माहेश्वर तिवारी और रमाकांत |
नवगीत विमर्श में यशस्वी कवि
एवं आलोचक रमाकांत
जी (रायबरेली) की
निम्नलिखित गीत के
मुखड़े पर एक
महत्वपूर्ण टिप्पणी आयी है।
इसे पढ़कर आपको
क्या लगता है?:
गर्दन पर, कुहनी
पर जमी हुई
मैल-सी
मन की सारी
यादें टूटे खपरैल-सी
आलों पर जमे
हुए मकड़ी के
जाले
ढिबरी से निकले
धब्बे काले-काले
उखड़ी-उखड़ी साँसे हैं
बूढे बैल-सी
हम हुए अंधेरों
से भरी हुई
खानें
कोयल का दर्द
यह पहाड़ी क्या
जाने
रातें सभी हैं
ठेकेदार की रखैल-सी।
"नवगीत की इन
पंक्तियों को जरा
गौर से पढ़े
और समझें। क्या नवगीत
इसी तरह के
बिम्ब प्रतीकों को
अपनी सर्जनात्मक उपलब्धि
मानता है। क्या ये
प्रतीक शब्दों का कोई
तिलिस्म नहीं रचते? यह शब्दों
से खेलने जैसा
नहीं है क्या? कोई गहरी संवेदना
और अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति
देने में सक्षम
हैं ये प्रतीक? क्या ये
प्रतीक गीतकार की गहरी
साधना का प्रतिफल
लगते हैं या
कि कहन की
कोई हवाई तकनीक
की निपुणता से
अनायास आ ही
जाते हैं? कहीं
संवेदना का यथार्थ
चिथड़े-चिथड़े होकर अपना
अस्तित्व ही तो
नहीं खो दे
रहा? क्या हम
नवगीत में ऐसे
ही बिम्ब प्रतीक
चाहते हैं मायावी
किस्म के? निर्णय
आपको ही करना
है क्योंकि आप
नवगीत के सर्जक
और सहयात्री हैं! हां, जैसा
कि आप को
मालूम ही होगा- ये पंक्तियां एक महान
नवगीतकार की है!"
- रमाकान्त, रायबरेली, उ प्र
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Link of Facebook Discussion: Dec 07, 2015: CLICK
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Ganesh Gambhir (गणेश
गंभीर): देखिये!..मैने लखनउ
मे सब के
सामने यह बात
कही थी कि
नवगीत को समाजवाद
की तरह मनमाने
ढंग से व्यवहार
में न लाया
जाय अमूर्तन पर
विचार भी अमूर्तन
ही करेगा अब
आलोचकों को दोष
क्यों?
Anil Janvijay (अनिल
जनविजय): रमाकान्त जी को
इन दो बिम्बों
में, इन दो
प्रतीकों में क्या
नागवार गुज़रा, मैं समझ
नहीं पाया। दोनों
बिम्ब अगर अलग-अलग रखकर
देखें तो यादों
और स्मृतियों के
साथ उनका गहरा
नाता बन सकता
है। और नवगीत
में इस तरह
के बिम्ब-प्रतीकों
को शामिल क्यों
नहीं किया जाना
चाहिए, क्या रमाकान्त
जी यह बात
स्पष्ट करेंगे।
Devendra Arya (देवेन्द्र
आर्य): इसमें अमूर्तन
और पिछड़ापन कहां
है? यही बिम्ब,
प्रतीक नई कविता
में आता तो
अद्भुत कहा जाता
। गीत में
है तो पिछड़ी
संवेदना है ।
वाह!
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अवनीश सिंह चौहान: यहाँ पर सौरभ
पाण्डे जी, भारतेंदु
मिश्र जी और
मनोज जैन मधुर
जी की टिप्पणियां
उद्धृत करना चाहता
हूँ। हालाँकि ये
टिप्पणियां नवगीत विमर्श में
29 जुलाई 2015 ... (चाहे कफन
का हो/चाहे
हवन का हो/धुंए का
रंग एक है।
(#रमानाथ अवस्थी)-रमानाथ जी
की ये पंक्तियां
मुझे एक समय
मे बहुत प्रभावित
करती थीं।किंतु जब
इन पक्तियो की
विवेचना की तो
अर्थ निकालने मे
समस्या आयी। नवगीतकार
मित्र भी जरा
देखें और कोशिश
करें। हालांकि जब
वो इन पंक्तियो
को गाते थे
तो एक जादुई
धुन समा बांध देती थी
।) ... को की
गयी थी। आप
भी देखेंगे:
1. Saurabh
Pandey (सौरभ पांडेय): भारतेन्दुजी, आपने
सही कहा है,
कि ऐसी पंक्तियाँ
वाकई समा बाँध
देती हैं. वस्तुतः,
ऐसी कई पंक्तियाँ
ही नहीं कई
रचनाएँ भी हैं
जो अपनी अद्भुत
शाब्दिकता, अप्रतिम तुकान्तता और
कुछ उनके सप्रवाह
राग-लय में
वाचन के कारण
मनाकाश पर ’निम्बस
क्लाउड’ की तरह
आच्छादित हो जाती
हैं, और, सदैव
बरसती हुई आप्लावित
करती रहती हैं,
जबतक ऐसी पंक्तियों
की तार्किक मीमांसा
न की जाये.
