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रविवार, 29 दिसंबर 2019

कृष्ण भारतीय और उनके दस नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

कृष्ण भारतीय

सुविख्यात वरिष्ठ नवगीतकार श्रद्धेय कृष्ण भारतीय जी (कृष्ण कुमार भसीन) का जन्म 15 जुलाई, 1950 को ईसन नदी के किनारे बसा एटा, उत्तर प्रदेश में हुआ। अवकाशप्राप्त अभियंता भारतीय जी के नवगीत पूरी तरह से मानवीय संवेदनाओं से लैस हैं— उनके नवगीतों में जहाँ जीव-मात्र की पीड़ा, दुःख, तकलीफ का दिग्दर्शन होता है, वहीं उनमें जीवन मूल्यों के प्रति सजगता, सहजता, सात्विकता एवं आस्तिकता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। अपने दायित्वों के प्रति प्रतिबद्ध यह रचनाकार मानता भी है कि "नवगीत की रचनाधर्मिता महज लिखने या गुनगुनाने-भर की नहीं है, बल्कि यह एक दायित्वबोध  है— दायित्व आम आदमी के प्रति, समाज के प्रति, देश के प्रति व वैश्विक स्तर पर। नवगीत केवल शब्द-भर नहीं है, वह संवेदना और संवाद से जोड़ता है। नवगीत लिखना इतना आसान भी नहीं है— नवगीत की सर्जना के लिए कई बार सर्जक को अपने भीतर जीना-मरना पड़ता है तब कहीं जाकर एक नवगीत का जन्म होता है और शायद इसीलिये इस सर्जनात्मक वेदना को केवल वही रचनाकार महसूस कर सकता है जिसने उसका सृजन किया है।" वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे भारतीय जी की रचनाएँ 'गीत प्रसंग- दो', 'समकालीन गीतकोश', 'संवदिया' (नवगीत विषेशांक) आदि समवेत संकलनों के साथ धर्मयुग, कादिम्बनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मधुमती, अग्रिमान, दैनिक जागरण, पराग बाल मासिक हस्ताक्षर, अनुभूति, साहित्य  सुधा आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आपका एक नवगीत संग्रह— 'हैं जटायु से अपाहिज हम' (2017) अनुभव प्रकाशन, लाजपतनगर, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है। संपर्क: बेस्टैक पार्क व्यू रेजीडेन्सी, टी- 2/503, पालम विहार, सेक्टर-3, गुरुग्राम- 122017 (हरियाणा), मोबाइल: 09650010441, ई-मेल: kbhasin15@gmail.com

1. एक तार पर 

एक तार पर नट-सी अपनी 
नाच रही है जिन्दगी

लचक रही है  इधर-उधर
ये गजब संतुलन है भइया
मुये पेट की खातिर,  कैसे-
नाच  रही ता-ता थैय्या 

कैसा-कैसा पाठ बिचारी 
बाँच रही है जिन्दगी

कुछ ताली भी बजीं, और
कुछ- 'हे हे करके', रैंक  दिए 
कुछ ने देखा और चल दिए 
कुछ ने  सिक्के, फैंक  दिए 

चूल्हे पर सिकती रोटी की 
आँच रही है जिन्दगी

देख, आदमी को रोटी ने
नाच नचाये  बन्दर से
कैसे-कैसे जख्म, टीसते 
होंगे इसके अन्दर से 

नंगे पैरों सनी खून-सी 
काँच रही है जिन्दगी।

2.  इससे होगा क्या

क्या दुख-सुख को बना तमाशा,
वजन रहे हो तोल 
बाबूजी! अब क्यों चौड़े में 
पीट रहे हो ढोल 

ढोल पीट या छाती पीटो 
इससे होगा क्या 
चोरों को काबू कर पाया
शहर दरोगा क्या 

जब चोरों की पड़ी डकैती
हुआ दरोगा गोल 

सम्मुख जो सब चीख-चिंघाड़े
करके आंखें लाल 
सभी सयाने सुविधाभोगी 
निकले क्रूर दलाल 

सबने चेहरों पर पहना था 
एक दोगला खोल 

दिशा भ्रमित-सी भीड़ बिचारी
क्या करती प्रतिवाद 
ना कोई अगुवा, ना झंडा
फिर कैसा संवाद 

