे आज भी आम जन की पीड़ा से सहज ही तादात्मय स्थापित कर लेते हैं।
छोटे-छोटे लयात्मक छन्द लोक वाणी, लोक मुहावरों में समय के साथ बदलते रहे है।
विनय मिश्र ने 'वैचारिकी बैचैनियों और अनुभूतियों की खुरदरी जमीन से लिए है ये तल्ख़ तेवर', 'समय संवाद', 'स्मृति संवाद', 'प्रकृति संवाद', 'आत्म संवाद' और प्रतिवाद के स्वरों से अपनी लेखनी की आग को अभिषिक्त किया है।
'समय संवाद' में रचनाकार अपनी आँखों से कठोर और निर्मम समय की जड़ीभूत जटिलताओं को देखता, सुनता, गुनता और रचता है। 'कैसे होगा झूठ का बोलो पर्दा फाश
/सच कहते ही पेड़ पर टँग जाती है लाश।'
यह दोहा आज की सामाजिक विरूपता का कितना मार्मिक सत्य उद्घाटित कर रहा है, शायद यह कहने की आवश्यकता नहीं होगी। क्रूर यथार्थ आँखें लाल करता हुआ यहाँ स्वयं उपस्थित है
। 'कुछ तो है कि धूप में काँप रहा है ताल
/एक मछेरा पास ही सुखा रहा है जाल।'
भविष्य की भयानक प्रतिध्वनियाँ इस दोहे में साफ़ साफ़ सुनी जा सकती हैं। असंवेदनता से अधिक सामयिक सरोकार के अभाव ने मनुष्य को अमानुषिक बना दिया है।
'मेरे घर के सामने कुचल गया मासूम
/अगले दिन अख़बार से मुझे हुआ मालूम।'
इससे अधिक बर्बर और निर्मम स्थिति किसी समाज की, समुदाय की और क्या हो सकती है? जब सब कुछ अपने सामने ही ख़त्म होता जा रहा हो- राजनीति के दाँव-पेंचों में लगातार उलझती किसानी और किसान दोनों की नियति बदलती नज़र नहीं आती। 'मरते हुए किसान की आँखों में थी पीर /कुछ भी तो बदली नहीं गाँवों की तक़दीर।' 'छल हो गया विकास भी छूटे सब आदर्श /घर का रहा न घाट का अपना भारत वर्ष।'
हिंदू मुस्लिम का भेद भाव। ग़रीब की बेटी का दर्द। राजनीति के ओछे समीकरण। बाज़ारवाद। आम आदमी की छटपटाहट। हर उस तकलीफ़ की बयानबाज़ी को सधे हुए शिल्प के साथ प्रस्तुत किया है विनय जी ने, जो आज के समय का भयानक सच है। 'स्मृति संवाद 'में रचनाकार ने ह्रदय की पीड़ा को शब्द दिए है। मन के भाव उनकी लेखनी से आँख के आँसू की तरह बहें है। 'बहती थी तो ज़िंदगी बहती थी अविराम / नदी अहिल्या हो गयी कब आओगे राम।' पर पत्थरों को मुक्त कराने कहाँ आने वाले है कलयुग में त्रेता के राम! यही विचलन कवि की आंतरिक और अंतहीन विडम्बना है। पर प्रतीक्षा तो प्रतीक्षा है। आस की एक धुँधली किरण ही सही। 'माथे पर उभरी शिकन चिन्ताओं के संग /विश्वासों की चिट्ठियाँ लौट रही बैरंग़।' 'लगा दराजें खोल कर यहाँ ढूँढने ख़्वाब /भूला चेहरा हो गयी खोयी हुयी किताब।' शब्दों की तारतम्यता और स्थितियों का कितना विरल चित्रण है इन पंक्तियों में! रचनाकार का गहरा अनुभव और लेखनी की परिपक्वता दोनों एक साथ उभर कर पाठक को लहालोट कर देते है। 'गयी रौनक़ें देख कर मन भी गया पसीज /आँसू हो बहने लगे मेले कज़री तीज।'
आधुनिक समय छन्दमुक्त रचनाओं के लिए ही विशेष रूप से जाना जाता है। गीत, नवगीत आदि अपनी खोयी प्रतिष्ठा को प्रतिष्ठित करने के साथ ही जूझारू संवेदनशीलता, जटिल सामाजिक उपादानों के साथ, घुला-मिला कर अपने पथ पर आगे बढ़ रहे है। पर दोहा जैसे संक्षिप्त छन्द में मारकता अनिवार्य है। तभी वह कालातीत कहला सकने की योग्यता पा सकेगा। विनय मिश्र ने इस चुनौती को लगभग हर दोहे में स्वीकार किया है, पर कहीं-कहीं अति सामान्य अभिधात्मकता के कारण दोहों का प्रस्तुतीकरण अप्रभावी भी हो गया है। 'रिश्तों में जीवन रहा कैसा अद्भुत यार/ बड़क़ी भाभी से मिला मुझको माँ का प्यार।'
