21 अप्रैल 1997 को खेरनी काछारी गाँव, ज़िला कार्बी आँगलोंग, असम, भारत में एक अति सामान्य किसान परिवार में जन्मे सौम्य, सहज, स्पष्टवादी युवा कवि चंद्र जी (चंद्रमोहन जी) ने अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा से बहुत ही कम समय में साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। हम सब जानते हैं कि ध्यानाकर्षण यूँ ही नहीं होता— इसके लिए तप करना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है। चंद्र जी ने भी, काफी-कुछ रमाशंकर यादव 'विद्रोही' जी, अदम गोंडवी जी, नचिकेता जी, रामनारायण रमण जी, बल्ली सिंह चीमा जी एवं रमाकांत जी की तरह ही, अपने आप को तपाया और खपाया है— एक विद्रोही कवि के रूप में और गाँव-जवार के मेहनतकश-किसान के रूप में भी। शायद इसीलिये चंद्र जी की कविताओं का आकर्षण क्षणिक नहीं हैं, क्योंकि इनमें मानवीय संघर्ष के साथ दया, प्रेम, करुणा का ऐसा सम्मिश्रण मौजूद है, जो चाहे-अनचाहे 'जन-गण-मन' को सवालों के घेरे में बाँधे रखता है। लब्बोलबाब यह कि भारतीय संस्कृति की गंध, अपनी माटी की सोंधी महक और अनुभवजन्य कटु यथार्थ को प्रभावशाली शैली में व्यंजित करने के लिए जिस प्रकार से दृष्टि की व्यापकता, सृजन की उत्कृष्टता एवं धारदार तेवर की आवश्यकता होती है, वह सब इस कवि में मौजूद है। तभी तो आज नई कविता की नई पीढ़ी में यह कवि एक प्रकाश-पुँज के रूप में आलोकित हो रहा है। सम्पर्क: मोबाईल : 9365909065
वरिष्ठ कवि राम सेंगर जी के सहयोग से प्राप्त चित्र |
ज़िन्दगी का मतलब ये नहीं
कि सिर्फ पैदा हो जाना
फिर धीरे-धीरे शिशु संसार का समय जीते हुए
फिर किशोरावस्था से गुजरते हुए
और फिर यौवन अवस्था में पहुँच कर
आत्महत्या कर लेना!
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं
कि गैरों के कन्धों पर चित्ता की तरह
उम्र भर लदे रहना
सिर्फ अपने दुखों को दुख कहना
सिर्फ अपने दुख से रोना ,घबराना
औरों के दुखों पर देना लात मार!
न लेना किसी से न देना किसी से
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं
कि वफा, ईमान, प्यार सब कुछ भुला देना
स्वाभिमान का तापमान न होना ज़िगर में
सिर्फ अपने फिकर में दिन-रात सोचना
न होना श्रम और सच्ची लगन का
सिर्फ अपने में ही मगन रहना!
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं
कि ज़िन्दगी भर आन की कमाई पर चान्दी काटते रहना
पेड़ की टहनियों की तरह कट कर भी
न प्रेम-सद्भाव का अमृत जल बरसना
बहुत चुप रहना, बहुत बोलना
न होना कला सहनशीलता का!
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं
कि देह में ज़ाँगर रहते हुये भी
कामचोर होना
धीरे-धीरे दरवाजा बन्द करना नेकी का
न होना सीरत का
ज़िन्दगी भर गुलाम की तरह सिर्फ नौकरी करते रह जाना
पैसों के लालच में
पैसों को ही बाप, दादा, ईश्वर सब कुछ मानना
सिर्फ अपने ही तड़प में
छटपटाना
आहें भरना
ये न समझना कि
हमसे भी बहुत दुखिया भरे पड़े हैं संसार में
कि किसी के कोई नहीं दाह-संस्कार करने वाले भी!
