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रविवार, 1 दिसंबर 2019

मनोहर अभय के समकालीन गीत — अवनीश सिंह चौहान

डॉ मनोहर अभय 

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी ख्यातिलब्ध शब्द-साधक डॉ मनोहर अभय का जन्म 3 अक्टूबर 1937 को तत्कालीन अलीगढ़ जिले के नगला जायस नामक गाँव में हुआ। पिता स्वर्गीय बाँके लाल शर्मा और परम वैष्णवी माता स्वर्गीय राजेश्वरी देवी की प्रथम संतान डॉ.अभय ने वाणिज्य में पीएचडी के अतिरिक्त एलटी, साहित्यरत्न और आचार्य की उपाधि अर्जित की। ग्यारह वर्ष तक मथुरा के निकट स्थित राष्ट्रीय इण्टर कॉलेज में अध्यापन के बाद हरियाणा के राज्यपाल  के लोक संपर्क अधिकारी का कार्यभार सम्हाला। तत्पश्चात  इक्कतीस वर्ष तक अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था आईपीपीएफ लन्दन के भारतीय प्रभाग (एफपीए इंडिया) में विभिन्न वरिष्ठ पदों पर कार्य करते हुए संस्था के सर्वोच्च पद (महासचिव) से 2004 में अवकाश ग्रहण किया। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनों, कार्यशालाओं, परिसंवादों में प्रतिनिधि वक्ता के रूप में आपने चीन, जापान, कम्बोडिया, इजिप्ट, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, थाईलैंड तथा भारत के प्रायः सभी महानगरों, ग्रामीण क्षेत्रों, आदिवासी अंचलों का सर्वेक्षण-अध्ययन-प्रशिक्षण-मूल्यांकन हेतु परिभ्रमण किया। डॉ.अभय की प्रथम कहानी 1953 में प्रकाशित हुई। वर्ष 1956 में हिंदी प्रचार सभा, सादर, मथुरा की स्थापना की। आपने हस्तलिखित पत्रिका 'नव किरण' से लेकर संस्था के मुखपत्र हिमप्रस् के अतिरिक्त ग्राम्या, माध्यम, पेन जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के साथ बीस पुस्तकों का सम्पादन-प्रकाशन किया। आपके शोधपत्र, कहानियाँ, कविताएँ, हाइकु, दोहे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। 'एक चेहरा पच्चीस दरारें', 'दहशत के बीच' (कविता संग्रह), 'सौ बातों की बात' (दोहा संग्रह), 'आदमी उत्पाद की पैकिंग हुआ' (समकालीन गीत संग्रह) के अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता की हिन्दी-अंग्रेजी में अर्थ सहित व्याख्या, रामचरित मानस के सुन्दर कांड पर शोध-प्रबंध (करि आये प्रभु काज), 'अपनों में अपने' (आत्म कथा) आपकी विशष्ट कृतियाँ में  हैं। साहित्यिक सेवाओं के लिए महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी ने 2014 में डॉ. अभय को संत नामदेव पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त राष्ट्र भाषा गौरव, काव्याध्यात्म शिरोमणि, सत्कार मूर्ती आदि अनेक अलंकारों से अलंकृत डॉ. अभय नवी मुम्बई से प्रकाशित 'अग्रिमान' नामक साहित्यिक पत्रिका के प्रधान संपादक हैं। संपर्क : आर.एच-111, गोल्डमाइन, 138-145, सेक्टर - 21, नेरुल, नवी मुम्बई- 400706, महाराष्ट्र, चलभाष: +91 916 714 8096, ईमेल: manoharlal.sharma@hotmail.com, manohar.abhay03@gmail.com

गूगल से साभार 
(एक)

हम पौधे तुलसी के
कैसे हुए करील?

नमन आरती चंदन वंदन
लाखों अर्घ्य चढ़े
बाँधे गए कलावे अनगिन
नीचे शालिग्राम पड़े
चौरे बैठी पाँव पसारे
सामिष भोजी चील 

पूजा ऐसी हुई कि-
सारे पत्ते हवन हुए
सूखी टहनी, कंकर पत्थर
गहने गबन हुए
बिना जिरह सुनवाई
ख़ारिज हुई अपील 

हवा उठा लाई बाहर से
नकली घोल रसायन का
छंद सोरठा अदले-बदले
अर्थान्तर रामायण का
चुपके-चुपके क्षेपक चुपके
करते रहे जलील 

ऋतुओं ने आँखें फेरीं
वैरिन हुई प्रथाएँ
बच्चे, बूढ़े सुना रहे
पिछली शौर्य कथाएँ
पुरातत्व के अनुवादों की
चली न एक दलील 

दन्त-कथाओं पर साथी
कितने और जिएँगे
उधड़ी सीवन तीहर की
कितनी बार सियेंगे
हेमकुंड की पूछ रही है
ठंडी-ठंडी झील। 

(दो)

