हिंदी के सुविख्यात ग़ज़लकार श्रद्धेय श्री महेश अग्रवाल जी का जन्म राजा भोज द्वारा स्थापित झीलों की नगरी भोपाल में 04 अगस्त 1946 को हुआ। वाणिज्य स्नातक अग्रवाल जी अपने स्वभाव, रहन-सहन, स्नेह-संबंधों और शब्द प्रयोगों में 'सब संतन सरताज' कहे जाने वाले बेलौस, मनमौजी एवं अक्खड़ कवि कबीरदास की तरह निर्मल, पारदर्शी और निरपेक्ष हैं। अपने समय और समाज के प्रति सचेत यह रचनाकार भलीभाँति जानता है— "बहुत मुश्किल भले हो यूँ कबीरा की तरह बनना/ मगर यह सोच दिखता है मुझे कल के कबीरों में" और शायद इसीलिये वह बड़ी सादगी से कह भी देता है— "जब किया मन के विकारों का शमन/मन कबीरा की बुनी चादर हुआ।" निश्चय ही यह अद्भुत कलमकार अपने सार्थक सृजन से ग़ज़ल की समृद्ध परंपरा और प्रभावशाली इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। आपके चार ग़ज़ल संग्रह— 'और कब तक चुप रहें', 'जो कहूँगा सच कहूँगा', 'पेड़ फिर होगा हरा' और 'मेरे साथ कबीर' अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। आपने 'रंग पर्व और जनसंवाद' नामक पुस्तक का बेहतरीन संपादन किया है। आपका एक ग़ज़ल संग्रह और एक गीत संग्रह प्रकाशनाधीन है। आपकी रचनाएँ कई समवेत संकलनों (ग़ज़ल सप्तक आदि में) सहित देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रही हैं। 1998 में मध्य प्रदेश के राज्यपाल द्वारा विशेष रूप से सम्मानित इस वरिष्ठ रचनाकार को देश की कई संस्थाओं द्वारा अलंकृत किया जा चुका है। 2006 में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लि., भोपाल से सेवा-निवृत होने के पश्चात वर्तमान में आप पूर्णकालिक साहित्य साधना कर रहे हैं। संपर्क: 71, लक्ष्मी नगर, रायसेन रोड, भोपाल-462022 (म.प्र.), मो.: 91-9229112607, ईमेल: gazalmahesh@gmail.com।
गूगल से साभार |
यार तुरुप के पत्ते से जब यारी है
राजा-रानी पर दुक्की भी भारी है
मजबूरी के भीड़ भरे इस जंगल में
हम लकड़ी के टुकड़े हैं, वह आरी है
कत्ल करा दे लाशों पर रोटी सेके
कुछ ऐसी ही आज सियासतदारी है
फूलों वाली खुशबू को वह क्या जाने
जिनके घर में कैक्टसों की क्यारी है
इतनी जल्दी राख नहीं होता सब कुछ
देख अभी भीतर-भीतर चिंगारी है
शाह जमूरे का किरदार निभाते हैं
पर्दे के पिछवाड़े एक मदारी है
सच्चाई, ईमान, शराफत, सब बेचा
वह मजबूर नहीं है, कारोबारी है।
(2)
उसकी तेज हवाओं से जब यारी होती है
शोलों में तब्दील यहाँ चिंगारी होती है
संबंधों में कुछ ऐसे परिवर्तन भी होते
मीठी नदिया सागर से मिल खारी होती है
लोग विधर्मी को नफरत की नजरों से देखें
ऐसी धर्मपरायणता मक्कारी होती है
पेड़ धरा पर आंसू से अपनी पीड़ा लिखते
जब-जब माली के हाथों में आरी होती है
वो क्या समझें आहों और कराहों की कीमत
वो जो चुटकी भर राहत सरकारी होती है
आ ही जाता है इसका कालापन जीवन में
आँख सियासत की ज्यादा कजरारी होती है
शब्दों को नतमस्तक होना कब मंजूर हुआ
सच्चे शब्दों में हरदम खुद्दारी होती है।
(4)
रहोगे राजमहलों या रहोगे तुम कुटीरों में
लिखा कुछ भी नहीं होता हथेली की लकीरों में
कहाँ तक आ गए हम और जाना है कहाँ हमको
यही संवाद होता है सफर के राहगीरों में
तुम्हारी बादशाहत जिस तरह से पेश आएगी
रहेंगे आचरण भी ठीक वैसे ही वजीरों में
मैं धनवानों की सूची में रहूँ हर बार नंबर वन
यही प्रतियोगिता होती है दुनिया के अमीरों में
न तबला चाहिए हमको न कोई ढोल की ख्वाहिश
हमारी तो गुजर होती रही हरदम मंजीरों में
ये मिट्टी है इसे मिट्टी में ही मिलना जरूरी है
फ़क़त एक रूह ज़िंदा है यहाँ सब के शरीरों में
बहुत मुश्किल भले हो यूँ कबीरा की तरह बनना
मगर यह सोच दिखता है मुझे कल के कबीरों में।
(5)
जब हमें उस पार जाना भी जरूरी है
तो नदी पर पुल बनाना भी जरूरी है
कुछ कठिन लम्हे सफर में साथ हैं लेकिन
कुछ हसीं पल याद आना भी जरूरी है
फूल, फल, पत्ते, सभी कुछ हैं दरख्तों पर
पंछियों का चहचहाना भी जरूरी है
कहकहों से कोठियाँ गूंजे भले लेकिन
