मेरी प्यारी सुहानी जी,
आशा है आप स्वस्थ और सानंद होंगी।
क्या आपको पता है कि देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर से जब मैंने पीएचडी की थी, तब मेरी गाइड आदरणीया प्रो प्राची दीक्षित जी एवं वाइवा एक्स्पर्ट जेएनयू के पूर्व उपकुलपति एवं अंग्रेजी विभागाध्यक्ष श्रद्धेय प्रो कपिल कपूर जी ने मुझसे कोई गिफ्ट (लिफाफा) नहीं लिया था; बस विश्विद्यालय से जो मानदेय मिला, वही लिया और प्रसन्नतापूर्वक मुझे आशीष देकर विदा हुए थे। जब घर लौटा तो मैंने अपने पिता जी, जिन्होंने स्वयं अपने जीवन में कभी किसी से रिश्वत, गिफ्ट या अन्य कोई सेवा नहीं ली, को यह बात बताई, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। मुझसे बोले, "मुझे वचन दो कि जीवन में तुम भी कभी किसी छात्र या अन्य किसी से कोई गिफ्ट (लिफाफा) या सेवा नहीं लोगे।"
आज श्री वेंकटेश्वर विश्विद्यालय, गजरौला, अमरोहा में पीएचडी वाइवा (अंग्रेजी) लेने जाने का सुअवसर मिला। आदरणीया डॉ मधुवाला सक्सेना जी की अध्ययनशील छात्रा उरूज जी ने जब वाइवा के बाद उपहार (लिफाफा) देना चाहा (इसमें उनका कोई दोष नहीं, हो सकता है कि उन्होंने इस चलन के बारे में कहीं से सुन रखा हो), तो मैंने यह कह कर मना कर दिया कि कुछ देना ही है तो मुझे अपनी दुआओं में याद कर लेना। भद्र महिला उरूज जी दुबई से हैं और उन्होंने कुछ वर्ष पहले अपने पति को एक किडनी दान की थी। उरूज जी के इस त्याग को प्रणाम कर घर आ गया। आज मन बहुत प्रसन्न है।
अभी बस इतना ही,
आपका,
विशाल
(एक चुप्पे कवि की डायरी से)
13 मार्च 2018
आशा है आप स्वस्थ और सानंद होंगी।
क्या आपको पता है कि देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर से जब मैंने पीएचडी की थी, तब मेरी गाइड आदरणीया प्रो प्राची दीक्षित जी एवं वाइवा एक्स्पर्ट जेएनयू के पूर्व उपकुलपति एवं अंग्रेजी विभागाध्यक्ष श्रद्धेय प्रो कपिल कपूर जी ने मुझसे कोई गिफ्ट (लिफाफा) नहीं लिया था; बस विश्विद्यालय से जो मानदेय मिला, वही लिया और प्रसन्नतापूर्वक मुझे आशीष देकर विदा हुए थे। जब घर लौटा तो मैंने अपने पिता जी, जिन्होंने स्वयं अपने जीवन में कभी किसी से रिश्वत, गिफ्ट या अन्य कोई सेवा नहीं ली, को यह बात बताई, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। मुझसे बोले, "मुझे वचन दो कि जीवन में तुम भी कभी किसी छात्र या अन्य किसी से कोई गिफ्ट (लिफाफा) या सेवा नहीं लोगे।"
आज श्री वेंकटेश्वर विश्विद्यालय, गजरौला, अमरोहा में पीएचडी वाइवा (अंग्रेजी) लेने जाने का सुअवसर मिला। आदरणीया डॉ मधुवाला सक्सेना जी की अध्ययनशील छात्रा उरूज जी ने जब वाइवा के बाद उपहार (लिफाफा) देना चाहा (इसमें उनका कोई दोष नहीं, हो सकता है कि उन्होंने इस चलन के बारे में कहीं से सुन रखा हो), तो मैंने यह कह कर मना कर दिया कि कुछ देना ही है तो मुझे अपनी दुआओं में याद कर लेना। भद्र महिला उरूज जी दुबई से हैं और उन्होंने कुछ वर्ष पहले अपने पति को एक किडनी दान की थी। उरूज जी के इस त्याग को प्रणाम कर घर आ गया। आज मन बहुत प्रसन्न है।
