नर्मदा नदी पर केंद्रित 'नर्मदा सागर परियोजना' की एक दुखद कहानी भी है। कहानी यह कि इस 'नदी घाटी परियोजना' से कई गाँवों-कस्बों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। कई गांव डूब गए। लोग बेघर और बेसहारा हो गये। डूब की इस भयंकर त्रासदी का मारा हुआ एक संवेदनशील व्यक्ति जब धारूखेड़ी (हरसूद) से खण्डवा (म.प्र.) आता है, तो वह इस नयी जमीन पर अपने भोगे हुए कटु यथार्थ को शब्दबद्ध करना चाहता है। उसकी यह चाहना कालांतर में एक सुन्दर (नव)गीत संग्रह का आकार ले लेती है, शीर्षक है — "चारों ओर कुहासा है" (शिवना प्रकाशन, सीहोर, 2018)। पुस्तक का शीर्षक पढ़ते ही, क्या आ. रघुवीर शर्मा का नाम हमारे जेहन में नहीं आ जाता है? और तब क्या खण्डवा के अन्य साहित्यकार— सर्वश्री श्रीराम परिहार, बंशीधर अग्रवाल, सूर्यकांत गीते, शशिकांत गीते, संतोष कुमार तिवारी आदि हमें याद नहीं आते हैं? याद तो आते ही हैं— "चाहते हैं जानना जो/ जिंदगी के मायने/ धीरे-धीरे नदिया-सा बहते रहें" (विनय भदौरिया)।
6 जून 1956 को धारूखेड़ी, हरसूद में जन्मे रघुवीर शर्मा न तो किसी वट वृक्ष की छाया में पले-बढ़े रचनाकार हैं और न ही किसी आंदोलन या अभियान से जुड़े हुए कार्यकर्ता हैं। उन्हें किसी बड़े आलोचक या सम्पादक का वरदहस्त भी प्राप्त नहीं हुआ है। तथापि उनकी छवि एक संस्कारवान नागरिक, निष्ठावान शिक्षक और संवेदनशील कवि की ही है। कवि के रूप में उनकी अभिव्यक्ति सहज है। उनकी भाषा जीवंत एवं सम्प्रेषणीय है। बानगी के तौर पर उनकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ देखी जा सकती हैं— "पत्र लिखा बाँचना/ मन लिखा बाँचना/ लिख न सका पाती में/ अनलिखा बाँचना।/ डूब गयी जड़-जमीन/ डूब गए घोंसले/ हरे-भरे तरुवर के/ डूब गए हौसले।/ पंखहीन पाखी का/ भाग लिखा बाँचना" (हरसूद डूब पर प्रथम गीत)। उपर्युक्त पंक्तियाँ जिस गीत से ली गयी हैं, वह दो बंध का है। यानी कि उनके अधिकांश गीत दो बंध के ही होते हैं— गहन अर्थों को समोये छोटे-छोटे गीत। आ. यतीन्द्रनाथ राही कहते भी हैं— "सब कुछ इन छोटे-छोटे गीतों में सहेजकर रख दिया है रघुवीर शर्मा ने। ... नवगीत में जो नहीं है, वही लाने का प्रयास है रघुवीर शर्मा के ये नवगीत।" रचनाकार का पता : 7, शुक्लानगर, गुर्जर हाॅस्पिटल के पास, खण्डवा (म.प्र.) 450001, मो. 9926076508
बिन बुलाये
धूप के तपते हुए दिन
लौट आये
वृक्ष का व्यवहार
कितना हो गया रूखा
प्यास भड़की, पर
नदी का कंठ है सूखा
द्वार आये
छाँह के सपने
पसीने से नहाये
यह समय है, या
हथेली पर रखी अँगार है
दिन सुलगते प्रश्न का ही
सघनतम विस्तार है
उतर आए
पर्वतों से
आस-पँछी तिलमिलाए।
2. वापस अपने गाँव चले
कोलतार की सड़कों पर हम
कब तक नंगे पाँव चलें
इससे तो अच्छा है भैया
वापस अपने गाँव चलें
चमक रही है रेत नदी-सी
इस तपते मरूथल में
हिरणा मन, भटक रहे हैं
कंकरीट के जंगल में
महज पसीने के बल पर
बालू में कैसे नाव चले
यहाँ शोर है भगदड़ भी है
सुविधाओं के मेले हैं
सौदागर हैं, बाजीगर हैं
पर हम निपट अकेले हैं
पानीदार जीवन के भैया
अपने सारे दांव गले।
3. शतरंज जैसे दिन
पीठ पर लादे
गठरी सरीखे दिन
लिए घर से निकलते है
एक जैसी धूप, हर दिन
इकहरी-सी छाँव
एक जैसे शूल, अपने
थके हारे पाँव
हम महज प्यादे
शतरंज जैसे दिन
लिए घर से निकलते हैं
कुछ हँसे हम पर
कहीं पर मुस्कुराए हम
स्वप्न हैं कुछ हाथ में
कुछ हो गए हैं कम
तिनके-इरादे
तूफान वाले दिन
लिए घर से निकलते हैं।
4. हर चैराहा पानीपत है
इस बस्ती में
नई-नई
घटनाएँ होती हैं
हर गलियारे में दहशत है
हर चैराहा पानीपत है
घर, आँगन, देहरी, दरवाजे
भीतों के ऊँचे पर्वत हैं
संवादों में
युद्धों की
भाषाएँ होती हैं
झुलसी तुलसी अपनेपन की
गंध विषैली चंदनवन की
गीतों पर पहरे बैठे हैं
कौन सुनेगा अपने मन की
अँधे हाथों में
रथ की
वल्गाएँ होती हैं।
5. यह जग महाबली का
साधौ, यह जग महाबली का
नये-नये आदर सम्बोधन
सीखो नया सलीका
सच भिखमँगा
झूठ महाजन
वही रहनुमा
वही राहजन
साबुत कैसे बच पायेगा
हीरा इस गठरी का
न्याय धर्म सब
उसके पीछे
चलते हैं बस
आँखें मींचे
हम कठपुतली और समय
तागा उसकी उँगली का।
6. मौन बहुत खलता है
यह, मौन बहुत खलता है
आँखों देखी, कहना मुश्किल
आँखें मीचें, रहना मुश्किल
अँधियारे के कई पाँव हैं
उजियारे का चलना मुश्किल
क्षत-विक्षत आहत मन का
यह घाव बहुत दुखता है।
सच से मीलों दूर खड़े हैं
उत्तर से भी प्रश्न बड़े हैं,
बेमानी सब नियम क़ायदे,
खुद से ही हम खूब लड़े हैं
जीवन के पथरीले पथ पर
शूल बहुत चुभता है।
7. जैसे दरक गया दरपन
भीतर-भीतर आहत मन है
बाहर हँसता विज्ञापन है
धीरे-धीरे सूख गया है
बहती नदियों का पानी
कल-कल, छल-छल गीतों वाली
बदल गई झरनों की बानी
इस तट से उस तट तक जैसे
रीत गया अपनापन है
केवल उलझे हुए शेष हैं
रिश्तों के ताने-बाने
घर-आँगन, देहरी-दरवाज़े
बाँट दिये हैं सुविधा ने
खण्डित चेहरे ही दिखते है
जैसे दरक गया दरपन है।
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