युवा
रचनाकार सुजश कुमार शर्मा का जन्म 02 जुलाई 1979 को दुर्ग, छत्तीसगढ़ में
हुआ। शिक्षा : मेकेनिकल इंजीनियरिंग, स्नातकोत्तर– हिंदी एवं अंग्रेजी।
विधा : कविता, खंड काव्य, उपन्यास। प्रकाशित कृतियाँ : काव्य संग्रह- ‘कुछ
के कण’ एवं उपन्यास ‘प्रार्थनाओं के कुछ क्षण गुच्छ’। सम्मान : काव्य संग्रह
‘कुछ के कण’ के लिए भारत सरकार, रेल मंत्रालय द्वारा ‘मैथिलीशरण गुप्त
पुरस्कार’ से सम्मानित। उपन्यास ‘प्रार्थनाओं के कुछ क्षण गुच्छ’ के लिए
भारत सरकार, रेल मंत्रालय द्वारा ‘प्रेमचंद पुरस्कार’ से सम्मानित। स्थायी
पता: पुत्र- श्री शरद कुमार शर्मा, बाह्मण पारा राजिम,-गरियाबंद,
(छत्तीसगढ़), पिन-493885, ई-मेल : sujashkumarsharma@gmail.com।
1. चाय की प्याली
कल प्रण किया
देर रात तक गोते खाने के बाद
विचारों के समंदर में
फलां-फलां आदतें छोड़ दूँगा
अमुक चीजें त्यागूँगा,
साक्षी है
उँगलियों के पोरों में
जमे आँसुओं के निशान।
विचार बेहद पवित्र हुए,
एक चीज त्याग तो गया
किंतु
पूरी तरह बनाए न रख पाया
आयाम की उच्चता
एक आदत
वाकई बेहद जटिल, शक्तिशाली और अपराजेय।
पुरजोर खींची
भरी ठिठुरन में
स्नान बाद की कच्ची धूप सी
चाय की प्याली,
मगर छोड़ दिया!
किंतु चाय से जुड़ी मीठी यादें
नहीं पाया छोड़।
कितना मुश्किल है
छोड़ना आदतों को
हम सिद्धांत ही तो हैं
और सिद्धांतों कि एक-एक दीवार
आदतों की र्इंट से निर्मित होती है,
यूँ व्यक्तित्व का घरोंदा
पुनः बनता है,
समय-समय पर
कुछ दीवारों की ईंटों को
जरूरी हो जाता है हटाना
वरना पूरा घर गिर सकता है
संस्कारों की नींव के बावजूद,
आशीर्वाद के छप्पर तले भी।
कभी कभी व्यक्ति
मकानों की तरह ढह जाता है।
पुनः उन्हीं नींव पर
नई पीढ़ी
संस्कारों का आँगन बुहारती है,
नए संकल्प
नवीन प्रण के साथ
चाय की प्याली लिए।
2. कई बार गया वहाँ
कई बार गया वहाँ
कोई उँगली पकड़ खींच ले गई,
कभी किसी की थाम हथेली,
किसी गोद में खेलता,
हाँ गया हूँ, मैं ही तो
वहाँ तक गया।
गले लग... गया
साथ घूमते-घूमते,
कोई चॅाकलेट लेकर
कभी शतरंज की गोटियों के संग,
कोई गीत दूर का
मुझे खींच ले गया,
कई बार.. गया वहाँ।
किसी बचपने का
नाम लिख-लिखकर
कभी आँखें भर
कभी हँसकर,
कितनी छोटी-छोटी बातें
ले गई मुझे,
और मैं गया
कई बार।
घर में भाइयों के साथ
स्कूल में यारों के बीच
नन्हीं सहेली के साथ भी
कॅालेज में बहनों को ले,
किस-किस बात, घटना, घड़ी में
गया मैं, बार-बार गया।
3. जिंदगी मजाक नहीं
जिंदगी मजाक नहीं है
जिंदगी में मजाक है,
और मजाक का होना तब उपयुक्त है
जब समझ हो,
समझ, बहुआयामी हो
मौलिक, स्वस्फूर्त, जीवंत हो,
तब जिंदगी मजाक है,
तब जिंदगी के ऊपर कुछ है
तब ही संभव है जिंदगी से खेलना
वरना नासमझ सोचते है!
जिंदगी से खेल रहे
मगर वस्तुतः जिंदगी खेलते रहती है
इस तरह खुद मजाक बन जाते हैं।
क्येांकि खेल एक मजा है
समझदार जिंदगी सा!
सो मजा करें, जीएँ,
मजाक-मजाक में खेल जाएँ
कुछ, जिंदगी का खेल।
4. बहत्तरवीं गली के बाद
जिंदगी टस से मस न हुई,
जाने क्या रक्खा है इस पर
कि सरकती ही नहीं
बस वहीं की वहीं
अड़ियल भैंस की भाँति
जुगाली करती स्मृतियों का।
एक आस का बगुला
बार-बार थरथराई पीठ पर बैठता
और फुर से उड जाता,
ढंग से श्वेत रंग उभरा ही नहीं रहता
कि फिर वही भैंस की पीठ पर
वक्त का काला रंग
होने के पुतलियों में घुलने लगता है।
एक तो काला रंग
ऊपर से कडी ‘दुपहरी’,
अपनी ही देह पराई हो रही
इधर मन भी ठीक भैंस के पीठ सा
किसी छायादार वृक्ष पर कोयल बन बैठ रहा।
ले दे के सुकून यही है
कि उँगलियों मे कलम की बाँसुरी है
ये अलग बात कि
वो भी कभी जरूरत से ज्यादा बजती है
तो कभी हफ्तों तक किनारे दबी रहती है।
फिर भी
फिर भी ये एकलौता भैंस
जो मेरे रेहट में है
उसे हँकारना तो है ही
आखिर कब तक इस तरह चलेगा
कि बीच चौराहे पर ये बैठी रहे
और सारा कुछ क्षणों में
इधर से उधर होता रहे,
और बस, बैठी भैंस को
बाँसुरी लिए ताकता रहूँ!
