मूर्धन्य कवि, आलोचक, सम्पादक श्रद्धेय दिनेश सिंह जी (14 सितम्बर 1947 - 2 जुलाई 2012) का नाम हिंदी साहित्य जगत में बड़े अदब से लिया जाता है। कारण सिर्फ यह कि दिनेश जी कविता और जीवन को एक दूसरे को पर्याय मानकर जीवन-भर उस सत्य की खोज में लगे रहे, जिसे उपनिषदों में 'नेति-नेति' कहकर शब्दबद्ध करने का प्रयत्न किया गया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी सहज-सौम्य-सुबोध दिनेश जी ने तत्कालीन शहर-गाँव-समाज में हो रहे आमूल-चूल परिवर्तनों, बढ़ रहीं चिंताओं-मलामतों एवं फ़ैल रहीं असंगतियों-अव्यवस्थाओं को बखूबी जान-समझ कर बड़ी साफगोई से अपने साहित्य संसार को रचा है। शायद इसीलिये आपने सदैव अपने नवगीतों में ही नहीं, बल्कि आलोचना में भी 'असत्य-अशिव-असुंदर' का पुरजोर विरोध किया है और सत्य, अहिंसा, प्रेम, विवेक, ज्ञान, संयम, सदाचार, उदारता, आस्था, शांति एवं अनुशासन का सार्थक पाठ पढ़ाया है— कई बार धारदार शब्दों से तो कई बार अपने टेढ़े-मेढ़े ढाई आखरों से। 'जीने का अर्थ मुखर' करते 'टेढ़े-मेढ़े ढ़ाई आखर'! प्रेम और प्रकृति की स्वाभाविक कलात्मकता को समोये आपके प्रणयधर्मी गीत भावनात्मक जीवनबोध के साथ आधुनिक जीवनबोध को बड़ी सहजता से प्रदर्शित करते हैं। कहने को तो आपकी पहली कविता श्रद्धेय अज्ञेय जी द्वारा संपादित 'नया प्रतीक' में प्रकाशित हुई थी और उसके बाद 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' सहित देश की लगभग सभी बड़ी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत, छन्दमुक्त कविताएँ, समीक्षाएँ एवं ललित निबंध ससम्मान प्रकाशित होते रहे। आपके नवगीतों को 'नवगीत दशक' तथा 'नवगीत अर्द्धशती' (संपादक : डॉ शम्भुनाथ सिंह) आदि समवेत संकलनों में भी प्रकाशित किया गया। आपके जीवन काल में आपके चार नवगीत संग्रह— 'पूर्वाभास', 'समर करते हुए', 'टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर', 'मैं फिर से गाऊँगा' प्रकाश में आये और काफी लोकप्रिय हुए। आप चर्चित व स्थापित कविता पत्रिका 'नये-पुराने' (अनियतकालीन) के संपादक रहे और कालान्तर में उक्त पत्रिका के माध्यम से गीत पर किये गये आपके कार्यों को अकादमिक स्तर पर स्वीकार भी किया गया। इस सन्दर्भ में सुपरिचित साहित्यकार श्रद्धेय कन्हैया लाल नंदन जी लिखते हैं— "बीती शताब्दी के अंतिम दिनों में तिलोई (रायबरेली) से दिनेश सिंह के संपादन में निकलने वाले गीत संचयन 'नये-पुराने' ने गीत के सन्दर्भ में जो सामग्री अपने अब तक के छह अंकों में दी है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं रही। गीत के सर्वांगीण विवेचन का जितना संतुलित प्रयास 'नये-पुराने' में हुआ है, वह गीत के शोध को एक नई दिशा प्रदान करता है। गीत के अद्यतन रूप में हो रही रचनात्मकता की बानगी भी 'नये-पुराने' में है और गीत, खासकर नवगीत में फैलती जा रही असंयत दुरूहता की मलामत भी। दिनेश सिंह स्वयं न केवल एक समर्थ नवगीत हस्ताक्षर हैं, बल्कि गीत विधा के गहरे समीक्षक भी" (श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन— संपादक: कन्हैया लाल नंदन, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 2009, पृ. 67)। कुछ इसी प्रकार से जाने-माने साहित्यकार भाई रमाकांत जी ने दिनेश सिंह जी के अवदान को रेखांकित करते हुए फरवरी 2013 में 'यदि' पत्रिका का 'दिनेश सिंह स्मृति विशेषांक' सम्पादित किया और उक्त विशेषांक के लोकार्पण समारोह में भारी मन से कहा भी था— "सशक्त गीतकवि दिनेश सिंह के कृतित्व और व्यक्तित्व का सम्यक मूल्यांकन किया जाना अभी शेष है। गीत और नवगीत को उन्होंने हिन्दी साहित्य के केन्द्र में लाने का जो कार्य किया है, वह ऐतिहासिक है।"