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं
कि किसी बनिया, व्यापारियों के हाथों बिक जाना
हिये में लाज, शर्म का न होना
ज़िन्दा, मुर्दा लाशों की तरह खामोश,
एकदम खामोश
ज़िन्दगी के अन्धेरे कमरे में जहरीली लताओं की तरह
पसर जाना
आदमीयत के बागों से दूर, बहुत दूर
कहीं सुनसान कंक्रीट के घने जंगलों में छुप जाना
चूहे की मानिन्द
और दुनिया में अच्छे-अच्छे किताबों जैसे लोगों को
दीमक की तरह
चाट जाना
बन जाना खुफिया हत्यारा
मिटा देना हृदय से प्रेम और विचारों की अविरल-धारा!
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं
कि उम्र भर
हिंसक, खूनी, घोर-अशान्ति
युद्धों को ललकारना
दुनिया में शान्ति को भंग करना
बनाते जाना दिन-पर-दिन नंगी-नंगी तलवारें
तमाम दुनिया को ध्वस्त करने वाली हथियार
और दुनिया के तमाम मासूम-मासूम बच्चों को
वक्त-बेवक्त सिखाते जाना अन्तिम दुनिया को नष्ट करने के लिए बहुत-बहुत उपाय
धूल, मिट्टी, वनस्पतियों, अनाजों और औषधियों के बीज सब गायब करते जाना
किसी अदृश्य सीमेन्ट, बालू और ईंटों से प्लस्तर करते हुए- पृथ्वी पर,
पृथ्वी की हरियाली को खात्मा करने के लिए
कला और हुनर और विज्ञान और तकनीक के बल पर सिखाते जाना
जिन हाथों में थमाना चाहिए भविष्य के सूरज को, चान्द को, सितारों को,
श्रमिक हथियार, कलम, कॉपी
और भिन्न-भिन्न अनाजों, सब्जियों और वनस्पतियों के बीज
और अच्छी-अच्छी किताबें
जिनसे ज़िन्दा रह सकें विश्व की तमाम खेतियाँ
जिनसे लिखा सके इस पृथ्वी पर जीवन की कहानियाँ, कविताएँ
जिनसे जान सकें,
समझ सकें
सच्ची ज्ञान, विज्ञान, भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र
और महापुरुषों के अनमोल विचार
जिनसे ज़िन्दा रह सकें तामाम भूखे-प्यासे पेट
जिनसे बना रहे विश्व पर्यावरण के सुन्दर-सन्तुलन
तमाम जीवन के मधुर गान
बची रह सकें ज़िनसे
पृथ्वी पर प्रेम व परोपकार की वनस्पतियाँ
श्रम, संघर्ष, स्वाभिमान की हरियालियाँ
और जीवन की आन-बान-शान
उन नरम-नरम हाथों में
क्षण-क्षण में
थमाते जाना
विस्फोटक-बम-बारूदों जैसे बहुत-बहुत कुछ!
ज़िन्दगी का मतलब यह नहीं, नहीं! नहीं! नहीं!
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं, दोस्त!
कि विश्व के असंख्य-असंख्य नदियों की
असंख्य-असंख्य थनों को असंख्य-असंख्य हाथों से
दुह-दुह कर, कँकड़िला, मुर्दा-मैदान बना देना
वहाँ पर कल-करखाना और बिजनेस की बड़ी-बड़ी टावरें
बैठा देना
बाँट देना तार-तार
रिश्ता-रिश्ता को
देश-देश को
गाँव-गाँव को
जिला-जिला को
राज्य-राज्य को
पिसे हुये महीन शीशे के दाने की तरह!
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं दोस्त!
कि शराब, कवाब, शवाब में ही
मस्त रहना
धर्म, मन्दिर-मस्जिद, ईश्वर, काला-गोरा, महल-आटारी,
घोड़ा-गाड़ी, सोना-चान्दी, पोथी-पतरी के
अन्तहीन झगड़ों के जबड़ो में ऊलझते-पुलझते-
फँसते-लड़ते, मर-मिटते रह जाना
न सुनना किसी का, न सुनने देना किसी का
न बोलना किसी से, न बोलने देना किसी से
यदि कोई साँच पर चले तो उसे भी बहकाना
और खुद साँच पर चलने से कतराना
सच को सच कहने में शर्माना
झूठ को झूठ कहने में ओठ सिल लेना
न किसी को गले में ईमान का माला पहनने देना
न खुद ईमान और रहम के लीक पर चलना।
न आँखों देखी देखना
प्रकृति की अप्रतिम सुन्दरता को
न महसूस कर सकना
अपनी भीगी हुई आत्मा में-
हवा, पानी, आग, मिट्टी और आकाश की गरिमा को, असमिता को!
