भारत यायावर |
कठोर परिश्रम कर अपने आपको जीवंत बनाये रखने की कला में निपुण एवं वैश्विक ख्याति के श्रेष्ठ रचनाकार भारत यायावर का जन्म आधुनिक झारखंड के हजारीबाग जिले में 29 नवम्बर 1954 को हुआ। 1974 में आपकी पहली रचना प्रकाशित हुई थी, तब से अब तक देश-विदेश की छोटी-बड़ी तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।'झेलते हुए' और 'मैं हूँ यहाँ हूँ' (कविता संग्रह), नामवर होने का अर्थ (जीवनी), अमर कथाशिल्पी रेणु, दस्तावेज, नामवर का आलोचना-कर्म (आलोचना) इनकी चर्चित पुस्तकें हैं। इन्होंने हिन्दी के महान लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं फणीश्वरनाथ रेणु की खोई हुई और दुर्लभ रचनाओं पर लगभग पच्चीस पुस्तकों का संपादन किया है। 'रेणु रचनावली', 'कवि केदारनाथ सिंह', 'आलोचना के रचना-पुरुष: नामवर सिंह' आदि का सम्पादन। रूसी भाषा में इनकी कविताएँ अनूदित। नागार्जुन पुरस्कार (1988), बेनीपुरी पुरस्कार (1993), राधाकृष्ण पुरस्कार (1996), पुश्किन पुरस्कार- मास्को (1997), आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान- रायबरेली (2009) से अलंकृत। सम्प्रति: विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में अध्यापन। संपर्क: यशवंत नगर, मार्खम कालेज के निकट, हजारीबाग, झारखण्ड, भारत।
यायावर के कितने पांव हैं, सिर्फ यायावर को ही मालूम पड़ता है, शेष सभी तो पैरों के निशान ही ढूंढते- गिनते रहते हैं। ढूंढने - गिनने की इस प्रक्रिया में कभी- कभी स्वयं को भी शामिल होता देखकर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता क्योंकि यह बिल्कुल सामान्य आदमी की मानसिक स्वस्थता के सबसे सामान्य लक्षणों में शीर्षस्थ है और इसमें कोई संदेह या भ्रम नहीं होना चाहिए कि मैं सामान्यतः एक सामान्य आदमी हूं और पूरी तरह न सही, कामचलाऊ तौर पर स्वस्थ भी अवश्य हूं। यहाँ मैं जिस यायावर की यायावरी की निशानदेही में लगा हूं, उनकी गतिशीलता पिछले चालीस वर्षों से लगातार जारी है, अभी भी थकी या रुकी नहीं है। साहित्य की विभिन्न विधाओं, खासकर कविता और आलोचना के क्षेत्र में उनकी यायावरी ने कई अनछुए या गुम इलाकों की खोज की है जो प्रतिबद्ध यायावरी के बिना कतई संभव नहीं है।
यद्यपि उनका साहित्य - लेखन मुझे अपने कालेज के दिनों से ही खींचता रहा है, कभी यह नहीं सोचा था कि उनसे मेरा कभी कोई व्यक्तिगत लगाव या जुड़ाव भी हो पाएगा। आमने – सामने न सही, फोन और सोशल मीडिया पर ही सही लेकिन जुड़ाव तो हमेशा रहता ही है और इसके लिए उनके कृतित्व से ज्यादा उनके व्यक्तित्व का अनूठापन ही है कि बात के वैयक्तिक होने से थोड़ा भी बचा पाना मेरे लिए बहुत कठिन है।