घाल-मेल में तो गरीब का
बिगड़ गया भूगोल 

क्या गरीब का जीना मरना 
क्या गरीब का हाल 
उसके ऊपर गली-गली से 
उठते रोज सवाल 

श्रम का भाव न पूछो बिल्कुल 
हैं मिट्टी के मोल। 

3. एकता के रंग

ये बिरंगे फूल और ये तितलियाँ 
ये हमारी एकता के रंग हैं 

हर कदम पर धर्म के उत्सव अलग 
हों भले पर आत्मा से एक हैं 
देश के महके बगीचे में सभी 
खुशबुओं के फूल भोले नेक हैं 

आचमन में पावनी गंगा बही 
हम अजानों में दुआ के संग हैं 

ईद हो बकरीद हो या होलिका,
सब हमारे ही भले त्यौहार हैं 
ये हमारी संस्कृति के रंग हैं 
ये सुदृढ़-सी नींव के आधार हैं 

ये धरोहर हैं हमारे देश की 
ये सतत जिजीविषा के अंग हैं 

दीपमाला भी सदा हँसती रही 
ताजिये भी झूम के निकले यहाँ 
रामधन मंसूर चाचा का मिलन 
इस धरा माँ के सिवा दीखा कहाँ 

है हमारा देश दुनिया से अलग
सभ्यता के हर तरफ सौ रंग हैं।

4. ज़िन्दगी जी ले 

झील में दलदल है कीचड़ है 
खिला है फूल भी 
ज़िन्दगी जी ले खुले दिल से 
सभी दुख भूल भी 

सोच मत अब क्या बुरा है,
क्या भला, सब व्यर्थ है 
हर निरापद चीज़ का 
खुद में वज़न है, अर्थ है 

गर उम्मीदों की हिली नींवें 
महल सब गिर चुके 
फिर मुँगेरी लाल के झूले 
सपन के झूल भी 

ज़िन्दगी: जैसे करे अनुबन्ध 
घुटने, टेक दे 
या पुलिन्दे का निशाना तान 
मुँह पर फेंक दे 

हैं यहाँ  हरियल झरोखे 
और रेगिस्तान भी,
देख है क़िस्मत में क्या कुछ
गन्ध या कुछ धूल भी 

धूप में भी ज़िन्दगी जी 
छाँव में भी साँस ले 
फूल की ख़ुशबु लिए जा 
शूल का अहसास ले 

ज़िन्दगी के मौज मेलों में कई 
मरुस्थल भी हैं,
है नदी सूखी कहीं लबरेज़ 
चहके कूल भी 

तय दिशा करनी ही होगी 
मस्त तू ख़्वाबों में जी 
या हक़ीक़त में ढलेगा या 
तनावों में ही जी 

व्यर्थ है मिलना-घटाना  
तू सभी कुछ छोड़ दे 
सिरफ भरना है तुझे बस ब्याज 
के संग मूल भी।

5. उड़ानों के लिए 

बाँह भर आकाश पाने के लिए 
पंख भी तो हों उड़ानों के लिए 

ये क्षितिज इस पार से उस पार तक,
सिर्फ बाजों के लिए फैला हुआ 
एक चिड़िया सोचती ही रह गयी 
क्यों सफर उसके लिए मैला हुआ 

हौसलों का साथ भी तो चाहिए 
शून्यपथ को आज़माने के लिए 

चंट बाजों के क़बीले हँस दिए 
बाँटकर टुकड़े कई आकाश के 
जंगलों के नीड़ की सहमी प्रजा 
डोर है थामे हुए विश्वास के 

कोई तो रस्ता निकाला जायेगा 
इस विरासत को बचाने के लिए 

सब सशंकित एक दूजे के लिए 
कौन है प्रतिबद्ध या चेहरे मढ़ा 
होड़ में शामिल सभी बेचैन हैं 
क़द दिखाने को कि हूँ तुझसे बडा 