न हँसना फूलों की तरह
न नदियों की तरह मुस्कुराना
न चिड़ियों की तरह चहचहाना
न भँवरों की तरह गुनगुनाना
न श्रमिकों की तरह रोना, गिड़गिड़ाना
न तितलियों की तरह फुदफुदाना
न सुनना किसी के गीत के अमर बोल
न जीने की कला, न संगीत की कला सीख सकना
न बजा सकना मुरली, गिटार, ढ़ोलक
न सितार की तार झंकृत कर सकना कभी।
और अन्त में
पछतावे की आग में
चुपचाप जलना
खोजना गज भर ज़मीन
और बीता भर कफन
फिर
मिट्टी में मिल जाना!
ज़िन्दगी का मतलब यह भी नहीं
कि मरने के बाद भी ज़िन्दा न रहना!
2. तब तो मुझे ही मर जाना चाहिए
यदि मुझ में नहीं है तनिक भी प्यार
यदि मैं आदमी नहीं हूँ मिलनसार
यदि मैं सीख नहीं सकता तनिक भी ज्ञान
यदि मैं लिख नहीं सकता अपनी लोक भाषा में मधुर गान
यदि मैं पढ़ नहीं सकता और कवियों की कविताएँ
यदि मैं अपने श्रम का लहू बहाकर
इस धरती पर उपजा नहीं सकता अनाज
यदि मैं इस धरती पर रोप नहीं सकता एक भी पेड़ का बीज
यदि मैं पीड़ितों की पीड़ाएँ देख
नहीं सकता भीतर-बाहर पसीज
यदि मैं दुनिया के अनाथ और मासूम-मासूम
बच्चे-बच्चियों के होठों पर नहीं सकता चूम
और नहीं दे सकता यदि इन्हें दो जून की रोटी औ' नून
यदि मैं थोड़ी-सी दुनिया में
अपने पैरों पर खड़ा हो कर नहीं सकता घूम
यदि मैं अपने जीवन में कभी भी न करूँ दान पुण्य
यदि मैं बचा नहीं सकता चिड़ियों के सुन्दर घोंसलों के लिए
घास-फूस का घर
यदि मैं बचा नहीं सकता नदी पर्वत झील सरोवर और विश्व पर्यावरण
यदि मैं सिर्फ अपने ही दुखों को दुख कहूँ, समझूँ
और औरों के दुखों पर दूँ लात मार
यदि मेरे जीने से पृथ्वी भी धीरे-धीरे मरने लगे...
तो मुझे ही मर जाना चाहिए
मर जाना चाहिए मेरे भाई
थोड़ी-सी सुन्दर पृथ्वी के लिए
मुझे ही मर जाना चाहिए!
3. जिस तरह आदमी की तबीयत ख़राब हो जाती है
जिस तरह आदमी की तबीयत ख़राब हो जाती है
ठीक उसी तरह कभी-कभार
देश की तबीयत ख़राब हो जाती है
जिस तरह आदमी की तबीयत ख़राब होने के बाद
उस आदमी की देह के अँग-अँग से धधकती हुई
आग की लूत्तियाँ, चिंगारियाँ उड़ने लगती हैं
और पुर्जे-पुर्जे के भीतर
एक अजीब बेचैनी
एक अजीब छटपटाहट
और कुछ आँसू की नमी
कुछ ख़ून की कमी
कुछ कमज़ोरियाँ
हो जाती हैं
उसी तरह समय के हेर-फेर से
देश की तबीयत ख़राब होने के बाद
देश की देह के पुर्जे-पुर्जे के भीतर
कभी जलन
कभी ठण्डक
महसूस होने लगती है
दिखने में लगती है साफ़-साफ़
देश की हज़ारों जोड़ी लाल-लाल अँखियों में!
