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बुधवार, 5 जुलाई 2017

'अँधेरे में : पुनर्पाठ' — मुक्तिबोध के प्रति हैदराबाद के हिंदी जगत की श्रद्धांजलि

समीक्षित पुस्तक : ‘अँधेरे में’ : पुनर्पाठ
संपादक : ऋषभ देव शर्मा एवं गुर्रमकोंडा नीरजा
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद
वितरक : श्रीसाहिती प्रकाशन, हैदराबाद
पृष्ठ : 234, मूल्य : रु. 250/-, वर्ष : 2017

बीसवीं शताब्दी की हिंदी कविता के पुरोधा कवियों में गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम अग्रगण्य है. उन्होंने जनपक्षीय काव्य की धारा को अप्रतिहत गति प्रदान की और अपने समय के ही नहीं आज के अनेक रचनाकारों को प्रेरित किया. यह वर्ष उनकी जन्म शती का वर्ष है. उनका जन्म 13 नवंबर, 1917 को हुआ था. यह भी याद रहे कि 1964 में उनकी महाकाव्यात्मक कविता ‘अँधेरे में’ हैदराबाद से प्रकाशित ‘कल्पना’ के नवंबर अंक में छपी थी जिसकी अर्धशती 2014-15 में मनाई गई. उर्षस अवसर पर हैदराबाद में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी तो हुई ही थी ‘अँधेरे में’ का 12 भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी कराया गया था. उस समारोह के संयोजकों डॉ. ऋषभ देव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने इस संदर्भ में अब एक संपादित ग्रंथ प्रस्तुत किया है. मुक्तिबोध की जन्म शती के अवसर पर प्रकाशित इस पुस्तक का नाम है – “अँधेरे में : पुनर्पाठ”. इस पुस्तक को मुक्तिबोध के प्रति हैदराबाद के हिंदी जगत की श्रद्धांजलि के रूप में भी देखा जा सकता है.

यह पुस्तक दो खंडों में विभाजित है. पहले खंड में तेरह शोधपूर्ण आलेख शामिल हैं. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से संबद्ध प्रो. देवराज ने विस्तार से ‘अँधेरे में’ की प्रासंगिकता के आयामों को उजागर किया है और इस कविता के पुनर्पाठ की अनेक दिशाएँ दर्शायी है. उन्होंने मुक्तिबोध की कविता को ‘जवाबी ग़दर का विस्फोट’ माना है. अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य डॉ. एम. वेंकटेश्वर ने मुक्तिबोध की काव्यचेतना का विवेचन करते हुए यह दर्शाया है कि उस कवि ने अपनी संपूर्ण अग्नि को फासीवाद, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध केंद्रित करके प्रभावशाली राजनैतिक काव्य की रचना की. उन्होंने ‘अँधेरे में’ को कवि के आत्मसंघ

और स्वप्न की मिथकीय अभिव्यक्ति माना है. विख्यात कवि और समीक्षक डॉ. दिविक रमेश का ‘मुक्तिबोध को समझने के लिए विचारक मुक्तिबोध हाजिर हो’ शीर्षक आलेख भी इस पुस्तक की विशिष्ट उपलब्धि है. उन्होंने मुक्तिबोध की अपनी वैचारिकता के प्रकाश में उनके कविकर्म की गहन मीमांसा की है. इसी प्रकार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. राजमणि शर्मा ने ‘अँधेरे में’ के प्रकाश में मुक्तिबोध की भाषागत मौलिकता को सोदाहरण उभारा है. वे मानते हैं कि मुक्तिबोध की भाषा की संवेदनशीलता विविध सामाजिक संदर्भों के घात-प्रतिघात का सर्जनात्मक परिणाम है.

इनके अलावा डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने मुक्तिबोध के जीवन और कवित्व पर तथा डॉ. साहिराबानू बी. बोरगल ने उनके व्यक्तित्व के आयामों पर चर्चा की है. डॉ. गोरखनाथ तिवारी ने मुक्तिबोध के साहित्यिक प्रदेय, डॉ. बलविंदर कौर ने ‘अँधेरे में’ के कथ्य और डॉ. मृत्युंजय सिंह ने उसके शिल्प पर विचार किया है. डॉ. बी. बालाजी ने ‘नया ज्ञानोदय’ के विशेषांक के
के बहाने मुक्तिबोध और ‘अँधेरे में’ से जुड़ी विभिन्न आलोचकों की मान्यताओं की विवेचना की है. डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने अपने आलेख में 21 वीं शताब्दी के भूमंडलीकृत अँधेरे के संदर्भ में मुक्तिबोध की कविता की सार्थकता प्रतिपादित की है.

इस पुस्तक में एक प्रयोग भी शामिल है. वह यह कि इसके दूसरे खंड में प्रो. गोपाल शर्मा की पूरी एक पुस्तक प्रस्तुत की गई है. ‘अँधेरे में : देरिदा-दृष्टि से एक जगत समीक्षा’ नामक यह पुस्तक उन्होंने विशेष रूप से उत्तर आधुनिक विमर्शकार देरिदा की वैचारिकी की कसौटी पर ‘अँधेरे में’ की विवेचना करने के लिए ही लिखी है. कहना न होगा कि यह अपनी तरह का इकलौता प्रयोग है.

कुल मिलाकर यह पुस्तक नई कविता, मुक्तिबोध, अँधेरे में और देरिदा को समझने के लिए पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय है. 



समीक्षक :
डॉ. मंजु शर्मा
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
चिरेक इंटरनेशनल, कोंडापुर
हैदराबाद 

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