हिन्दी साहित्य के लिए
बैसवारा की धरती
बड़ी उर्वरा रही
है। यहाँ पर
अमर बहादुर सिंह
'अमरेश', आचार्य बेनी, काका
बैसवारी, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित,
दिनेश सिंह, देवीशंकर
अवस्थी, नंद दुलारे
बाजपेयी, प्रताप नारायण मिश्र,
भगवती चरण वर्मा,
मधुकर खरे, मलिक
मुहम्मद जायसी, महावीर प्रसाद
द्विवेदी, मुल्ला दाउद, रघुनंदन
प्रसाद शर्मा, रामविलास शर्मा,
लालचदास, शिवमंगल सिंह सुमन,
शिव सिंह 'सरोज',
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से
लेकर ओम प्रकाश
सिंह, इंद्रेश भदौरिया,
जय चक्रवर्ती, रमाकांत,
रामनारायण रमण, विनय
भदौरिया आदि ने
जन्म लेकर इस
धरती को गौरवान्वित
किया है। इसी
पुण्य-प्रसूता धरती
पर अपने मधुर
कंठ एवं रसवंती
गीतों के माध्यम
से लाखों श्रोताओं,
पाठकों, सहृदयों को आप्लावित
कर देने वाले
कीर्तिशेष नवगीतकार डॉ शिव बहादुर
सिंह भदौरिया का
जन्म 15 जुलाई 1927 को जनपद
रायबरेली (उ.प्र.)
के एक छोटे
से गाँव धन्नीपुर
(लालगंज) के एक
किसान परिवार में
हुआ था।
'साहित्य भूषण' (उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ, 2000) से अलंकृत डॉ भदौरिया ने हिंदी में एम.ए कर "हिंदी उपन्यास : सृजन और प्रक्रिया" विषय पर कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर से पी-एच.डी की उपाधि प्राप्ति की। इन्होंने 1946 से 1956 तक पुलिस विभाग में कोषाध्यक्ष, 1957 से 1966 तक बैसवारा इण्टर कॉलेज, लालगंज में हिंदी प्रवक्ता, 1967 से 1972 तक बैसवारा डिग्री कॉलेज, लालगंज में हिंदी प्रवक्ता और विभागाध्यक्ष और 1973 से 1988 तक कमला नेहरू डिग्री कॉलेज, तेजगाँव, रायबरेली में प्राचार्य के रूप में सफलतापूर्वक कार्य किया। शिक्षा
विभाग में आने
से बहुत पहले,
1948 में, आपने
कविताई करना प्रारम्भ
कर दिया था। 'नवगीत दशक— एक' (सं.— शम्भुनाथ सिंह, 1982) तथा 'नवगीत अर्द्धशती' (सं.— शम्भुनाथ सिंह, 1986) एवं 'नये-पुराने' गीत अंक - 1 (सं.— दिनेश सिंह, नवंबर 1997) के विशिष्ट रचनाकार डॉ भदौरिया काव्य मंचों पर ही नहीं, देश के चर्चित एवं प्रतिष्ठित समवेत कविता संकलनों में अपनी गरिमामयी उपस्थिति के लिए जाने जाते रहे हैं।
आपके प्रथम गीत संग्रह
‘शिजिंनी (1953) की भूमिका
में आचार्य नन्द
दुलारे वाजपेयी ने भदौरिया
जी को अमित
सम्भावनाओं वाला गीतकार
कहा है। डॉ
भदौरिया में अगर
सम्भावनाएँ न होतीं,
तो ‘धर्मयुग’ में
प्रकाशित 'पुरवा जो डोल
गयी’ आदि गीत
गीत विधा को
परिवर्तनकारी दिशा देने
में सफल न
हुए होते। इस
बात की पुष्टि
बहुत बाद में
कीर्तिशेष कवि एवं
सम्पादक दिनेश सिंह ने
भी की है। एक
जगह दिनेश सिंह
कहते हैं— "डॉ
शिव बहादुर सिंह
भदौरिया उन गीतकारों
में से हैं
जो पारंपरिक गीतों
से लेकर नवगीत
तक की यात्रा
में निरपेक्ष भाव
से गीत के
साथ रहे हैं।"
गीत-नवगीत ही
नहीं, साहित्य की
अन्य विधाओं के
साथ भी वह
निरपेक्ष ही दिखाई
देते हैं। एक
बार अपने एक
साक्षात्कार में उन्होंने
अपने कवि-पुत्र
डॉ विनय भदौरिया
से कहा ही
था— "मेरी सृजनधर्मिता
का प्रारंभ यूँ
तो गीत विधा
से ही हुआ,
किन्तु मैं अन्य
काव्य-रूपों के
प्रति भी कभी
उदासीन नहीं रहा।
यह उल्लेखनीय है
कि ग़ज़ल और
मुक्तछंद में मेरी
रचनाएँ ज्ञानोदय, नवनीत, आरती,
प्रतिमा, धर्मयुग और दैनिक
जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
होती रहीं हैं।"
महामहिम राज्यपाल (उ.प्र.)
