विख्यात साहित्यकार श्रद्धेय वीरेन्द्र आस्तिक जी (कानपुर) के एक चर्चित नवगीत की पंक्तियाँ याद आ रही हैं— "बुझना नहीं है/जग तो बहेसिया है/चुपचाप रह मेरे मन।/देखा बहुत जगत ये/चहुँ ओर है हताशा/किस मुक्ति की जुगत में/हर मर्हला है प्यासा।/जिस धार बह रहे वे/उसके उलट बहे मन।" यहाँ कवि जिस प्रकार से अपने आसपास के नकारात्मक परिवेश में मौन के महत्व और सद्बुद्धि, धैर्य और साहस के साथ साधना की अपरिमित शक्ति को पहचानने की बात कर रहा है, वह एक शब्द-साधक के लिए बहुत मायने रखती है। कुछ इस तरह की बात चर्चित कवियत्री डॉ मंजु लता श्रीवास्तव जी भी कहती प्रतीत होती हैं— "मौन धारे/साधनाएँ/ज्ञान के सोपान चढ़तीं।" शायद इसीलिये डॉ मंजु जी भी एक अरसे से बड़े धैर्य और साहस से शब्द-साधना करती रहीं हैं, जिसका सुफल हम-सब के सामने है। संवेदनशील मूल्यगत विचारों से लैस मंजु जी का काव्य साहित्य अपनी समूची गरिमा के साथ आज, देर से ही सही, हमारे बीच अपनी जगह बना रहा है, जिसके लिए वह ह्रदय से बधाई की पात्र हैं। दयानंद सुभाष नेशनल कॉलेज, उन्नाव से सह-आचार्य के पद से सेवानिवृत्त डॉ मंजु लता श्रीवास्तव जी का जन्म 10 दिसम्बर 1956 को चित्रकूट, उ.प्र. में हुआ। शिक्षा: एम.ए.,पी-एच.डी.,ज्योतिष विशारद। प्रकाशित कृतियाँ : 'आकाश तुम कितने खाली हो' (काव्य संग्रह), 'पतझड़ में कोंपल' (गीत-नवगीत संग्रह), 'फिर पलाशी मन हुए' (नवगीत संग्रह)। सम्पादित कृति : 'नेह के महावर' (गीत संकलन)। आपकी रचनाएँ देश के तमाम साझा संकलनों, यथा— 'कुंडलिनी लोक' (कुंडलिनी संग्रह), 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' (गीतिका संग्रह), 'तन दोहा मन मुक्तिका' (दोहा संग्रह), 'काव्य अमृत' (काव्य संग्रह), 'अधूरी गजल' (गजल संग्रह), 'मौन मुखरित हो गया है' (कविता संग्रह), 'अंजुरी भर गीत' (गीत संग्रह), 'शब्द साधना' (गीत संग्रह) आदि में प्रकाशित की जा चुकी हैं। सम्मान : 2019 में 'पतझर में कोंपल' (गीत-नवगीत संग्रह) पर उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ से सर्जना पुरस्कार। संपर्क : डी-108, श्याम नगर, हरिहर धाम पार्क के पीछे, कानपुर-208013, चलभाष : 9161999400, 8840046513, ईमेल : manjulatasrivastava10@gmail.com
वरिष्ठ कवि राम सेंगर जी के सहयोग से प्राप्त चित्र |
धरणि से
आक्षितिज नभ तक
मचा कोलाहल बड़ा है
धरा के क्या
गगन के भी
हृदय में छाला पड़ा है
भोर से
संध्या समय तक
खण्ड-खण्डित आस पथ पर
ढ़ूढ़ता मन
स्वप्न उजले
स्याह रातों के फलक पर
रात दिन हारे हुए
मन से अथक जीवन लड़ा है
मौन धारे
साधनाएँ
ज्ञान के सोपान चढ़तीं
