समकालीन कवियों में एक ऐसा प्रतिष्ठित रचनाकार है जो अपने काव्य में मानव धर्म, संस्कृति और समाज की विभिन्न दशाओं के वर्णन में सिद्ध-हस्त है। ऐसे सार्थक, सहज, सम्मानित एवं निर्विकार कलमकार का नाम है— राघवेंद्र तिवारी। ख्यातिलब्ध कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय राघवेंद्र तिवारी जी का जन्म 30 जून 1953 को बमौरी कलां, ललितपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। पत्रकारिता, जनसंचार, दूर शिक्षा एवं मानवाधिकार में शिक्षित एवं दीक्षित यह रचनाकार 1970 से सतत लेखन कर रहा है। आपके द्वारा सृजित 'शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा' (शोध एवं शिक्षा, 1997), 'भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत' (शोध एवं शिक्षा, 2009), 'स्थापित होता है शब्द हर बार' (कविता संग्रह, 2011), 'जहाँ दरक कर गिरा समय भी' (नवगीत संकलन, 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए 'कविता की अनुभूतिपरक जटिलता' शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। संपर्क : ई.एम. - 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-112, भोपाल- 462047, मोब : 09424482812
(1)
जुदा हुए सब लोक कथा में
बचा सिर्फ राजा
किसके नाम सड़क का कर दें
किसके दरवाजा
कथा वाचकों की दुनिया में त्रस्त
प्रथाएं हैं
राजा, रानी व जनता की
यही कथाएं है
सभी गरीब, तंगदस्ती की
मारी है परजा
बाहर खुशहाली का बजता
रहता है बाजा
एक कहानी ख़त्म हुई
दूजी की मनो दशा में,
जुदा हुए सब लोक कथा में
बचा सिर्फ राजा
किसके नाम सड़क का कर दें
किसके दरवाजा
कथा वाचकों की दुनिया में त्रस्त
प्रथाएं हैं
राजा, रानी व जनता की
यही कथाएं है
सभी गरीब, तंगदस्ती की
मारी है परजा
बाहर खुशहाली का बजता
रहता है बाजा
एक कहानी ख़त्म हुई
दूजी की मनो दशा में,
फिर कोई शख्स आ गया
कर के नया नशा
बाहर राज-प्रजा-वत्सलता
झिझकी खड़ी मिली
ऐसी कोई कथा नहीं
जो उसे लगे ताजा
फिर भी कथा और किस्सों का
कर के नया नशा
बाहर राज-प्रजा-वत्सलता
झिझकी खड़ी मिली
ऐसी कोई कथा नहीं
जो उसे लगे ताजा
फिर भी कथा और किस्सों का
उपक्रम है जारी
ग्राम्यजनों को प्रजातंत्र
लगता है सरकारी
और कथा में मुझ को
आमंत्रण मिलते रहते
तू ही कथावस्तु से समझौता
करने आ जा।
ग्राम्यजनों को प्रजातंत्र
लगता है सरकारी
और कथा में मुझ को
आमंत्रण मिलते रहते
तू ही कथावस्तु से समझौता
करने आ जा।
डाल से वैसे रहे
हम यहाँ टूटे
राह में जैसे रहे हों
शब्द छूटे
ओढ़ कर वैसाख की
प्रमुदिता, वन्या-
सुरभि, अंकित है जहाँ
जड़ पर अनन्या
वहीं रह रह कर उभरते