आँधी पानी झेल रहे
पौधे तुलसी के

सूरज तुम देखा करते
नाच नए  उजियारे का
है प्रकाश की फसलों पर
पहरा अँधियारे का
जाने कब मुस्काएँगे
नील-कुसुम अलसी के

खाली आँखों से झरता है
झर-झर खारी नीर  
उधर डिनर में परस रहे
शाही मटर पनीर
कुशन बदलना चाह रहे
लंगड़ी कुर्सी के 

कथा-भागवद सुनते आए
भूखी सदियों से
लिखवाएँगे जनम कुंडली
प्यासी नदियों  से
बैठे ठाले सुने जा रहे
भजन भगत नरसी के 

विहग लौट आए हैं
लिए गगन के सपने
किसे सुहाते पीछे छूटे
धरती के अपने
बटन टाँकने बैठा दर्जी
जर्जर  जर्सी के 

उखड़ी- उखड़ी घूम रही
रंगी-पुती तितली
लिए गंध की भारी गठरी
खड़ी केतकी इकली  
कुचल गए गजराज
सरसिज सरसी के। 

(तीन)

जाने कहाँ रह गए पीछे
दिन मीठे त्योहारों के

चौपालों पर चर्चा जारी
यक्ष प्रश्न बहुतेरे
चुप्पी साधे उत्तर बैठे
सब के सब बहरे
खड़ी घाट पर नाव पूछती
पते किनारों के

काजल जैसा घिरा अँधेरा
अपना सीना तानें
कैसे निकलें किरनें क्वारी
वर्जित मुस्कानें
लम्बी चादर ओढ़े, पसरे
दिन उजियारों के

पर्दे वाली खुली खिड़कियाँ
बँधे हाथ दरवाजों के
मुँह पर सौ पैबंद लगे
बंद होठ आवाजों के
पत्थर ढोती बँधुआ लड़की
ठगिया ठेकेदारों के

ऋतुएँ आकर सजा गईं
फूलों के गुलदस्ते
नव वसंत आने वाला है
लिए पुराने बस्ते
भूख लगी है बच्चे कहते
अपने, रिश्तेदारों के। 

(चार)

याद  बहुत आते
दिन बचपन के
भूरे बादल से 

लगता अम्मा झुला रही
सोम लता-सी बाँहों में
भरी तपन में हम लेटे
अमलतास की छाँहों में
बूढ़ी दादी पंखा झलती
हौले-हौले आँचल से  

बैठे पाँव नहर में डाले
छप-छप करता पानी
मिठिया-मिठिया कर खाते
कच्ची अमिया खूमानी  
मेहा बरसे, भीगे, भागे
नगला नाँगल से 

रमई काका दाँय चलाते
सिर पर खड़ी दुपहरी
पकड़ दबायी हमने
धारीदार गिलहरी
व्यालू  लेकर काकी आई
बिछुए बजते छागल से 

बच्चों का हुड़दंग मचा
झुकी डाल झकझोरी
चुपके-चुपके आ बैठी  
मालिन की छोटी छोरी
बाँट-छाँट कर सबने खाए
पके फरेंदे काजल से। 

(पाँच)

त्योहार भीनी गंध के
छंट  रहे बादल घनेरे
शिखर टूटे धुन्ध के
उँगलियाँ थामें हवाओं की
चल पड़े झोंके सुगंध के 

घुटन के घुटने चटखते
नखत मावस के ढ़ले
चाँदनी के गाँव में
बिछुड़े हुए जोड़े मिले
प्यार की हथेलिओं पर
लिख रहे नवगीत
प्रीति के, अनुबंध के 

नमन करते नदी को
झर रहे प्रपात
देते निमंत्रण भ्रमर को
अधखिले जलजात
मोतिया बेला महकते
सजने लगे त्योहार
भीनी गंध के 

खुशियाँ मनाएगी कहीं
प्यार  की कचनार
गलबाहियाँ गुलाब-सी
छुअन खुशबूदार
टूटते तटबंध सारे
दारुणी प्रतिबन्ध के। 

(छः)

बिजुरियाँ  सिमटीं  
चुक गईं घटाएँ
विश्वासों की
इन्द्रधनु क्या करेंगे
आस्थाओं के 

हर्ष की बाँसुरी
बाँस वन में फँसी
चिरिया-सी सुबह
धुंध में धँसी
टहनी पर लटकी किरणें
निचोड़तीं कपड़े 
व्यथाओं के 

उगते सूरज की
भृकुटियाँ तनी
नई-नई सुबह
लगती अनमनी
अर्घ्य हुए बंद
वनिताओं के 

बाँट रहीं हवाएँ
संकल्प पत्र खुशबू के
हाथों में थाम लिए
भीड़ ने बिजूके
बेच रहे बच्चे
अख़बार सभ्यताओं के

जागरण के शंख
लगते हैं खोखले
सोनमुखी पाँखुरे
सब के सब दोगले
किस्से खुले
पर्त-दर पर्त  
व्यवस्थाओं के। 

Dr Manohar Abhay, Mumbai

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