सामाजिक अंतर्विरोधों से उपजी असह्य पीड़ा से गुजरते हुए विख्यात गीतकवि कीर्तिशेष आ. रवीन्द्र भ्रमर जी ने जिस प्रकार से निम्नलिखित पंक्तियों में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है— "हारे हो तुम/ टूटन है मेरी आँखों में/ रोये हो तुम/ आँसू हैं मेरी आंखों में।/.... घुट-घुट मरने का/ एक क्रम हमारा/ मैं जो कुछ भोग रहा/ दुःख वह तुम्हारा/ तुमने मुझे तीक्ष्ण संवेदन-शर मारा" (सोन-मछरी मन बसी है), उससे तो यही लगता है कि दुःख, चेतना और संघर्ष के स्तर पर मनुष्य की स्थिति में बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है। ऐसा इसलिए कि इन दो अलग-अलग पीढ़ियों— श्री रवीन्द्र भ्रमर और श्री संतोष कुमार सिंह 'सृजन' के रागात्मक अनुभव स्वयं ही इस बात की पुष्टि कर रहे हैं। संतोष जी भी लिखते हैं— "जनता प्रश्नों के हल में/ नित-नित होती निष्प्राण।/ हे केशव! किस भाँति बचेंगे/ लोकतंत्र के प्राण।" शायद इसीलिये वह अपने एक गीत में इन तमाम अप्रिय प्रश्नों के समाधान की जरूरत को बड़ी शिद्दत से महसूस करते हैं— "गीत हमारे अब पीड़ा को/ समाधान तक ले जाएंगे" और अपने ढंग से उम्मीद की किरण जागते हैं। संभावनाशील गीतकवि श्री सन्तोष कुमार सिंह 'सृजन' का जन्म 05 मार्च 1981 को ग्राम- अरुआ, पोस्ट- मंसूरनगर, जनपद- हरदोई (उ.प्र.) के एक किसान परिवार में हुआ। पिता श्री महेन्द्र पाल सिंह एवं माता श्रीमती वीना सिंह के सुपुत्र संतोष जी ने राजनीतिशास्त्र में परास्नातक की शिक्षा प्राप्त की। आपकी रचनाएँ देश की छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्तमान में आप 4/182 विराट खण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ (चलभाष— 9793655440) में निवास कर रहे हैं।
1. रुंधे गले से कैसे गाते
रिश्तों की कतरन में टांके
नहीं टिके तुरपाई वाले
रुंधे गले से कैसे गाते प्रिय
हम गीत विदाई वाले
मुझसे जोड़े बड़े चाव से
अनुबंधित हित के प्रभाव से
रीस रहे हैं अंदर-अंदर
वह सारे सम्बंध घाव से
शब्द नहीं सूझे मुझको
इस पीड़ा की भरपाई वाले
जिसको समझा खूब टिकाऊ
उसको ही लग रहे उबाऊ
एक कोख से जने हुए जो
वो भी अवसर हाथ बिकाऊ
नहीं सम्हाले सम्हल रहे हैं
नाते भाई-भाई वाले
जिनको उम्मीदों से पाला
उन्हे लगे हम गड़बड़झाला
जिन्हे छींक आने पर मेरे
गले न उतरा एक निवाला
अब उनकी राहें तकते
ले पर्चे हाथ दवाई वाले।
2. यदुनन्दन अब तुम्हीं कहो
जनता प्रश्नों के हल में
नित-नित होती निष्प्राण
हे केशव! किस भाँति बचेंगे
लोकतंत्र के प्राण
कलयुग में जो सदाचार के
पावन गीत सुनाता
अवसर पा कर वही
शिखण्डी के पीछे छिप जाता
विषम परिस्थिति के सम्मुख
बेबस अर्जुन के बाण
मुरलीधर! इस कालचक्र की
कैसी युद्ध रीति है?