फिर तो आप्लावित
हृदय को झटका
लगता है.
2. Bhartendu Mishra (भारतेन्दु मिश्र): अब कफन से
धुआँ निकलता शायद
ही किसी ने
देखा हो. निकलता
ही नहीं. फिर
हवन से निकलते
धुएँ का इन
संदर्भों में कैसा
बखान? परन्तु, सस्वर पाठ
से बने वातावरण,
बड़े नाम की
ठसक और रूमानियत
से मोहित होती
आयुदशा, ये सब
मुग्धावस्था का कारण
बन जाती हैं.
नवगीत इन्हीं तथाकथित
लालित भावदशा और
शाब्दिक कौतुक के विरुद्ध
तार्किकता के साथ
यथार्थ को वैधानिक
रागात्मकता के साथ
जीते और जिलाते
हैं. 29 July at 20:30
3. Saurabh Pandey (सौरभ पांडेय): Bhartendu Mishra जी ये
जो ललित भावदशा
है वह संगीत
का विषय है
कविता का नही।कविता
संगीत से पृथक
कला माध्यम है। साहित्य
और संगीत दो
अलग चीजें हैं। फिल्मो
मे भी गीतकार
,गायक,संगीतकार,अभिनेता
सब अलग होते
हैं। उत्सवधर्मिता के लिए
ये तालीपिटाऊ गीतकार
जो पहले ही
ताली बजवाने का
आग्रह करके वाह
वाह की धुन
पर प्रमुदित होते
हैं और श्रोताओ
को द्विअर्थी पंक्तियो
और हावभाव से
भी मस्त करते
हैं-अच्छे लगते
हैं..लेकिन गंभीर
कविता और विचार
विमर्श के लिए
इनका कोई अर्थ
नही होता।
3. Manoj
Jain Madhur (मनोज जैन मधुर):
मैं आपसे सहमत
हूँ आदरणीय भारतेंदु
भाई साहब दरअसल
ऐसा सोच विश्लेषण
दृष्टि की परिपक्वता
के बाद ही
आता है ऐसे
कई फ़िल्मी गीत
भी है जो
सुनने भर के
लिए कर्णप्रिय हैं
अर्थ के स्तर
पर उनमे भी
कोई ताल मेल
नहीं है ।
.......................................................................
Anil Janvijay: कफन
का हो/चाहे
हवन का हो/धुंए का
रंग एक है।
(#रमानाथअवस्थी) किसी भी
रचना के सिर्फ़
शब्दों को नहीं
देखना चाहिए, उसके
भावार्थ और उसकी
आत्मा को भी
देखना चाहिए। कफ़न
का मतलब यहाँ
सिर्फ़ कफ़न से
ही नहीं, बल्कि
चिता से भी
है।
Ramakant Yadav (रमाकांत
(रायबरेली): जनविजय
जी एवं देवेन्द्र
आर्य जी, अमूर्तन और
निराकारी आयामों के सहारे
तो हम किसी
भी चीज को
कही से भी
जो जोड़कर अपनी
व्याख्या दे सकते
हैं। परन्तु नवगीत
में और करीब-करीब सभी विधाओं
में हम इसी
अमूर्तन के खिलाफ
लड़ाई लड़ रहे
हैं। यह पाठकों को उसकी
वास्तविक दुनिया से काटकर
उसे मायावी लोक
की कल्पनाशीलता में
ले जाकर भटका
भर देना है। मन
की यादों को
गर्दन और कुहनी
पर जमे मैल-सा
बताना क्या शब्दों
का जादुई
तिलिस्म रचना नहीं
है? पाठक एकबारगी मन की
यादों को किसी
वास्तविक धरातल पर टिकाकर
कुछ समझ सकता
है? कुहनी या
गर्दन पर मैल
क्यों कब कैसे
जमता है यह
बिल्कुल अलग कारणों
से है।स्मृतियों की
गति आंतरिक है। उसकी
जमें मैल से
तुलना करना कैसी
संगति है। मैं
कहता हूं ऐसे
बिम्ब-प्रतीको के
सहारे समकालीन कविता
को अर्थ देना
चमत्कारिक और जादुई
तो हो सकता
है पर यथार्थपरक
और अर्थपरक
