डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
वरिष्ठ कवि, चिन्तक और समीक्षक डॉ सुरेन्द्र वर्मा का जन्म 26 सितम्बर 1932 को मैंनपुरी, उ.प्र.में हुआ। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद से दर्शनशास्त्र में 1954 में प्रथम श्रेणी में एम् ए किया। बाद में विक्रम वि.वि. उज्जैन से गांधी दर्शन पर पीएच.डी.। वे इंदौर में शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष रहे, इंदौर विश्वविद्यालय (अब, देवी अहिल्या वि. वि.) में दर्शनशास्त्र समिति के अध्यक्ष तथा कला-संकाय के डीन रहे। वे म.प्र. के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालयों के प्राचार्य पद से 1992 में सेवानिवृत्त हुए। तदुपरांत उन्होंने अपना सारा समय साहित्य-साधना को समर्पित कर दिया।
डॉ वर्मा के अब तक आधे-दर्जन से अधिक व्यंग्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें 'कुरसियाँ हिल रही हैं' काफी चर्चित रहा है और इसके अब तक दो संस्करण, प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली, से आ चुके हैं। इसी तरह उनका एक अन्य संकलन ‘हँसो लेकिन अपने पर' उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से शरद जोशी पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है। प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल का कहना है कि सुरेन्द्र वर्मा की 'रचनाएं मेरे लिए इस अर्थ में मूल्यवान हैं कि इनके द्वारा मैं एक ऐसे रचना जगत से परिचित हो सका जो आज के चालू व्यंग्य लेखन के परिदृश्य से कई अर्थों में अलग है।' उनकी रचनाओं में 'उनकी अध्ययनशील पृष्ठभूमि का सहज परिचय मिलता है। फिर भी उनकी यह पृष्ठभूमि उनकी रचनाओं को बोझिल नहीं बनाती। सिर्फ संकेतों से उनके व्यंग्य में बहुस्तरीयता की रंगत पैदा करती है।'
डॉ वर्मा के अब तक आधे-दर्जन से अधिक व्यंग्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें 'कुरसियाँ हिल रही हैं' काफी चर्चित रहा है और इसके अब तक दो संस्करण, प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली, से आ चुके हैं। इसी तरह उनका एक अन्य संकलन ‘हँसो लेकिन अपने पर' उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से शरद जोशी पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है। प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल का कहना है कि सुरेन्द्र वर्मा की 'रचनाएं मेरे लिए इस अर्थ में मूल्यवान हैं कि इनके द्वारा मैं एक ऐसे रचना जगत से परिचित हो सका जो आज के चालू व्यंग्य लेखन के परिदृश्य से कई अर्थों में अलग है।' उनकी रचनाओं में 'उनकी अध्ययनशील पृष्ठभूमि का सहज परिचय मिलता है। फिर भी उनकी यह पृष्ठभूमि उनकी रचनाओं को बोझिल नहीं बनाती। सिर्फ संकेतों से उनके व्यंग्य में बहुस्तरीयता की रंगत पैदा करती है।'
प्रकाशित ग्रन्थ : व्यंग्य संकलन – लोटा और लिफाफा, कुरसियाँ हिल रही हैं, हंसो लेकिन अपने पर, अपने-अपने अधबीच, राम भरोसे, हंसी की तलाश में, बंधे एक डोरी से; साहित्य, कला और संस्कृति – साहित्य समाज और रचना (उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा निबंध के लिए महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार), कला विमर्श और चित्रांकन, संस्कृति का अपहरण, भारतीय कला एवं सस्कृति के प्रतीक, कला संस्कृति और मूल्य, चित्रकार प्रो.रामचन्द्र शुक्ल पर मोनोग्राफ; निबंध संग्रह – सरोकार; कविता – अमृत कण (उपनिषदादि का काव्यानुवाद), कविता के पार कविता, अस्वीकृत सूर्य, राग खटराग (हास्य-व्यंग्य तिपाइयाँ), धूप कुंदन (हाइकु संग्रह), उसके लिए (कविता संग्रह) । इसके अतिरिक्त १० और ग्रन्थ, दर्शनशास्त्र और मनोविज्ञान पर।