अभी बस इतना ही,
आपका,
विशाल
(एक चुप्पे कवि की डायरी से)
13 मार्च 2018
मेरी प्यारी सुहानी जी,
आशा है आप अब स्वस्थ और आनंद से होंगी।
आपको कुछ बताना चाहता हूँ। पिछले दिनों लगभग 20 वर्ष बाद एक मित्र से फोन पर संपर्क हुआ। बहुत मन से बात की हमने। हम आपस में ऐसे बतियाये कि मानो हमारा बरसों से बात करने का मन हो। अभी मन तृप्त भी नहीं हुआ था कि अचानक चौथे दिन से वह मौनी हो गये, उन्होंने फोन उठाना बंद कर दिया, बात करना बंद कर दिया, जवाब देना भी बंद कर दिया। यदि वह पास में होते, सामने होते तो (बक़ौल वरिष्ठ कवि श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक- 'सामने तुम हो, तुम्हारा मौन पढ़ना आ गया/ आँधियों में एक खुशबू को ठहरना आ गया") उनके मौन को पढ़ा जाता, उन्हें मनाया जाता। लेकिन, कष्ट इस बात का नहीं कि उन्होंने कई दिनों से फोन नहीं उठाया, बात नहीं की या जवाब नहीं दिया; हो सकता है कि उनकी कोई मजबूरी रही हो, स्वास्थ्य ठीक न हो, कुछ और भी समस्या हो सकती है। कष्ट इस बात का है कि वह सोशल मीडिया में सक्रिय हैं (इसे मैं बुरा नहीं मानता) और उनके संदेश वहाँ प्रकाशित भी होते हैं, किन्तु आपसी संवाद से बचते हैं। क्या इक्कीसवीं सदी में हम इतने बदल गये हैं ?
अभी बस इतना ही,
आपका,
विशाल
(एक चुप्पे कवि की डायरी से)
10 सितम्बर 2018
मेरी प्यारी सुहानी जी,
एक अरसे के बाद आज जाने-माने सिंगर मुकेश जी को सुन रहा था- "जिन्हें हम भूलना चाहें, वो अक्सर याद आते हैं/ बुरा हो इस मोहब्बत का, वो क्योंकर याद आते हैं?" कि तभी एक प्रोफेसर साहब याद आ गये। सोचा कि आपको भी उनके बारे में कुछ बता दूँ। पिछले दिनों हमारे निजी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के एक प्रोफेसर ने शरीरिक असमर्थता के चलते त्याग-पत्र दे दिया। वह यहाँ लगभग 5-6 वर्ष से कार्य कर रहे थे। सरकारी विश्वविद्यालय से सेवानिवृत होने के बाद उनकी यह दूसरी पारी थी और यहाँ भी उनका बड़ा दबदबा था। किसी की क्या मजाल जो उनसे कुछ बोल जाय? पढ़ने-पढ़ाने-काम करने का उनका मन हुआ तो कर लिया, नहीं तो आराम किया; मन हुआ तो ताश खेल लिए, चौसर बिछा ली, मण्डली जमा ली; मन नहीं हुआ तो कहीं घूमने-टहलने निकल गये। हाँ, बायोमेट्रिक पर ठप्पा लगाने के समय तक तो लौट ही आते थे। खैर, वह यहाँ से 'ससम्मान' चले गये, किन्तु अपने पीछे अपने तमाम साथी, अनुयायी और साजो-सामान छोड़ गये। इसलिए, यहाँ कुछ बदला नहीं। विश्ववविद्यालय चल रहा है, वैसे ही जैसे पहले चलता था- वैसे ही जैसे देश चल रहा है। कई बार मुझे यह लगता है कि अब "मैं अकेला ही भला क्यों / रात-दिन यह सोचता हूँ / सोचता हूँ आदमीयत को हुआ क्या / कोई तो सोचे है अच्छा क्या, बुरा क्या/ मस्त दुनिया/ मैं ही केवल / बाल अपने नोचता हूँ" (रमाकान्त)।
