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बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

वीरेन्द्र आस्तिक और उनके दस नवगीत — अवनीश सिंह चौहान


पिछले दिनों (दिसंबर 30, 2019) लखनऊ में 'उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान' द्वारा जब श्रद्धेय वीरेन्द्र आस्तिक जी (जन्म : 15 जुलाई 1947) को 'साहित्य भूषण सम्मान' से सम्मानित किया गया, तब उन्हें और उनके परिवार को बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ देने वालों का तांता लग गया। यह तांता उनके घर पर भी लगा था और बाहर भी— ख़ासकर फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर सैकड़ों शुभ-संदेशों के साथ छात्र-छात्राओं, शोधार्थियों, पाठकों, श्रोताओं, मित्रों, शुभचिन्तकों, कवियों, आलोचकों, शिक्षकों, पत्रकारों का उमड़ पड़ना। यद्यपि यह बात कहने की नहीं है— साहित्य जगत इस घटना से लगभग पूरी तरह से परिचित है ही— फिर भी, बिना लाग-लपेट के, यहाँ कहने की अनुमति चाहता हूँ। अनुमति इसलिए कि—  "कब से तुम गा रहे" (कीर्तिशेष आ. ठाकुरप्रसाद सिंह जी), "जो गाना था वह न गा सके"  (कीर्तिशेष आ. डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी), "इस सदी का गीत हूँ मैं गुनगुनाकर देखिये" (आ. माहेश्वर तिवारी जी), "हम न होंगे... ये गीत होंगे" (आ. गुलाब सिंह जी), "गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल" (कीर्तिशेष आ. रवीन्द्र जैन जी, फिल्म; गीत गाता चल, 1975),  "मैं फिर से गाऊँगा" (कीर्तिशेष आ. दिनेश सिंह जी), "मैं तुम्हें गाता रहूँगा" (कीर्तिशेष आ. किशन सरोज जी), "तेरे प्यार के नगमे गाऊँगा" (आ. मनोज मुंतशिर जी, फिल्म: हाफ गर्लफ्रेंड), "मैं समय का गीत हूँ" (आ. वीरेन्द्र आस्तिक जी) जैसे तमाम महत्वपूर्ण गीत, गीत सृजन की अभीप्सा का संकेत करते हुए, 'भाव-सेवा' के लिए रचे तो जाते हैं, किन्तु उन्हें समय से नोटिस नहीं किया जाता है। ऐसे में, भला गीतकारों की कौन सुध ले— वे लिखते रहें, खपते रहें, मिटते रहें और अपनी "स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा" की उद्घोषणा कर संतुष्ट हो लें। कहने वाले कहेंगे इससे अधिक और क्या? नहीं, इससे भी अधिक बहुत कुछ है, जीव-सेवा हेतु, समाज-सेवा हेतु, राष्ट्र-सेवा हेतु, विश्व-सेवा हेतु— कहने और करने के लिए। 

