इक्कीसवीं सदी में (विशेषकर प्रथम दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर अब तक) नवगीत में नयी पीढ़ी ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। इस पीढ़ी में जहाँ कम आयु के रचनाकार हैं, वहीं बड़ी उम्र के रचनाकार भी हैं। इनमें कई तो ऐसे भी रचनाकार हैं जो प्रौढ़ावस्था में या उसके भी बहुत बाद की उम्र में नवगीत के क्षेत्र में आये और वर्तमान में अपनी रचनाधर्मिता से साहित्य जगत को चमत्कृत कर रहे हैं। इस नयी आवत में मनोहर अभय, हरिहर झा, शशि पाधा, शिवानंद सिंह 'सहयोगी', कृष्ण भारतीय, जगदीश पंकज, मंजुलता श्रीवास्तव, कल्पना रामानी, संतोष कुमार सिंह, रवि खंडेलवाल, राघवेन्द्र तिवारी, पूर्णिमा वर्मन, प्रमोद प्रखर, शंकर दीक्षित, आनंद कुमार गौरव, अनिल मिश्रा, रमाकांत, विनय भदौरिया, संध्या सिंह, मनोज जैन मधुर, जगदीश व्योम, संजय शुक्ल, रणजीत पटेल, शीला पांडे, पंकज परिमल, सौरभ पाण्डेय, प्रदीप शुक्ल, विनय मिश्र, योगेंद्र वर्मा 'व्योम', मालिनी गौतम, कल्पना मनोरमा, ओमप्रकाश तिवारी, शशि पुरवार, रोहित रूसिया, धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन', कृष्ण नन्दन मौर्य, अवनीश त्रिपाठी, रविशंकर मिश्र, गरिमा सक्सेना, राहुल शिवाय, शुभम् श्रीवास्तव 'ओम', चित्रांश वाघमारे आदि के साथ चर्चित युवा कवि योगेन्द्र प्रताप मौर्य का नाम भी उल्लेखनीय है।
योगेन्द्र प्रताप मौर्य भावुक मन के सहज कवि हैं। उनके व्यक्तित्व की यह सहजता बालपन की मोहक चितवन एवं निश्छल प्रेम की अनुभूति कराती है। वह भलीभाँति जानते हैं कि इस जड़ संसार में प्रेम ही चेतन, चिरंतन और चिदानंद है। शायद इसीलिये वह वर्तमान जीवन स्थितियों से उपजी पीड़ा और अवसाद का शमन करने और चुप्पियों को तोड़ने के लिए प्रेमपूरित हृदय से मधुर राग छेड़ते हैं और संवेदना एवं सृजन के बीज बोते हैं— "हम नहीं हैं मूक मानव/ चुप्पियों को तोड़ते हैं।/ वेदना मन में जगी है/ किन्तु कब ये नैन रोते/ हम धधकती भट्ठियों में/ हैं सृजन के बीज बोते।" कहने का आशय यह भी कि भाषा के संस्कारों से परिचित योगेन्द्र जी के नवगीतों में समकालीनता का पुट स्पष्ट दिखाई पड़ता है। युवा कवि शुभम श्रीवास्तव 'ओम' का भी यही मानना है— "योगेन्द्र प्रताप का लोक वास्तव में ग्रामीण अधिक है, किन्तु वह साम्प्रतिक विषयों पर भी चुप्पी तोड़ते दिखाई देते हैं। वैश्विक परिदृश्यों पर मुखरता भी है। वर्तमान परिवेश की महत्वपूर्ण चिंताओं पर उनकी पैनी दृष्टि है।"
गूगल से साभार |
हो कुपित
अब बादलों ने
खोल दी हैं मुट्ठियाँ
जबरदस्ती
घुस गया जल
ले रहा घर की तलाशी
चेहरों पर
हड़बड़ी की
है गहन छायी उदासी
कैम्प में
लेती शरण हैं