द्वारा जिला परिषद,
रायबरेली के नामित
सदस्य रह चुके
डॉ भदौरिया मानवीय
मन एवं व्यवहार
के विभिन्न आलम्बनों
और आयामों को
बड़ी बारीकी, निष्पक्षता
और दार्शनिकता के
साथ अपने गीतों
में प्रस्तुत करते
हैं, जोकि उनके
जीवन के गहन
चिन्तन, संवेदनात्मक अनुभव एवं
सामाजिक-सांस्कृतिक संचेतना को
मुखरित करती है।
मंच पर उनकी
वाणी में उत्साह
एवं उमंग, उनके
मन की गतिमान
विविध तरंगों और
रचनाओं के वातानुकूलित
प्रसंगों को देख
बरबस ही श्रोता
मंत्रमुग्ध हो जाते
थे और जब
उनकी इस जीवन्त
मेधा को पाठक
लिपिबद्ध पाते हैं,
तो वे ‘वाह‘-‘वाह‘ की
अंतर्ध्वनि से रोमान्चित हो जाते
हैं। उनकी विषयवस्तु
का दायरा बड़ा
ही व्यापक है—
चाहे गाँव की
माटी हो, खेतों
की हरियाली, शहरों
की कंकरीट या
जीवन के अन्य
संदर्भ— सब कुछ
बड़ी ही सहजता
से उनकी रचनाओं
में गीतायित हो
जाता है।
'शिन्जनी' (गीत-संग्रह,
1953), 'पुरवा जो डोल
गई' (गीत-कविता
संग्रह, 1973), 'नदी का
बहना मुझमें हो'
(नवगीत संग्रह, 2000), 'लो इतना
जो गाया' (नवगीत
संग्रह, 2003), 'माध्यम और भी'
(ग़ज़ल, मुक्त छंद,
हाइकु, मुक्तक संग्रह, 2004), 'गहरे
पानी पैठ' (दोहा
संग्रह, 2006) आदि आपकी
प्रकाशित कृतियाँ हैं। 2013 में
डॉ ओमप्रकाश अवस्थी
के संपादकत्व में
उत्तरायण प्रकाशन ने इस
मूर्धन्य साहित्यकार के व्यक्तित्व
एवं कृतित्व पर
केन्द्रित 'राघव रंग'
शीर्षक से एक
महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित की
और उसके कुछ
समय बाद ही
डॉ भदौरिया परिनिर्वाण
(7 अगस्त 2013) को प्राप्त
हुए। डॉ भदौरिया के 10 गीत यहाँ प्रस्तुत हैं:-
पुरवा जो डोल गई
घटा-घटा आँगन में
जूड़े-सा खोल गई
बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया
श्याम-रंग-परियों से अंतर है घिरा हुआ
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ
मइया के मंदिर में
अम्मा की मानी हुई
डुग-डुग-डुग-डुग-डुग
बधइया फिर बोल गई
बरगा की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे
बिरहा की तालों में विरहा सब भूल रहे
अगली सहालग तक ब्याहों का बात टली
बात बहुत छोटी पर बहुतों को बहुत खली
नीम तले चौरा पर
मीरा की बार-बार
गुड़िया के ब्याह वाली
चर्चा रस घोल गई
खनक चूड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों ने
कलियों पर रंग फेरा मालिन की बातों ने
धानों के खेतों में गीतों का पहरा है
चिड़ियों की आँखों में ममता का सेहरा है
नदिया से उमक-उमक
मझली वह छमक-छमक
पानी की चूनर को
दुनिया से मोल गई
झूले के झूमक हैं शाखों के कामों में
शबनम की फिसलन केले की रानों में
ज्वार और अरहर की हरी-हरी सारी है
सनई के फूलों की गोटा किनारी है
गाँवों की रौनक है
मेहनत की बाँहों में
धोबन भी पाटे पे
हइया छू बोल गई।
2. नदी का बहना मुझमें हो
मेरी कोशिश है कि
नदी का बहना मुझमें हो
तट से सटे कछार घने हों
जगह-जगह पर घाट बनें हों
टीलों पर मंदिर हों जिनमें
स्वर के विविध वितान तनें हों
भीड़, मूर्छनाओं का
उठना-गिरना मुझमें हो।
जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाये खाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटें
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी
मच्छ-मगर, घड़ियाल
सभी का रहना मुझमें हो।
मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काट कर नहरें
ले जाएँ पानी ऊसर में
जहाँ कहीं हो बंजरपन का
मरना मुझमें हो।
3. जीकर देख लिया
जीकर देख लिया जीने में
कितना मरना पड़ता है।
.
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सबमें रहती है
किन्तु ज़िन्दगी अनुबंधों के
अनचाहे आश्रय गहती है
क्या-क्या कहना, क्या-क्या सुनना
क्या-क्या करना पड़ता है।
.
समझौतों की सुइयाँ मिलतीं
धन के धागे भी मिल जाते
सम्बंधों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं सिल भी जाते
सीवन, कौन कहाँ कब उधड़े
इतना डरना पड़ता है।
.