सबसे बड़ी बात है कि निर्लिप्त संबंध की इस अनूठी यात्रा में स्वार्थ का कभी कोई पड़ाव नहीं रहा और न ही कोई दिशा – विभ्रम, हां, कुछ दिशा – शूल कभी-कभी अवश्य चुभते रहे, जैसे रचनाकार को पहले दूसरों को भरपूर पढ़ना चाहिए, आत्ममुग्धता से बचना चाहिए, प्रकाशित होने के पहले भरपूर लिखना चाहिए, मशहूर या बेस्टसेलर होने के लिए साहित्य में उतरना नहीं है, सोशल मीडिया पर खुद को चमकाने के उपक्रम में रचनाशीलता में गति तो होगी पर वह पहुंचाएगी कहीं नहीं, आदि – आदि। उनकी ये बातें आज के साहित्यकार की नई प्रजाति के लिए दिशा – शूल ही तो हैं जो चुभते भी हैं शायद चुभकर बेहोशी को झकझोर भी जाते हैं। मुझे लगता है मैं भी उसी प्रजाति का एक प्राणी हूं ।
उनसे रोजाना फोन पर या कभी-कभी सोशल मीडिया पर होते संक्षिप्त संवाद मेरे लिए एक खास अनुभव से साक्षात्कार जैसा है जिसमें संघर्ष से लेकर सपनों का एक अदद संसार है और जहां से खाली हाथ वापस आना मुश्किल है। मैं उनके इस विराट् अनुभव – संसार में कई बार अधिकृत – अनधिकृत प्रवेश कर चुका हूं और स्वभावत: मेरी मुट्ठी के छोटे – से आयतन में जितना जो कुछ भर पाया, उसे लेकर सकुशल वापस भी लौट पाया हूं।
सकुशल वापस लौटने की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि जब कभी आप किसी बड़े व्यक्तित्व में प्रवेश करते हैं, उसके अंतस में आप बिल्कुल ‘ एलियन’ होते हैं जो आपको आपके इस रूप में और भीतर प्रवेश की अनुमति नहीं देता और अगर अनुमति मिलती भी है तो आप खुद को एलियन रहने देना नहीं चाहते, बस यूं समझिए कि आपके अस्तित्व का आटो – इम्यून आपके ही विरुद्ध काम करने लगता है और फिर आपके मूल व्यक्तित्व के खोने का खतरा सौ फीसदी बना रहता है। इसके बाद आप वह नहीं रहते, आपकी अपनी लाली खो जाती है और आप उस श्रेष्ठ लाल की लाली में रंग जाते हैं । यह भी एक सूक्ष्म हिंसा है लेकिन यहाँ मैं श्री यायावर को हिंसक नहीं कहता। वह अपने से छोटों को उनके अपने स्वरूप में विकसित होने देते हैं। मिरदंगिया ने जैसे दर्जनों सुकुमार बालकों की सेवा की है। जिंदगी की दैनिक आपा–धापी में, आमने-सामने मिलने का सौभाग्य कब मिलेगा, पता नहीं लेकिन रोज होती बातें इसकी तसल्ली जरूर देती हैं।
इसी साल फरवरी का महीना। मुझ पर गज़लगोई का भूत सवार हुआ। रोज कुछ न कुछ गज़लें उतरनी शुरू हुईं, मुझे लगा, यही सिलसिला जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब लोग सदी के गजलकारों में मुझे भी गिनेंगे। सोशल मीडिया पर आभासी मित्रों की पसंद और टिप्पणी की मूसलाधार बारिश ने मेरी साहित्यिक महत्वाकांक्षा एवं सपनों को और भी हरा – भरा कर दिया। लगा, इसकी हरियाली एक दिन जमीन पर भी जरूर उतरेगी। एक दिन यह विश्वास और भी ठोस हो गया जब फेसबुक पर मेरी रचना को एक ऐसे शख्स ने पसंद किया और उस पर छोटी टिप्पणी भी की, जिनसे बात करने या मिलने की तमन्ना मुझमें कॉलेज के दिनों से ही थी। आप समझ ही गए होंगे, वे कोई और नहीं बल्कि श्री भारत यायावर ही हैं।