लेकिन कभी-कभी
आदमी की तबीयत
बहुत ख़राब हो जाती है, बहुत खराब !
इतनी ख़राब तब हो जाती है
जब उस बेबस आदमी के पास
एक फूटी कौड़ी भी न रहती है
किसी भी अस्पताल में इलाज कराने हेतु
न ख़ुद के दम पर कमाने की जाँगर रहती है
कि नून-रोटी भी खा सके
कि बना सके बरखा-बुन्नी से चूती हुई झोपड़ियाँ
कि ख़रीदकर कफ़न भी
नँग-धड़ँग तन को ढक सके!
और इस तरह वह बीमार आदमी
गम्भीर, भयावह और खतरनाक रोग-शोक
घोर दुख के अन्धेरे,
बहुत अन्धेरे कुआँ जैसी गुफ़ाओं-कन्दराओं में कहीं
चुपचाप मरने लगता है धीमी मौत
मरते हुए
करने लगता है ख़ून की अल ल ल ल् उल्टियाँ
और कुम्हलाते छटपटाते कराहते चीख़ते मिमियाते
घिघियाते
केवल मुट्ठी भर कृशकाय देह लिए वहीं कहीं
बंजर भूमि पर दम तोड़ देता, है बिचारा!
जिसकी बदबू देती हुई मुर्दा लाश पर
घृणा-नफ़रत की देसी-विदेशी-पड़ोसी मक्खियाँ
भिनभिनाने लगती हैं इधर-उधर...।
4. कई वर्षों से है
खेतों और कपिली-नदी के बीच
मेरी माँ की आँखों की नदी का रिश्ता
कई वर्षों से है
मेरे लहू में बहते
मेरी माँ का क्रन्दन
कई वर्षों से है
दिन भर खटने की आदत पर
न मिले उधारी में नमक
मुट्ठी-भर पिसान
और खतरनाक खाँसी की टिकिया
तो माँगने की आदत से
हँसते-हँसते
स्वाभिमान की मौत कुबूलने के लिए
मेरे ज़िगर के रग-रग में
कई वर्षों से है
यह अनन्त धरती के निहाई पर
हथौड़ी से पीटते-पीटते
खुरपी, कुदाली
बीत गई मेरे पिता की उम्र!
हथौड़ी से पीटने की
और लोहे की खुरपी-कुदालिओं जैसे पिटाने की सहनशक्ति
मेरी कृशकाय-आत्मा की यातना में शामिल
कई वर्षों से है!
5. सावधान ईश्वरो! हम बन्दूक उठा लेंगे
मैंने आलू बोया बड़ी मेहनत से
और अपनी देह की तरह पाल-पोष कर जवान किया
रोगों, जैसे कीड़े-मकोड़ों से हजार बचाया
जो जाड़ा-पाला से
खत्म हो जाते हैं पूरे-के-पूरे
उन आलू के खेत को बचाया!
मैंने प्याज बोया
मिट्टी के बदन को दही की तरह मुलायम बनाकर
लहसुन बोया
छह ऋतुओं में क से ज्ञ तक की उगने वाली फसलों और सब्जियों को
इसी भूमि पर उगाया!
लेकिन जब एक किसान की तरह
बाजारों में बेचने गया पैकारी हिसाब
तो लेने वाले कमबख्त व्यापारी टूट पड़े
कम दाम में ही
और मेरे हाथ में बचा एक आलू!
मैं सोचता हूँ कि
यही कम दाम में लेने वाले लोग
एक दिन
आपको भी कम दाम में खरीद लेंगे क्या?
गोदामों को फूँक देंगे क्या?
महँगाई को बढ़ा देंगे क्या?
गर मैं गन्ना उगाऊँगा तो मिट्टी का मोल भी नहीं रहेगा क्या?