शायद तभी शुद्ध, सात्विक एवं शाश्वत मूल्यों को उद्घाटित करने वाले गीतऋषि श्रद्धेय श्री वीरेन्द्र आस्तिक जी स्पष्ट रूप से कह देते हैं—  "मैं कलियुग का सच हूँ, सच/का निपुण प्रवक्ता-सा/आँखें तो टपकें पर/हिरदय पुरयिन पत्ता-सा।/अक्ल खुली क्या, मुक्त हुआ मन/दुनिया के सामान सेकलिकाल का यही सच है— "यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार" (कवि-कुल कमल बाबा तुलसीदास) और इसीलिये सत्य में स्थित हो आस्तिक जी जन-हित के पथ का वरण करना ज्यादा श्रेष्ठ समझते हैं— "शब्द-सर में डूब जाते/पीर जन की कौन हरता/मोक्ष का पद त्याग,/जनहित का चुनो पथ,/कौन कहता।/चुभ रहे थे कील-कंकण/चलती सड़कों से उठाए।" आज जब करोड़ों लोग जन्म और मृत्यु से परे मोक्ष पद प्राप्ति के लिए तमाम ठठकर्म कर रहे हैं, तब 'मोक्ष का पद त्याग' करने का उपदेश तो आस्तिक जी जैसा कोई कर्मयोगी ही दे सकता है, क्योंकि— "सकल जीव बसहिं महादेवा/जीव सेवाहु सिव की सेवा" (पूज्यपाद श्रीरामकृष्ण परमहंस) 'सेवा-भाव' की शब्दाग्नि में निरंतर दहने वाले सुकंठी आ. आस्तिक जी मन, वचन और कर्म से पवित्र एवं निर्मल हैं— "मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु संवारेहु" और स्वभाव से विनम्र एवं सहज भी— "सहज सुभाय सुभग तन गोरे" (कवि-कुल-कमल बाबा तुलसीदास)।  यह मैं नहीं कह रहा हूँ! उनको पढ़ने पर, उनको सुनने पर, उनसे मिलने पर, उनसे बातचीत करने पर स्वयं प्रकट हो जाता है कि कैसे साकार-सदेह-निश्छल-निर्मल विनम्रता एवं सहजता का दिग्दर्शन उनकी भेदरहित कृतज्ञता के अखण्ड-भाव में समाहित है और कैसे उनकी रागवेषित सहज टिप्पणियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं— "कुछ खास बात जरूर होगी कि मुझे आप सभी आत्मीयों का इतना प्यार मिल रहा है, सभी को अभिवादन", "हमें नवगीत को किसी सीमा तक नहीं, व्यापकता की ओर ले जाना होगा" और "आत्मीय अवनीश, नवगीत की विशद चर्चा करके (आस्तिक जी को साहित्य भूषण मिलने पर समाचार प्रकाशित करने के सन्दर्भ में) आपने नवगीत को ऊँचाई प्रदान की है। हमलोग तो सिर्फ माध्यम हैं। बहुत बहुत बधाई" (आस्तिक जी, फेसबुक)।  

मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं सम्पादक श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील, आत्मविश्वासी, स्वावलंबी, विचारशील, कलात्मक एवं रचनात्मक रहे हैं। बाल्यकाल में मेधावी एवं लगनशील होने पर भी न तो उनकी शिक्षा-दीक्षा ही ठीक से हो सकी और न ही विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत और गायन में वह आगे बढ़ सके। जैसे-तैसे 1962 में हाईस्कूल की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और एक-दो वर्ष संघर्ष करने के बाद 1964 में देशसेवा के लिए भारतीय वायु सेना में भर्ती हो गये। पढ़ना-लिखना चलता रहा और छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में वीरेंद्र बाबू और वीरेंद्र ठाकुर के नामों से छपना भी प्रारम्भ हो गया। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। उन दिनों आस्तिक जी दिल्ली में रहा करते थे। दिल्ली में नई कविता का दौर चल रहा था, शायद इसीलिये उन्होंने यहाँ नई कविता और गीत साथ-साथ लिखे। 1974 में भारतीय वायु सेना छोड़ने के बाद वह कानपुर आ गए और अगले वर्ष (1975) से ही भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएँ देने लगे। कानपुर में छंदबद्ध कविता की लहर थी। इस नये माहौल का उनके मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह गीत के साथ ग़ज़लें भी लिखने लगे। 1980 में आ. रामस्वरूप सिन्दूर जी ने एक स्मारिका प्रकाशित की, जिसमें — 'वीरेंद्र आस्तिक के गीत' (गीतों की संख्या 24) प्रकाशित हुए। 1984 में उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर से एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। 2007 में  बीएसएनएल में लम्बे अरसे तक अपनी सेवाएँ देने के बाद ससम्मान सेवानिवृत्त हुए। 

