महाप्राण निराला, वाक़िफ़ रायबरेलवी, दिनेश सिंह आदि की विरासत को समृद्ध करने वाले रायबरेली के चर्चित कवि, आलोचक, संपादक रमाकांत समकालीन रचनाकारों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। महत्वपूर्ण इसलिए कि वह अपने सृजन में जितने सहज एवं संवेदनशील हैं, असल जिंदगी में उतने ही बेबाक और हरफनमौला हैं। वह जैसा कहते हैं, वैसा करते हैं; वह जैसा करते हैं, वैसा ही दिखते हैं; वह जैसा दिखते हैं, वैसा ही रचते हैं। कहने का आशय यह कि उनकी असल जिंदगी का ताना-बाना और कविता और आलोचना की बुनावट लगभग एक-सी ही है— पूरी तरह से स्पष्ट, पारदर्शी एवं खूबसूरत— दृष्टि हो तो उसे जैसे भी देखना चाहो, देख लो, समझ लो— दृष्टि न हो तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उन्हें किस प्रकार से देखता है और उनके बारे में किस प्रकार की राय रखता है।
अब प्रश्न उठता है कि आखिर बहुत छोटी-सी जगह से ताल्लुक रखने वाले पेशे से शिक्षक रमाकांत राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में कैसे आये? रमाकांत के चर्चा में आने के दो प्रमुख कारण हैं— पहला यह कि वह आधुनिक बोध के समर्थ कवि हैं और दूसरा यह कि वह अपने गद्य लेखन में बड़े ही बेबाक और तार्किक हैं। यानी कि उन्होंने कविता, हाइकु, गीत, ग़ज़ल आदि के क्षेत्र में जो कुछ भी लिखा, अपनी मौलिक कहन के कारण देशभर में सराहा जा रहा है; उन्होंने अपनी मेधा-सम्पन्न-बेबाक-वैचारिकी को अपनी अनियतकालीन पत्रिका— 'यदि' और सोशल मीडिया के माध्यम से जिस प्रकार से अब तक प्रस्तुत किया है, वह साहित्य जगत में बहस का मुद्दा बन गयी है। ऐसी स्थिति में कई लोग उनकी धारदार वैचारिकी से सहमत हुए, तो कई लोग असहमत भी; कई लोग उस पर मौन हुए, तो कई लोग उससे किनारा कर लिए; कई लोग पक्ष में खड़े हुए, तो कई लोग विरोध में भी आ गए। इन तमाम कही-अनकही स्थितियों के बीच भी उनकी साहित्य जगत में जगह बनती चली गयी— यह बड़ी बात है।
हिंदी साहित्य की कई विधाओं में सहज रूप से रचनारत रमाकांत अपने गीतों-गजलों (अन्य विधाओं की तरह ही) में धर्म, जाति, वर्ण, नस्ल, संप्रदाय आदि से परे आदमी और आदमीयत की बात करते हैं— "चलो फिर नवगीत में/ कुछ बात कर लें हम।/ आज फिर अखबार पढ़कर/ मन हुआ गुमसुम/ हर तरफ दंगों-फसादों/ में घिरे हम तुम/ कोई फरियादी सुनाये/ किसको दुख अपना/ बांट लेने की ललक/ अब हो गई है कम" और "सफ़र में हमसफ़र होकर कभी पूछा नहीं उसने/ कि कैसे हाल हैं मेरे कि मेरी ज़िन्दगी कैसी।" आदमी की इस दुःखद स्थिति और आदमीयत के क्षरण पर वक्र दृष्टि रखने वाले रमाकांत जन-मन से जुड़े महत्वपूर्ण सवालों को न केवल बड़ी संजीदगी से उठाते रहे हैं, बल्कि उनके प्रभावी एवं स्थायी हल भी खोजते रहे हैं— "प्रश्न होता नहीं सरल कोईे/ खोजिए तो मिलेगा हल कोई", कारण यह कि वह समकालीन समस्याओं को हल्के में नहीं लेते और न ही उनके निदान को असम्भव समझते हैं। शायद इसीलिये मानवीय करुणा से लैस उनके दार्शनिक एवं समाजोपयोगी चिंतन का सहज शब्दों में अर्थपूर्ण रूपांतरण उनकी रचनाओं को विशिष्ट बना देता है— "तू मुझे इस तरह प्यार कर ज़िन्दगी/ मुझको अच्छा लगे तेरा घर ज़िन्दगी।"