और इससे बनने वाली चीनी, चीनी की कीमत को चन्द्रमा तक छुआ देंगे क्या
भूख से मरने वाले लोगों के लाशों पर आक..थूक देंगे क्या?
नहीं! नहीं!
इन सब काण्डों के होने से पहले
सावधान ईश्वरो! हम बन्दूक उठा लेंगे
और आलू की गोलियाँ भरकर
आपको सीधे पाताल लोक में पहुँचा देंगे!
6. सदानंद चाचा
गेहूँ के खूबसूरत खेतों की तैयारी के लिए
अभी कल ही मिर्च के गाँछों को
कुदाली से काट रहे थे सदानंद चाचा
संग-साथ कटवा रही थीं सदानंद बो चाची
सदानंद चाचा के अपाहिज पिता काट रहे थे
सदानंद चाचा का नन्हा यश काट रहा था
छुटकी खुशी काट रही थीं
लगभग सब अपने-अपने कुदालियों से काट रहे थे
लगभग सब मिर्च के बगानों को दुख के साथ विदा कर रहे थे
और मैं गन्ने के खेत में गन्ना काट रहा था!
अचानक देखा कि
चाचा इस बार पुरजोर देकर मिट्टी में कुदाल मार रहे हैं
फिर अचानक देखा कि
मिर्च के जड़ में न लगकर सदानंद चाचा के पाँव में
कुदाल का धारदार फाल लग कर आधा पाँव ही कट गया
उफ!वहाँ का माँस कटकर फेंका गया वहीं कहीं
लाज़मी है कि खून बहेगा ही!
दुख-दरद तो बढ़ेगा ही!
चाचा वहीं मिट्टी को बाहों में कस के पकड़कर बेहोश हो गए
चाची दौड़ी-दौड़ी पानी लाईं
उनकी आँखों पर छिड़कीं
चाची अपने आँचल के बेने से हवा आँख पर स्नेह से हाँकीं
चाची अपने आँचल के छोर को फाड़ कर बाँध दीं
और अपाहिज पिता करते भी क्या
खेत के इर्द-गिर्द वनतुलसी के पल्लव ढूँढ रहे थे
बहते हुए लाल लहू को बन्द करने के लिए
बाबू यश और बनी खुशी अपनी भूखी आँखों से पिता के आँखों में टुकुर-टुकुर ताक रहे थे सिर्फ!
आज जब सुबह सुबह उठा
पहले आँख नहीं धोया
रात के बहे हुए बर्फीले आँसुओं को भी नहीं पोंछ पाया
बाँस के अलगनी पर रखा हुआ पिता का पुराना धुराना कुर्ता पहना
दीवार के कोने में धरा हुआ दाव लिया
दाव को रेती से पिजाया और पत्थरों से पिजाया
और लाल गमछा मस्तक पर लिए
लहराता हुआ चल दिया
दूर गन्ने के खेतों में
कुछ देर बाद देखा कि
बिजली के तारों पर बैठे हुए पँक्तिबद्ध पंछी
प्रातः के गज़ल-गीत गा रहे थे
इस खुशी में गीत गा रहे थे कि
एक दो टेटनिस का इंजेक्शन और दस बीस लगे हुए कटे पाँव में टाँके और ढेर सारे बेंडिसों के
आथाह दर्द का चादर ओढ़े हुए सुबह-सुबह
अपने उसी खेत में लंगड़ाते हुए
हल जोत रहे हैं
गेहूँ के दाने छिट-बो रहे हैं
मैं देख रहा हूँ सामने से
वहाँ से खून रिस कर बह रहा है
और खून के रंग पर छीटे हुए दाने को
चुग रहें हैं
देसी-परदेसी पंछी!
मैं देख रहा हूँ अपनी खुली आँखों से
सदानंद चाचा रो नहीं रहे हैं
रो रही है छाती पीट-पीटकर
पृथ्वी की पसरी हुई अन्तहीन आत्मा!
6. दुखी-देश
इस देश की हजारों जोड़ी आँखों में
क्यों इतना गम है ?
