हम सब के लाड़ले युवा कवि चित्रांश वाघमारे जी ने अपनी सम्पूर्ण रागात्मक एवं रचनात्मक ऊर्जा का सदुपयोग कर बड़ी ही कम आयु में हिंदी गीत-नवगीत के क्षेत्र में सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। तभी तो 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात'— इस लोकोक्ति का हवाला देते हुए प्रेसमैन के साहित्य संपादक रहे जाने-माने कवि श्रद्धेय मयंक श्रीवास्तव जी बातों-बातों में कह देते हैं कि नयी पीढ़ी के इस विलक्षण कवि ने अपनी लेखनी से हम सब में आशा की एक नयी किरण जगा दी है। जन्म : 19 जनवरी 1994, भोपाल, म.प्र.। शिक्षा : एम.कॉम (वित्त)। प्रकाशित कृति : माँ (काव्य संग्रह )। 'शब्दायन' (सं.- श्री निर्मल शुक्ल), 'गीत वसुधा' (सं.- श्री नचिकेता), 'गीत सिंदूरी गंध कपूरी' (सं.- श्री योगेंद्र दत्त शर्मा), 'सहयात्री समय के' (सं.- श्री रणजीत पटेल), 'नई सदी के नवगीत' (सं.- डॉ ओमप्रकाश सिंह) आदि समवेत संकलनों में नवगीत प्रकाशित। पुरस्कार एवं सम्मान : वर्ष 2018 का 'प्रथम पुनर्नवा पुरस्कार' (मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, भोपाल), वर्ष 2015 का 'आशा साहित्य सम्मान' (साहित्य सागर पत्रिका), 'चर्चित चेहरे सम्मान-2014' (दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय, भोपाल), वर्ष 2011 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल द्वारा बाल साहित्यकारों के दल के सदस्य के रूप में सम्मानित, 2007 में 'मालती वसंत नवलेखन सम्मान' (हिन्दी भवन, भोपाल) सहित राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक स्तर पर लगभग दो दर्जन सम्मान एवं पुरस्कार। सम्प्रति : एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत। संपर्क: एम-329, गौतम नगर (गोविन्दपुरा), भोपाल- 462023, मोबाइल : 09993232012, 09165105892, ईमेल : chitranshw1994@gmail.com
वरिष्ठ कवि राम सेंगर जी के सहयोग से प्राप्त चित्र |
प्रश्नों में उलझे रहते हम
और सामने हल होता है
सबसे जटिल प्रश्न का उत्तर
सबसे अधिक सरल होता है
वर्तमान ही खो जाता है
आगत का आभास न हो तो
सागर से लड़ने मत जाना
साहस हो, पर साँस न हो तो
डूबेगा जो बिना सहारे
वो ही अधिक विकल होता है
प्रश्नों से जो युद्ध करेगा
सारे सूत्र समझ जाएगा
नौका जो जल बीच रही तो
नौका में भी जल आएगा
जग कितना अस्थिर होता है
मन कैसा चंचल होता है
जब तक डगर न नापी तब तक
उस पथ के उलझाव न देखे
जाते हुए पाँव देखे थे
किंतु लौटते पाँव न देखे
जिस पथ पर जल ही जल दिखता
वह पथ ही मरुथल होता है
उसे मिलेंगे उत्तर जो भी
संशय में आशय खोजेगा
जब जीवन का नाम न होगा
वह जीवन की लय खोजेगा
जो हल ही देखे प्रश्नों में
वो ही अधिक सफल होता है।
2. सिलवटें उभरी हुई हैं
सिलवटें उभरी हुई हैं चादरों पर
नींद ही आई न हमको स्वप्न आया
स्वप्न वाली सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते
मैं थकन को ओढकर कुछ रुक गया था
दंडवत करना पड़ा जैसे स्वयं को
स्वयं के सम्मुख अधिक ही झुक गया था
दर्पणों में झांककर देखा स्वयं को
और मैं लगने लगा खुद को पराया
रात को जब मैं अचानक जागता हूँ
रोज़ मेरे साथ चिंता जागती है
प्रश्न के हल पूछता तो हल न देती
प्रश्न के उत्तर मुझी से माँगती है
रात भर चिंता रही मुझको जगाती
रात भर इसको वहाँ मैंने सुलाया
कुछ दिनों से बात मन को मथ रही जो
सोचता था मैं छुपाकर रख रहा हूँ
जो न कह सकता स्वयं मन से कभी मैं
सिर्फ मन के द्वार जाकर रख रहा हूँ
जब हृदय पीड़ा अचानक पूछता है
सोचता हूँ मैं इसे किसने बताया?