बिल्कुल नहीं। नवगीत की तमाम
समस्याओं में एक
समस्या यह भी
है कि लोग
ऐसे-ऐसे बिम्ब-प्रतीक प्रयोग करते हैं
जो उनके देखे
नहीं होते, वरन्
गढ़े होते हैं
और अर्थ को
खोलने के बजाय
उसे उलझा देते
हैं अथवा एक
विशेष किस्म के
अमूर्तन में ले
जाते हैं। क्या आप
यह बताएंगे कि
नवगीत का बीज
डालने वाले निराला
ने अपने गीतों
को वाहियात किस्म
के बिम्ब-प्रतीकों
में ले जाकर अभिव्यंजित
किया हो? क्या मैं
पूछ सकता हूं
कि गीतकार ने
मन की सारी
यादों को मैल
कैसे कह दिया?और टूटा
खपरैल भी? मैल
और खपरैल में
सिवाय तुक के
मिलता भी क्या
है। कहना बस इतना
है कि हम
बिम्ब प्रतीकों पर
काम नहीं करते
और जादुई प्रभाव
के चक्कर में
बेमेल प्रतीकों का
इस्तेमाल कर बैठते
है। हो सकता है
कलावादियों के लिए
यह अच्छा हो,
पर कविता को
यथार्थ की समुचित
अभिव्यक्ति देने और
समझने वाले के
लिए यह उलझाव
कतई अच्छा नहीं।
Ramakant Yadav: देवेन्द्र
आर्य जी, नई
कविता में ये
बिम्ब प्रतीक कतई
अच्छे नहीं कहे
जाएंगे। फिर आपका जनवाद
वहां मात खा
जाएगा। वैसे आपने
गोरखपुर की प्रशस्ति
में जो ग़ज़ल
लिखी है वह
मैने पढ़ी है। वहां
भी प्रशस्ति गान
के चक्कर में
यथार्थ को छोड़
बैठे हैं। यह एक
जनवादी या प्रगतिशील
कवि की दृष्टि
नहीं हो सकती।
Devendra Arya: यह
चूंकी व्यक्तिगत मेरी
कविता पर आलोचना
है, इस लिए
मैं इसका जवाब
नहीं दूँगा ।
हाँ 'आपका' जनवाद
कह कर आप
बता रहे हैं
कि या तो
आपको जनवाद से
समस्या है या
फिर आप का
अपना कोई व्यक्तिगत
जनवाद है ।ग़ज़ल
आपने पढ़ी, शुक्रिया!
Anil Janvijay:
बाँधो
न नाव इस
ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव,
बंधु!
यह घाट वही
जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती
थी धँसकर,
आँखें रह जाती
थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों
पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत
कुछ कहती थी,
फिर भी अपने
में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती
थी,
देती थी सबके
दाँव, बंधु!
Anil Janvijay: रमाकान्त
जी, आपने निराला
की बात की
है। उनका यह
एक नवगीत लेते
हैं। इसमें आँखें
रह जाती थीं
फँसकर -- आपके अनुसार
इस पंक्ति को
मूर्त रूप में
देखें तो कवि
उसकी नग्नता का
ही ज़िक्र कर
रहा है। उस
नंगी स्त्री का
शरीर ही लुभाता
था क्योंकि वह
नहा रही होती
थी। यहाँ आप
अमूर्त मत होइए,
कल्पना मत कीजिए
और गीत की
मूर्त व्याख्या कीजिए।
मैं आपकी व्याख्या
सुनना चाहता हूँ। आपने
लिखा है कि
स्मृतियों की गति
आंतरिक है।उसकी जमें मैल
से तुलना करना
कैसी संगति है।
यहाँ कवि फिर
यह क्यों कह
रहा है कि
-- बाँधों न नाव
इस ठाँव, बन्धु
! पूछेगा सारा गाँव,
बन्धु ! नाव उस
जगह पर न
बाँधने की बात
कहना क्या अमूर्तन
नहींं है?