हैं निरंतर
तने के कुछ हरे से
अधबने बूटे
टहनियों में ग्रीष्म की
हिलगी दोपहरी
दे गई है धूप की
उजली गिलहरी-
खुरदरे हाथों
फिसलती रोशनी में
बिम्ब छाया के
कई काले-कलूटे
पौर में गोधूलि के
धुँधले धुंधलके
बन्द पुट जैसे लगे
नीले कमल के
शाम घिरते बाँध आया
सूर्य जैसे
धूप बछिया जतन से
पश्चिमी खूँटे।
(3)
शाम घिरते हो गया धुंधला,
वह कनक गुंबद हवेली का
स्याह हो उट्ठे दिशाओं के
बनैले चुप पखेरू
थरथराहट लाँघती दिनमान के
अनगिन सुमेरू
फिर समेटे दिन,
कहाँ गायब हुआ है
खुशनुमा वह सूर्य,
पीली इस पहेली का
चिपचिपी होने लगी है
ओसारे की वाट गीली
थाम हाथों में पहाडों को
गरम होती हथेली
ढूँढती, बाँहों में खालीपन
सम्हाले
अन्धेरे में चीन्हती जो
गुड़ करेली का
फिर किसी सौभाग्य से जा
पूछती उन्नत शिखरणी
क्यों उदासी ओढ़ती मृगदाब की
चिन्तिता हिरणी
देखती जो राह सारे
दिन रही है
चैन भी जिसको मिला न
एक धेली का।
(4)
फाल्गुन अषाढ़ के,
ओट में खड़े जैसे
शाल वन पहाड़ के
साड़ी की कोरों से चुई
एक बूँद जहाँ पानी की
गहरे तक सीमायें थमी रहीं
जहाँ राजधानी की
सहलाया करती है दूब
बैठ झरोखे-
दकन के या
पश्चिमी निमाड़ के
शंकित शापित हिरनी पृथक
लगी जैसे समूह से
सिहरने लगी काया, वेगवान
टीलों या ढूह से
सोचती खड़ी सहसा-
सोनीपत-पानीपत
ऐसे ही देखती
उघाड़ के।
(5)
साड़ी की कोरों से चुई
एक बूँद जहाँ पानी की
गहरे तक सीमायें थमी रहीं
जहाँ राजधानी की
सहलाया करती है दूब
बैठ झरोखे-
दकन के या
पश्चिमी निमाड़ के
शंकित शापित हिरनी पृथक
लगी जैसे समूह से
सिहरने लगी काया, वेगवान
टीलों या ढूह से
सोचती खड़ी सहसा-
सोनीपत-पानीपत
ऐसे ही देखती
उघाड़ के।
(5)
तोड़ दिया
जिसका डैना
गौरैया थी वो,
है ना !!
काश कि वो
बाज़ , चील होती
तब फिर कैसी
दलील होती
पैनी करती रहती
चोंच स्वयं
और डरा
करती मैना
यों क्या फिर
कोई सकोरे भरता
मानवता की
ओढ़ - सुन्दरता
आदमी अपनी
धुन का पक्का
देखता इसके
बदलते नैना
बस गौरैया तो
केवल गौरैया
सच में बेहद
निरीह है भैया
जा देखो इनकी
बसाहट में
कम से कम एक-
दो-दिवस-रैना।
(6)
जिंदगी : मुट्ठी
में बंद प्यास
या घर की सीढ़ी
पर, बैठी हो
उम्र की कपास
या झुकती
कोई हो डाल
या कोई
छोटा संथाल
या कोई बदली
का घाम
या कोई धुँधली
उजास
याकोई रंग
गंध हीन
परत कोई जिस्म
पर महीन
फिसल गई
बस अपने आप
हिरदय से
जैसे निःस्वास
या कोई महल
छुपा राह में
जैसे कि खड़ा हो
उछाह में
या जैसे फिर
दबंग बैठा हो
ड्योढ़ी पर
यों बदहवास
या कोई तितली
यों मौन पर
या कोई महिला
मालथौन* पर
बैठी देखे
बस की वाट
गोद में लिए
कल की आस
या कोई वेदना
छिपी कोने
फर्क कर रही
होने न होने-