आँसू क्यों है इतना हजारों जोड़ी आँखों में?
यह जानने के लिए दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जाने की
जरूरत नहीं
कोई जरूरत नहीं जाने की शहरों में
वर्तमान भारत का काला चेहरा
कहीं भी दिख सकता है!
क्योंकि भारत ईश्वरों का देश है
भारत मज़दूरों और किसानों की हत्याओं
और आत्महत्याओं का देश है
मन्दिर, मस्जिदों का देश है
जाति, धर्मों का देश है
इसलिए भारत एक दुखी देश है
बलात्कार की बातें छोड़ो
क्योंकि बलात्कार महाभारतकालीन युग से
चलती आ रही है एक खतरनाक परम्परा है
भारत मुर्दों का देश है
भारत गूंगों और मूकों का देश है
भारत पिछड़ों का देश है
भारत की कोर्ट-कचहरी की कानून में
ईमान और इन्सानियत का खून कब का ही खत्म हो चुका!
भारत की संसद सच, इन्साफ और
अधिकार का संगम नहीं!
बीयर बार है
जहाँ एक दूसरे नेता करते
अपने-अपने प्यार के इजहार हैं
कोई मारते आँख तो
कोई किटकिटाते दाँत हैं
जहाँ एक से बढ़कर एक धुरन्धर
जहाँ एक से बढ़कर एक हिटलर
जहाँ एक से बढ़कर एक हत्यारे
जहाँ एक से बढ़कर एक सँपेरे!
भारत, वो भारत नहीं रह गया है अब
जो पहले कभी था
भारत के अर्थ बदल गए हैं अब
भारत की संस्कृति, सभ्यताएँ बदल गई हैं अब
भारत के गाँव जिला राज्य सब कुछ बदल गए हैं
और भारत के बदलने के साथ-साथ
भारत के लोग बहुत बदल गए हैं
यहाँ तक कि भारत के नद-नदी
वन-जंगल पर्वत-अँचल बदल गए हैं
भारत देश के अन्दर झूठ सच पाप पुण्य
सब उलट-फेर हो चुके हैं
'मैं मादरे- हिन्द का बेटा हूँ
कहने में भी शर्म आती है मुझे!'
भारत, सोने की चिड़िया नहीं रह गया है अब
भारत को गोबर की चिड़िया कहने में भी
शर्म आती है बच्चों को !
भारत के धरती पर सबसे बड़ा सत्य नाम श्री राम का है
ये ही श्री राम का नाम हत्यारों की खौफनाक हथियार है
भारत के भवनों में, मैदानों में जितने भी
इस तरह के संगठन हैं
लगभग सब के सब मौत के सौदागर हैं भारत, जिस शब्द को आज भी सुन रहा हूँ
और पहले भी सुना था कभी
गोडसे के मुख से
और श्री राम का नाम आज भी पढ़ रहा हूँ
और पहले भी पढ़ा था कभी
एक बाल किताब में
कि गांधी धरती पर गिर कर
'हे राम' कहके पुकार रहे थे....
कहीं यही अंतिम शब्द तो नहीं भारत देश!
जिस अंतिम शब्द से तुम्हारा
सर्वनाश होना तय है शायद!
7. बच्चे
बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
तन, मन, वचन, आत्मा से बहुत सच्चे होते हैं
प्रेम-सद्भाव के वृक्ष-आम की कोमल डालियों की तरह
सदा झुके होते हैं
कच्चे-पक्के फलों की तरह लदे होते हैं
यदि मिलनसार की भाषा सीखना है
तो कोई बच्चों से सीखे
बच्चों से सीखे किसी बच्चे के रोने से रोना
किसी बच्चे के खिलौने से खेलना
फिर वापस दे देना
किसी के रसोई घर में पईठकर
किसी भी माई के हाथों दूध भात नामू-नामू खा लेना!