20 अक्टूबर 1964 को पूरे लाऊ, बरारा बुजुर्ग, जनपद रायबरेली (उ.प्र.) में जन्मे रमाकांत हिंदी एवं इतिहास में एम.ए. एवं पत्रकारिता में परास्नातक करने के बाद अध्यापन से जुड़ गये। माता-पिता किसान, घर-परिवार में लिखने-पढ़ने का माहौल जैसा कुछ भी था नहीं। हाँ, यह जरूर था कि उन दिनों उनके बड़े भाई रामनारायण रमण जी (जाने-माने साहित्यकार) अपने ढंग से साहित्य-सेवा कर रहे थे। तिस पर भी उन्हें अपने ही दम पर आगे बढ़ना था और वह आगे बढ़े भी। इस हेतु उन्होंने सबसे पहले 2001 में आलोच्य पुस्तक— 'वाक़िफ रायबरेलवी : जीवन और रचना' सम्पादित की, जिसकी साहित्य-जगत में भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। उसके बाद उनकी कई अन्य महत्वपूर्ण कृतियाँ— 'हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ हाइकु' (हाइकु संकलन, 2002), नृत्य में अवसाद' (हाइकु संग्रह, 2003), 'जमीन के लोग' (डॉ ओमप्रकाश सिंह के साथ रायबरेली के रचनाकारों पर केंद्रित नवगीत संकलन का संपादन, 2003), 'सड़क पर गिलहरी' (कविता संग्रह, 2004), 'जो हुआ तुम पर हुआ हम पर हुआ' (नवगीत संग्रह, 2007), 'बाजार हँस रहा है' (नवगीत संग्रह, 2014) एवं 'रोशनी है मगर अंधेरा है' (ग़ज़ल संग्रह, 2016) प्रकाश में आयीं। इतना ही नहीं, 'नये-पुराने' पत्रिका के यशस्वी संपादक, आलोचक, गीतकवि दिनेश सिंह के दिवंगत होने पर उन्होंने 'यदि' पत्रिका का 'दिनेश सिंह स्मृति विशेषांक' सम्पादित किया और 16 फरवरी 2013 को रायबरेली में इसका भव्य लोकार्पण भी करवाया। अब तक उन्हें 'अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरण' ('सड़क पर गिलहरी' कृति के लिए) एवं ख्यात गीतकवि एवं आलोचक दिनेश सिंह की स्मृति में 'ढाई आखर पुरस्कार' सहित कई अन्य विशिष्ट सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क : 97, आदर्श नगर, मुराई बाग़ (डलमऊ), रायबरेली— 229207 (उ.प्र), मो. 09415958111
1. हम वह गली छोड़ आये हैं
हम वह गली छोड़ आये हैं
फूल जहां झरते हैं पल-पल
कांटों वाली राह चुनी है
यह मेरा अपना चुनाव है
ग़म को ग़म की दवा बताना
यह भी ग़म का ही प्रभाव है
कैसी राह कि कैसी मंजिल
एक धुन यही सिर्फ़ चलाचल
लहूलुहान हुआ भी तो क्या
चलने का मतलब तो जाना
हंसी उड़ाने वालों का भी
है तो मुश्किल साथ निभाना
पत्थर दिल होना है जब तब
वैसे तो दिल है ही दलदल
उनसे मेरी राह अलग है
उनसे मेरी यह ही अनबन
उनके हिस्से यह वसन्त है
उनके हिस्से सारा सावन
उनसे मेरी यही लड़ाई