Ramakant Yadav: जन
विजय जी, इस
कविता में न
तो अस्वाभाविक कुछ
है न तो
अमूर्तन। यह डलमऊ के
गंगा-घाट की
कविता है जहां
वे रहते थे
और नौकाविहार
करते थे।यह सामान्य
सी स्वाभाविक उद्गार
की कविता है। इसमें
कोई भी बिम्ब
प्रतीक नहीं है। संकोची
यथार्थ की अभिव्यक्ति
है मात्र।
Anil
Janvijay: आप जानते हैं डलमऊ
के उस घाट
को। और जो
लोग नहीं जानते।
उनके बीच यह
गीत क्यों लोकप्रिय
है? आप इसे
कविता मानते हैं
और मैं नवगीत।
बस, यही फ़र्क
है हमारी और
आपकी समझ में।
Ramakant
Yadav: जनविजय जी,
मैने नवगीत को
ही कविता कहा
है। मैं नवगीत समझता हूं
महोदय। रही बात निराला
के इस गीत
के लोकप्रिय होने
की बात तो
कई बार लोग
हल्की बात को
भी लोकप्रिय बना देते
हैं।यह न जानने
का ही मामला
है। मैं डलमऊ के
निराला और डलमऊ
के घाटों को
जानता हूं। बस इतना
ही कि यह
एक सामान्य अनुभूति
की कविता है। चलताऊ
किस्म की। नासमझ लोगों
ने ही इसे
इतना महत्व दिया
है बिना इसकी
उत्पत्ति को जाने
समझे। निराला ने हर
तरह की कविताएं
कही हैं। चलताऊ भी
और गम्भीर भी।वे
अपने व्यक्तित्व में
भी ऐसे ही
थे। गम्भीर जीवन जीने
वाले और मौज
मस्ती करने वाले
भी। बहुत सी कविताएं
चलते घूमते भी
कह लिया करते
थे। बाद में उनकी
हर पंक्ति को
महत्व मिल गया, जैसा
कि लोग करते
आये हैं। यह
गीत भी वैसा
ही है।
Devendra Arya: फिर
तो आकाश में
खिड़कियों का खुलना
या खिड़की से
हाथी का कमरे
में घुस आना
ये सब लिखने
वाले ख़ारिज करने
योग्य हैं। कविता
को जी.ओ.
या कानून की
किताब मत बना
दीजिये।
Anil Janvijay: रमाकान्त
जी, जवाब दीजिए।
और यह सामान्य
या स्वाभाविक उद्गार
नवगीत क्यों नहीं
है, यह भी
बताइए।
Ramakant Yadav: जनविजय जी, क्या
आपको लगता है
कि अपनी स्मृतियों
में जीते हुए
हमें कोहनी
और गर्दन का
मैल याद आता
है? कोई जरूरी
नहीं कि हर
अभिव्यक्ति के लिए
बिम्ब और प्रतीक
की खोज ही
करें।बिना बिम्ब और प्रतीक
के भी बात
कही जा सकती
है। अनुभव से
न गुजर कर
जब हम शब्दों
का खेल खेलने
लगते हैं ते
समस्या वहीं उठ
खड़ी होती है। और
यह समस्या है
बहुतों के साथ। कई
कथित महानों के
साथ भी।
Ganesh Gambhir: यह
अच्छी बात है
कि नव गीत
कार शब्द - अर्थ
सम्बन्धों के महत्व
पर इस तरह
विमर्श कर रहे
हैं.ध्यान रहे
शब्दप्रकट होते ही
अर्थ प्रकट करते
है अर्थ पाठक की
ग्रहण शीलता पर
भी निर्भर करता
है. कविता में
कभी-कभी अर्थ
से ज्यादा महत्वपूर्ण
प्रतीति होती है..यह दो
दुनी चार जैसा
नहीं है
Anil
Janvijay: अभी रमाकान्त जी यादव
को यह समझने
के लिए बहुत
पढ़ना होगा।
Ganesh
Gambhir: हम सभी बहुत
कम जानते हो
सकते हैं .जानने
की सीमा सीमाहीन
है
Ramakant
Yadav: हम दोदूनी चार जैसी
बात नहीं कर
रहे हैं गणेश
गम्भीर जी। मैने केवल बिम्ब-प्रतीकों के अनावश्यक
और बेमेल प्रतीकों
की तरफ इशारा
किया है और चाहा
है कि लोग
इस पर विचार
करें। मेरी किसी व्यक्ति
विशेष से दुश्मनी
नहीं है।
Ramakant
Yadav: जनविजय जी, मुझे नहीं मालूम
कि मुझे क्या
पढ़ना चाहिये। दरअसल ज्यादा
पढ़े लिखे ही
शब्दों से खेलते
हैं। वे अपने अनुभवजन्य सत्य से
अक्सर चूक ही
जाते हैं। असली सृजन
जीवन और जगत
को खुली आंखों
से देखने पर आता
है। आपकी दृष्टि विकसित नहीं
है तो सारा
पढ़ा लिखा दो
कौड़ी का। बहरहाल मुझे
जो कहना था
कह चुका। आप भी
स्वतंत्र हैं कुछ
कहने के लिए। आप
मुझसे असहमत हैं
तो भी आपका
स्वागत है। बस इतना ही।
Ganesh
Gambhir: मैनें जो कहा
वह एक सामान्य
कथन है. आप
के विचार भी
इस कथन का
ही समर्थन कर
रहे हैं कि
काव्यमें अर्थ संधान
वस्तु के भाव
बनने कीप्रक्रिया.है
अवनीश सिंह चौहान: यह बहस निराला
पर नहीं, उपर्युक्त
पंक्तियों पर है,
उनके बिम्ब विधान
पर है। विद्वतजन
बताएँगे कि यादें
'गर्दन पर कुहनी
पर जमी हुई
मैल सी' कैसे
होती हैं?