नीतिगत संघर्ष को मत बोलिये 
मुँह चुराते हैं बहाने के लिए।

6. चाहत 

दुख का ताप जला देता है 
जब हर बार 
छोटी ख़ुशियों के जल में ही 
गोता मार 

बड़े सुखों की चाहत से 
खुद को जोड़ें 
लेकिन जो है पास उसे 
हम क्यों छोड़ें 

जो अभाव है वो पाने की 
कोशिश कर 
जो झोली में है उसकी 
कर दे बौछार 

सबकी चाहत एक समन्दर 
पाने की 
नीयत तो हो मन की प्यास 
बुझाने की 

चाहें तो दो बूँद तृप्ति 
कर सकती है 
शुष्क गला आशीषें देगा 
सौ-सौ बार 

हमें पता है जल समुन्द्र का 
खारा है 
लेकिन चाहत का तो 
ऊँचा पारा है 

गिरते-पड़ते सब शामिल हैं 
दौड़ों में 
हाँफ रहे हैं देखो तो 
सबकी रफ़्तार। 

7. ज़ख्म टीसते रहे

गैरों की चोट रोज
भूल गये 
अपनों के जख्म टीसते रहे 

जल में थी प्यास 
फूल में कांटे 
सहलाते गाल 
चीखते चांटे 

सिर्फ हवा में अनाज 
डालकर 
चक्की के पाट पीसते रहे‌ 

रिश्तों ने पाठ कुछ 
सिखा दिये 
सब पन्ने खोलकर 
दिखा दिये 

किसको हम बस अपना 
मानकर 
बाहों में बांध भींचते रहे 

परदों के भेद समझ
नहीं पाये
बुद्धू बन अपने ही
घर आये

फूलों की चाहत में
आँख मींच
नागफनी खूब सींचते रहे।

8. दंगे होंगे

फिर कुछ गुत्थम गुथा
फिर कुछ पंगे होगे!
धीरे-धीरे देख यहाँ
सब नंगे होंगे!

जाति धर्म के झंडे
मंचों पर फहराये
फिर उन्मादी मज़हब के
भस्मासुर आये

शर्त लगा लें
फिर क़स्बे में दंगे होंगे!

फिर कुछ टोपी डाल 
प्रजा को बहकायेंगे
राम नाम का ओढ़
मुखौटा, इतरायेंगे

हर बस्ती के
अपने झंडे, रंगे होंगे!

हम सब मूरख इक सुर में
गाली पीटेंगे
वो भड़काऊ भाषण
हम ताली पीटेंगे

सत्ता के सब चाल-चलन
बेढंगे होंगे !

9. छोड़िये साहब

धूप मुट्ठी भर मिली हमको 
झोलियाँ भरकर अँधेरे हैं!
ज़िन्दगी के साथ ऐसे ही
शायद कुछ अनुबन्ध मेरे हैं!

दिन गया गिनती-पहाड़ों में 
होंठ हँसने को तरसते हैं
आँख के सूखे हुए बादल 
मौन घुट-घुट कर बरसते हैं

और ऊपर से ख़फ़ा है घर 
अजब से सम्बन्ध मेरे हैं!

बात मानो तो सभी ख़ुश हैं 
गर नहीं तो मुँह फुलाये है
वो अभी पैदा हुआ ही है 
और घर सर पर उठाये है

गीत को तो छोड़िये साहब 

कटखने सब छन्द मेरे हैं!

10. टूटती खपरैल 

हर सुबह उभरी
कंधों पर उठाये 
मरखने से बैल वाले दिन!

एक कोलाहल 
ठहाका मारकर 
चीरता है 
आर से उस पार
काट खाने 
दौड़ता है घर 
शहर भी 
कम नहीं खूँखार

शाम लेकर लौटती 
बहता पसीना 
और काली मैल वाले दिन!

चुलबुली-सी 
एक किलकारी
ठुनक कर, 
रूठ कर जब
माँगती है चीज़
देहरी पर
फूल की स्वागत-हँसी
गँधों भरा जब
सौंपती ताबीज़

बस तभी महसूसते, 
कितने भले हैं,
टूटती खपरैल वाले दिन !

Hindi Lyrics by Krishna Bharteey alias Krishna Kumar Bhasin

3 टिप्‍पणियां:

  1. कृष्ण भारतीय जी आज के जरूरी रचनाकार हैं।जिनके गीत नवगीत यथार्थ के धरातल पर उपस्थित होते हैं।पूर्वाभास पर आपकी उपस्थिति सुखद है।हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  2. किसी इण्टरनेट पत्रिका में सम्भवत: पहली बार कृष्ण भारतीय के नवगीत सामने आए हैं। ऐसे महत्वपूर्ण रचनाकारों को पूर्वाभास में लगातार प्रकाशित करते रहें। जिन नवगीतकारों की रचनाएँ इण्टरनेट में नहीं हैं, उन्हें पेश करना बेहद ज़रूरी है। आप ज़रूरी काम कर रहे हैं। साधुवाद।

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  3. कृष्ण भारतीय जी गीतों की पूर्वाभास के पटल पर प्रस्तुति के लिए साधुवाद। उनके गीत सहज शैली में मानवीय संवेदना को व्यक्त करते हैं । संक्षिप्त प्रस्तावना और परिचय के साथ गीतों की प्रस्तुति के लिए अवनीश जी का धन्यवाद!

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