और क्या कहूँ? आप स्वयं समझदार हैं।
आपका,
विशाल
(एक चुप्पे कवि की डायरी से)
11 सितम्बर 2018
मेरी प्यारी सुहानी जी,
शिक्षक दिवस के कुछ दिन पहले 'बेस्ट टीचर अवार्ड 2018' के लिए कुलपति महोदय ने सभी संकायों के अधिष्ठाताओं को एक बैठक में सम्बोधित करते हुए कहा कि विश्वविद्यालय में कार्यरत आचार्यों और कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें नियमित तरीके से पुरस्कार दिये जाने की योजना है। चयन समिति बनायी गयी। चयन समिति के समक्ष भारी धर्मसंकट। धर्मसंकट यह कि चयन का आधार कुछ भी हो, चयन समिति को कटघरे में ही खड़ा होना पड़ता है; उसे यश और अपयश से एक साथ गुजरना पड़ता है। शिक्षक दिवस को हुआ भी यही। पुरस्कार हेतु नामों की घोषणा होते ही कई आचार्यों के चेहरे लटक गये। आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला चल निकला। अगले दिन सुबह संयोग से अधिष्ठाता-कक्ष में मेरी मुलाकात एक सहकर्मी महिला आचार्य से हुई। उस समय मुझे उक्त महिला बड़ी मायूस दिखीं। मुझसे न रहा गया, मैंने उनसे पूछ ही लिया कि सब खैरियत तो है? वह बोलीं कि पुरस्कारों के चयन में बड़ी धांधली हुयी है। मैंने कहा - कैसे ? वह बोली ऐसे कि पुरस्कार उन्हें नहीं मिला। मैंने कहा कि आपके संकाय में जिन आचार्यों को पुरस्कार मिला, वह डिजर्ब करते हैं, आपके सीनियर हैं, कर्मठ हैं। मायूस न होइये। हो सकता है अगली बार आपको भी पुरस्कार मिल जाय। वह महिला मेरे अप्रत्याशित जवाबों से संतुष्ट नहीं हुई। उस समय वहाँ संकाय के अधिष्ठाता और कई और आचार्य भी मौजूद थे।
अगले दिन पता चला कि उस महिला आचार्य ने विश्वविद्यालय के वरिष्ठ पदाधिकारियों के पास मेरे और संकाय के अधिष्ठाता के विरुद्ध शिकायत दर्ज करवा दी। आरोप यह कि अधिष्ठाता ने दुर्व्यवहार किया और मैंने उन्हें सांत्वना देने की हिमाकत क्यों की? ग्रीवांस कमेटी में मामला पहुँचा। पेशी हुई। ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, विद्वान् अधिष्ठाता ने कहा कि मैंने कभी किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया और यदि किया है तो 05 सितम्बर के समारोह के बाद ही शिकायत क्यों, पहले क्यों नहीं? दूसरा यह कि मैडम जी मेरी आँखों में आँखें डालकर बोलें कि मैंने उनसे आखिर ऐसा क्या कह दिया। महिला आचार्य चुप। अब मेरी बारी आयी। मुझसे पूछा गया कि आप कौन होते हो सांत्वना देने वाले? मैंने कहा वह मेरी कलीग हैं, सदाशयतावश पूछ दिया। उस दिन जैसे-तैसे इस मामले से छुटकारा मिला। पर स्थिति वही थी - 'आसमान से गिरे, खजूर पर लटके।'
