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रविवार, 8 दिसंबर 2019

अवनीश त्रिपाठी और उनके पाँच गीत — अवनीश सिंह चौहान

अवनीश त्रिपाठी 

सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक एवं  नैतिक विषयों पर सारगर्भित एवं सामयिक सृजन करने वाले बहुआयामी युवा शब्द-शिल्पी अवनीश त्रिपाठी जी को साहित्य सर्जना का संस्कार उनके पिता श्रद्धेय स्व रामानुज त्रिपाठी जी से मिला। अपने नवगीतों में अपनी विरासत को बखूबी संजोकर यह चर्चित रचनाकार समकालीन कथ्य और शिल्प को करीने से व्यंजित कर रहा है। 27 दिसंबर 1980 को ग्राम गरएं, जनपद- सुलतानपुर, उ.प्र. में जन्मे प्रिय अवनीश जी ने एम.ए. एवं बी.एड. की शिक्षा प्राप्त की। वर्तमान में आप श्री बजरंग विद्यापीठ इंटर कालेज, देवलपुर सहिनवां, सुल्तानपुर में प्रशिक्षित स्नातक अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। आपकी दो काव्य कृतियाँ - 'दिन कटे हैं धूप चुनते' (नवगीत संग्रह) एवं 'शब्द पानी हो गये' (कविता संग्रह) अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। आपने 'नई सदी के नए गीत' और 'पाँव गोरे चाँदनी के' गीत संकलनों को सम्पादित किया है। 'नेह के महावर', 'उत्तरायण', 'संवदिया', 'समकालीन गीतकोश', 'नई सदी के नवगीत-5', 'गुनगुनाएं गीत फिर से', 'नई सदी के नए गीत' आदि संकलनों और देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ संकलित की जा चुकी हैं। आपको अखिल भारतीय गीतकार मंच, लखनऊ द्वारा 'महेश अनघ स्मृति सम्मान-2018', हिंदी भाषा साहित्य परिषद, खगड़िया, बिहार द्वारा 'हरिवंशराय बच्चन स्मृति रजत सम्मान-2019', साहित्य प्रोत्साहन संस्थान, मनकापुर, गोंडा द्वारा 'नवगीतश्री', साहित्य सेवा संस्थान, मिल्कीपुर, फैज़ाबाद द्वारा 'काव्यश्री', सुभांजली प्रकाशन द्वारा 'रचना सम्मान' आदि से अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क: ग्राम एवं पत्रालय- गरएं, जनपद- सुलतानपुर- 227304 (उ.प्र.), चलभाष- 9451554243, 9984574242, ई-मेल: tripahiawanish9@gmail.com

गूगल से साभार 
1. दिन कटे हैं धूप चुनते 

रात कोरी कल्पना में
दिन कटे हैं धूप चुनते

प्यास लेकर
जी रहीं हैं
आज समिधाएँ नई
कुण्ड में 
पड़ने लगीं हैं
क्षुब्ध आहुतियां कई

भक्ति बैठी रो रही अब
तक धुंए का मन्त्र सुनते 

छाँव के भी 
पाँव में अब
अनगिनत छाले पड़े
धुन्ध-कुहरे
धूप को फिर
राह में घेरे खड़े

देह की निष्ठा अभागिन
जल उठी संकोच बुनते 

सौंपकर
थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना
वस्त्र के 
झीने झरोखे
टांकती अवहेलना

दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते।

2. काँपे अंतर्तम 

टेर लगाती 
मौसम के 
पीछे पीछे हरदम
पुरवाई की
आँखें भी अब
हो आईं पुरनम 

प्यास अनकही
दिन भर ठहरी
अब तो साँझ हुई
कोख हरी 
होने की इच्छा
लेकिन बाँझ हुई 

अंधियारे का
रिश्ता लेकर
द्वार खड़ी रातें
ड्योढ़ी पर
जलते दीपक की
आस हुई अब कम 

उपजे कई 
नए संवेदन
हरियर प्रत्याशा में
ठूंठ हुए 
सन्तापों वाले
पेड़ कटे आशा में

भूख किताबी
बाँच रही अब
चूल्हे का संवाद
देह बुढ़ापे की 
लाठी पर
काँपे अंतर्तम।
    
3. ठहरी शब्द नदी

चढ़े हाशिये 
पर सम्बोधन
ठहरी शब्द-नदी

चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थहीन हो चुकी समीक्षा
सोई चादर तान यहाँ