600 से अधिक समकालीन गीत और 100 से अधिक शोधपरक आलेख, जो प्रतिष्ठित अखबारों, पत्रिकाओं, यथा— 'दैनिक जागरण', 'दैनिक हिंदुस्तान', 'सन्डे मेल', 'जनसंदेश टाइम्स', 'प्रेसमेन', 'विधान केसरी', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान', 'वागर्थ', 'आजकल', 'कल के लिए', 'गगनांचल', 'नये-पुराने', 'अतैव', 'मधुमती', 'गीत नवांतर', 'पाखी', 'संकल्प रथ', 'उत्तरायण', 'नवनीत', 'प्रयास', 'उत्तरार्द्ध', 'अलाव', 'पूर्वाभास', 'कविताकोश', 'अनुभूति', 'हिंदी समय'  आदि  और महत्वपूर्ण समवेत संकलनों, यथा— 'कानपुर के कवि' (सं.- आ. प्रतीक मिश्र जी, 1985), 'हिंदी के मनमोहक गीत' (सं.- आ.  इसाक अश्क जी एवं आ. चंद्रसेन विराट जी, 1997), 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' (सं.- आ. कन्हैयालाल नंदन जी, 2000), 'बीसवीं सदी के श्रेष्ठ गीत' (सं.- आ. मधुकर गौड़ जी, 2003), 'बंजर धरती पर इंद्रधनुश : मैं और मेरी पसंद' (सं.- आ. कन्हैयालाल नंदन जी, 2003), 'गीत नवांतर-5' (सं.- आ. मधुकर गौड़ जी, 2006), 'शब्दपदी' (सं.- आ. निर्मल शुक्ल जी, 2006), 'शब्दायन : दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि' (सं.- आ. निर्मल शुक्ल जी, 2012), 'गीत वसुधा' (सं.- आ. नचिकेता जी, 2013), 'सहयात्री समय के' (सं.- आ. डॉ रणजीत पटेल, 2016), 'शिखर के सात स्वर' (सं.- आ. डॉ मधुसूदन साहा जी एवं डॉ के के प्रजापति, 2016), 'नई सदी के नवगीत : खण्ड-2' (सं.- आ. डॉ ओम प्रकाश सिंह, 2016) आदि में प्रकाशित और आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर प्रसारित हुए, के यशस्वी कलमकार आस्तिक जी मुख्य रूप से कानपुर देहात की अकबरपुर तहसील के रहने वाले हैं।

वीरेन्द्र आस्तिक जी कृत 'परछाईं के पांव' (गीत-ग़ज़ल संग्रह, 1982), 'आनंद! तेरी हार है' (गीत-नवगीत संग्रह, 1987), 'तारीखों के हस्ताक्षर' (राष्ट्रीय त्रासदी के गीत,  उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से अनुदान प्राप्त, 1992), 'आकाश तो जीने नहीं देता' (नवगीत संग्रह 2002), 'दिन क्या बुरे थे' (नवगीत संग्रह, सर्जना पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, 2012), 'गीत अपने ही सुनें' (प्रेम-सौन्दर्यमूलक नवगीत संग्रह, 2017) आदि बहुचर्चित काव्य-कृतियों ने उन्हें नई ऊँचाईयाँ प्रदान कीं। इसी दौरान सितम्बर 2013 में भोपाल के जाने-माने गीतकवि एवं सम्पादक आ. राम अधीर जी ने 'संकल्प रथ' पत्रिका का महत्वपूर्ण विशेषांक 'वीरेन्द्र आस्तिक पर एकाग्र' प्रकाशित किया। इस विशेषांक में भाव और विचार से आस्तिक वीरेंद्र आस्तिक पर तमाम लेखकों ने अपनी सार्थक कलम चलाई है। आस्तिकता को रेखांकित करते हुए 'परछाईं के पाँव' की भूमिका में कीर्तिशेष कवि एवं आचार्य आ. डॉ रवीन्द्र भ्रमर जी ने ठीक ही लिखा था— "रेखांकित करने योग्य एक विशेष बात यह है कि वीरेंद्र आस्तिक के गीतों में निर्गुण संत-भक्तों जैसी एकांत समर्पण भावना और घनीभूत रागात्मकता के बीज मिलते हैं। इनका उपनाम 'आस्तिक' होना निरर्थक नहीं प्रतीत होता है। प्रेम मंदिर के पुजारी की तुलना में और अधिक आस्तिक दूसरा कौन हो सकता है? वीरेंद्र कि यह आस्तिकता इनके गीतों में एक खास तरह का आध्यात्मिक आभास उत्पन्न करती है।" आस्तिक जी की रचनाधर्मिता के बारे में वरिष्ठ आलोचक डॉ सुरेश गौतम जी कहते हैं— "संवेदन से मानवता का अर्थ निकालने वाले आस्तिक का साहित्यिक सफर बहुत लंबा नहीं है। लगभग एक दशक में आस्तिक ने तीन कदम 'वीरेंद्र आस्तिक के गीत', 'परछाई के पाँव' और 'आनंद! तेरी हार है', रखे हैं, लेकिन जमा कर रखे हैं। जीवन के उतार-चढ़ावों एवं परिवेश की तल्ख अनुभूतियों के बीच आस्तिक का मन सामाजिक सरोकारों से बुना है। उनके व्यक्तित्व का रचाव लयबद्ध एवं तालमय है। गीतों की बुनावट सांगीतिक है, कसाव मानव मन की आंतरिकता एवं सौंदर्य से जुड़ा है। कसाव और रचाव की तालबद्ध अनुभूतियां गीतकार के संवेदनशील मन पर थाप देती हैं और वह थाप युगनद्ध हो मन-आत्मा को मथ डालती है (काव्य परिदृश्य : अर्द्धशती पुनर्मूल्यांकन (खण्ड-2), श्री अल्मोड़ा बुक डिपो, माल रोड, अल्मोड़ा, 1997, पृ. 353)।