देखता हूँ मैं यहाँ उभरी लकीरें
लग रहा है एक चेहरा गढ़ रही है
करवटों के व्याकरण इतने अबूझे
सिलवटें ही सिर्फ इनको पढ़ रही है
पीर का जो चित्र था मैंने संजोया
आज जैसे हूबहू इसने बनाया।
3. अपने अपने संविधान हैं
उनकी अपनी आसंदी है
उनके अपने संविधान हैं
उनके अपने मापदंड हैं
उनके अपने अलग निकष हैं
शब्दों का पैनापन छीना
शब्दावलियाँ हुई विवश हैं
इन देवों की अपनी स्तुतियाँ
अपने-अपने सामगान हैं
स्वर अपने हैं लेकिन भाषा
सत्ता निर्धारित करती है
आचरणों से जुड़े विधेयक
संसद में पारित करती है
स्वर तो है पर सभी मौन हैं
शहर लग रहा बियाबान है
पथराई आंखों से जाने
कितने पतझर झाँक रहे हैं
पतझर की छवियों के ऊपर
वे वसंत को टाँक रहे हैं
इकरंगी रह गई हक़ीक़त
किंतु रंगीले समाधान हैं
कल तक जो विश्वास रहा वो
आज बदलता जाता डर में
खुद अपने को ढाल लिया है
जिसने एक अजायबघर में
बहुत सहज लगते हैं लेकिन
वे शंकित है, सावधान है।
4. बादल होने में
सागर को युग लग जाता है
पीने लायक जल होने में
पूरी उम्र निकल जाती है
बूँदो की बादल होने में
बादल के अंतस की इच्छा
मुझको अधिक तरल बनना है
बूँदों की आँखों का सपना
कल मुझको बादल बनना है
आज न जी पाते दोनों ही
जुट जाते हैं कल होने में
ये कहना सचमुच मुश्किल है
किसकी इच्छा अधिक सघन है
कभी-कभी मन भी कहता है
आखिर कैसा पागलपन है?
साँपो से बिंधना पड़ता है
पेड़ों को संदल होने में
साध रही है सबको दुनिया
दोनों पलड़े कब समान है
एक ह्रदय की आस पुरानी
एक समय का संविधान है
तपना-जलना भी पड़ता है
कालिख से काजल होने में।
5. भाव नही बदलेगा
सत्ताओं को भाने वाले
शब्दकोष तक गढ़े जा रहे
लेकिन मन की जो भाषा है
उसका भाव नहीं बदलेगा
एक सरीखे कई स्वरों में
एक भिन्न स्वर का खो जाना
कभी-कभी महंगा पड़ता है
शब्दों का विनम्र हो जाना
शब्द न सच्चे रह पाए तो
सच को सच ही ही कौन कहेगा?
क्षमा कीजिये हवा बहेगी
जैसे वह बहना चाहेगी
भाषा अपनी बात कहेगी
जैसे कहना चाहेगी
क्षमा कीजिये, किन्तु चन्द्रमा
अब दिन में तो नहीं उगेगा
मूल न कोई रह पाया जब
सबके सब पर्याय बने हैं
ग्रंथों के अधखुले पृष्ठ से
अनदेखे अध्याय बने हैं
हर कोई परछाई बनकर
पीछे-पीछे नहीं चलेगा।
चखे आम ही आजतक
नीम आजतक नहीं चखी है
उत्तर देने से पहले ही
प्रश्नावलियाँ बाँच रखी हैं
कोई तो प्रश्नावलियों के
बहार से भी प्रश्न करेगा।
6. इसमें जल का दोष नही है
तुमने प्यास बुझाने खातिर
सागर देखे नदी न देखी
फिर भी प्यासे लौट रहे तो
इसमे जल का दोष नही है
अपना ही गुणधर्म निभाना
ये कोई अपवाद नही है
जैसे हैं वैसा ही रहना
साहस है, अपराध नही है
तुम पनघट तजकर मरूथल की
मरीचिका के पीछे भागे
मरीचिका से छले गए तो
ये मरूथल का दोष नही है
आज भूल कर जाने वाला
दोष न दे कल के विधान को
ठहराए इतिहास न दोषी
आगे चलकर वर्तमान को
जिस क्षण ने संयम खोया था
वह क्षण ही अपराधी होगा
इसमें कल का तो क्या इसमें
अगले पल का दोष नही है
धरती का तन, मानव का मन
ये विरोध हर पल ढ़ोता है
जहाँ कहीं अमृत होता है
वहीं हलाहल भी होता है
सोंधी गंध घुली संदल की
सर्प और सज्जन सब आए
साँपों ने घर बना लिए तो
ये संदल का दोष नही है।
7. बादलों ने फिर
बादलों ने फिर धरा की देह धोई
फिर नदी ने पाँव पर्वत के पखारे!