उस महिला आचार्य के पति दरोगा हैं। उनके पतिदेव ने जब देखा कि ग्रीवांस कमेटी में शिकायत करने से कोई फायदा नहीं हुआ, तब जिस आचार्य को पुरस्कार मिला था उसे ही एक दिन सुबह अकेला देख उन्होंने धमका दिया। इतने पर भी मन नहीं भरा। अगले दिन अधिष्ठाता के पीछे गाड़ी लगाकर उन्हें डराने के लिए उनकी घेराबंदी भी कर दी (यह दीगर बात है वह बुजुर्ग डरे नहीं)। परन्तु, पता नहीं क्यों मुझे उन्होंने बख्श दिया! उस दिन से बार-बार नचिकेता जी याद आते हैं - "पूरी नींद न हम सो पाते/ अब तक मिले दिलासे से/ जब तक सोने बदले/ गए यहाँ हैं पीतल-काँसे से/ पानी कहाँ रखे हम/ पेंदी तक हैं/ चिसक गए मटके।"
इस थोड़े लिखे को ही बहुत समझ लेना।
आपका,
विशाल
(एक चुप्पे कवि की डायरी से)
12 सितम्बर 2018
मेरी प्यारी सुहानी जी,
एक अरसे के बाद आपको पत्र लिख रहा हूँ , अन्यथा नहीं लेंगी। इधर बहुत व्यस्तता रही। अंग्रेजी विभाग में इकलौता सह-आचार्य होने के कारण (अन्य सभी अतिथि सहायक आचार्य हैं) विभाग को सुचारु रूप से चलाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पडी। स्नातक, परास्नातक और शोध छात्रों की पढ़ने-लिखने की समुचित व्यवस्था करने में दो-ढाई महीने कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला। कुछ अन्य कारणों से भी व्यस्त रहा— समय-समय पर विश्वविद्यालय के तमाम फरमान आते रहे कि कभी यह दस्तावेज बनाना है, तो कभी वह ड्राफ्ट तैयार करना है— कभी विश्वविद्यालय में विज्ञान पीठ, सामाजिक विज्ञान पीठ, व्याख्यानमाला आदि के प्रारूप तैयार किये और उनकी नियमावली बनायी, तो कभी उनका अंग्रेजी अनुवाद किया— कभी माननीय कुलपति जी का पत्रिका के लिए सन्देश लिखा, तो कभी माननीय कुलाधिपति जी के लिए कुछ लिखना-पढ़ना हुआ। चूँकि मैंने यह सब अपने परम श्रद्धेय अधिष्ठाता महोदय के कुशल निर्देशन में ही किया, इसलिए मुझे बहुत अधिक कठिनाई नहीं हुई। हाँ, कहने को तो इन दिनों अकबर इलाहाबादी साहब बहुत याद आये— 'हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए/ बी-ए किया, नौकर हुए, पेंशन मिली, फिर मर गए।'
परन्तु, यह इतना भी महत्वपूर्ण नहीं है कि इसे इस चिट्ठी में लिखा ही जाना चाहिए था ! खास तो यह है कि आज प्रशासनिक भवन से फोन आया कि प्रथम दीक्षांत समारोह की आयोजन समिति के सभी सदस्यों से कुलपति महोदय बातचीत करना चाहते हैं। फोन सुनकर लगा कि हो सकता है कि कुलपति महोदय दीक्षांत समारोह के उपरान्त कर्मयोगियों का धन्यवाद ज्ञापन करना चाहते होंगे, उन्हें प्रोत्साहित करना चाहते होंगे। सो बड़ी उत्सुकता से मिनी कॉन्फ्रेंस हॉल में पहुँच गया। देखा कि सभी सदस्य, अधिष्ठातागण, परीक्षा नियंत्रक, कुलसचिव महोदय आदि पहले से ही धूनी रमाये बैठे थे, कि तभी कुलपति महोदय का हॉल में प्रवेश हुआ। गुड-मॉर्निंग हुई। सत्र प्रारम्भ। कुलपति महोदय अपने निराले अंदाज़ में बोले— "हाँ, भई, कार्यक्रम तो अच्छा हुआ। बधाई। किन्तु, कुछ कमियाँ भी रही होंगी। बताइये। खुलकर बोलिये।" भोजन समिति के समन्वयक से न रहा