नवगीत सृजन एवं आलोचना के जरिए ख्याति प्राप्त करने वाले आ. श्री वीरेंद्र आस्तिक जी मानते हैं कि नवगीत मूलत: ऋग्वेद से विरासत में मिले गीत की आधारशिला पर ही खड़ा हुआ है और इसीलिये आज गीत अपनी यात्रा में कई पड़ावों को पार कर नवगीत के रूप में समकालीन लोक-जीवन की संवेदना, संस्कृति एवं सरोकारों को मुखरित कर रहा है। सर्वाधिक चर्चित समवेत संकलन 'धार पर हम (1998, बड़ौदा विश्वविद्यालय में एम.ए. पाठ्यक्रम में निर्धारण : 1999-2005) एवं 'धार पर हम- दो' (2010, नवगीत-विमर्श एवं नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर) के प्रकाशन से आस्तिक जी को जबरदस्त सराहना मिली। एक प्रतिष्ठित समीक्षक के रूप में उन्होंने विभिन्न कृतियों में यादगार भूमिका आलेख भी लिखे हैं, जिनमें परम आ. आचार्य रजनीश (ओशो) कृत 'केनोपनिषद' (प्रवचनों का अनुवादित संकलन, 1989), आ. माँ प्रबुद्धानन्द कृत 'अवकाश' (कविता संग्रह, 2000), श्री मनोज जैन 'मधुर' कृत 'एक बूँद हम' (नवगीत संग्रह, 2012), अवनीश सिंह चौहान कृत 'टुकड़ा कागज़ का' (नवगीत संग्रह, 2013), आ. शंकर दीक्षित कृत 'चाँदनी समेटते हुए' (नवगीत संग्रह, 2015), डॉ संतोष तिवारी कृत 'रिश्ते: मन के मन से' (कहानी संग्रह, 2017), डॉ टी. रवींद्रन कृत 'परिवर्तन के बाद' (कविता संग्रह, 2018), आ. रामनारायण 'रमण' कृत 'जोर लगा के हइया' (नवगीत संग्रह, 2020) आदि प्रमुख हैं। हाल ही में उनकी आलोचना पुस्तक— 'नवगीत: समीक्षा के नये आयाम' (2019) के जरिए उन्होंने गीत-नवगीत क्या है, इसे जानने-समझने का मनोयोगपूर्वक प्रयास किया है। 