जब वहाँ नदिया नहीं बोई गई थी
और सारे घाट गूँगे हो गए थे
मुस्कुराहट जन्म लेना चाहती थी
स्वर अचानक किंतु सारे खो गए थे
इक लहर उस पार से संवाद लाई
और बतियाए किनारों से किनारे!
मौसमों के व्याकरण उलझे हुए थे
थी हवाएँ लाँघती रेखाएँ सारी
बहुत रूखे हो गए थे भाव अपने
बहुत रेतीली हुई भाषा हमारी
बूँद ने भाषा भिगोकर नर्म कर दी
और उजले कर दिए हैं भाव सारे!
देर तक मन में छिपे भावों सरीखा
मेघ का ठहरा हुआ जल झर गया है
था धरा का गात पीले पात जैसा
कौन आकर चित्रकारी कर गया है?
मेघ जैसे राम है धरती अहिल्या
राह तकती थी कोई आकर उबारे!
8. बहुत दूर है
दफ्तर घर के बहुत पास है
दफ्तर से घर बहुत दूर है
कहने को सब ठीक-ठाक है
पीर नहीं देता है दफ़्तर
लेकिन टूटे हुए ह्रदय को
धीर नहीं देता है दफ़्तर
जो भी लगता पास-पास है
होता अक्सर बहुत दूर है
इतने ज़्यादा सधे हुए हैं
जैसे साधा किसी छड़ी ने
हमको अपनी दिनचर्या में
बाँध लिया दीवार घड़ी ने
कोलाहल बस गया कान में
आंगन के स्वर बहुत दूर है
पाने की ज़िद में कितना कुछ
खोकर के दफ़्तर जाना है
दिनभर खटना है ऑफिस में
सुस्ताने को घर आना है
केवल अल्पविराम ले रहे
लगता बिस्तर बहुत दूर है
जीने का अभिनय करते हैं
सचमुच कहाँ जिया करते हैं
जीवन-भर जीवन की चिंता
कितनी अधिक किया करते हैं
कहने को सबकुछ है लेकिन
ढाई आखर बहुत दूर है।
9. तुमको बोध कहाँ से आया?
बोधिवृक्ष पर सबने खोजा
लेकिन मात्र तुम्हें मिल पाया
बुद्ध हो गए, किंतु तथागत
तुमको बोध कहाँ से आया?
तुम्हें ज्ञात थी विधि की इच्छा
तुमने नया विधान दिया जब
कपिलवस्तु के राजमहल को
अंतिम बार प्रणाम किया जब
क्या पाने की खातिर तुमने
यों अपना सर्वस्व लुटाया?
मन तो हुआ सहज संन्यासी
तन के भी आभरण उतारे
जैसे कोई नाव देखती
मुड़कर अंतिम बार किनारे
मन में कुछ ऐसा भी होगा
मन जो कभी नही कह पाया।
तुम्हें ज्ञात था, तुम्हें अलग ही
धारा बनकर बहना होगा
लेकिन कुछ तो होगा ही जो
यशोधरा से कहना होगा?
तुम्हें न जब समझा कोई भी
तब मन को कैसे समझाया?
दुख में, सुख में, रोग शोक में
भाव रखा था एक सरीखा
मन को इतना अधिक तपाना
राजपुरुष ने कैसे सीखा?
कैसे तन अनुकूल हो गया
मन ने कैसे साथ निभाया?
Hindi Poems by Chitransh Waghmare, Bhopal
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