मर्यादा चरणों की दासी,
सत्ता प्रबल प्रीति है
राजा सिंहासन हित पल-पल
करे नीति निर्माण
सिंहासन जब भ्रकुटी ताने
तब-तब भरें हुकार
रणभेरी का काम पा गये
युग के रंगे सियार
लगे नर्तकी की थिरकन पर
राग अलापें भाँड़
इन युद्धों में गज,घोड़ों का
कोई नहीं चलन है
सस्ते, सरल, बिकाऊ पशुओं का
ही अब प्रचलन है
कुछ गोसुत तो राजतिलक हित
बैठे रंगे बिषाण
एक ओर इस युग की गीता,
एक ओर वह गीता
इस गीता में धन वैभव,
उसमें सब रीता-रीता
यदुनन्दन अब तुम्हीं कहो
मेरा किसमें कल्याण।
3. गीत हमारे
अन्तर्मन के कोलाहल को
प्रखर ध्यान तक ले जाएंगे
गीत हमारे अब पीड़ा को
समाधान तक ले जाएंगे
जब कोई संगीत न भाए
कदमों की आहट चौंकाए
अधरों को मुस्कान जलाए
अंतस में वियोग बस जाए
गीत तुम्हें तब विरह वेदना से
निदान तक ले जाएंगे
जब छायें घनघोर अंधेरे
धूमिल हों सब पृष्ठ सुनहरे
सुर से हों असुरों के चेहरे
जब मन का इंद्रासन घेरें
गीत हमारे तब दधीचि के
अस्थि दान तक ले जाएंगे
अंतहीन जब लगे उदासी
लगे दिवस हो रात कुहासी
जब कोई मृगतृष्णा प्यासी
लाचारी वश झूले फांसी
गीत यही तब आशाओं को
कीर्तिमान तक ले जाएंगे।
4. पीर मेरी अनकही है
खुश रहो तुम, मत सहो
जो जिंदगी हमने सही है
भाल, मुख, संकेत सब से
पीर मेरी अनकही है,
हाँ, यही दृढ़ता रही है
मखमली सोपान तज मैं
शूल के संग सो गया हूँ
छोड़कर मंजिल स्वयं ही
मैं बटोही हो गया हूँ
नेह को ही नेह कह कर
हो गया अपराध मुझसे
बस तभी से इस धरा पर
शब्द-द्रोही हो गया हूँ
और इस अपराध की
सारी सजा तुमने सही है
बस यही जड़ता रही है,
हाँ, यही दृढ़ता रही है
सोचता हूँ एक दिन
तुमको लिखूंगा एक पाती
किस तरह से विहल कर
यह वेदना हमको सताती
भाव अनुबंधित हृदय के,
मैं लिफाफे पर लिखूँ क्या?
जो तुम्हारा नाम लिखता
तो कलम ये जान जाती
गीत पर मेरे तुम्हारी
दृष्टि क्यों अकुला रही है
ये परायणता नहीं है,
पर मेरी दृढ़ता यही है
पीर दे कर एक कवि को
कर दिया तुमने है उपकृत
गीत मेरे, पर करेंगे
ना तुम्हारा नाम उद्धृत
और नयनों ने यही तो
सोंच कर निर्णय लिया है
भेद ना खुलने की शर्तों पर
रखा है निर्जला वृत
लो हमारी श्वाँस भी अब
"आह" से कतरा रही है
प्रेम की गुणता यही है,
हाँ, यही दृढ़ता रही है।
5. संभावना है
आ गयी हो द्वार अंतस के
सृजन की चेतना बन
रिक्तता में मीत की संभावना है,
अब हृदय में गीत की संभावना है
लग रहा कुछ हो रहे हैं तार झनकृत
हाँ वही जो थे पड़े पिछले पलों मृत
लेखनी तो साक्षी बन कह रही है,
हो गये हैं समय के अनुबंध स्वीकृत
आ गयी दावानलों के बीच
मन की आशना बन
लग रहा है सीत की संभावना है,
अब समय पर जीत की संभावना है
इन मुंडेरों पर कई दिन काग बोले
और देखो आज मेरे भाग डोले
क्यों खड़ी हो द्वार पर तुम, आओ भीतर
हाँ, तुम्हारे हेतु बैठा द्वार खोले
आ गयी जो द्वंद पीड़ा
हर्ष मिश्रित वेदना बन
आज आशातीत की संभावना है,
अब उसी से प्रीत की संभावना है।
Five Navgeet of Santosh Kumar Singh 'Srijan' (Hardoi)
बधाई हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई
जवाब देंहटाएंअति आभार
हटाएंहार्दिक बधाई शुभकामनाएँ। है। बहुत ही सराहनीय। बहुत ही अच्छी टिप्पणियां।
जवाब देंहटाएंहार्दिक स्वागत। बड़े भैया जी।
जवाब देंहटाएंBahut hi shaandar. Keep it up. Santosh.
जवाब देंहटाएंआप सभी को हार्दिक आभार, साधुवाद
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