संपादन के साथ लेखन को धार देने वाले आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। यह प्रवाह उनकी रचनाओं की रवानगी से ऐसे घुल-मिल जाता है कि जैसे स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास के व्यापक स्वरुप से परिचय कराता एक अखण्ड तत्व ही नाना रूप में विद्यमान हो। इस दृष्टि से उनके नवगीत, जिनमें नए-नए बिम्बों की झलक है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी, भारतीय जन-मन को बड़ी साफगोई से व्यंजित करते हैं। राग-तत्व के साथ विचार तत्व के आग्रही आस्तिक जी की रचनाओं में भाषा-लालित्य और सौंदर्य देखते बनता है— शायद तभी कन्नौजी, बैंसवाड़ी, अवधी, बुंदेली, उर्दू, खड़ी बोली और अंग्रेजी के चिर-परिचित सुनहरे शब्दों से लैस उनकी रचनाएँ भावक को अतिरिक्त रस से भर देती हैं। कहने का आशय यह कि भाषाई सौष्ठव के साथ अनुभूति की प्रमाणिकता, सात्विक मानुषी परिकल्पना एवं अकिंचनता का भाव इस रस-सिद्ध कवि-आलोचक को पठनीय एवं महनीय बना देता है— "हम ज़मीन पर ही रहते हैं​/अम्बर पास चला आता है​​​/ हम न हिमालय की ऊंचाई​/ नहीं मील के हम पत्थर हैं​/ अपनी छाया के बाढ़े हमजैसे भी हैं हम सुन्दर हैं​​​/ हम तो एक किनारे भर हैं​/ सागर पास चला आता है​"

साहित्य संगम (कानपुर, उत्तर प्रदेश) द्वारा 'रजत पदक' एवं 'गीतमणि- 1985' की उपाधि— 17 मई 1986, श्री अध्यात्म विद्यापीठ (नैमिषारण्य, सीतापुर) के 75 वें अधिवेशन पर काव्य पाठ हेतु 'प्रशस्ति पत्र'— फरवरी 1987, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच (मुरादाबाद) द्वारा 'अलंकार सम्मान'— 2012, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (लखनऊ) द्वारा 'सर्जना पुरस्कार'— 2012, निमित्त साहित्यिक संस्था (कानपुर) द्वारा 'अलंकरण सम्मान'— 2013, श्री सत्य कॉलेज ऑफ हायर एजुकेशन (मुरादाबाद) द्वारा 'गीतांगनी  पुरस्कार/सम्मान'— 2014, बैसवारा शोध संस्थान (लालगंज, रायबरेली) द्वारा 'सुमित्रा कुमारी सिन्हा स्मृति सम्मान'— 2015, संकल्प संस्थान (राउरकेला, उड़ीसा) द्वारा 'संकल्प साहित्य शिरोमणि सम्मान'— 2016, संयोग साहित्य (भायंदर-मुंबई, महाराष्ट्र) द्वारा 'संयोग गीत वैभव सम्मान'— 2018, 'कादम्बरी' और 'महाकोशल शहीद स्मारक ट्रस्ट' (जबलपुर, म.प्र.) द्वारा  'स्व. यदुनंदन प्रसाद बाजपेयी सम्मान'— 2019 से अलंकृत आस्तिक जी स्वस्थ रहें और शतायु हों, परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है।

वरिष्ठ गीतकवि श्री राघवेंद्र तिवारी जी
द्वारा निर्मित काष्ठ-कृति 
1. भाव सेवा का लिए

गीत आए या न आए
भाव सेवा का लिए, जब
चल पडे़ तो क्या न आए

शब्द-सर में डूब जाते
पीर जन की कौन हरता
मोक्ष का पद त्याग,
जनहित का चुनो पथ,
कौन कहता

चुभ रहे थे कील-कंकण
चलती सड़कों से उठाए

सोचने में वक्त लेते लोग,
बैठे वक्त खो के
काम करने पर उतारू
भावना को कौन रोके

बन लुकाठी वृद्धजन को
हम सड़क के पार लाए

पूर्ण वादे कब हुए हैं
रोटी, कपड़ा औ' मकां के
कल पे टलती भूख, कल तो
खत्म किस्सा मर-मरा के