गया, झट से बोल पड़े— "कुछ खाना कम पड़ गया था, साब।" कुलपति महोदय शायद इसी मौके की तलाश में थे। उन्होंने भोजन समिति के समन्वयक को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि जब आपको पता ही नहीं है कि किसको भोजन कराना है और किसको नहीं, ऐसी समस्या तो आएगी ही। फिर उन्होंने एक-एक करके सभी समन्वयकों को डाँटा-फटकारा। कई लोगों को तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर उनसे क्या अपराध हो गया। ऐसे में कोई बोले तो क्या बोले और क्यों बोले — "बिंदिया बोले क्या बोले साथ सजन का छूटे ना"— बस किसी प्रकार से नौकरी चलती रहे, कुर्सी बची रहे। ये और बात है कि चलते-चलते कुलपति महोदय ने फिर से कह दिया जिसको काम नहीं करना है वह नौकरी छोड़ कर जा सकता है।
और क्या लिखूँ ? आप तो स्वयं समझदार हैं।
आपका,
विशाल
(एक चुप्पे कवि की डायरी से)
8 अक्टूबर 2018
मेरी प्यारी सुहानी जी,
आशा है आप अब स्वस्थ और सानंद होंगी।
शाम 6:00 बजे 'थम्ब इंप्रेशन' देने के बाद 'एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक' स्थित ऑफिस से बाहर आया तो देखा कि मौसम थोड़ा ठंडा हो रहा है। मौसम ठंडा होने पर अक्सर शाम को मन यही करता है कि कहीं आया-जाया न जाय, बस घर ही लौट चला जाय— "लौट चलो घर पंछी जोड़ा ताल बुलाता है" (श्रद्धेय कैलाश गौतम जी)। हालांकि उस दिन आसमान में न तो काली घटाएँ थीं और न ही धुंध-कुहरे के निशान। यानी कि मौसम इतना ठीक तो था ही कि बाहर निकला जा सके।
संयोग से उसी समय ऑफिस के दो महत्वपूर्ण पदाधिकारी बाइक पर सवार होकर 'शर्मा नगर' की दिशा में जाते दिखाई पड़े। एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक से 'शर्मा नगर' जाने के लिए परिसर के दो गेट पार करने होते हैं— पहला डेंटल कॉलेज के कम्पाउंड में प्रवेश करने के लिए एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक के बाँयी ओर और दूसरा डेंटल कॉलेज के परिसर से बाहर जाने के लिए। बाहर जाने के लिए एक और भी रास्ता है, मेडिकल कॉलेज की तरफ से। इसका मतलब यह नहीं कि डेंटल कॉलेज के गेटों से लोग आते-जाते नहीं हैं। आते-जाते तो हैं, कभी निर्धारित समय पर, तो कभी दिन के किसी भी समय।
उस शाम मुझे जाने क्या हुआ— उन दो लोगों का चुंबकीय आकर्षण था या मेरे ही मन की कुछ उधेड़बुन, कुछ हड़बड़ी या कुछ गड़बड़। पता नहीं। मन उधर ही जाने को कहने लगा यह विचार किये बिना कि क्या पुनः इधर से जाना ठीक रहेगा भी कि नहीं! सो जाने-अनजाने अपनी बाइक उधर ही मोड़ दी, उन्हीं के पाँच-दस कदम पीछे-पीछे।