सम्मान : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से डा. सुरेन्द्र वर्मा की पुस्तकें दो बार पुरस्कृत, दर्शन के अध्ययन-अध्यापन तथा शोध कार्य के लिए म.प्र. दर्शन-परिषद् द्वारा प्रशस्ति पत्र, भारतीय साहित्य सुधा संस्थान, प्रयाग से “भारतीय सुधा रत्न’ तथा विश्व भारतीय कला निकेतन, इलाहाबाद से 'साहित्य शिरोमणि' उपाधि से सम्मानित। विशेष : डॉ वर्मा रेखांकन भी करते हैं और उनके रेखांकनों की एक प्रदर्शिनी इलाहाबाद संग्रहालय में लग चुकी है। कई हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनके रेखांकन प्रकाशित होते रहते हैं। सम्प्रति: स्वतन्त्र लेखन तथा गांधी दर्शन के विशेषज्ञ के रूप में इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा राजर्षि ओपन वि.वि., इलाहाबाद से सम्बद्ध। संपर्क : १०, एचआईजी, १, सर्चुलर रोड, इलाहाबाद - 01, (मो) 09621222778, ई-मेल : surendraverma389@gmail.com।
चित्र गूगल सर्च इंजन से |
(१)
उनके वाद और विवाद में
सिर्फ पदार्थ ही उपस्थित रहा
अपने इर्द गिर्द उन्होंने
उनके वाद और विवाद में
सिर्फ पदार्थ ही उपस्थित रहा
अपने इर्द गिर्द उन्होंने
सिर्फ पदार्थ ही देखा
पदार्थ से इतर देखने के लिए
उन्हें उनकी आँखों ने मना कर दिया
उन्हें आवाज़ सिर्फ पदार्थ ने दी
उन्हें आवाज़ सिर्फ पदार्थ ने दी
और वे पदार्थ सूँघते रहे
पदार्थ खाते रहे
पदार्थ के बीच ही वे सांस लेते रहे
धीरे ...धीरे ...धीरे
धीरे ...धीरे ...धीरे
वे खुद भी पदार्थ हो गए
(२)
धीरे धीरे...
(२)
धीरे धीरे...
दुःख आता गया
समाता गया
समझ ही न पाया
दुःख से समूचा मैं कब जकड गया
पर औचक ही एक दिन
पर औचक ही एक दिन
सुख सामने खडा था
यकायक पहचान ही न पाया
आम्र मंजरियाँ गमकने लगीं
आम्र मंजरियाँ गमकने लगीं
कोयल बौरा गई
पलाश में आग लग गई
वो सामने जो खडा था !
(३)
भरी गरमी में
(३)
भरी गरमी में
मेरे शहर को सर्दी हो गई है
नाक बह रही है
नाक बह रही है
और पोंछने को रूमाल नहीं है
कभी ठसका तो कभी खांसी आती है.
जकड़ी हुई है छाती और कफ घड़घड़ाता है
सब खामोश हैं रहनुमा
सब खामोश हैं रहनुमा
आश्वस्त हैं
आज नहीं तो कल
एक सप्ताह में नहीं तो सात दिन में
हालात तो सामान्य होने ही हैं
क्यों मोल ली जाए इलाज की तवालत !
सब खामोश हैं
देखते-देखते सर्दी संक्रामक हो गई
देखते-देखते सर्दी संक्रामक हो गई
कहीं पूरा देश ही न कांपने लगे
(४)
एक नीली चिड़िया थी
आई थी कुछ देर
(४)
एक नीली चिड़िया थी
आई थी कुछ देर
फड़फड़ाई
गायब हो गई
पर यही चिड़िया आज भी है
पर यही चिड़िया आज भी है
बसी मेरी आत्मा में अक्सर
आ धमकती है एक उजली किरण-सी
मुझे राह बताती
यह नीली चिड़िया गायब नहीं हुई है
यह नीली चिड़िया गायब नहीं हुई है
बसी है मेरी आत्मा में
(५)
एक पत्थर जिसे अडिग रहना था
(५)
एक पत्थर जिसे अडिग रहना था
हर हाल में टूट कर चूर-चूर हो गया
एक जोड़ा चिड़िया
एक जोड़ा चिड़िया
जिसे बनाना था अपना एक घोंसला
काठ ह्रदय को बींध नहीं पाया
एक लुकमा जिसे जाना था
एक लुकमा जिसे जाना था
भूखी गाय के उदर में
भरा-पेट कुत्ता खा गया
वक्त कैसा आ गया
वक्त कैसा आ गया
रोटी अपना सही पात्र
चिड़िया अपना साहस
और पत्थर अपना इरादा.....