झोपड़ी का मुस्कुराना भी जरूरी है
द्वार खुशियों के भले ही बंद हों लेकिन
रोज उनको खटखटाना भी जरूरी है
और कितना हौसला है हौसलों में अब
हौसलों को आज़माना भी जरूरी है
सीप में रख तो लिए हैं अश्रु दुनिया के
अब उन्हें मोती बनाना भी जरूरी है।
(6)
वो जो सहरा में नदी की बात करते हैं
इस बहाने ज़िंदगी की बात करते हैं
लोग पीतल हैं मगर खुद को कहें सोना
और हम अपनी कमी की बात करते हैं
जो कमाते हैं पसीना बेचकर रोटी
धूप में वो चांदनी की बात करते हैं
चुन न पाए जो किसी का एक भी आंसू
वो खुदा की बंदगी की बात करते हैं
ज़िंदगी खुद ही नशे से कम नहीं होती
लोग क्यों फिर मयकशी की बात करते हैं
फिर बदल डाले मुखोटे फिर नए चेहरे
अब अंधेरे रोशनी की बात करते हैं
रोज मन में मैल भरते जा रहे हैं हम
रोज हम गंगाजली की बात करते हैं
(7)
यूँ भले रोकर हुआ हँसकर हुआ
जो नहीं चाहा वही अक्सर हुआ
एक अच्छा ख्वाब टूटा रात में
फिर हमें अफसोस यह दिन भर हुआ
उग नहीं पाई मुहब्बत की फसल
खेत फिर सद्भाव का बंजर हुआ
कोशिशें जारी रखी थी इसलिए
काम कल से आज कुछ बेहतर हुआ
बात छोटी थी सियासत से जुड़ी
किंतु हंगामा बहुत जमकर हुआ
जो गलत होता रहा नेपथ्य में
आज वो ही मंच पर खुलकर हुआ
जब किया मन के विकारों का शमन
मन कबीरा की बुनी चादर हुआ।
(8)
वक़्त से डर वक़्त का उपहास मत करना
ज़िंदगी कुंठा, घुटन, संत्रास मत करना
पौध कांटों की लगाकर रोज गमलों में
खुशबुओं के आगमन की आस मत करना
सीख कर चालाकियाँ गंदी सियासत से
मतलबों में आम को तू खास मत करना
लुत्फ ले तू भी फ़कीरी में अमीरी के
पर कभी खुद को किसी का दास मत करना
शीश पर गंगाजली रख तू पसीने की
ज़िंदगी को तू कभी 'सल्फास' मत करना
कह रहे हैं पांव के छाले चला चल तू
मंजिलों तक दर्द का एहसास मत करना
जब तुम्हारी मुट्ठियों में ही समुंदर है
तो सरोवर के सलिल की आस मत करना।
(9)
साहिलों की जिस्म को मझधार करता है
वो नदी से इस तरह व्यवहार करता है
खोल ली दूकान उसने भी सियासत की
खिदमतों का वो वहाँ व्यापार करता है
यूँ मोहब्बत तो रही व्यवधान से उसको
रोज घर में वो खड़ी दीवार करता है
एक पानीदार बादल हाथ पर रखकर
आग का दरिया हमेशा पार करता है
एक मिट्टी के दिए का हौसला देखो
वह अंधेरों पर अकेला वार करता है
फूल से लगते रहे कांटे उसे हरदम
इस तरह वह ज़िदगी गुलजार करता है
झूठ के घर गमज़दा सच से मिला हूँ मैं
सच कहूँ तो सच वहाँ बेगार करता है।
Nine Gazals by Shri Mahesh Agrawal, Bhopal
महेश अग्रवाल जी की आचरणसुलभ नम्रता उनकी ग़ज़लों की तेवर को और अर्थवान, और धारदार बनाती है. व्यवस्था में व्यापी विसंगतियों के विरोध के प्रति सजग एवं समर्पित रचनाकार समाज की थाती हुआ करता है. समाज को ऐसे रचनाधर्मियों की सदा से आवश्यकता रही है.
जवाब देंहटाएंमहेश जी ऐसी किसी आवश्यकता की अपने तईं सार्थक पूर्ति करते हैं. प्रस्तुत हुई ग़ज़लें इसकी बानग़ी सदृश हैं जिनका अवगाहन कर पाठक ही नहीं सजग रचनाकार भी अव्यवस्था-विरोध और मानव जीवन की विद्रूपता को स्वर देने में रचनात्मकता और इसके नाम पर की जा रही अनावश्यक की गाली-गलौज केे बीच के फ़र्क को सीधा समझ सकता है.
महेशजी की नौ ग़ज़लों केे लिए प्रकाशक एवं महेशजी दोनों के प्रति साधुवाद..
शुभ-शुभ
सौरभ
बेहद मारक ग़ज़लें हैं। आज के समय के एकदम अनुकूल!
जवाब देंहटाएंहिन्दी स्वभाव की बहुत अच्छी ग़ज़लें हैं। महेश अग्रवाल जी को और उनके बारे में भरपूर पढ़ने-समझने को मिला। धन्यवाद पूर्वाभास।
जवाब देंहटाएंमाननीय महेश जी की गजलें बेहतरीन और उम्दा हैं - आज के समय पर प्रहार करती और समय को पहचान देती रचनाएं हैं - आदमी की आदमीयत और समाज पर प्रश्न चिन्ह उठा कर कुछ सोचने को विवश करती हैं - बधाई और साधुवाद - ओम सपरा - एन -22 डॉ मुखर्जी नगर , दिल्ली - 110009 - पूर्व स्पेशल मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रैट , नई दिल्ली - फोन - 9818180932
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