अब वह मेरे लिए किसी बाबा से कम नहीं क्योंकि उनकी झाड़ – फूंक से ही गज़लगोई का भूत मेरे सिर से उतरा और आज मैं एक भूत – प्रेत – मुक्त साहित्यिक प्राणी के रूप में विचर पा रहा हूँ। लेखन के आरंभिक दौर की आत्ममुग्धता से निपटने के उनके गुर बड़े कारगर साबित हुए । उन्होंने बार – बार संकेत दिया कि आत्ममुग्धता या नारसीसिज्म एक मायने में खूबसूरत और किस्तवार आत्महत्या है, रचनाकार को जिस चीज के लिए सतत प्रयासरत रहना चाहिए वह है आत्म – विस्तार।
उन्होंने बहुत साफगोई से कहा था – “साहित्य – रचना एक साधना है, इसमें भी माया ठगिनी नैना चमकाते रहती है, होता है कोई कबीर जो उसके हाथ नहीं आता”। पहचान की भूख और पुरस्कार की प्यास तो खूब लगेगी लेकिन रचनाशीलता को इस भूख – प्यास से बचाकर रखना होता है तभी उच्चकोटि की रचना संभव हो पाती है जिससे विश्व और मानवता का कल्याण होता है”। उनके बताए गुर ने मुझे उच्च कोटि की रचना के लिए कितना लायक बनया मुझे नहीं मालूम लेकिन मैं इस खूबसूरत आत्महत्या और लुभावने भटकाव से जरूर बच पाया।
दरअसल उनके प्रति पहली बार मेरी श्रद्धा तब जगी थी जब पता चला था कि वह अमर कथा – शिल्पी रेणुजी पर बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक खोये हुए और अनुद्घाटित पक्ष को ढूंढ निकालना और उन्हें उचित जगह पकड़ाना कोई आसान काम नहीं था।
आत्म – प्रकाशन या आत्म – विज्ञापन की संस्कृति के इस दौर से अलग, उन्होंने एक अलग ही राह चुनी है जिस पर चलना आज की पीढी को शायद ही स्वीकार हो। एक – दूसरे की पीठ को कुचलते हुए आत्म – उन्नति की निर्मम रेस में आगे निकलकर तमगा हासिल करना अब एकमात्र जीवन – लक्ष्य है। जिंदगी भी जैसे औलिंपिक खेल हो गई है। एक ही पैमाना रह गया है सिर्फ नंबर वन, बाकी को कोई न तो पूछता है न ही याद रखता है। लगता है गहराई का बोध जैसे ऊंचाई – बोध में तब्दील हो गया है।
ऐसे में एक शख्स सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की बात करता है, न सिर्फ बात करता है बल्कि उसे आचरित भी करता है, यह उत्तर आधुनिकता से त्रस्त इस युग में एक महायानी व्यक्तित्व नहीं तो और क्या है !
मैंने कई रचनाकारों की स्वीकारोक्ति जगह – जगह पढ़ी और सुनी है कि उन्होंने किस तरह उनकी रचनाशीलता को संवारा है, रचनाओं को उचित फोरम पर पहुंचाने में भरपूर सहायता की है और उन्हें साहित्यकार के रूप में स्थापित होने में सही मार्गदर्शन भी किया है वर्ना आधुनिक टांगखींचू और कलीमरोड़ू माहौल में साहित्यिकों की असाहित्यिक हरकतें किसी से छिपी नहीं हैं। गुटबाजी और “तू मेरी खुजा और मैं तेरी” की शिकार कई युवा प्रतिभाएं भटककर निराश और दिग्भ्रमित होकर समय की गर्दो- गुबारी में खो जाती हैं और फिर रोना शुरू होता है सर्जना के उत्तराधिकार – संकट के नाम पर।