उन लोगों की बाइक बड़ी आसानी से पहले गेट से निकल गई। पहले भी निकलती थी। इसमें भला आश्चर्य कैसा! लेकिन जैसे ही मैं अपनी बाइक उस गेट के पास लेकर पहुँचा वैसे ही उस मुस्तैद युवा गार्ड ने गेट बंद कर दिया। मैंने बड़े प्यार से गार्ड से कहा, "भाई, मुझे भी निकल जाने दीजिए।" पहले तो उसने घूरकर देखा मानों मैंने बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो और फिर जवाब दिया, "आप को निकलने की इजाजत नहीं है।" मुझसे न रहा गया। मैंने उससे बड़ी विनम्रता से पूछ ही लिया, "ऐसा क्यों?" उसने तपाक से कहा, "जो लोग एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक में काम करते हैं, सिर्फ वे ही लोग यहाँ से आ-जा सकते हैं।" मुझे लगा कि मैं भी अपने बारे में इसे बता दूँ (यद्यपि वह रोज ही मुझे उस ऑफिस/एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक में आते-जाते देखा करता है), फिर सोचा क्या फायदा। पहले भी तो बता चुका हूँ। एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक में कार्यरत मेरे एक-दो मित्र भी तो उसे बता चुके हैं। लेकिन बुद्धि ने कहा कि एक बार और कोशिश करने में क्या हर्ज है। मैं बोल पड़ा, "भाई, मैं भी आजकल इसी ऑफिस में रिपोर्टिंग करता हूँ।" वह टस से मस न हुआ ।
अब तक मुझे कुछ समय पहले की एक-दो नाकाम कोशिशें भी याद आ ही चुकी थीं। एक तो कुछ सप्ताह पहले की ही घटना है। दोपहर का समय था। ऑफिस से अनुमति लेकर मुझे अपने बेटों की फीस भरने के लिए उनके स्कूल जाना था। उसी दिशा में। डेंटल की तरफ। बाइक लेकर गेट पर पहुँचा तो गार्ड ने दरवाजा खोलने से मना कर दिया। क्या करता। बाइक दूसरी दिशा में मोड़ने लगा कि तभी एक कार पहले गेट की ओर आती दिखाई दी। मैं रुक गया। देखने लगा कि क्या यह गार्ड कार को जाने देगा या वापस करेगा। गार्ड ने, नियम को ताक पर रख, कार के लिए दरवाजा खोल दिया। मैं आज तक नहीं जान पाया कि आखिर क्यों गार्ड ने उस कार वाले (यह कार वाला व्यक्ति मुझे आज तक एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक में दिखाई नहीं दिया) के लिए गेट खोल दिया? यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि साइकिल या बाइक पर चलने वाला आदमी किसी साइकिल या बाइक सवार आदमी को आदमी नहीं समझता है!
आज फिर मैंने अपनी बाइक मोड़ ली और मेडिकल कॉलेज की तरफ जाने वाले रास्ते की ओर चल पड़ा कि तभी एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक के बाहर तैनात उस भले गनमैन ने यह सब देख लिया। उसने दूर से ही आवाज देकर गार्ड से कहा, "सर को जाने दो।" गार्ड ने झल्लाकर गेट खोल दिया। कुछ बड़बड़ाते हुए। और इधर मेरी डबडबायी आँखों में लहरा रहे थे श्रद्धेय दिनेश सिंह, कुछ इस तरह—
लो वही हुआ जिसका था डर,
ना रही नदी, ना रही लहर।
संकल्प हिमालय-सा गलता,
सारा दिन भट्ठी-सा जलता,
मन भरे हुए, सब डरे हुए,
किसकी हिम्मत, बाहर हिलता
है खड़ा सूर्य सर के ऊपर,
ना रही नदी ना रही लहर।
अभी बस इतना ही,
आपका,
विशाल
(एक चुप्पे कवि की डायरी से, 11 फरवरी 20)
Letters to My Dear Suhaniji - Abnish Singh Chauhan
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