Anil
Janvijay: जिस तरह गर्दन
पर और कुहनी
पर मैल धीरे-धीरे जमा
होता चला जाता
है, वैसे ही
यादें भी पकती
चली जाती हैं।
आपको अपने जीवन
का हर पल
याद नहीं रहता,
सिर्फ़ वे कुछ
यादें ही रह
जाती हैं, जो
मैल की तरह
आपके मन में
छूट जाती हैं।
अभी बस, इतना
ही संक्षेप में।
अवनीश सिंह चौहान:
Ramakant Yadav ji said:जन विजय जी
क्या आपको लगता
है कि अपनी
स्मृतियों में जीते
हुए हमें हमें
कोहनी और गर्दन
का मैल याद
आता है?कोई
जरूरी नहीं कि
हर अभिव्यक्ति के
लिए बिम्ब और
प्रतीक की खोज
ही करें।बिना बिम्ब
और प्रतीक के
भी बात कही
जा सकती है।
अनुभव से न
गुजर कर जब
हम शब्दों का
खेल खेलने लगते
हैं ते समस्या
वहीं उठ खड़ी
होती है।और यह
समस्या है बहुतों
के साथ।कई कथित
महानों के साथ
भी।
Anil
Janvijay: आप भी रमाकान्त
जी की तरह
अगर निराला के
इस गीत को
चलताऊ मानते हैं
तो आपसे कविता
पर यहाँ फ़ेसबुक
पर चर्चा नहीं
हो सकती। जब
बैठेंगे साथ-साथ
तो कविता पर
चर्चा करेंगे।
अवनीश सिंह चौहान:
मैं पहले ही
कह चुका हूँ
कि हम निराला
पर चर्चा नहीं
कर रहे हैं।
आप नाराज मत
होइए।
Anil
Janvijay: निराला की बात
नहीं है। बात
कविता की समझ
की है। आपसे
बहुत लोग यह
कहते होंगे कि
वे आपके दोस्त
हैं। लेकिन उनमें
से कितने दोस्त
हैं, यह बात
भी आप समझते
हैं। एक ही
शब्द का प्रयोग
अलग-अलग स्तरों
पर होता है।
वैसे ही एक
ही बिम्ब या
प्रतीक का प्रयोग
अलग-अलग स्तरों
पर होता है।
और हर स्तर
पर उसके मायने
बदल जाते हैं।
हर पाठक के
लिए भी उसके
अर्थ, उसकी अनुभूति,
उसकी पहचान अलग-अलग होती
है।
Ramakant
Yadav: हम स्मृतियों को मैल
क्यों मानें? माना
कि स्मृतियां जमती
हैं पर मैल
की तरह ही
क्यों? फिर कुहनी
और गर्दन के
मैल की तरह
ही क्यों? स्मृतियां
तो स्मृति पटल
पर जमी ही
रहती हैं पर
गर्दन और कुहनी
के मैल की
तरह नहीं। यह स्मृतियों
के साथ अन्याय
है, धोखा है
स्मृतियों के साथ न होकर मैल के साथ हो जाना है, शब्दों का जादू डालना है, पाठकों को भटकाना है, धोखे में रखना है और स्वयं का ज्ञानपूर्ण अवस्था में न होना है, स्मृतियों को वाकई न समझ पाना है, कला को आत्मसात न कर पाना है। गुनगुनाना है। बस गुनगुनाना है। राग रागिनी में खो जाना है।
Gurpreet
Singh Lecturer Hindi (गुरप्रीत
सिंह): महत्वपूर्ण ये है
कि सामान्य पाठक
इस रचना को
किस तरह लेता
है। आप बुद्धिजीवी
और आलोचक हो
और हम एक
सामान्य पाठक जो
कि यादोँ को
गर्दन पर जमी
मैल जैसे कथनोँ
पर हँसता है।
कुछ सार्थक लिखिएगा।
अवनीश सिंह चौहान:
आप सभी की
टिप्पणियों के लिए
ह्रदय से आभार।
बताना चाहूँगा कि
: 'गर्दन पर कुहनी
पर जमी हुई
मैल सी/ मन
की सारी यादें
टूटी खपरैल सी'
- ये पंक्तियाँ वरिष्ठ
नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी
की हैं।
Saurabh
Pandey: अवनीशजी, यह पोस्ट
अभी-अभी देखा
हमने। नवगीत विधा
को लेकर एक
सार्थक बहस के
प्रति आग्रह हेतु
हार्दिक धन्यवाद । यह
सिलसिला बना रहे।
समयानुसार अवश्य उपस्थित होऊँगा।
Pankaj Parimal (पंकज
परिमल): दो बिम्ब
हैं यहाँ--1 जमा
हुआ मैल; 2 टूटी
हुई खपरैल। इस
आंत्यानुप्रसिकता के रचावगत
संयोग या बेहद
आयासिक प्रवृत्ति पर यदि
ध्यान न केंद्रित
करें तो इन
दोनों बिम्बों पर
ध्यान दिया जा
सकता है।रही बात
सम्मोहन और व्यामोह
की,तो ये
भी कविता की
एक प्रकार की
वशीकरण शक्ति हैं और
यह शक्ति कविता
के पास क्यों
नहीं होनी चाहिए,कोई बताएगा?