चूक गया
(६)
कुछ चेहरे गोरे झक्क होते हैं
(६)
कुछ चेहरे गोरे झक्क होते हैं
कुछ स्याह काले
कुछ बेशक पीले भी होते हैं
और कुछ भूरे भी
पर हम भूल क्यों जाते हैं
पर हम भूल क्यों जाते हैं
चेहरों के ये सभी रंग
भूरे रंग की ही छटाएं हैं –
गहरी और कोई हलकी
सभी के पीछे तो झलक है
सभी के पीछे तो झलक है
उस एक ही देवता की
जिसे हम इंसान कहते हैं !
(७)
पथ नहीं कोई
(७)
पथ नहीं कोई
पगडंडी तक नहीं
किसी के पैर का कोई निशाँ तक नहीं
किसी के पैर का कोई निशाँ तक नहीं
जिसका अनुसरण कर सकूँ
तुम तक पहुँच सकूँ
हताश मैं भटकता हूँ
हताश मैं भटकता हूँ
स्वयं ही खोज में जुट जाता हूँ
और अपना ही रास्ता तलाशता, बनाता हूँ
और अब पथ भी
और अब पथ भी
मैं पथिक भी
मैं ही हूँ और मैं ही अपना गंतव्य हूँ
क्या पता इस खोज में
क्या पता इस खोज में
कभी तुम मिल ही जावो !
(८)
जल के उस आधान में
(८)
जल के उस आधान में
कहीं कोई एक सूराख था
अनवरत जहां से गिरती थी
एक बूंद पत्थर पर सूराख करने
आँख से बहती थी
आँख से बहती थी
धीरे-धीरे रिसती थी
बार-बार उड़कर गिरने के लिए
जो भाप बनती थी
बादलों में समा जाती थी
रुकने के लिए
रुकने के लिए
ठहरे हुई आकाश पर चलने के लिए
बहते हुए पानी पर वह अभिशप्त थी
गिरने, रिसने, डूबने, उठने,
गिरने, रिसने, डूबने, उठने,
उड़ने ओर फिर गिरने के लिए
(९)
दुःख का बाज़ार लगा है
(९)
दुःख का बाज़ार लगा है
मांग बहुत कम है
वे हमारे दुःख को दुःख नहीं मानते
वे हमारे दुःख को दुःख नहीं मानते
टके दो टके का दुःख भला क्यों खरीदें?
वे तो हज़ारों, लाखों खर्च कर
वे तो हज़ारों, लाखों खर्च कर
सुख खरीदने के आदी हैं
जो खरीद कर भी उन्हें मिल नहीं पाता
अफ़सोस !
(१०)
कोई धीरे से हमें आवाज़ देता है
अफ़सोस !
(१०)
कोई धीरे से हमें आवाज़ देता है
और हम अनसुनी कर देते हैं
आहटों की हम परवाह नहीं करते
हम इंतज़ार करते हैं
हम इंतज़ार करते हैं
कोई दरवाज़ा खटखटाए
अन्दर आने के लिए गिडगिडाए
पर उसके लिए भी
क्या हम दरवाज़ा खोल पावेंगे ?
(११)
कहाँ नीम की पत्ती
(११)
कहाँ नीम की पत्ती
कहाँ केले का पत्ता
एक इत्ती-सी
एक बड़ा इत्ता
एक बड़ा इत्ता
एक बुहारी गई
एक ने भगवान का द्वार सजाया !
Dr Surendra Verma, Allahabad, U.P.
बहुत बढ़िया ,एक से बढ़ कर एक |दुःख का बाज़ार,नीम व आम पत्ती,दरवाज़ा ,संक्रमण,खोज विशेष रूप से अच्छी लगी|मनीषा |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-03-2017) को
जवाब देंहटाएंचक्का योगी का चले-; चर्चामंच 2608
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रूप शास्त्री जी, कविताओं पर चर्चा किस लिंक पर देखूँ - सुरेन्द्र वर्मा
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