यह बिल्कुल वैसी ही बात है जैसे साहित्य का पर्यावरण बिगाड़ने का जो काम कर रहे होते हैं वे ही आनेवाली पीढ़ी के संभावित संकट की भविष्यवाणी करते हुए आंसू भी बहाते हैं। श्री यायावर निश्चित रूप से उनमें से नहीं हैं। उनकी समावेशी प्रकृति और ‘संगच्छध्वं’ – भाव से अनुप्राणित विचार – प्रक्रिया बहुत आशा बंधाती है। इस बिंदु पर उनके बारे में कुछ लोगों की राय या विचार भिन्न हो सकते हैं लेकिन यहाँ तो मेरी राय मुझे रखनी ही पड़ेगी। यही नहीं, उनकी मानवीय संवेदना कितनी प्रखर है, इसका अनुमान मुझे उन दिनों हुआ जब मैं लगातार अस्वस्थ चल रहा था और नौकरी में काम का बढ़ता दबाव और इन सब चीजों के बीच अपनी रचनाशीलता के नष्ट होने की आशंका जब हद से गुजरने लगी तो लगा अब जीवन बोझ है और शायद यह अस्वस्थता इसी बोझ को उतारने आ पहुंची है। परन्तु ऐसा नहीं था। मेरे जीवन की यह तीसरी घटना थी जब मुझे अपने अस्तित्व के मिट जाने का आभास हुआ था परन्तु हर बार कोई न कोई अमूर्त या मूर्त सहारा मिलता ही रहा। श्री यायावर की आत्मीय और उत्प्रेरक बातें मुझे और मेरी रचनाशीलता को उर्जस्वित करती रहीं।
मैं बहुत हाल में जान पाया कि वे बड़े अनुभवी और बहुविध रोगी हैं और आयुर्वेद की प्रभावकारिता का उन्हें विशद अनुभव है। मुझे अच्छी तरह याद है, उन्होंने आयुर्वेद की कुछ औषधियों के नाम भी बताए थे और मुझे कहा भी था कि मैं खुद भी गूगल – गुरू से स्वास्थ्य संबंधी महत्त्वपूर्ण और उपयोगी जानकारी हासिल कर सकता हूं । यद्यपि कुछ - कुछ खाद्य जड़ी – बूटियों के औषधीय गुण मुझे भी मालूम थे लेकिन वे किसी और से या खासकर वह भी जब श्री यायावर जैसी शख्सियत से बतौर आप – बीती सुन लें तो आत्मविश्वास का दुगुना होना स्वाभाविक ही था। यही नहीं, जब उन्होंने स्वयं के बारे में कहा कि वे तो खुद ही शारीरिक रूप से टूटे – फूटे हैं और अभी भी अध्ययन – अध्यापन के साथ –साथ किसी बड़े लेखक की जीवनी लिख रहे हैं तो मुझे बहुत बल मिला। इसे कहते हैं खरबूजा को देखकर खरबूजे का रंग बदलना। श्री यायावर, मेरी दृष्टि में सदाबहार खरबूजा हैं जिसे खाने से ज्यादा सुख, उसे सुरक्षित और संरक्षित रखने में है ताकि वह नये – नवेले कच्चे खरबूजों के रंग पक्के करने या बदलने के काम आ सकें।
वैसे उनके साहित्यिक कृतित्व से उनका संपादकीय व्यक्तित्व अधिक उद्भासित हुआ है या किया गया है और शेष पक्ष कहीं न कहीं गौण पड़ गया प्रतीत होता है । मेरी दृष्टि में, उनका व्यक्तित्व बहुपक्षीय तो है ही लेकिन उसके सारे पक्षों में जिस तत्व की सर्वनिष्ठता है वह है श्रद्धा – पूर्ण दृष्टि जो मूलतः एक कवि की दृष्टि होती है और जिसमें कविता जीवन के सच को पुनरावृत नहीं करती बल्कि सच को नये सिरे से खोजती है।
श्री यायावर ने भी कविता में सच को नये सिरे से खोजने की पुरजोर कोशिश की है और उसमें वह कामयाब भी हुए हैं। संघर्ष का सतत आग्रह कह लें या पुरुषार्थ की हूब, उनकी काव्य – रचनाशीलता में ये जीवन- प्रवृत्तियाँ कोने-कोने से प्रतिध्वनित होती रहती हैं – “ हाथ/ जो तराशेंगे / हाथों को / हाथ एक नई संस्कृति / गढेंगे”।