हाँफती सी हड्डियाँ
डूबता सब
जल प्रलय में
हम खड़े बनकर अकर्मक
झुक गये
गमलों के पौधे
रोकते वो साँस कबतक
बज रही हैं अब
क्षितिज में
खौफ वाली घण्टियाँ
टॉवरों पर
विषधरों का
हो गया देखो बसेरा
गाँव-घर में
भुखमरी अब
डालती है रोज फेरा
बह गईं सड़कें
यहाँ पर
खो गईं पगडंडियाँ
2. बूढ़े-बोझिल कंधे
'डिगरी' वाली
फाईल लेकर
रोज भटकते बंदे
धूल उड़ाती
पगडंडी से
कौन जुबान लड़ाये
जानबूझकर
लँगड़ी मारे
चलते पाँव गिराये
आखिर कब तक
भार सहेंगे
बूढ़े-बोझिल कंधे
समझ न पाते
लोग यहाँ पर
राजनीति की बातें
अपनों के
अपनेपन में भी
कितनी भीतर घातें
सुबह-शाम
कट रही रसीदे
उतर रहे हैं चंदे
वादा करती हैं
सरकारें
रोजगार सिरजन की
किन्तु निराशा
छीन रही है
खुशी यहाँ जन-जन की
तोड़ी गई
किवाड़ों भीतर
पंखों लटके फंदे
3. मौन खड़ा क़ानून
घण्टाघर का
बिगड़ा ट्रैफिक
घुस आए बलवाई
आदमखोर
सियासत ने है
फिर षडयंत्र रचा
हड्डी के ढाँचे
ढाँचों से
उतरी हुई त्वचा
हवा यहाँ
कर रही मुखबिरी
बनके सबकी दाई
छूट गया
हत्यारा खंजर
पीकर मनभर खून
अपनी
आँखों पट्टी बाँधे
मौन खड़ा क़ानून
जख्मी पड़ा
हुआ चौराहा
काली हुई दवाई
गगन चूमती
महल अटारी
में अरझी है भोर
झुग्गी के
माथे की सिकुड़न
कब से रही अगोर
सरकारी
फरमान हो रहे
केवल हवा-हवाई
4. भटक रही लाचारी
कभी गाँव में
कभी शहर में
भटक रही लाचारी
श्रम के हिस्से
रोज पसीना
लाल हुई हैं आँखें
कटी हमेशा ही
नभ में
उड़ती चिड़ियों की पाँखें
धँसा पीठ में
फिर धोखे से
खंज़र अत्याचारी
जलता है
अपना घर-आँगन
किसको आज पुकारें
भाईचारा
दफन हो गया
दिल में पड़ी दरारें
हुए बिकाऊ
रिश्ते-नाते
सब लगते बाजारी
दिये समय ने
अंतर्मन को
घाव बहुत से गहरे
सच्चाई
झुठलाने की जिद
शब्दों पर हैं पहरे
मोल लगायें
संबन्धों का
पैसों से व्यापारी
5. चुभते रहे बिछौने
माँ बच्चों का
मन बहलाने
पाये कहाँ खिलौने!
पीड़ा देती,
भूख पेट को
नहीं अन्न के दाने
बूढ़ी काकी
ओसारे में
कैसे गाये गाने
उलझन और
उनींदेपन में
चुभते रहे बिछौने
उगती हुई
भोर पर भारी
दरवाजों के साए
बैठी रही
रसोई दुख से
अपना मुँह लटकाए
उस्कन ऐंठी
जिद के मारे
काले पड़े भगौने
अब तो घर की
भीतों में ही
थोड़ी दया बची है
ओसारे की
थून सहारे
इज्जत आज ढकी है
एक डाह ले
छानी चूती
माँगे रोज भरौने
6. पूजा-कथा-मुहूरत
महाकुंभ में
प्यारी लगती
गंगा माँ की सूरत
संगम तट पर
रोज नहाने
किरणें नवल उतरतीं
बड़े सबेरे
पुण्य कमाकर
मन का आँचल भरतीं
उगता सूरज
लिख देता है
पूजा-कथा-मुहूरत
बालू के तल
पर उतरी है
एक शहर की रौनक
बिजली की इस
चकाचौंध में
तारे भी हैं भौचक
आसमान से
देख रहे हैं
सजी धरा की सूरत
उड़ी पतंगों
का लगता है
नीलगगन पर मेला
खुशियों का है
पर्व मनाता
भीड़भाड़ का रेला
