कृति: अंतराएँ बोलती हैं (नवगीत संग्रह)
लेखक: विनय भदौरिया
प्रकाशक: अनुभव प्रकाशन, गाज़ियाबाद
मूल्य - दो सौ रुपये, प्रकाशन वर्ष: 2019
जलते प्रश्न
सुलगती भाषा
हर उत्तर में छिपी निराशा
आखिर-
कोइ समाधान तो
हमें खोजना होगा ही।
कवि देश काल की अनेक समस्याओं के निराकरण के बीज मन्त्र साकार होते देखना चाहता है किन्तु हर उत्तर एक नैराश्य के पर्याय के अतिरिक्त और कुछ भी भावभूमि लिए नज़र नहीं आता. ऐसी स्थिति में वह अपनी सोच को मुट्ठी की तरह भींजता है और प्रतिबद्धता प्रकट करता है कि हमें हरहाल में समस्याओं के समाधान तलाशने ही होंगे.कोई रचना जब मनन मंथन की ऐसी प्रक्रिया से प्रसूत होती है तो उसकी सार्थकता के आयाम व्यापक होते हैं.ऐसी ही सामजिक चेतना को समेटे कई नवगीत इस संकलन में समाहित हैं.
डॉ विनय भदौरिया काव्यगत अनुशासन के प्रबल पक्षधर हैं.लय व छंद बद्धता के निर्वहन को अपरिहार्य मानते है.वह जीवन में भी भी लय की महत्ता व व्यापकता को रेखांकित करते हैं.
जिसको-
लय से प्यार नहीं ,
छंद जिसे स्वीकार नहीं
उसे हमारी-
बाँह थामने का-
कोई अधिकार नहीं .
*********
अनुशासनहीनों की-
सेवा-
करता मेरा द्वार नहीं
*********
सच तो यह-
लय बिन जीवन का
कोई भी व्यापार नहीं
डॉ भदौरिया सृष्टि और गीतों ,दोनों के सृजकों का नमन करते हैं.वह सृष्टि और गीत के गहरे अन्तर्सम्बन्धों के प्रति आस्थावान हैं.
जग के रस में डूबें तो
सुख-दुःख का अनुभव होता
मिलता है आनंद की जब
गीतों की लय में खोता
रचनाकार ने अपने चारों ओर फैले तमाम विषयों को छुवा है. जहाँ पोखर के समाजवाद को रूपायित किया है वहीँ गाँव,पनडब्बा,त्यौहार ,बांसुरी,भौजी ,कलुवा,सन्ता बाई,भिखारी,फागुनी चांदनी आदि को शब्द देकर नवगीत गढ़े हैं.
बड़े भोर से-
देर रात तक
खटती सन्ता बाई
कृष्ण पक्ष के
चाँद सरीखे
घटती सन्ता बाई
झाड़ू-पोंछा, चौका-बासन
करके किचेन संभाले
*********
किसी काम से-
कभी न पीछे ,
हटती सन्ता बाई
कवि डॉ भदौरिया परम्पराओं की टूटन से आहत हैं.वह अपनी बचपन की यादों से समूल जुड़े हैं.वह त्योहारों की वही जीवंतता पाने की अकुलाहट लिए सामने आते हैं.गाँव की छीजती मौलिकता के प्रति चिंतित हैं.
आने को
आते ही रहते
क्रम से बारम्बार .
पहले जैसा
मज़ा न देते
लेकिन अब त्यौहार
*********
जब से-
छोड़ा गाँव
सच कहें गाना भूल गए.
