सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के वर्तमान युग में रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण बहुत ही सुगम एवं सुग्राह्य हो गया है। ऐसा होने से देश-दुनिया के तमाम रचनाकारों को अपनी बात रखने एवं अपनी रचनाओं को जन-सामान्य ही नहीं, अपितु जन-विशिष्ट तक पहुँचाने में बहुत ही सहूलियत हुई है। इससे एक कार्य और भी हुआ है— वह यह कि तकनीकी ज्ञान का प्रयोगकर तमाम विद्वान, रचनाकार एवं पाठकवृन्द बड़ी सहजता से एक-दूसरे के संपर्क में तो आये ही, एक-दूसरे के सहयात्री बन अपनी सर्जना/भाव-धारा को विस्तार देने में काफी हद तक सफल भी हुए हैं। इसी प्रकार से फैरो कांक्रीट कंस्ट्रक्शन (इण्डिया) प्रा. लि. इन्दौर में महा-प्रबन्धक के पद पर कार्यरत परम अनुरागी सहृदय साहित्यकार रवि खण्डेलवाल से सोशल मीडिया पर कुछ वर्ष पहले मेरा भी परिचय हुआ। एक अरसे तक हमारा यह परिचय पठन-पाठन-प्रतिक्रिया तक ही सीमित रहा, किन्तु एक दिन ऐसा सुयोग बना कि हमारी बातचीत दूरभाष पर हुई और वृन्दावन-मथुरा-इंदौर की तमाम स्मृतियों, विचार-वीथियों ने हमारे संबंधों में 'अमृत-रस' घोल दिया। मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए इस 'रस' का वर्णन कर पाना कतई संभव नहीं— "कहाँ लौं बरनौं सुंदरताई" (भक्त शिरोमणि बाबा सूरदास)। संक्षेप में कहूँ— हिंदी काव्य की विविध विधाओं में सक्रिय रवि खण्डेलवाल काव्य-विवेक-समृद्ध सुकवि हैं, वे भावुक, सहज एवं सजग चिंतक भी हैं। वे भलीभाँति जानते हैं कि जीवन-जगत क्या है, सुख-दुःख क्या हैं, हर्ष-विषाद क्या है और इन तमाम विषय-वस्तुओं को गीत-नवगीत में कैसे पिरोया जाय, जिससे उनका कथ्य भावकों के लिए सहज बोधगम्य हो जाय— "लम्पट हुईं हवाएँ/ घर के अंदर-बाहर की।/ कमोबेश है यही कहानी/ भइया हर घर की।"
14 सितम्बर 1951 को मथुरा (उ.प्र.) में जन्मे चर्चित कवि रवि खण्डेलवाल ने आगरा विश्वविद्यालय (डॉ. बी. आर. अम्बेडकर यूनीवर्सिटी) से 1972 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान वे (सन् 1970 से) विभिन्न काव्य विधाओं में सर्जना करने लगे, जिसका सुफल उनके द्वारा सृजित— कविता, गीत, नवगीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहा, रूपक, निबंध आदि के रूप में हम सबके समक्ष है। उनकी रचनाएँ जहाँ देश की प्रतिष्ठित एवं स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं— 'अमर उजाला', 'आज', 'सारिका', 'उत्तरार्द्ध', 'वीणा', 'अग्रिमान', 'अभिनव प्रयास', 'हस्ताक्षर' आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं, वहीं उन्हें 'समकालीन हिन्दुस्तानी ग़ज़ल' (एन्ड्रौइड एप में संकलित ग़ज़लें), 'ग़ज़ल विशेषांक' (शोध दिशा), 'नवगीत विशेषांक' (संवदिया), '80 वाँ विशेषांक - वरिष्ठ नवगीत कवि रवि खण्डेलवाल' (संवेदनात्मक आलोक), 'ग़ज़ल विशेषांक' (हरिगंधा), 'ग़ज़ल विशेषांक' (साहित्य त्रिवेणी), 'ग़ज़ल प्रसंग' (अंजुमन प्रकाशन), 'गीत प्रसंग' (अंजुमन प्रकाशन), 'समकालीन गीत कोश' (उद्भावना प्रकाशन), 'ब्रज ग़ज़ल साहित्यम' (सं- नवीन सी. चतुर्वेदी), 'नवगीत का मानवतावाद' (कोणार्क प्रकाशन), 'दोहे के सौ रंग' (सं - गरिमा सक्सेना) आदि समवेत संकलनों में भी संकलित किया जा चुका है। इतना ही नहीं आपके कई गीतों एवं रूपकों का समय-समय पर आकाशवाणी से संगीतबद्ध प्रसारण भी हो चुका है। सम्पर्क : 207, व्येंकटेश नगर, एरोड्रोम रोड, इन्दौर (म.प्र.) 452005, चलभाष : 076979-00225, ई-मेल : ravikhandelwal14sep@gmail.com
चित्र गूगल से साभार |
बँधे नहीं हाथों में
रेशमी कलाये
ऐसे में कौन कहाँ जाये
भीड़ भरी सड़कों पर
कोलाहल तैरता
लूटपाट,आगजनी,
हत्या, स्वर गूँजता
नारों में डूब गये
बरनी-बधाये
ऐसे में कौन कहाँ जाये
बाहर से भीतर तक
अर्थ की तलाश में
धुंध-धुँआ फैल गया
चौड़े आकाश में
कार्बनी बयारों का
मौसम चिढ़ाये
ऐसे में कौन कहाँ जाये।
2. नदिया के होठों पर