में, जैसे
पथरीली भूमि
पर उगने को
कोई घास
या गीली
परतों में तंग
पुरुष धर्म
कोई बहिरंग
या सीपी में
होने बंद
मोती का चूका
इतिहास।
(7)
नेत्र नहीं टुकड़े दो हीरे के,
जिन्हें कहा करते हैं श्याम वरन
अलसाये बेटे ममीरे के
या कोई धुँधली
उजास
याकोई रंग
गंध हीन
परत कोई जिस्म
पर महीन
फिसल गई
बस अपने आप
हिरदय से
जैसे निःस्वास
या कोई महल
छुपा राह में
जैसे कि खड़ा हो
उछाह में
या जैसे फिर
दबंग बैठा हो
ड्योढ़ी पर
यों बदहवास
या कोई तितली
यों मौन पर
या कोई महिला
मालथौन* पर
बैठी देखे
बस की वाट
गोद में लिए
कल की आस
या कोई वेदना
छिपी कोने
फर्क कर रही
होने न होने-
में, जैसे
पथरीली भूमि
पर उगने को
कोई घास
या गीली
परतों में तंग
पुरुष धर्म
कोई बहिरंग
या सीपी में
होने बंद
मोती का चूका
इतिहास।
(7)
नेत्र नहीं टुकड़े दो हीरे के,
जिन्हें कहा करते हैं श्याम वरन
अलसाये बेटे ममीरे के
दृष्टि वहांँ खेला
करती चौसर
अहोरात्र भटक
रहे हैं क्योंकर
तेरी निगहबानी
में आहिस्ता
कई बंध, अधबजे
मँजीरे के
प्याले जैसे भरे
शरारत के
पोर-पोर लिखी
इस इबारत के
मन्त्रमुग्ध संतरी
टहलते हैं
इस पुरा शराब
के जखीरे के।
करती चौसर
अहोरात्र भटक
रहे हैं क्योंकर
तेरी निगहबानी
में आहिस्ता
कई बंध, अधबजे
मँजीरे के
प्याले जैसे भरे
शरारत के
पोर-पोर लिखी
इस इबारत के
मन्त्रमुग्ध संतरी
टहलते हैं
इस पुरा शराब
के जखीरे के।
(8)
एक ठोकर-भर बचा हूँ
बस तुम्हारे पाँव से
क्यों करोगे याद मुझको अब
भला गुड़गाँव से
धुल गया अहसास मीठा
जल-तरंगों का
लौट आया स्नेह दिलकश
धनक रंगों का
बहुत धीमी बजी मादल
देह छत की छाँव से
आँख मेरी तभी से
कहती रही है क्या?
गोमती जैसे अवध
बहती रही गोया
थक गया है बहुत आँचल
कानपुर-उन्नाव से
बिखरती जैसे रूई
बस थम गई है ना !
फिर पिघलती बर्फ की
चुप-चुप लगी मैना
भर गई है नेह छागल
अधूरे ठहराव से।
(9)
बापू के कुर्ते के छेद से
घर-जीवन-दर्शन समझ सका,
उद्धरण लगा मुझको
जैसे ऋग्वेद से
या जैसे झाँक रहा
पिछला इतिहास कोई
भौगोलिक स्थिति या
गतिका समास कोई
बापू के कुर्ते के छेद से
रिस आयी जीवन की -
कई-कई विपदाएं, आर्थिक -
समीकरणों में बहते स्वेद से
या कोई पहचानी
टीस फिर उभर आयी
या घर की चौखट पर
आ बैठी परछाँई
बापूके कुर्ते के छेद से
सिमट गई छुईमुई-सी माँ
घर के कोने में
संभावित खेद से
या घर की स्थितियाँ
आ बदलीं अचरज में
या कोई संशय फिर
आ बैठा धीरज में
बापू के कुर्ते के छेद से
नहीं मिटी कटुता भ्रातत्व में
असमंजस में हैं सब
घर के मतभेद से
Hindi Lyrics of Raghvendra Tiwari, Bhopal
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