शांति के
अनुपम निलय में
अर्थ थीं जीवन का भरतीं
आज उन अनुभूतियों के
द्वार पर ताला पड़ा है
चेतना
धूमिल हुई है
दृष्टि मध्यम पड़ गई है
मन विवर में
जंग कोई
स्वयं से ही छिड़ गई है
सद्वविचारों की फसल पर
असद का पाला पड़ा है।
2. असली रूप कहाँ दिखते हैं
चेहरे इतने
लिपे-पुते हैं
असली रूप कहाँ दिखते हैं
इधर पड़ोसी
छीन रहा है
जर, जोरू, जमीन औ' घर को
अव्यवस्था
भर रही सभी में
पोर-पोर आदिम से डर को
कोलाहल-सा
मचा हृदय में
बाहर हिम छादित रिश्ते हैं
सदियों से ही
मना रहा है
मानव जंगल में भी मंगल
अब समाज
ठेकेदारों संँग
खेल रहा है खुलकर दंगल
जाति धर्म की
सौगातों में
बस निरीह जन ही पिसते हैं
दोहरे संबंधों
के सँग हम
रहकर कैसे सहज जियें हैं
मीठी-मीठी
बातें आगे
फिरते पीछे छुरी लिये हैं
सभी इंद्रियांँ
जाग रहीं पर
गूंँगे-बहरे हम बनते हैं।
3. कैसे सूख गई है
तुम को सौंपी
नदी लबालब
फिर यह कैसे सूख गई है
शीतल निर्मल धारा
को खारे जल
में क्यों मिला दिया है
अपनी मूरखता
के आगे
गागर-गागर सुला दिया है
लगता रेत
नदी से जीती
इसीलिए यह सूख गई है
मजबूरी क्या
ऐसी आई
बादल बुला नहीं पाए तुम
नदी-बावड़ी ,
पाखी-जंगल
खेत बाग प्यासे व्याकुल हम
शायद मंतर
बाँच ना पाए
इसीलिए यह सूख गई है
उस पर
मनमानी की ठानी
दासी समझा देवनदी को
धर्म-कर्म को
दरकिनार कर
शर्मसार कर रहे सदी को
अमृत घट को
भुला चुके तुम
इसीलिए यह सूख गई है।
4. मेघ-सावन फिर घिरे हैं
तपी झुलसी
इस धरा पर
मेघ सावन फिर घिरे हैं
रसभरी दो-चार बूंँदें
धूल के पर्वत गिरातीं
भुलभुलाती राह को
घिर-घिरके मनुहारें लुभातीं
घाटियों के घर
फुहारें रिमझिमी,
झूले पड़े हैं
जड़ हो रही संवेदना में
चेतनाएँ लौट आयीं
योजनाएँ कुछ नये सपनों
को अपने संग लायीं
लग रहा अब
निराशाओं के
कुहासे भी छंँटे हैं
खेत सूखा हुआ भावुक
है समर्पित बादलों को
समझकर अपना हितैषी
जोड़ बैठा करतलों को
छद्मवेशी, धूर्त्त, फिर
हमको छलेंगे
कपट से ये, सिर चढ़े हैं।
5. आसों फसल नहीं हो पाई
आसों फसल नहीं हो पाई
फिर बड़की का ब्याह रह गया
छुटकी के
अंकुरित स्वप्न पर
पाला मार गया
शहरी शिक्षा पाने का
सपना फिर हार गया
आस लगी पक्की छत
दीमक चाटी चौखट की
शौचालय आंँगन बनवाना,
वह फिर टार गया
धनिया की फट चली ओढ़नी
देहरी तक संसार रह गया
पपुआ कंचा छोड़
क्रिकेट के लिए ठुनकता है
नई साइकिल की खातिर
हर रोज मचलता है
फटी बांँह पेबंद पैंट में
पांँव नहीं जूता
बेवस पिता दिला ना पाए
ह्रदय कसकता है
अम्मा को ना मिली दवाई
भीतर बसा बुखार रह गया।
Hindi Poems of Dr Manjulata Srivastava
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