खुद की ही
सम्वेदित छवियाँ
नेकी और बदी

अपशब्दों की भीड़ बढ़ी है
आज विशेषण के आँगन में
सर्वनाम रावण हो बैठा
संज्ञा शिष्ट नहीं है मन में

संवादों 
की अर्थी लेकर
आई नई सदी 

अक्षर-अक्षर आयातित हैं
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं
छलते संधि-समास पीर में
रस के गाँव नहीं जुटते हैं

अलंकार ले
चलती कविता 
सिर से पांव लदी।

4. आवाज़ कम कर

यह रईसों का 
मुहल्ला है जरा 
आवाज़ कम कर

चाय पीने पर निकलती
भी नहीं हैं चुस्कियां,
अब नहीं बजतीं घरों में
कूकरों की सीटियां

टिकटिकाती
भी नहीं कोई घड़ी
चलती निरन्तर

फुसफुसातीं हैं महज़ अब
पायलें औ चूड़ियां,
बस इशारों में समझते हैं
लिफाफे चिट्ठियां।

गिट्टियों सीमेंट
वाले मन
हुए हैं ईंट पत्थर

रात दिन बस पोपले मुख
बुदबुदाहट, आहटें
बिस्तरों से बात करती हैं
यहां खिसियाहटें

गेट दीवारें 
पड़ी सूनी सड़क तू
आह मत भर।

5. गहरा सूनापन

इंटरनेट,
सोशल साईट से
रिश्ता-अपनापन
टी.वी. चेहरे
मुस्कानों के
मँहगे विज्ञापन

धूप-रेत
काँटों के जंगल
ढेरों नागफनी,
एक बूँद-
बंजर जमीन पर
गाँड़र, कुश, बभनी

मेज,फाईलें
बिखरे काग़ज़
फारवर्डिंग सिग्नेचर,
कसे हुए दिन
खाना-पीना
रुकना- पिछड़ापन

धुँआ,मशीनें
बोल्ट-घिरनियाँ
केबिन, गहरी बातें
सड़कें,ट्रकें
शोरगुल-चीखें
और धुँआती रातें

व्हिस्की-शैम्पेन
बड़ी पार्टियाँ
आवाजों में चीयर,
बँगले-नौकर
बूढ़ी खासी
गहरा सूनापन।

6. विक्रम हैं बेहाल

विक्रम के 
सिंहासन पर 
है प्रश्नों का बेताल,
टूटे पहिये 
वाले रथ का
चलना हुआ मुहाल

सभासदों के 
अपनेपन में
निष्ठुर स्वार्थ झलकता,
चौखट के 
समीप में कोई
अग्निबीज है उगता

परिचपत्रों 
पर फोटो के 
ऊपर फोटो रखकर,
जनता की 
आँखों से कॉपी 
मंत्री रहा निकाल

कानों में 
जबरन घुस आतीं
फ़ब्ती गन्दी बातें,
गली नुक्कड़ों 
चौराहों पर
सहम रही हैं रातें,

मांस नोचते 
लाशों के 
व्यापारी सुबहो शाम
समय धार्मिक
चिन्तनवाला
कीचड़ रहा उछाल

जीत-हार के 
पाटों में हम
घुन जैसे पिसते हैं,
भींच मुट्ठियाँ,
कान छेदतीं
दुत्कारें सहते हैं।

मछली अच्छी
मगरमच्छ या
बगुला भगत समर्पण,
इस चिंतन में
कई दिनों से
विक्रम हैं बेहाल।।

7. खिड़की गई छली
         
नहीं तनिक अफ़सोस
तवे को
रोटी भले जली

साँठ-गाँठ 
अच्छी है अब तो
चूल्हे से लकड़ी तक,
रहा नहीं
अवशेष हाथ कुछ
उतर गई पगड़ी तक

चिमटे की करतूत
बिचारी
सँड़सी रूठ चली

चौका बासन
मेहनत पानी
हाड़तोड़ हैं करते,
बटुली और
भगोने आख़िर
नौकर चाकर घर के

कोने हैंं चुपचाप 
घरों के
रोई गली-गली

शब्द-अर्थ 
से दूर रसोई 
करती है अन्वेषण,
भावों की 
भावुकता लेकर
कथ्यों का सम्प्रेषण

दरवाजों ने हिस्से
बांटे
खिड़की गई छली।

8. उलाहन शेष हैं

फिर समय 
की रेत सारी
दलदलों को बाँटकर,
मूल्य भी
लाचार लेटा
है नदी के घाट पर

दिन बँटे
सूरज बिलखता
धूप के टुकड़े तिकोने,
रेत की 
जलती धरा पर
नागफनियों के बिछौने