वे छलिया हैं हम हैं निश्छल
2. नवगीत
चलो फिर नवगीत में
कुछ बात कर लें हम
आज फिर अखबार पढ़कर
मन हुआ गुमसुम
हर तरफ दंगों फसादों
में घिरे हम तुम
कोई फरियादी सुनाये
किसको दुख अपना
बांट लेने की ललक
अब हो गई है कम
आज फिर श्री राम के
नारे लगे ज्यादा
शांति का सद्भाव का
झूठा हुआ वादा
कौन मारे किसको मारे
क्यों भला मारे
मार भी दे तो
कहां अब आंख होती नम
वह दलित था
उसका अपना एक घोड़ा था
शान से चलता था
उसमें मान थोड़ा था
बस यही वर्चस्ववादी
सह नहीं पाये
मार कर उसको
लगे फिर नाचने छम छम
3. मैं अकेला ही भला
मैं अकेला ही भला
क्यों रात-दिन यह सोचता हूँ
सोचता हूँ
आदमीयत को हुआ क्या
कोई तो सोचे
है अच्छा क्या, बुरा क्या
मस्त दुनिया
मैं ही केवल बाल अपने नोचता हूँ
हाँ मगर
पहले भी थे कुछ लोग ऐसे
जो जिए
मूल्यों की खातिर बिना पैसे
क्या करूँ मैं
ज़िन्दगी को हर तरह से तोलता हूँ
चाहता हूँ
विषमताओं में रहे सम
विषमताएं भी रहें
तो रहें कम कम
चीज सबकी गुम हुई है
मैं उसे ही खोजता हूँ।
4. झूठ का पहाड़
झूठ का पहाड़ सामने है
लड़ें इससे
कि बच जाएं
संभलना है बड़ा मुश्किल
पढ़ी बातें
लिखी बातें
निरर्थक खोजती हैं हल
हमेशा तो नहीं था ये
मगर इस दौर की तस्वीर
ये तड़पता प्रमाण सामने है
हमारा भी
तुम्हारा भी
कहीं कुछ तो है खोया सा
ज़मीनों पर
टिका है जो
वो मुर्दा है या रोया सा
रुदाली का समय है ये
समय यह ही चुनावों का
फूल का निशान सामने है
5. कहने का मन
कुछ कहने का मन होता है
कुछ सुनने का मन होता है
कहो मगर कुछ ऐसे जैसे
सचमुच जीवन ने भोगा है
ऐसे भी मत कहो कि
सुनने वाला समझे सब धोखा है
खारे आंसू तब बहते हैं
भीतरवाला जब रोता है
रोने धोने से भी पहले
कुछ बाते हैं बड़े काम की
बहुत हुई ये नारेबाजी
रावण की हो याकि राम की
अब यह समय नये खेतोंमें
बीज पुराने क्यों बोता है
तुम बोलो हम सुनें
कभी गर हम बोलें तोतुम भी सुन लो
आज अभी जो गुनना बुनना
आज अभी वो सब गुन बुन लो
भाईचारे का शव अक्सर
यही आदमीतो ढोता है
6. ज़िन्दा हैं अभी प्रश्न
रोहित वेमुला मर गया है
लेकिन ज़िन्दा हैं अभी प्रश्न
हां वही प्रश्न तब से अब तक
मरते ही नहीं न जाने क्यों
एकलव्य द्रोण की हर आज्ञा
अब शीश झुकाकर माने क्यों
कितनी शताब्दियां गुजर गईं
पर वही व्यवस्था नाच रही
होकर निर्लज्ज और नग्न
जो जाति धर्म से हैं कुलीन
कितने कमतर आदमी बने
एकलव्यों की खातिर उनके
कुत्सित विचार गन्दगी सने
जाने कितनों के हक छीना
जाने कितनों को मार दिया
फिर भी हैं मना रहे जश्न
रोहित की चिट्ठी पढ़ो जरा
आंसू आ जाते हैं पढ़कर
संघर्ष बीज जो बोये थे
हंसते रोते हैं रह रह कर
लगता है क्रांति फलेगी ही
प्रतिरोध बड़ा होने को है
नासमझ मगर हैं अभी मग्न
7. ख़ुश अगर होना
ख़ुश अगर होना
तो ख़ुशियों की समझ रखना
बहुत मुश्किल है
कि वे ख़ुश हों तो हम भी हों
मगर अब दरमियां
ये हालात कम भी हों