धूल की दीवारों की तरह ढ़हना
फिर चट्टानों की तरह न हिलना
किसी भी माँ के आँचल में चिपक जाना
फिर चुप हो जाना चुपचाप
कोई बच्चों से सीखे
किसी आन के बच्चे की आँखों में आँसू
टप-टप बहते हुए को पोंछना
चुप कराना स्नेहिल हाथों से
फिर गले लग जाना बेशक
फिर प्यारा-सा चुम्बन दे देना मासूम की तरह
कोई बच्चों से सीखे
बच्चों से सीखे कोई
कि कोई भी आँगन
कोई भी घर
किसी का भी खेत-खलिहान
कोई भी आँगन के फूल
सोन-चिरईयों की तरह उड़न्तू होते हैं
जिनके जाति, धर्म नहीं कोई भी
प्रेम और मर्म के सिवा!
किन्तु कहना यह गलत न होगा
कि बच्चे
भूत होते हैं, वर्तमान होते हैं, भविष्य होते हैं
भूगोल होते हैं, अर्थशास्त्र होते हैं, इतिहास होते हैं
देश होते हैं, दुनिया होते हैं, संसार होते हैं
किसान होते हैं, मज़दूर होते हैं
बहुत-बहुत कुछ होते हैं
बच्चे वक्त के साथ
बदलते रहते हैं
बच्चे शब्द होते हैं
बम होते हैं, बारूद होते हैं
बन्दूक होते हैं
तोप होते हैं, तलवार होते हैं
आग होते हैं, पानी होते हैं
हवा होते हैं
धरती होते हैं
अनन्त आकाश होते हैं
बच्चे गीत होते हैं, संगीत होते हैं
ज्ञान होते हैं, विज्ञान होते हैं
सभ्यता होते हैं
संस्कृति होते हैं, नदी होते हैं, सागर होते हैं
सागर के सुनामी होते हैं
सिन्धु के ज्वार होते हैं
खेत होते हैं, खदान होते हैं, कल-कारखाने होते हैं
कोटि-कोटि श्रमिक हथियार होते हैं
बच्चे चान्द होते हैं, असंख्य सितारे होते हैं
सूरज होते हैं
सम्पूर्ण प्रकृति के अप्रतिम कलाकृति होते हैं
जिन्हें हत्या नहीं कर सकता कोई
जिनकी प्रतिभा को कत्ल नहीं कर सकता कोई भी
अगर करने की कोशिश करता भी है
तो सबसे पहले वह खुद खत्म होगा
उसकी तमाम दुनिया खत्म होगी
उसके तमाम देश खत्म होंगे
उसके तमाम लगाए हुए पेड़ खत्म होंगे
उसके तमाम गाँव जिला, राज्य खत्म होंगे
उसकी तमाम नदियाँ खत्म होंगी
उसकी तमाम सुन्दरताएँ खत्म होंगी
क्योंकि
बच्चे वक्त के साथ बदलते रहते हैं...
बच्चे बम होते हैं बारुद होते हैं बन्दूक होते हैं ...
भूख में बहुत, बहुत कुछ होते हैं!
जिनके होने से कोई भी रोक नहीं सकता
न ईश्वर
न जाति
न धर्म
न सत्ता
न पोथा-पोथी
कुछ भी नहीं...., नहीं, नहीं
कुछ भी नहीं!
8. हम मज़दूर दुख की दारू पीते हैं
हम मज़दूर दुख की दारू पीते हैं!
नशा नहीं होती तब
लाल-लाल आँखों में तड़पती हुई
नौ-नौ नदियों की मछलियाँ
दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत के बाद
यहीं कहीं रेत पर
अन्तहीन थकान की लोकगीत गाती हैं
हम मज़दूर दुख की दारू पीते हैं!
नशा नहीं होती तब
रक्त से भीगे हुए कन्धे को
अपने स्नेहिल दुपट्टे से नहीं पोंछना चाहती कोई प्रेमिका
नहीं सुनाना चाहती कोई कविता
कहना नहीं चाहती अपनी बिना हड्डी की जुबानों से
कि मज़दूर 'मेरे गले का हार'!