वरिष्ठ कवि राम सेंगर जी के सहयोग से प्राप्त चित्र |
वैश्विक फलक पर
गीत की सम्वेदना है अनमनी
तुम लौट जाओ
प्यार के संसार से मायाधनी
यह प्रेम वह व्यवहार है
जो जीत माने हार को
तलवार की भी धार पर
चलना सिखा दे यार को
हो जाए पूरी चेतना
इस पंथ की अनुगामिनी
चितवन यहाँ भाषा
रुधिर में धड़कनों के छंद हैं
आचार की सब संहिताएँ
मुक्ति की पाबंद हैं
जीवन-मरण के साथ खेले
चन्द्रमा की चाँदनी
धन-धान्य का वैभव अकिंचन
शक्ति की निस्सारता
जीवन-प्रणेता वही
जो विरहाग्नि में है जारता
इस अगम गति की चाल में
भूचाल की है रागिनी।
2. मैं फिर अकेला रह गया
बीते दिसंबर तुम गये
लेकर बरस के दिन नए
पीछे पुराने साल का
जर्जर किला था ढह गया
मैं फिर अकेला रह गया
ख़ुद आ गये
तो भा गए
इस ज़िन्दगी पर छा गए
जितना तुम्हारे पास था
वह दर्द मुझे थमा गए
वह प्यार था कि पहाड़ का
झरना रहा जो बह गया
मैं फिर अकेला रह गया
रे साइयाँ, परछाइयाँ
मरुभूमि की ये खाइयाँ
सुधि यों लहकती
ज्यों कि लपटें
आग की अँगनाइयाँ
हिलता हुआ पिंजरा टंगा रह गया
पंछी दह गया
मैं फिर अकेला रह गया
तुम घर रहो
बाहर रहो
ऋतुराज के सर पर रहो
बौरी रहें अमराइयाँ
पिक का पिहिकता स्वर रहो
ये बोल आह-कराह के
हारा-थका मन कह गया
मैं फिर अकेला रह गया।
3. कई रंग के फूल बने
कई रंग के फूल बने
कांटे खिल के
नई नस्ल के नये नमूने
बेदिल के
आड़ी-तिरछी
टेढ़ी चालें
पहने नई-नई सब खालें
परत-दर-परत हैं
पंखुरियों के छिलके
फूले नये-
नये मिजाज में
एक अकेले के समाज में
मेले में
अरघान मचाये हैं पिलके
भीतर-भीतर
ठनाठनी है
नेंक-झोंक है, तनातनी है
एक शाख पर
झूला करते
हिलमिल के
व्यर्थ लगें अब
फूल पुराने
हल्की खुशबू के दीवाने
मन में लहका करते थे
हर महफिल के।
4. नदी को पार कर
आ गए पंछी
नदी को पार कर
इधर की रंगीनियों से प्यार कर
उधर का सपना
उधर ही छोड़ आए
हमेशा के वास्ते
मुँह मोड़ आए
रास्तों को
हर तरह तैयार कर
इस किनारे
पंख अपने धो लिये
नये सपने
उड़ानों में बो लिये
नये पहने
फटे वस्त्र उतारकर
नाम बस्ती के
खुला मैदान है
जंगलों का
एक नखलिस्तान है
नाचते सब
अंग-अंग उघार कर।
5. फिर कदम्ब फूले
फिर कदम्ब फूले
गुच्छे-गुच्छे मन में झूले
पिया कहाँ?
हिया कहाँ?
पूछे तुलसी चौरा,
बाती बिन दिया कहाँ?
हम सब कुछ भूले
फिर कदम्ब फूले
एक राग,
एक आग
सुलगाई है भीतर,
रातों भर जाग-जाग
हम लंगड़े-लूले
फिर कदम्ब फूले
वत्सल-सी,
थिरजल-सी
एक सुधि बिछी भीतर,
हरी दूब मखमल-सी
कोई तो छूले
फिर कदम्ब फूले।
Five Love Poems in Hindi by Dinesh Singh
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30.1.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3596 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
समीक्षा : दिनेश सिंह कृत नवगीत-संग्रह ‘टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर' — अवनीश सिंह चौहान
जवाब देंहटाएंhttp://www.poorvabhas.in/2011/02/blog-post_23.html
बहुत सुंदर कविताएं।
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