क्या कुहनी और
गर्दन पर जमा
हुआ मैल भावक
के हृदय में
जुगुप्सा पैदा कर
रहा है? क्या
यह बिम्ब इसलिए
अग्राह्य है कि
यह अभिजातता के
खिलाफ रचा जा
रहा है? क्या
यह इसलिए अग्राह्य
है कि यह
रचने के बजाय
जबरदस्ती चिपकाया हुआ और
थोपा हुआ है?शायद हम
इन बिम्बों का
विश्लेषण करने के
बजाय अपनी व्यक्तिगत
पसन्द और नापसन्द
के आधार पर
इनसे पीछा छुड़ाना
चाहते हैं और
कवि और कविता,
दोनों को ही
किनारे लगाना चाहते हैं।मुझे
नहीं मालूम कि
ये पंक्तियाँ किनकी
हैं और पूरी
कविता का संदर्भ
क्या है।यह लगभग
वैसा ही आयास
है जैसा कि
ढोल गँवार शूद्र
पसु नारी की
पंक्ति के आधार
पर तुलसी को
अस्वीकार करना।मंचीय प्रवृत्तियों पर
किसी को कुछ
भी कहने से
मैं नहीं बरजना
चाहता पर आदरणीय
भारतेंदु जी से
यह अवश्य निवेदन
करना चाहता हूँ
कि लालित्य और
ललित भावदशा का
पूरा जिम्मा अकेले
संगीत ने ही
नहीं ले रखा
है,कविता की
भी उसमें महत्त्वपूर्ण
सहभागिता है फिर
वह चाहे किसी
काल की व
किसी भाषा की
कविता हो।
अवनीश सिंह चौहान: अच्छा लगा कि
आपने यहाँ अपनी
महत्वपूर्ण टिप्पणी दी। लेकिन
यह जानकर बेहद
कष्ट हुआ कि
आप जैसे विद्वान
ने समस्त टिप्पणियों
को बिना पढ़े
ही अपनी टिप्पणी
लिख डाली।
Pankaj
Parimal: भाई अवनीश सिंह चौहानजी,रात में
यों ही सर्च
करते हुए जो
कुछ पढ़ पाया
या नेट की
जो सेलेक्टिव मेहरबानी
हुई,उसी को
आधार बनाकर लिखना
ज़रूरी समझा।सुबह पढ़ने
पर पता लगा
कि आदरणीय श्री
Maheshwar Tiwari जी की गीत
पंक्तियाँ हैं।अतः कष्ट को
और धारण न
करें।फुर्सत मिलने पर इसी
टिप्पणी को आगे
बढ़ाऊँगा।सादर
अवनीश सिंह चौहान: आपका हार्दिक स्वागत
है। ऊपर कई
बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणियां
चस्पा हैं, जिनके
बारे में भी
अभी विचार करना
है और उनपर
प्रतिक्रिया भी आये
तो अच्छा है।
Anil Janvijay: यह
बहस दो साल
बाद फिर से
शुरू करने के
लिए पंकज परिमल
जी का आभार।
ज़रा सड़क पर
ज़िन्दगी गुज़ारने वाले उन
लाखों-करोड़ों ग़रीब
लोगों के बदन
पर जमे मैल
के बारे में
सोचिए, जो यह
नहीं जानते कि
नहाना क्या होता
है। उनकी यादें
क्या 'गर्दन पर
कुहनी पर जमी
हुई मैल सी'
ही नहीं होंगी।
अब मैं रमाकान्त
यादव जी की
बात का उत्तर
उन्हीं के वास्तविक
धरातल पर ही
दे रहा हूँ।
यह यथार्थ ही
है, निराकारी और
अमूर्त प्रतीक नहीं, जैसाकि
रमाकान्त यादव जी
ने लिखा है।
'टूटी खपरैल' भी
कितना दुख देती
है, यह वही
बता सकता है,
जिसने वह गरवीली
ग़रीबी जी हो।
यादव जी ने
वह ग़रीबी जी
ही नहीं तो
उन्हें ये यथार्थवादी
बातें भी अमूर्त
प्रतीक ही लगती
हैं। कविता को
देखने का यादव
जी का रवैया
ही बेहद ग़ैरज़िम्मेदारी
भरा है।
Anil Janvijay: यह
बहस दो साल
बाद फिर से
शुरू करने के
लिए पंकज परिमल
जी का आभार।
ज़रा सड़क पर
ज़िन्दगी गुज़ारने वाले उन
लाखों-करोड़ों ग़रीब
लोगों के बदन
पर जमे मैल
के बारे में
सोचिए, जो यह
नहीं जानते कि
नहाना क्या होता
है। उनकी यादें
क्या 'गर्दन पर
कुहनी पर जमी
हुई मैल सी'
ही नहीं होंगी।