संघर्ष और पुरुषार्थ, निश्चित रूप से काव्य के नये तात्विक स्वर नहीं हैं लेकिन ‘शॉर्टकट’ या येन केन प्रकारेण कामयाबी हासिल करने के इस बाजारवादी दौर में ऐसा आग्रह या हूब जाहिर करना ट्रेंडी तो बिलकुल नहीं है। वह रचनाशीलता ही कितने कौड़ी की होगी जो हवा या ‘ट्रेंड’ की गुलाम बनकर विकसित होती है। उनकी रचनाशीलता, पिटी – पिटाई लकीरों की तरफ देखती तक नहीं है वरन् वह बिल्कुल एक नई राह तलाशती है जहाँ वह खुद कोई यात्री या पर्यटक नहीं बल्कि एक यायावर हैं जिनके लिए मील के पत्थर की कोई उपादेयता नहीं। उनकी रुचि सिर्फ भटकने में है लेकिन यह भटकना जो प्रथम दृष्टया आकस्मिक लगता है, अंततोगत्वा सोद्देश्य संघर्ष बनकर प्रकट होता है– “मेरे सहचर, / चाहता हूं भटकना मीलों – मील / धूल में, रेत में / धूप में, ठंढ में / चाहता हूं जीना / संघर्ष में / प्यास में / आग में”।
एक जगह जब वह कहते हैं, “ आँखें मेरी कविता की मां हैं / मैंने इन्हीं से लिया है / हर बार जन्म” तो स्पष्ट है कि उनकी कवि – दृष्टि में इतनी श्रद्धा क्यों है। उनकी यही श्रद्धापूर्ण दृष्टि उन्हें रेणु – साहित्य की तरफ खींचती है।
रेणु- साहित्य को पढ़ते हुए मुझे हमेशा लगता रहा है कि दृष्टि - निर्दोषिता रेणु – साहित्य में झांकने की पहली शर्त है और श्रद्धा उसमें प्रवेश की दूसरी। श्री यायावर की कविताओं में जो प्रवृत्तियाँ या छवियां उभरती हैं उनसे तो यह आर – पार स्पष्ट होता है कि वह ये दोनों शर्तें पूरी करने का भरपूर माद्दा रखते हैं क्योंकि बतौर बानगी – “ और जब भी / टटोलता हूं/ बाहर का विस्तृत आकाश / बिछी हुई धरती का / अपरिमेय विस्तार / स्वयं को बहुत बौना पाता हूं”
यह है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ के चरम अहंकार की घोषणा के विरुद्ध स्वयं की लघुता का सविनय आत्म – स्वीकार- भाव और इसी लघुता- बोध से आती है अहंकार विहीनता की स्थिति और फिर उससे अम्लान निर्दोषिता । वहीं से उठती है एक श्रद्धापूर्ण आस्था भी जो जिंदगी की धूप को झेलने की शक्ति भी देती है और अस्तित्व के खो जाने के भय से भी मुक्त रखती है- “ बालू हूं नदी किनारे का / धूप में तपता / बरफ हूं हर समय गलता।"
ऐसी ही कवि-दृष्टिसम्पन्नता है जो उन्हें रेणु – साहित्य की हरेक बारीकी और पच्चीकारी की व्यापक समझ देती है और इसलिए वह रेणु की कथा-चेतना में अन्तर्गुम्फित यथार्थ और सत्य को रेशावार खोलने में सर्वाधिक सक्षम और सफल हुए है।
मैं भले ही उसी अंचल से आता हूं, लगभग उसी सामाजिक - मानसिक बुनावट के साथ जिसके साथ रेणु के पात्र प्रकट होते हैं तो मुझे उनके शब्द और कथ्य को भेदने में थोड़ी सहूलियत होगी ही, लेकिन पात्र और परिवेश की अंतर्क्रिया के नेपथ्य में जो फुसफुसाहट चलती रहती है वह कभी - भी सर्वकर्णग्राह्य नहीं होती। श्री यायावर के लिए यह सब कभी अश्रुत नहीं रही। उनसे बात करते हुए और रेणु पर उनके विचार - चिंतन पर गौर करने से मुझे बखूबी यह महसूस भी होता रहा है।