भारी-भारी ईंटों के बीच
दबकर छिलाई हुई श्रमशील ऊँगलियों में
नहीं पहनाना चाहती कोई अँगूठी!
हमारी सीमाहीन यातनाओं में शामिल नहीं होना चाहते कोई!
हम मज़दूर दुख की दारू पीते हैं!
नशा नहीं होती तब
किन्तु
खेत से या खदान से काम कर
जब टुघरते-टुघरते टुअरों की तरह
लौटते हैं शाम को पैदल
तब बीच रास्ते में
कहीं भी कुम्हलाकर गिर सकते हैं
सूखे पेड़ों की तरह
धूल के दीवारों की तरह
कहीं भी भरभरा कर ढ़ह सकते हैं
घर लौटने से पहले
अपने महबूब के कन्धे पर
मेहनतकश मस्तक धरकर बिलख-बिलख कर रोने से पहले
अपने महबूब के गले मिलने से पहले
अपने महबूब के छाती में चिपक कर दूध पीते हुए मासूम बच्चे बच्चियों के हाथों में
टॉफी चॉकलेट देने से पहले
अपने बीमार माई बाप के जर्जर हाथों में
रक्त से सनी हुई दो सौ की पगार थमाने से पहले !
हम मज़दूर दुख की दारू पीते हैं!
नशा नहीं होती तब
गन्ने के खेतों में कुदाल चलाते हुए
कुदाल से कटकर फेंका जाते जब आधे पाँव
कई दिनों की मज़ूरी मर जाती है
वहाँ की खूनसनी पृथ्वी देखती है
सीधे आसमान से देखता है सूरज
देखता है रात का शीतल चन्द्रमा
हजारों सितारे देखते हैं
कि केवल एक कुदाली के दम पर
दस-दस व्यक्तियों के पेट पालने वाले मज़दूर के दुख की
दारूण-दारू, बाजारू दारू के सात-पैक के नशा नहीं
सात समुन्दर के अनन्त नमकीन पैकें होती हैं
जिन्हें पीकर पचाने से पहले
कोई भी मौत की सजा कबूल कर लेगा मेरे दोस्त!
9. मेरा एक मज़दूर साथी
एक मामूली ऑपरेशन बिना मर गया
मेरा एक मज़दूर साथी
ओह! उसकी आत्मा पत्थर-घाट के श्मशान में
रोती है आज
उसकी कही हुई बातें
मेरी छाती की बाती-बाती में
बार-बार चोट करती हैं
खेतों में कुदाल चलाते समय जब
मुझसे कहता था कि मोहन भाई
दुनिया के किसी भी घर में रहो
पर याद रखना
कि यहाँ कोई पानी भी नहीं देगा
माँगने पर
बिना तने हुए हाथों के
एक फूल भी टूट नहीं सकता
हज़ार शीशों से कटने का खतरा उठाए बिना
एक सुन्दर जीवन गढ़ नहीं सकता
आगे बढ़ ही नहीं सकता दोस्त
अपनी पगड़ी में गाँठ बाँधकर याद रखना
बिना हाड़-तोड़ मिहनत-मज़दूरी किए
कहीं भी धकेले जाओगे
जीने में लज्ज़त एक पैसा का न रह जाएगी
आँसू चुपचाप बहाते जाओगे
तुम्हारे घरवाले क्या
एक पूरा देश भी कदर नहीं करेगा
तुम्हारे लहू-पसीने की
10. रास्ते हम ही ने बनाए
रास्ते हम ही ने बनाए
देश एक रास्ता है
और रास्ते के बीच जितने गहरे गड्ढे हैं
लगभग सब के सब गद्दार हैं
और हम देश के रास्ते पर चलते हुए
गिर जाते हैं बार-बार
गड्ढे में
यह हमारी जीत नहीं
बड़ी हार है,
बड़ी हार
कि रास्ते हम ही ने बनाए।
Ten Poems of Hindi Poet Chandra
ज्वलंत और कारगर कविताएँ, जमीन तौडती हुई भी।बहुत बहुत बधाइयाँ ।
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