भूख से तड़पे हृदय को
तृप्ति भर लड्डू खिलाए।

2. एक सुरीले गान से

छेंड़ गई वह कोकिल-कंठी
एक सुरीले गान से
ठूँठ हृदय को हरा कर गई
एक अनसुनी तान से


मुख पर विषाद की रेख न
कोई भय की छाया
उसकी उज्ज्वल चितवन से
मावस-मन घबराया

और बहुत हैरान हुआ मैं
जोगनिया मुस्कान से

प्यास, स्वार्थ के जग की मुझमें
प्यास न मीरा-सी
बेर कहाँ मैं खट्टा हूँ
कहाँ भक्ति शबरी की

कौन तार बज गया, न बजता
संगीतज्ञ महान से

मैं कलियुग का सच हूँ, सच
का निपुण प्रवक्ता-सा
आँखें तो टपकें पर
हिरदय पुरयिन पत्ता-सा

अक्ल खुली क्या, मुक्त हुआ मन
दुनिया के सामान से..

3. माँ

माँ तिहारी ज़िन्दगी का
गीत गा पाया नहीं

आज भी इस फ्लैट में
तू ढूँढती छप्पर
जूठे बासन मांजने को
जिद्द करती है
आज भी बासी बची
रोटी न मिलने पर
बहू से दिनभर नहीं
तू बात करती है

इस गरीबी से कहाँ है मुक्ति
फालिज से बचा पाया नहीं

काम करते अब न चश्मे
कान कम सुनते
बात करती ज्यों कि सब
सुनती समझती है
लड़खड़ाती है कभी,
गिरती, चुटा जाती
दो सहारा तो
छिटक इनकार करती है

मैं न सेवा कर सका यानी कि
असली धन कमा पाया नहीं

जानता हूँ, आज यह
विक्षिप्ति तेरी
क्यों हवा में
एक चांटा मारती है
एक रोटी जो कभी
तिल भर जली थी
वो जली क्यों? यह
पिता से पूछती है

उन डरी आँखों में अपना
भीगता बचपन भुला पाया नहीं। 

4. माँ हूँ माँ

रात घनी होती जाती है
माँ हूँ
माँ घबरा जाती है
कविता, अभी न घर आई है

बार-बार आँखों के आगे
कौंध रही वह डरावनी-सी
खूनी कोठी
चीख दबा कर, हविश मिटाकर
जहाँ दरिन्दे खा जाते हैं
बोटी-बोटी

पारवती है गुम हफ्तों से
थाना, डाँट भगा देता है
अब तक रपट न लिख पायी है

मैं भी पढ़ने जाती थी, पर
छूटा पढ़ना
जिस दिन अँबुआ था बौराया
फिर देखा है
एक तिजोरी-से पीहर में
माटी होती, कंचन काया

क्यों कहते हैं दाग पीठ के
अमर रहें
कविता के पापा
वरना, दुनिया बड़ी कसाई है ।

5. तुझे बुलाऊँ माँ 

तुझे बुलाऊँ माँ
रह-रह मैं 
तुझे बुलाऊँ
यहीं कहीं तू है 
फिर भी क्यों
देख न पाऊँ

खोज-खोज कर हार गया मैं
इस माया में
बहुत थक गया, प्राण न जैसे
इस काया में

नींद लगे जो 
चौंक पड़ूँ मैं
उठ-उठ जाऊँ

बढ़ता जाता भार बहुत
मन में चिन्तन का
व्यर्थ लगे सब, भाव न उसमें
तेरे मन का

फेंक सभी, बस 
तेरी छवि में
ध्यान लगाऊँ

सकल सृष्टि में ब्रह्म सरीखी
तेरी गोदी
मधुर-मधुर वह मन्द पवन-सी
तेरी लोरी

शब्द-निशब्द सभी 
सुन-सुन शिशुवत
सो जाऊँ। 

6. मैं समय का गीत हूँ

पेड़ हूँ मीठे फलों का
इस सचाई के लिए
पत्थरों की चोट भी 
सहता रहा 

मैं समय का गीत हूँ
मुँहफट्ट, पत्थर चोट-सा
क्या अदब की आँख का
मैं बन गया कुछ खोट-सा