'प्रकृति संवाद' में कवि मूलतः प्रकृति प्रेमी ही दृष्टिगत हो रहा है। रचना पूर्णत: समर्पित है नदी, बादल, पेड़ और पहाड़ों को। 'जहाँ नदी की बात हो मेरा है विश्वास/ छुपी हुयी होगी वहाँ गहरायी में प्यास।' यहाँ तीव्र विरोधाभास के साथ अपनी सिद्ध शैली को मनवा ही लेता है रचनाकार- 'मानो मीठी खीर हो सुबह ओस का रूप /चटखारे लेती हुयी खाती जाए धूप।' ओस और धूप के स्वाभाविक सम्बंध के बाद सूरज के आलेख की बात आती है। 'सूरज जब लिखने लगा पानी पर आलेख / सोने के अक्षर उगे इस नदिया पर देख।''पंछी को भी है पता यह जीवन का नेम / जितना पानी चोंच में उतना ही है प्रेम।' इस मृदुल भाव की दार्शनिक अभिव्यक्ति साहित्य के मसीहाओं के लिए एक आइना है।'थर्राई संवेदना रोता बरगद देख/ सड़क बनी ग़ायब हुए सपनों के आलेख।'
क्रूर समय अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ दर्ज होता रहा विनय जी की स्मृतियों में। और बादल बन कर बरसता रहा उनकी लेखनी से। 'जाने किसकी आस में जाने किसकी खोज/ इतनी ज़िद्दी घास है उग आती हर रोज़।' ज़िंदगी भर ग़लतियाँ करता रहता है मनुष्य और ग़लतियाँ कभी रूकती ही नही। कोई कितना भी चाहे कि अब ग़लतियाँ न हो, क्योंकि मनुष्य स्वभाव के ताने-बाने में ही गूँथें है ग़लतियों के रेशे और तभी मन कराह उठता है- 'जाने क्या हमसे हुयी इस मौसम में भूल /गेहूँ वाले खेत में फूले हुए बबूल।'
कभी कवि मन मगन हो गा भी उठता है- 'साँझ भजन जैसी लगे भोर लगे नवगीत /लगे चाँदनी-सी ग़ज़ल दोहा दिन का गीत।' कवि मन संवेदना का घना प्रतिरूप होता है। जन-मन की पीड़ा ही उसकी पीड़ा होती है। अपने परिवेश के प्रति भी वह उदासीन नहीं हो सकता और प्रकृति के दोहन से तो उसकी समस्त चेतना उद्वेलित हो उठती है। 'नदियों का जल राह में कौन गया है चाट/ सूखे-सूखे ही मिले अब तो सारे घाट।' साथ ही खेत खलिहान का भी मोहक चित्रण है- 'यूँ तो अलसी भी रही सदा धूप के साथ/ लेकिन सरसों के हुए कैसे पीले हाथ ?'
'आत्म संवाद' यानी स्व से संवाद रचनाकारों का सर्व सिद्ध मंत्र है। जिजीविषा और श्वासों के बीच जो रस्साकशी है, वही मन को मथकर उद्वेग या विचलन लेखनी की नोक पर निरंतर उड़ेलता है- 'कहीं बरसने के लिए देखी कब तारीख़/ बादल की आवारगी आँखों ने ली सीख।' और आगे भी- 'रस वर्षा में बह गये सब निषेध के नेम /मौन स्वीकृति लक्षणं पढ़े सुभाषित प्रेम।' फिर भी विनय जी अपने जीवन को एक कोरे पन्ने-सा ही मानते है- 'कोर पन्ने पर लिखा केवल पूर्ण विराम/ किसी पुलकते अर्थ का कोई शब्द न नाम।' 'प्रतिवाद' में विनय जी अपनी असहमतियों, अंतर्विरोधों, अस्वीकार और प्रतिरोध को दर्ज करते दिखाई देते हैं- 'सपनों को ढोता मिला हर दम एक सलीब/ जीवन से हारा मगर टूटा नहीं ग़रीब।'
रचनाकार कभी स्वयं को हारा हुआ नहीं मानता। जीवन की आँच और धुँए से घबराता भी नहीं। अपने क़लम की लुकाठी से टटोल-टटोल कर वह अपना रास्ता तय करता है- 'तपते रेगिस्तान में एक अकेला पेड़ /बरसों तक लेता रहा सूरज से मुठभेड़।' प्रतिवाद ही तो कविता की नब्ज़ है और जूझारूपन, जुनून कविता की असली ताक़त। और विनय जी पूरी शिद्दत से हर बार ज़िंदगी से लोहा लेते दिखाई देते है- 'मुठ्ठी बँधती एक फिर उठता एक प्रतिवाद /जब भी कहते ज़िंदगी तुझको ज़िंदाबाद।' न्याय की पक्ष धरता, क़लम की समय से निरंतर मुठभेड़, यही एक समर्थ और कालजयी रचनाकार की पहचान है- 'मिला क़लम को जब कभी संघर्षों का संग /और जूझारू हो गयी कविता लड़ कर जंग।' 'रचना के जनतंत्र में जितना जिसमें ताप /तय करती है आग ये कहाँ खड़े है आप?' ऐसी बेलौस, बेबाक़, बिंदास समझ जीवन के अतल में कहीं गहरे तक धँसा रचनाकार ही कह सकता है और विनय मिश्र जी वैसे ही रचनाकार हैं!