मैं यह इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि रेणु की कथात्मकता, बहुत गहरे में महाकाव्यात्मक पीड़ा और ठेठ जीवन - संगीत को समेटते हुए आगे बढती है। इस पीड़ा और संगीत के ‘ अजगुत’ तत्व जहां संभालना कठिन हुआ है वहां टिमटिमाते तीन डॉट बीच – बीच में प्रकट होते हैं और पाठक को चमत्कृत होने का पूरा स्पेश देते हैं। श्री यायावर ने रेणुजी की कथा – यात्रा में ऐसे कई पड़ावों की शिनाख्त की है जहां रेणु की लेखनी चलती नहीं है बल्कि नाचती है लोक जीवन के धूल -धूसरित पैरों में घुंघरू बनकर और गाती है कृष्ण की रसिक मुरली बनकर।
यहां यह कहना अनिवार्य है कि उनकी साहित्यिक यायावरी सिर्फ रेणु के साहित्य - क्षेत्र तक सीमित नहीं रही है। उन्होनें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पर भी उतना ही बड़ा काम किया है। आलोचक – समीक्षक डा. सुरेन्द्र नारायण यादव ने हिन्दी भाषा के विकास और संवर्धन में द्विवेदी और रेणुजी के कार्य को रेखांकित करते हुए जो बातें कहीं हैं उनसे एक चीज तो बिलकुल जाहिर है कि आचार्यजी जहां हिंदी भाषा में शब्दों के मानकीकरण, अनुशासन और मर्यादा की रेखाएं खींच रहे थे ताकि आधुनिक हिन्दी को अखिल भारतीय स्तर पर भाषाई दृष्टि से स्थिर और मजबूत आधार मिल सके, वहीं रेणुजी ‘ मानक’ शब्दों का लगातार अतिक्रमण कर भाषा और शब्द के नये सौंदर्य – बोध गढने की जुगत में लगे थे।
मेरी भी समझ बिल्कुल स्पष्ट हो रही है कि हिन्दी भाषा – साहित्य की आधुनिक परंपरा में आचार्य द्विवेदी अगर राम हैं तो रेणु इसमें कृष्ण हैं। भारतीय प्रज्ञा और चिंतन के दो विपरीत ध्रुव, एक की सारी चिंता और संघर्ष मानकीकृत मूल्य और मर्यादा को लेकर है दूसरे की रूचि और उड़ान, रस और स्वच्छंदता को लेकर है।
श्री यायावर ने दोनों को समान आग्रह और चिंतना से अपने लेखन में समेटा है ताकि हिंदी के रूप और उसकी आत्मा को समग्रता और सम्पूर्णता में देखा जा सके। व्यक्ति-रसिकता और लोक–मर्यादा का संतुलन बिंदु है श्री यायावर का व्यक्तित्व, जिसके और भी कई अनउघड़े पक्ष हो सकते हैं क्योंकि उनकी यायावरी अभी भी जारी है, मुखमंडल पर थकावट या तनाव की कोई रेखा नहीं है और संघर्ष के कुरूक्षेत्र में अभी भी वही आत्मविश्वास है – “आज भी मुस्कुरा रहे हो / लगता है जैसे व्यवस्था के पसरे अंधेरे से / तनिक भी नहीं घबरा रहे हो।”
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दिलीप कुमार अर्श (जन्म : ०५ फरवरी १९७५) पिछले पन्द्रह सालों से कविता, कहानी, आलोचना के क्षेत्र में लेखन कर रहे हैं। उनका प्रथम काव्य-संग्रह- ‘सुनो कौशिकी’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। सम्पर्क : मुख्य प्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक, पणजी सचिवालय शाखा, फैजेंडा बिल्डिंग, पणजी, गोवा – ४०३००१, मोबाइल सं : ७०३०६५४२२३ / ८८०६६६००९, ई-मेल : kumardilip2339@gmail.com
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