अब मैं रमाकान्त
यादव जी की
बात का उत्तर
उन्हीं के वास्तविक
धरातल पर ही
दे रहा हूँ।
यह यथार्थ ही
है, निराकारी और
अमूर्त प्रतीक नहीं, जैसाकि
रमाकान्त यादव जी
ने लिखा है।
'टूटी खपरैल' भी
कितना दुख देती
है, यह वही
बता सकता है,
जिसने वह गरवीली
ग़रीबी जी हो।
यादव जी ने
वह ग़रीबी जी
ही नहीं तो
उन्हें ये यथार्थवादी
बातें भी अमूर्त
प्रतीक ही लगती
हैं। कविता को
देखने का यादव
जी का रवैया
ही बेहद ग़ैरज़िम्मेदारी
भरा है।
Ramakant Yadav: अनिल
जनविजय जी, दो साल बाद
आप कौन सी
नई बात लेकर
आये हैं? यही
कि आपने उस
किस्म की ग़रीबी
झेली है जब
आपके शरीर को
धोने के लिए
न तो पानी
था न साबुन। पता
नहीं उन दिनों
आपके पेट में
अन्न का कोई
दाना गया भी
कि नहीं। और क्यों? कैसे? ज़रा खुलाशा
करते तो जवाब
देने में मुझे
कुछ सुविधा होती। कहीं
यह अपने ही
आलस अकर्मण्यता से
उपजायी गई प्रायोजित
टाइप की गरीबी
तो नहीं थी? मुझे तो
नहीं लगता कि
आप ग़रीबी की
संवेदनशीलता से परिचित
हैं वर्ना किसी
गरीब की यादों
को मैल सा
मानने पर इतना
हठ न दिखाते। मैं
अपनी पहले की
टिप्पणियों में बहुत
सी चीजें साफ
कर चुका हूं। उन्हें
पुनः दोहराने से
क्या फायदा? पर
सारी यादों को
मैल मानने वालों
से कहना चाहूंगा
कि गरीब की
यादें अमीर की
यादों से अच्छी
होती हैं। गरीब हर
हाल में अपने
अस्तित्व, अपने ईमान
अपने संघर्ष की
तौहीन नहीं होने
देता। उसकी स्मृतियों की ज़मीन
इन्हीं मूलाधारों से निर्मित
होती है। वह गरीबी
को झेलते हुए
भी प्रेम को
जीता है, सम्बन्धों
को जीता और
ज़रा भी अवसर
मिलने पर ख़ुशियों
को भी जी
लेता है। तो क्या
ये चीजें उसकी
यादों का हिस्सा
नहीं बनती? मैं
आपको या माहेश्वर
तिवारी जैसे लोगों
को जन पक्षधर
मानता ही नहीं
क्योंकि आप लोगों
के जीवन व्यवहार
में हमेशा सामन्ती
तत्व मौजूद रहते
हैं। आप लोग गरीबों
का चित्रण करते
हुए अक्सर फंस
जाते हो क्योंकि
वहां गरीबी सिर्फ
नारेबाजी बिम्बों प्रतिबिम्बों प्रतीको
में ही सिमट
कर रह जाती
है। अब कोयल कूक
रही है तो
वहां भी माहेश्वर
तिवारी गरीबी का दर्द
सुनते हैं! हद
हो गई! अरे
जिस गरीब का
चित्रण कर रहे
थे उसकी स्मृतियों
में जो जितना
मैल जमा है
उसकी पर्तें उघार
ही देते? यह
भी ज़रा बता
देते कोहनी और
घुटने में जमे
मैल का जिम्मेदार
कोई है तो
कौन है? गरीबी
को मैल बताने
वाले माहेश्वर तिवारी
की सोच क्या
यहां तक नहीं
गई? अरे भाई, घुटने और कोहनी
पर जमे मैल
की वजहें दूसरी
हैं, मन की
यादों से भले
वे गरीबी की
ही यादें क्यों
न हों उनसे
संगति बैठाना और
माहेश्वर जैसा पढ़ा-लिखा गीतकार संगति
बैठाए तो अचरज
होता है। पर माहेश्वर
जी हैं ऐसे। वे
हमेशा बिम्बों और
प्रतीकों को ही
खोजते रहे। वही उनके
गीतों का आकर्षण
रहे हैं। कांटेंट की
व्याख्या में वे
बहुत बार फंसते
हैं। पर आज के
गीतकारों, नवगीतकारों की यही
समस्या है। वे गीत लिखते
हुए अक्सर विचार
नहीं करते कि
क्यों लिख रहे
हैं क्या लिख
रहे हैं! मुश्किल
से किसी गीतकार
के पास स्पष्ट