इससे अधिक बर्बर और निर्मम स्थिति किसी समाज की, समुदाय की और क्या हो सकती है? जब सब कुछ अपने सामने ही ख़त्म होता जा रहा हो- राजनीति के दाँव-पेंचों में लगातार उलझती किसानी और किसान दोनों की नियति बदलती नज़र नहीं आती। 'मरते हुए किसान की आँखों में थी पीर /कुछ भी तो बदली नहीं गाँवों की तक़दीर।' 'छल हो गया विकास भी छूटे सब आदर्श /घर का रहा न घाट का अपना भारत वर्ष।'
हिंदू मुस्लिम का भेद भाव। ग़रीब की बेटी का दर्द। राजनीति के ओछे समीकरण। बाज़ारवाद। आम आदमी की छटपटाहट। हर उस तकलीफ़ की बयानबाज़ी को सधे हुए शिल्प के साथ प्रस्तुत किया है विनय जी ने, जो आज के समय का भयानक सच है। 'स्मृति संवाद 'में रचनाकार ने ह्रदय की पीड़ा को शब्द दिए है। मन के भाव उनकी लेखनी से आँख के आँसू की तरह बहें है। 'बहती थी तो ज़िंदगी बहती थी अविराम / नदी अहिल्या हो गयी कब आओगे राम।' पर पत्थरों को मुक्त कराने कहाँ आने वाले है कलयुग में त्रेता के राम! यही विचलन कवि की आंतरिक और अंतहीन विडम्बना है। पर प्रतीक्षा तो प्रतीक्षा है। आस की एक धुँधली किरण ही सही। 'माथे पर उभरी शिकन चिन्ताओं के संग /विश्वासों की चिट्ठियाँ लौट रही बैरंग़।' 'लगा दराजें खोल कर यहाँ ढूँढने ख़्वाब /भूला चेहरा हो गयी खोयी हुयी किताब।' शब्दों की तारतम्यता और स्थितियों का कितना विरल चित्रण है इन पंक्तियों में! रचनाकार का गहरा अनुभव और लेखनी की परिपक्वता दोनों एक साथ उभर कर पाठक को लहालोट कर देते है। 'गयी रौनक़ें देख कर मन भी गया पसीज /आँसू हो बहने लगे मेले कज़री तीज।'
आधुनिक समय छन्दमुक्त रचनाओं के लिए ही विशेष रूप से जाना जाता है। गीत, नवगीत आदि अपनी खोयी प्रतिष्ठा को प्रतिष्ठित करने के साथ ही जूझारू संवेदनशीलता, जटिल सामाजिक उपादानों के साथ, घुला-मिला कर अपने पथ पर आगे बढ़ रहे है। पर दोहा जैसे संक्षिप्त छन्द में मारकता अनिवार्य है। तभी वह कालातीत कहला सकने की योग्यता पा सकेगा। विनय मिश्र ने इस चुनौती को लगभग हर दोहे में स्वीकार किया है, पर कहीं-कहीं अति सामान्य अभिधात्मकता के कारण दोहों का प्रस्तुतीकरण अप्रभावी भी हो गया है। 'रिश्तों में जीवन रहा कैसा अद्भुत यार/ बड़क़ी भाभी से मिला मुझको माँ का प्यार।'
'प्रकृति संवाद' में कवि मूलतः प्रकृति प्रेमी ही दृष्टिगत हो रहा है। रचना पूर्णत: समर्पित है नदी, बादल, पेड़ और पहाड़ों को। 'जहाँ नदी की बात हो मेरा है विश्वास/ छुपी हुयी होगी वहाँ गहरायी में प्यास।' यहाँ तीव्र विरोधाभास के साथ अपनी सिद्ध शैली को मनवा ही लेता है रचनाकार- 'मानो मीठी खीर हो सुबह ओस का रूप /चटखारे लेती हुयी खाती जाए धूप।' ओस और धूप के स्वाभाविक सम्बंध के बाद सूरज के आलेख की बात आती है। 'सूरज जब लिखने लगा पानी पर आलेख / सोने के अक्षर उगे इस नदिया पर देख।''पंछी को भी है पता यह जीवन का नेम / जितना पानी चोंच में उतना ही है प्रेम।' इस मृदुल भाव की दार्शनिक अभिव्यक्ति साहित्य के मसीहाओं के लिए एक आइना है।'थर्राई संवेदना रोता बरगद देख/ सड़क बनी ग़ायब हुए सपनों के आलेख।'