सत्य भी आलोचना के
बाण से विंधता रहा

चेन में जो एक गुरिया
ही बची बेदाग़ है
चेन में 'अनफिट' वही
जैसे वही बादाग़ है

कीमती पुर्जा कबाड़ी की
नज़र चढ़ता रहा

सृष्टि यह जैसे कि
बेतरतीब-सी दूकान है
एक पंसारी के बस की
और जग अनजान है

उम्र भर उस एक
पंसारी को मैं, गुनता रहा। 

7. बाज़ारें हैं रिश्तों की

रिश्तों की बाज़ारें
बाज़ारें हैं रिश्तों की
खुशयां हैं मृगजल

भेज रही कम्पनी
सोनिया को अमरीका
खुश पापा हैं
धड़क रहा है
दिल मम्मी का

हो पाएंगे कैसे
पीले उसके करतल

बिटिया बता रही है
टूट गई है चैटिंग
संस्कारों की टकराहट में
कैसी मैचिंग

पापा के कम्प्यूटर पर
भीगा है काजल

नये अर्थ के युग में हैं
नव निर्मित रस्ते
सोच एक से, कर्म एक-से
बनते रिश्ते

पापा ने ई-मेल किया
मम्मी का आँचल। 

8. घर से लगा बगीचा

देख रहे हो, यह जो
घर से लगा बगीचा है
सही कहूँ तो इसने मेरा
जीवन सींचा है

बाग नगर के बीच कि जैसे
काया भीतर दिल
मेरा रहना ऐसे जैसे
दिल के भीतर दिल

बाग छाँव-छत, बाग बैठका
बाग गलीचा है

हरी पत्तियों पर किरणों की
क्या केमिस्ट्री है
दूर दूर तक वायु प्रदूषण
की 'नो एण्ट्री’ है

कठफोड़वा की खुट-खुट पर
मन-मादल रीझा है

अँबुआ, निबुआ और जमुनिया से
बतियाता हूँ
सच्ची पूछो तो मैं
आदिम होता जाता हूँ

दूर विजन-सुख में रमने का
बाग दरीचा है। 

9. काम अपना क्या यहाँ 

हो गई बाजार दुनिया 
औ' अकेले हम 

हर तरफ देखें 
दुकानें ही दुकानें 
हर तरफ हर चीज के 
सुंदर फ़साने 

दाम असली, चीज नकली 
और झेलें हम 

प्यार हो या रंग हो 
सब हैं बिकाऊ 
डॉक्टर, दिलदार 
इनके दांत खाऊ 

लोभ की आँखों में 
जैसे सोन-केले हम 

सब तो सोने लाल हैं 
मानव नहीं हैं 
इस नगर में एक भी 
पारस नहीं है 

काम अपना क्या यहाँ 
माटी के ढेले हम। 

10. वाह कोरोना!

सूक्ष्म-कण-सा तू 
बदलता सैकड़ों में—
वाह कोरोना!

आदमी को आदमी अब
देखता शक की नज़र से
और क्वारंटीन में रह
बच रहा तेरे कहर से

बन्द दुनिया के स्वजन
अपने घरों में—
वाह कोरोना!

चाल जो तूने चली थी
काट उसका मिल गया है
बच गया जग किन्तु उसका
मन घृणा से भर गया है

अब न तू घुल-मिल सकेगा 
मानवों में—
वाह कोरोना!

देख, जो चक्का हुआ है—
जाम वह चल कर रहेगा
वंश तेरा नाश होगा
और तू कब तक छिपेगा

फ्यूज़ कर देंगे तुझे
मानव-बमों में—

वाह कोरोना!

10. हम ज़मीन पर ही रहते हैं 

हम ज़मीन पर ही रहते हैं
अम्बर पास चला आता है

अपने आस-पास की सुविधा
अपना सोना अपनी चांदी
चाँद-सितारों जैसे बंधन
और चांदनी-सी आजादी

हम शबनम में भींगे होते
दिनकर पास चला आता है

हम न हिमालय की ऊंचाई
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढ़े हम
जैसे भी हैं हम सुन्दर हैं

हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है

अपनी बातचीत रामायण
अपने काम-धाम वृन्दावन
दो कौड़ी का लगा सभी कुछ
जब-जब रूठ गया अपनापन

हम तो खाली मंदिर भर हैं
ईश्वर पास चला आता है।

Hindi Poems of Virendra Astik

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