तप्त मरुथल
आँधियों से
उठ रहे कितने बगूले,
ताप के
संताप से है
चल रहा कोई समर

सिलसिलों 
के पास केवल
कुछ उलाहन शेष हैं,
रूप बदला 
है समय ने
खण्डहर अवशेष हैं,

चौखटों पर 
ठोकरों के
साथ सिसियाती हवा,
प्रेत मौसम 
का हमेशा
तोड़ देता है कमर

लोग जाकर
लौट आये 
फिर उसी दहलीज पर,
खुरदुराहट
की कहानी
कह रही जो खीझकर,

फिर नया
अध्याय 
बेबस हो उठा,
अर्थियों के
मर्म वाले 
तथ्य के सोपान पर।

9. अरे नवागत! आओ गायें

विदा-अलविदा कहें-कहायें
अरे नवागत! आओ गायें

फिर कलिंग को जीतें हम सब
फिर से भिक्षुक बुद्ध बनें,
पाटलिपुत्र चलाएँ मिलकर
तथाकथित ही, शुद्ध बनें,

चन्द्रगुप्त-पोरस बन जायें
अरे नवागत! आओ गायें

मुस्कानों के कुमकुम मल दें
रूखे-सूखे चेहरों पर,
दुविधाओं के जंगल काटें
संशय की तस्वीरों पर

कुहरा छाँटें, धूप उगायें
अरे नवागत! आओ गायें...

खाली बस्तों में किताब रख
तक्षशिला को जीवित कर दें 
विश्वभारती उगने दें हम
फिर विवेक आनन्दित कर दें

परमहंस के गीत सुनायें
अरे नवागत! आओ गायें

10. उथले उथले स्पंदन हैं

क्रूर ग्रहों के कालचक्र में
फूले-पिचके तन हैं मन हैं

मुँह देखे सम्बन्धों वाले
हम वंशज हैं पाषाणों के,
पीले पत्तों की बस्ती में
अग्निवृष्टि हैं हम बाणों के

खुश्बू के पत्रों पर केवल
उथले उथले स्पंदन हैं

शब्दों की दूकानें ही हैं
पथराई नदियों के हिस्से
गहराई में दबे पड़े हैं
समय सीप के सारे किस्से

इति का स्वागत करनेवाले
आधे जले हुए चंदन हैं

प्रश्नचिह्न के चित्र हजारों
सूरज की आँखों से निकले
थकी-थकी मुस्कानों वाले
हिम के खण्ड कई हैं पिघले

जो अतीत से साथ खड़े हैं
पास हमारे वे क्रंदन हैं।

11. सम्बन्धों की कठिन जुगाली

अग्निपरीक्षा में 
शामिल हैं
पेड़,नदी,पर्वत,जँगल सब

धरती के 
कोरे तन-मन पर
गर्म धूप ने लिखा तड़पना,
सीख लिया है
आख़िर उसने 
सब कुछ टुकड़े-टुकड़े करना,

बाँट दिया है जिद्दी होकर 
हवा,रेत,बूँदें,बादल सब

गूँगी-बहरी
दीवारों पर
रंगों के विज्ञापन जाली,
चुभलाते 
शब्दों की पीकें
सम्बन्धों की कठिन जुगाली,

चीख रहे हैं भरी भीड़ में
ममता,दया,स्नेह,आँचल सब

कर्तव्यों की 
उलझन ओढ़े
कातर साँसों का जीवन,
उपमाओं 
के हिस्से में है
करुण-टीस का ही क्रंदन,

तोड़ रहे दम धीरे-धीरे
नेह, अधर, कनखी, काजल सब।

Hindi Lyrics by Avnish Tripathi, Sultanpur, U.P.

3 टिप्‍पणियां:

  1. अवनीश जी को पढ़ना आनन्द की अनुभूति तो कराता ही है साथ ही बहुत कुछ सीखने को भी दे जाता है । इतने सुंदर नवगीत..जितनी सराहना करूँ कम है.. बस नमन है ऐसे कलम के साधक को...

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  2. आज की सामाजिक स्थितियों को अवनीश जी ने जिस तरह अपनें गीतों में प्रतिबिम्बित किया है उसकी सराहना जितनी की जाये उतनी कम है ।ऐसे कलमकार को मेरा सत् सत् नमन

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  3. समसामयिक परिस्थितियों को किस तरह नवगीत में संजोना है यह अवनीश भैया से सीखा जा सकता है बहुत ही मार्मिक सामाजिक परिवेश को लोकगीत में शामिल किया गया है बहुत-बहुत बधाई भैया

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