नदिया के होठों पर
तैर रहा सन्नाटा
घाटों पर आ बैठी
गुमसुम तनहाई
लुकछुप कर देख रही
बीजुर परछाई
आदमकद मेघों में
चाँद लगे नाटा
पेड़ों पर बैठा है
कोहरे का प्रेत
बाहों में लिपटा कर
धुंध, धुँआ, रेत
आहट पर पत्तों को
मौसम ने डांटा।
3. स्याही आ छितरी
धीरे-धीरे
दिन चिकट गया बालों-सा
सूर्यमुखी चेहरे पर दिन के
स्याही आ छितरी
सारी धरी रह गई उसकी
आजादी तफरी
ऊब उदासी को समेटकर
कालापन भर गया शहर में
कोयले की टालों-सा
चीखों की बिरादरी
घर के अन्दर जा दुबकी
चुप्पी से फिर बात करे
कैसे कोई मन की
सख्त हुए जाते पहरे में
सन्नाटा बुन रहा अँधेरा
मकड़ी के जालों-सा।
4. बेशर्मी नाप रहे
भ्रष्टाचारी भ्रष्ट तरीके
हैं मिल बांट रहे
छोटी-छोटी जेबों पर भी
डाका डाल रहे
इनके ईमां का इनसे
कोई गठजोड़ नहीं
बेईमानी में भी इनका
कोई तोड़ नहीं
अति व्यभिचारी कहलाने की
चलते चाल रहे
इनकी गरिमा का इनसे
बस इतना सा रिश्ता
जान किसी की मिल जाए
और खून मिले सस्ता
अत्याचारी नुस्खे भइया
पल-पल छाँट रहे
इनके हाथ बहुत लम्बे हैं
इनके कद लम्बे
खड़े हुए हैं ऐसे
जैसे बिजली के खम्बे
तनिक नहीं है हया शरम
बेशर्मी नाप रहे।
5. लम्पट हुई हवाएँ
लम्पट हुईं हवाएँ
घर के अंदर-बाहर की
कमोबेश है यही कहानी
भइया हर घर की
मनमानी से बाज न आतीं
मन की इच्छाएँ
निपट अकेली होती जातीं
तन की विपदाएँ
कुटिल भाव रहते तलाश में
हर पल अवसर की
गलबहियाँ डाले घूमे हैं
मर्यादाएँ अब
सर के बल करके दिखलातीं
नये-नये करतब
झूमा-झटकी आम हुई है
आखर-आखर की।
6. बर्बादी के मंज़र
सरक गई दहलीज समय की
पाँवों के नीचे
बरबादी के मंजर जब तब
आँखों ने सींचे
वजह न मिल पाई साँसों को
साँसें लेने की
निरवासित हो गईं कथाएँ
बात न कहने की
विस्मित होकर सभी व्यथाएँ
दाँतों को भींचे
बरबादी के मंजर जब तब
आँखों ने सींचे
विकट समस्याओं ने अपने
घुटने हैं टेके
ऐसे हालातों को कोई
कैसे कर देखे
शायद इसीलिए हैं सपने
आँखों को मींचे
बरबादी के मंजर जब तब
आँखों ने सींचे।
7. इनके लक्षण तो
कपड़े-लत्तों में भी ये
नंगे ही दिखते हैं
इनके लक्षण तो कुछ-कुछ
इनसे मिलते हैं
ये हामी हैं दुराचार के
इनको लाज नहीं
इनके चेहरे पर कालिख है
खुद अंदाज नहीं
इनके ही साए में अक्सर
दुर्गुण पलते हैं
ऊपर से हैं भोले दिखते
पर भीतर घाती
इनकी थाह न पाए कोई
अद्भुत है थाती
मोल भाव करके देखो
ये हर पल बिकते हैं।
8. बैर भाव के माथे
उजले तन में मैला मन
लेकर हैं घूम रहे
साम-दाम अरु दण्ड-भेद से
उनकी धूम रहे
फिर चाहे आताताई
हो जाए धूप-हवा
बिना जहर उगले ना कोई
हो सम्पन्न सभा
बैर भाव के माथे को
हैं दिल से चूम रहे
उनके मकसद के आगे
ना अपना, कोई सगा
उनके दुख दर्दों की तो बस
ये ही एक दवा
उनको कोसो उनको उगलो
जो मरहूम रहे।
9. बातों-बातों में
सुलग रही है आग रोज ही
रिश्ते-नातों में
फुलझड़ियाँ-सी छूट रही हैं
बातों-बातों में
धन-दौलत की बीमारी ने
सबको है घेरा
मजबूरी ने लाचारी ने
है सबको टेरा
करवट बदल रही बेचैनी
पल-पल रातों में
अगर-मगर की दाल गले ना
खारे पानी में
भूल गये मधुरस के पनघट
क्यूँ नादानी में
सुनते आये हैं ये उक्ति
हम देहातों में
सुख की काया पर सोने की
मोहरें जड़ी हुईं
दुख के चेहरे पर सलवट हैं
झुर्री पड़ी हुईं
शायद बदले सूरत दुख की
अब बरसातों में।
10. कैसे कोई
कैसे कोई गरम तवे पर
पानी सा उछले
मुँह बाए हैं खड़े हुए
दुख घर की चौखट पर
आने को तैयार हैं
हल्की सी भी आहट पर
कैसे कोई दबे पाँव
घर से बाहर निकले
चौखट से बाहर चौराहे तक
संशय बिखरा
कल के दंगे से शायद ना
शहर अभी उबरा
मौसम के भी रंग अभी तक
हैं बदले-बदले
बैर भावना की गंधक है
घुली फिज़ाओं में
खुलके सांसें लेना दूभर
हुआ हवाओं में
जाने कब हथियार उठालें
थमे हुए हमले
हाँफ रहा है शहर अभी तक
उखड़ रही सांसें
दम घुटने से गली मोहल्ले तक
सब ही खाँसें
इतना भी है वक्त मिला ना
थोड़ा तो दम ले।
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