नहीं, कुछ तो करना होगा भई
ये और बात
कि मेरे हाथ में हंटर नहीं
और रह भी जाता तो क्या कर लेता
आखिर ऐसा तो होता नहीं
कि लगूँ खदेड़ने अपनी ही भैंस को
अनावश्यक से परंपरा के डंडे पर लगे
अनुशासन के चाबुक पट्टे से।
मुझे लगता है
ये भैंस उठेगी सहज ढंग से
चलेगी, भले ही जुगाली करती रहे।
निश्चय ही
ये अपने तालाब में
एक डूबकी लगा लेगी
कुछ पल तो जीएगी ही
सद्यःस्नात सौंदर्य की मूरत सी।
देखता हूँ!
उमर के बहत्तरवीं गली के बाद
खडा है इसका साथी।
शायद वही हटाए
रखे इस अजाने भार को!
5. अस्तित्व
शिशुओं के दाँतों सा
निकल आई वासंती धूप,
खिल उठे चेहरे वनस्पतियों के
वही पिएगा पत्तियों पे ठहरी ओस,
तो मुक्त हो गाएगा
वृक्षों के अस्तित्व का जर्रा-जर्रा
प्रवाह के क्षण-शिशुओं को
हथेलियों में लेकर
बारम्बार दुलारेगी प्रकृति,
स्त्रीत्व सा साँस लेगा कुछ
प्रातः के गहरे उत्सव में।
6. होने का पेड़
लिखना भी होना है
होने की संरचना में
होते शब्द, अक्षर, ध्वनि, हू
और विचारों के प्रवाह में
होते-होते घुलता भीतर का विद्युत
किमीया, मंत्र, जो भी
उर्जा के रूपांतरण का जादू।
कुछ जो भीतर है
कुछ और हो कर
सामने आता है।
लिखना, नशा सा
भूख, प्यास, नींद-सा
एक अनिवार्य आवश्यकता,
कहीं भीतर की प्यास
कुछ उठती है।
शायद गिरते-गिरते गिर ही जाता है
अपनी ही कब्र में आदमी
मगर गिरने से पहले
कुछ छोड़ जाएँ,
शायद कोई नस्ल आए
और संभलना सीख जाए,
खड़े रहना जान पाए
ढंग से बैठना
किसी पेड़ के नीचे,
लिखते लिखते ठहर जाए।
(जिंदगी सचमुच सार्थकता पाए)
आखिर कितनी कलम
इस एक होने के पेड़ की जड़ों में
साँस ले रहीं।
7. दूब-पर्व
दिन भर वही-वही ख्याल
घुम-फिरकर मन की कोठी में
जुगाली करते
बेवजह ही रंभा रहे,
कागज की चौहद्दी पर नजरें फैलाए
कुछ ताजे घास की आस में
जो शाम तक तो मुश्किल सा दिखता है,
दूर-दूर तक कोई नहीं, भरी दुपहरी में
नहीं कोई ग्वाल,
जो रख सके ख्याल।
मन की कोठी के
नए-पुराने पलस्तर उखड़ रहे,
असल में घर जो पुश्तैनी रहा
कई कई पीढ़ियों से
अब कोई देख-रेख करने वाला नहीं
न ही प्रज्ञा-विवेक का कोई बाल-गोपाल
जो रख सके ख्याल।
वही ख्याल, वही विचार
अब करें तो क्या करें?
घर भी, बाहर भी
करने वाले तो गाँव के सरपंच ठहरे!
एक मन का डॉक्टर
बैठे-ठाले अपना ही इलाज कर रहा
कभी थककर अपनी ही गायों का,
या अपनी ही घर की दीवारों से
जालें बुहारता
बुन रहा कोई तिलिस्मी जाल
जो रख सके ख्याल।
आखिर कल मछुआरे की भूमिका निभानी है
एक तालाब और ढेरों मछलियाँ खराब
सब मगरमच्छों की उधेड़नी है खाल
पकड़नी है मच्छियों की चाल,
शायद वो कल आए
नया गट्ठर घास का लाए
फिर भोर में
कुछ मगरमच्छ पकड़ पाएँ।
वाकई में अंदर बाहर
सब कुछ
अराजकता के शिकंजे में है।
यहाँ हर दूसरे क्षण,
खुद को ही निगले जा रहे,
मालूम ही तब चलता है
जब जुगाली के झाग
पीढ़ियों के हाथ देखते हैं,
तो नए घास के गट्ठर पर
हथेली मारते
सोचते रह जाते हैं
कुछ।
इसी कुछ को जी जाने वाले
समय-समय पर
इतिहास के पन्नों में
अपने-अपने घास के गट्ठर को
दूब बनाए दिखते हैं।
आइए आमंत्रण है दूब-पर्व का
नव दूब बनाएँ
ताकि पूज सके भलीभाँति पवित्रता से
अपनी कोठी को, अपने घरों को
अपने गाँव को
शुद्ध कर सके, अपने तालाब को
अपने आसपास को
जिससे दमक सके मानव-भाल!
Sujas Kumar Sharma
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