मेरी कौन बिसात यहाँ तो
सन्यासी भी साँसत ढ़ोते
लाख अपरिग्रह के दर्पण हों
संग्रह के प्रतिबिंब संजोते
कुटिया में कौपीन कमंडल
कुछ तो धरना पड़ता है।
4. पक्के घर में कच्चे रिश्ते
पुरखा पथ से
पहिये रथ से
मोड़ रहा है गाँव
पूरे घर में
ईटें-पत्थर
धीरे-धीरे
छानी-छप्पर
छोड़ रहा है गाँव
ढीले होते
कसते-कसते
पक्के घर में
कच्चे रिश्ते
जोड़ रहा है गाँव
इससे उसको
उसको इससे
और न जाने
किसको किससे
तोड़ रहा है गाँव
गरमी हो बरखा
या जाड़ा
सबके आँगन
एक अखाड़ा
गोड़ रहा है गाँव।
5. बदले सन्दर्भ
लोकरीति की
पगरैतिन वह
अजिया की खमसार कहाँ है
हँसी ठहाके
बोल बतकही
सुन लेते थी
कही अनकही-
वही भेंट अँकवार कहाँ है
लौंग सुपारी
पानों वाली
ढ़ोल मंजीरे
गानों वाली
लय की लोक विहार कहाँ है
बाल खींचते
अल्हड़ नाती
पोपले मुँह
आशीष लुटाती
ममता की पुचकार कहाँ है।
6. बैठ लें कुछ देर आओ
बैठ लें
कुछ देर, आओ
झील तट पत्थर-शिला पर
लहर कितना तोड़ती है
लहर कितना जोड़ती है
देख लें
कुछ देर, आओ
पाँव पानी में हिलाकर
मौन कितना तोड़ता है
मौन कितना जोड़ता है
तौल लें
औकात अपनी
दृष्टियों को फिर मिलाकर।
7. इंद्रधनुष यादों ने ताने
इंद्रधनुष
यादों ने ताने
क्या क्या होगा आज न जाने
सिरहाने चुपचाप आ गया
झोंका मिली जुली गंधों का
अनुगूँजों ने चित्र उकेरा
सटे पीठ से अनुबंधन का
खिड़की से
गुलाब टकराया
किसने छेड़ा साज न जाने
आकारों से रेखाओं को
कितना दूर किये देती है
संबंधों के शीश महल को
चकनाचूर किये देती है
अर्थ देह का
बदले देती
किसकी है आवाज न जाने।
8. टेढ़ी चाल जमाने की
सीधी-सादी पगडंडी पर
टेढ़ी चाल जमाने की
एक हक़ीक़त मेरे आगे
जिसकी शक्ल कसाई-सी
एक हक़ीक़त पीछे भी है
ब्रूटस की परछाईं-सी
ऐसे में भी बड़ी तबीयत
मीठे सुर में गाने की
जिस पर चढ़ता जाता हूँ
है पेड़ एक थर्राहट का
हाथों तक आ पहुँचा सब कुछ
भीतर की गर्माहट का
जितना ख़तरा उतनी ख़ुशबू
अपने सही ठिकाने की।
9. दूधिया चाँदनी फिर आई
दूधिया चाँदनी फिर आई
मेरी पिछली यात्राओं के
कुछ भूले चित्र उठा लाई
मैं मुड़ा अनेक घुमावों पर,
राहें हावी थीं पाँवों पर,
फिर खनका आज यहाँ कंगन,
निर्व्याख्या है मन के कंपन,
किन संदर्भों की कथा-
काँपते तरू-पातों ने दुहराई
जादू-सा दिखे जुन्हैया में
सपने बरसें अँगनैया में,
त्रिभुवन की श्री मेरे आँगन-
ज्यों सागर लहरे नैया में,
नैया भी
साथ खिवैया के
छिन डूब गई, छिन उतराई
सुन पड़ते शब्द बहावों के,
दो पाल दिख रहे नावों के,
धारा में बह-बहकर आते-
टूटे रथ किन्हीं अभावों के,
मेरी बाँहें
तट-सी फैलीं,
नदियाँ-सी कोई हहराई।
10. चलो पिया गुहराएँ बादल-बादल
सूख रहे धान और पोखर का जल,
चलो पिया गुहराएँ बादल-बादल
लदे कहाँ नीम्बू या फालसे, करौंदे,
बये ने बनाए हैं कहाँ-कहाँ घरौंदे,
पपिहे ने रचे कहाँ-
गीत के महल,
ग़ज़ल कहाँ कह पाए ताल में कँवल
पौधों की कजराई, धूप ले गई
रात भी उमंगों के रूप ले गई;
द्वारे पुरवाई
खटकाती साँकल
आई है लेने कंगन या पायल
इन्द्र को मनाएंगे टुटकों के बल,
रात धरे निर्वसना जोतेंगी हल;
दे जाना
तन-मन से होके निर्मल,
कोंछ भरा चबेना औ' लोटे भर जल।
डॉ.शिवबहादुर सिंह भदौरियाके व्यक्तित्व और कृतित्व पर सारगर्भित सामग्री से लवरेज महत्वपूर्ण आलेख -डॉ. मनोहर अभय
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