सबमें हो
गंगा थोड़ी सी
इसकी आज जरूरत
7. कौन जिम्मेदार है
हो रही है मौत
निशिदिन
कौन जिम्मेदार है
चढ़ रहे जिन पर
रहीं कमजोर
वे सब सीढ़ियाँ
जी रही हैं
अब नशे में
ये हमारी पीढ़ियाँ
हाइवे पर
ज़िंदगी की
तेज़ ज्यों रफ्तार है
आदमी इतना
यहाँ पर
देखिए, मैला हुआ
राजधानी
का प्रदूषण
हर जगह फैला हुआ
मिल गई जो
जीत लेकिन
अंततः वह हार है
घुट रहीं साँसें
दिनों-दिन
यह धरा बेचैन है
जागती रहती
यहाँ अवसाद
में अब रैन है
आधुनिकता का
यहाँ नव
हो रहा अवतार है
8. नयी सदी की शादी
देख-देखकर
दुखी हुआ मन
नयी सदी की शादी
सुनकर डीजे
सुन्न पड़े हैं
बाबूजी के कान
किन्तु न पाते
खींच किसी का
वे बेचारे ध्यान
और पटाखें
छीने दिल के
धड़कन की आजादी
बुला रही
भोजन की खुशबू
टूट पड़े हैं लोग
थोड़ा खाते बाकी
कूड़ादान-
लगाता भोग
सिसक रहा है
अन्न देखकर
अपनी ही बरबादी
महँगी शादी
धीरे-धीरे
खुशियाँ जाती लील
दुखी पिता के
मन में चुभती
बड़ी नुकीली कील
हाल देखकर
सूली चढ़ती
यह आधी आबादी
9. जाल बिछाये हैं
पग-पग पर फिर यहाँ
बहेलिये
जाल बिछाये हैं
सावधान!
रहना तुम चिड़ियों
जब धरती पर आना
मुश्किल है अब
'दंत नुकीलों'
से सहायता पाना
स्वारथ के दानों को
चुन-चुन
वो बिखराये हैं
पीर पेट की
धीरे-धीरे
भूख बढ़ाती जाती
बूढ़े बरगद
की छाया भी
कब उम्मीद जगाती
मँडराते हैं
सिर पर देखो
दुख के साये हैं
नयनों के
संकेतों पर ही
आगे बढ़ते जाना
अपना सुख-दुख
यहाँ नहीं फिर
कहीं और बतियाना
शब्दवेधनी
तीर साधकर
खड़ी हवाये हैं
10. आने वाला कल
हवा-चाल
चलती सड़कें
सड़कों की चहल-पहल
धीरे-धीरे
उभर रहा है
आने वाला कल
लोई की
लालच के आगे
बिछा हुआ है जाल
नयी तरह का
स्वाद ढूढ़ती
भूख भटकती मॉल
जंकफूड के
पीछे पागल
आती हुई नसल
तीखे स्वर ने
कान उमेठे
तन-मन गया सिहर
एक अलग से
बहरेपन में
डूबा हुआ शहर
संस्कार की
ढही दीवारें
दबकर मरी अकल
Yogendra Pratap Maurya
पूर्वाभास में नवगीतकारों और उनके नवगीतों को प्रकाशित करने का यह क्रम प्रशंसनीय एवं सराहनीय है l इस क्रम में युवा नवगीतकार योगेन्द्र मौर्य के दस नवगीत नई पीढ़ी के लिए निश्चित ही प्रेरणा श्रोत हैं, जिन्हें पढ़कर नवगीत को जानने-समझने में आसानी हो सकती है l फ़ुरसत मिली तो इन गीतों पर विस्तार से लिखूँगा l
जवाब देंहटाएंहाँ एक बात और, आपने अपने आलेख में ऐसे कई नवगीतकारों के नाम का उल्लेख किया है जिनका जिक्र करना कभी किसी ने उचित नहीं समझा, यही कारण है कि चंद नामों के अलावा अधिकांश नवगीतकारों की उपेक्षा ने नवगीत को पहले पायदान पर आने से हमेशा रोका है l
एतदर्थ आपकी नवगीतकारों के प्रति पूर्वाग्रहों से मुक्त, साफ और स्पष्ट दृष्टि प्रशंसनीय है l
हार्दिक बधाई
- Ravi Khandelwal, Indore