कौन ऐसा है
जो मानवता का हित साधे
बहुत मुश्किल है
सभी को साथ ले चलना
आदमी को आदमी
मानो तो क्या मुश्किल
पार जाने को
वही कश्ती वही साहिल
लोग कुछ
बहती नदी को बांट देते हैं
जानवर कहना
उन्हें मत आदमी कहना
देखना दीवार
बन जाए तो गिर जाए
भाईचारे में कभी
पानी न फिर जाए
शान से जीना
कि मरना शान से जब भी
क्षुद्रता में किसलिए
जीना कि फिर मरना
8. इस समय भी क्या
कुछ हमारा
कुछ तुम्हारा
खो गया -सा लग रहा है
बड़ी बातें
बड़ी बहसें
नये युग की आहटें भी
भीड़ का
हिस्सा बनी हैं
व्यक्तिवादी चाहतें भी
इस सदी इक्कीसवीं में
हर कोई तो भग रहा है
झूठ सच की
बात करना
मोल लेना है मुसीबत
बच सकोगे
हां तभी
सत्तानशीं
जब रहें सहमत
कोई आज़ादी को
सेवक बन के कैसे ठग रहा है
फिर कभी
इंक्लाब के स्वर
अभी तो सहमी फ़ज़ाएं
हर तरफ
केवल शिगूफे
हंसें फिर सबको हंसाएं
इस समय भी क्या
कोई बेख़ौफ़ होकर जग रहा है
9. प्रेम की अगन लगी
प्रेम की अगन लगी
हारे हारे
जीते जीते
सोये से कुछजागेसे
जाने कैसे
यहां आ गये
पीछे से या आगे से
बस इतना है भान
उसी से लगन लगी
उसने जाल
बिछाया या
हम ही फंसने को आतुर थे
वैसे तो
फुसलाने वाले
और कई भस्मासुर थे
उस माया से हटे
जहां जो ठगन लगी
उसका ठौर ठिकाना
उसकी
रहन सहन के क्या कहने
उसके आलिंगन में
लगते हैं
सारे मधुरस बहने
देह बची ही नहीं
आत्मा मगन लगी
10. प्रेम जी रहा हूं मैं
प्रेम जी रहा हूं मैं
बिल्कुल अलग तरीके से
बहुत पास हूं
मगर देह के आलिंगन से दूर
छुवन साथ देती है फिर भी
अन्दर से भरपूर
प्राण और मन
बतियाते हैं बड़े सलीके से
जिधर नजर डालो
दिखती हैं आंखें ही आंखें
फूल और पत्तों से
जैसे भरी भरी शाखें
क्या कहना क्या सुनना
खुश्बूदार बगीचे से
जिस दर पर हूं
इश्क वहीं पर नृत्य कर रहा है
मेरे अन्दर मैं क्या जानूं
कौन मर रहा है
अब तो क्या लेना देना है
मुझे नतीजे से
11. और क्या करें अब
और क्या करें अब
अधनंगे नंगे हुए किसान
जंतर मंतर चीख रहा है
बंद हुए सब कान
सारे स्तंभों ने
किसके डर से शीश झुकाया
आंख मूंद कर निकल रहे सब
यह किसकी है माया
लाज शर्म आए तो किसको
भरे पेट वालों कोकोई
कब कहता बेईमान
राजा का आवास पास में
दरबारी क्या कम हैं
बात अन्नदाता की हो तो
दोषी तुम हो हम हैं
धरना और प्रदर्शन इतना
गूंगे बहरों की धरती पर
सूख गई है जान
संसद के धंधे में
बाज़ारों के चर्चे पर्चे
बिल में सारे जुड़े हुए हैं
जनप्रतिनिधि के खर्चे
फांसी पर चढ़ते किसान क्यों
मरे कहां कब कितने
अब यह व्यर्थ हुआ अनुमान
रमाकांत जी के प्रस्तुत सभी नवगीत आज की विसंगतियों और सामयिक विद्रूपताओं की यथार्थबयानी से पूर्णतः अपनी उपस्थिति का अहसास करा रहे हैं।हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंअच्छे हैं नवगीत। नए संदर्भ को रेखांकित करते हैं।
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