क्रूर समय अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ दर्ज होता रहा विनय जी की स्मृतियों में। और बादल बन कर बरसता रहा उनकी लेखनी से। 'जाने किसकी आस में जाने किसकी खोज/ इतनी ज़िद्दी घास है उग आती हर रोज़।' ज़िंदगी भर ग़लतियाँ करता रहता है मनुष्य और ग़लतियाँ कभी रूकती ही नही। कोई कितना भी चाहे कि अब ग़लतियाँ न हो, क्योंकि मनुष्य स्वभाव के ताने-बाने में ही गूँथें है ग़लतियों के रेशे और तभी मन कराह उठता है- 'जाने क्या हमसे हुयी इस मौसम में भूल /गेहूँ वाले खेत में फूले हुए बबूल।'
कभी कवि मन मगन हो गा भी उठता है- 'साँझ भजन जैसी लगे भोर लगे नवगीत /लगे चाँदनी-सी ग़ज़ल दोहा दिन का गीत।' कवि मन संवेदना का घना प्रतिरूप होता है। जन-मन की पीड़ा ही उसकी पीड़ा होती है। अपने परिवेश के प्रति भी वह उदासीन नहीं हो सकता और प्रकृति के दोहन से तो उसकी समस्त चेतना उद्वेलित हो उठती है। 'नदियों का जल राह में कौन गया है चाट/ सूखे-सूखे ही मिले अब तो सारे घाट।' साथ ही खेत खलिहान का भी मोहक चित्रण है- 'यूँ तो अलसी भी रही सदा धूप के साथ/ लेकिन सरसों के हुए कैसे पीले हाथ ?'
'आत्म संवाद' यानी स्व से संवाद रचनाकारों का सर्व सिद्ध मंत्र है। जिजीविषा और श्वासों के बीच जो रस्साकशी है, वही मन को मथकर उद्वेग या विचलन लेखनी की नोक पर निरंतर उड़ेलता है- 'कहीं बरसने के लिए देखी कब तारीख़/ बादल की आवारगी आँखों ने ली सीख।' और आगे भी- 'रस वर्षा में बह गये सब निषेध के नेम /मौन स्वीकृति लक्षणं पढ़े सुभाषित प्रेम।' फिर भी विनय जी अपने जीवन को एक कोरे पन्ने-सा ही मानते है- 'कोर पन्ने पर लिखा केवल पूर्ण विराम/ किसी पुलकते अर्थ का कोई शब्द न नाम।' 'प्रतिवाद' में विनय जी अपनी असहमतियों, अंतर्विरोधों, अस्वीकार और प्रतिरोध को दर्ज करते दिखाई देते हैं- 'सपनों को ढोता मिला हर दम एक सलीब/ जीवन से हारा मगर टूटा नहीं ग़रीब।'
रचनाकार कभी स्वयं को हारा हुआ नहीं मानता। जीवन की आँच और धुँए से घबराता भी नहीं। अपने क़लम की लुकाठी से टटोल-टटोल कर वह अपना रास्ता तय करता है- 'तपते रेगिस्तान में एक अकेला पेड़ /बरसों तक लेता रहा सूरज से मुठभेड़।' प्रतिवाद ही तो कविता की नब्ज़ है और जूझारूपन, जुनून कविता की असली ताक़त। और विनय जी पूरी शिद्दत से हर बार ज़िंदगी से लोहा लेते दिखाई देते है- 'मुठ्ठी बँधती एक फिर उठता एक प्रतिवाद /जब भी कहते ज़िंदगी तुझको ज़िंदाबाद।' न्याय की पक्ष धरता, क़लम की समय से निरंतर मुठभेड़, यही एक समर्थ और कालजयी रचनाकार की पहचान है- 'मिला क़लम को जब कभी संघर्षों का संग /और जूझारू हो गयी कविता लड़ कर जंग।' 'रचना के जनतंत्र में जितना जिसमें ताप /तय करती है आग ये कहाँ खड़े है आप?' ऐसी बेलौस, बेबाक़, बिंदास समझ जीवन के अतल में कहीं गहरे तक धँसा रचनाकार ही कह सकता है और विनय मिश्र जी वैसे ही रचनाकार हैं!
समीक्षक :
रंजना गुप्ता
C/172 निराला नगर
लखनऊ - 226020
'Is Pani Mein Aag' by Vinay Mishra
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