वैचारिकी होगी। तो कविता के
चमत्कार से बहुत
ख़ुश मत होइये
अनिल जनविजय जी! विशेषकर गरीबों शोषितों
पर लिखते पढ़ते
हुए, थोड़ा सावधान
रहें। किसी गरीब को
भी लगे कि
यह कविता उसके
लिए लिखी गई
है। अब आप यथार्थ
और सत्य को
भटकाना चाहें तो बहुत
से मैले बिम्ब
प्रतीक मिल जाएंगे
वर्ना तो यथार्थ
को किसी बिम्ब-प्रतीक की वैसी
ज़रूरत भी क्या! यह कविता
विशेषकर जनवादी कविता के
साथ धोखा है। ये
जो अभिजात्य लोग
जनवाद का चोला
ओढ़े हैं उन्हें
भी अब पहचानने
का वक्त आ
गया है। समकालीन आलोचना
में जो पोस्ट
ट्रुथ का कान्सेप्ट
इधर आया है
वह यूं ही
नहीं है। गीत नवगीत
में तो इसके
पर्याप्त आधार मौजूद
हैं। मैं कविता
को कितना जानता
हूं यह मैं
क्या कहूं! पर
जनविजय जी ! आप
भी कविता के
मर्म को कहां
जानते हो! अभी
तो बस इतना
ही!
Radhey Shyam Bandhu (राधेश्याम
बंधु): मैं अनिल
जनविजय की टिप्पणी से
सहमत हूं ।
कविता कभी अखबार
की कतरन नहीं
हो सकती ।
कविता को कविता
ही रहने दीजिए
। कुछ गीतकार
आज भी साठोत्तरी
गीतकाव्य की अमूर्त
बिंबों के कलावाद
मे खोये हुए
हैं । उन्हें
१९६० की साठोत्तरी
गीतकाव्य के वायुवीय
रहस्य वाद से
बाहर निकलना चाहिए
और निराला समष्टिवादी
यथार्थ वाद वाले
समकालीन नवगीत के मूर्त्त
बिंबों से जुड़ना
चाहिए । खपड़ैल
के दर्द को
वहीं जान सकता
है जो खपड़ैल
में रह चुका
है । मैंने
'नवगीत के नये
प्रतिमान' में खपड़ैल
वाले बिंब को
ही आज के
नवगीत के लिए
जरूरी माना है
। रमाकांत यादव
इस अन्तर को
समझने का प्रयास
करें।
अवनीश सिंह चौहान:
यस सर, यह
बहस मूर्त और
अमूर्त बिम्बों पर ही
चल रही है।
बस यह देखना
है कि दादा
तिवारी जी के
इस गीत के
मुखड़े में प्रयुक्त
बिम्ब का अर्थ
खुल पा रहा
है कि नहीं?
इस संदर्भ में
ऊपर बहुत अच्छी
टिप्पणियां चस्पा हैं ही।
Ramakant Yadav: राधेश्याम
बन्धु जी! मैं
आपको पहले भी
जवाब दे चुका
हूं। पहले आप मुझे
यह बताएं कि
मन की यादों
को कोहनी और
घुटने का मैल
बताना कलावाद है
कि यथार्थवाद? दूसरा
आपके नवगीत के
नये प्रतिमान में
स्वयं को स्थापित
करने अदम्य लालसा
के अतिरिक्त कुछ
भी नया नहीं
है। तो क्या खपरैल
वाले बिम्ब ही
आज की कविता
की पहचान हैं? कुछ और
भी आदि अंत
देखेंगे की नही? कि बस
कहीं भी खपरैल
का बिम्ब लगा
दो और हो
गये बड़े जनवादी
बड़े नवगीतकार? अरे महाराज,
कविता की व्यापक
अवधारणा को समझने
की कोशिश करें। किसी
बिम्ब प्रतीक में
फंसे न रह
जाएं। पहले यथार्थ को तो
जान समझ लें, साध लें, फिर
करें बहस बिम्ब
प्रतीकों पर। यथार्थ की सम्यक
समझ नहीं और
अनर्गल बेमेल बिम्ब-प्रतीकों
पर अटके पड़े
हैं! यह चोचलेबाजी
और धोखेबाजी छोड़िये
राधेश्याम बन्धु जी और
अनिल जनविजय जी!
अवनीश सिंह चौहान: हर्ष का विषय
है कि बहुत
अच्छी टिप्पणियां यहां आयी हैं।
विद्वानों-पाठकों से आग्रह
है कि वे
अपना मौन तोड़कर
श्रद्देय महेश्वर तिवारी जी
के इस गीत
पर हो रहे
विमर्श में भाग
लेंगे। आप सभी का ह्रदय से आभार।
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