गाने के संग-
मस्ती भरा
तराना भूल गए
*********
भावज की
चुहलों से हम
शर्माना भूल गए
*********
कई कोल्हू ईख के थे
अब नहीं पड़ते दिखाई
देवउठनी परब होते
शुरू होती थी पिराई
जब फदकता था कड़ाहा
चाटते थे गर्म चीपी
डॉ भदौरिया 'संता बाई ', अजिया, भिखारी जैसे चरित्रों के माध्यम से जहाँ अपने आस-पास बीत चुकी या बीत रही को सशक्त अभिव्यक्ति देते हैं. 'गाँधी' का अवलंब लेते हुए उनके टूटे हुए सपनों के भारत को सामने रखते हैं.वहीँ वह ईश्वर के प्रति चिंतन को मुखरित करते हैं-
'जिसको-
देखा नहीं कभी भी,
उसको कैसे-
याद करें हम.
************
जो प्रत्यक्ष -
नहीं है उससे
कहिये क्या संवाद करें हम .
अपने पिता लब्धप्रतिष्ठ लोकप्रिय गीतकार स्मृति शेष डॉ शिव बहादुर सिंह भदौरिया के प्रति आपको असीम श्रद्धा है और यह स्वाभाविक भी है.वह अपने पिता के व्यापक फलक से अभिभूत दीखते हैं.इस संग्रह में विनय जी अपने पिता के संघर्ष और उनकी सफलता को रेखांकित करते हैं:
'बंजर में-
तू उगे और
अंखुवाये थे .
अपने बल पर
बरगद-
बनकर छाये थे '
*********
'कल तक -
थे साकार रूप में
आज अगम-
तुम निराकार हो'
*********
'कल तक -
बहती हुयी नदी थे
आज महासागर अपार हो,'
जहाँ समाज कि जटिलताओं,विद्रूपताओं व अन्तर्सम्बन्धों पर आपको पैनी नज़र व मजबूत पकड़ है वहीँ आप प्रकृति के बहुत करीब हैं और उसके सौंदर्य बहखूबी बयां करते हैं:
दूध धुली रातों में
पेड़ों के पातों में
थिरक -थिरक
नाच रे!
फागुन की चांदनी .
सनई की फलियों के
बाजे नूपुर छम-छम
बूँद-बूँद स्वेद कणों सी
टपके शबनम
आंगने ओसारी में
भर रही कुलांचे रे!
फागुन की चांदनी
आपकी भाषा अधकांशतः आम बोलचाल की है.गाँव-गवई के शब्द स्वाभाविकता के साथ आये भेली,चीपी,परथनि,बखरी,लड़िहा,सुग्गे,इनारा,हहाहूती,अंखुवाना,पोढ़े,कोहबर,बरेदी,नांद,अगियार,गड़ही,बकुली आदि .आम बोलचाल में आने वाले अंग्रेजी शब्दों का भी कहीं- कहीं प्रयोग हुआ है.
शब्दों का वाग्जाल नहीं दिखता.नए कथन,नयी समस्याओं के प्रति प्रगतिवादी सोच,नए उपमान व नव प्रतीकों के साथ प्रभावशाली बिम्ब निरूपण गीतों क़ो व कल्पनाओं क़ो प्रखरता देते हैं.
विनय जी अति विनयशील हैं. आपने नवगीतों के सृजन का श्रेय स्वयं क़ो नहीं दिया बल्कि स्वयं क़ो मात्र एक माध्यम माना है.
हमने कोई -
गीत आज तक-
लिखा नहीं
खुद गीतों ने ही
आकर लिखवाया है
*********
हम संवेदनशील ज़रा कुछ ज्यादा हैं
घटनाएं अविलम्ब ह्रदय छू लेती हैं
भाव सिंधु में चले मथानी चिंतन की
बेबस हो उँगलियाँ कलम गह लेती हैं
संस्कारों की प्रबल पक्षधर, समय के प्रति सचेतन, जड़ों से जुड़ी व अपनी मिटटी की सोंधी खशबू बिखेरती रचनाएँ पाठकों द्वारा समादृत होंगी, ऐसा विश्वास है.
समीक्षक :
माधव वाजपेयी Vinay Bhadauriya, Raebareli, U.P.
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