रामगंगा नदी के तट पर स्थित एवं नाथ नगरी के रूप में प्रतिष्ठित बरेली प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक महत्व की रही है। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक महत्व की इस ऐतिहासिक नगरी की प्रतिष्ठा को बढ़ाने में साहित्य और कला के साधकों का भी बड़ा योगदान है— 'राधेश्याम रामायण' के लोकप्रिय रचनाकार पं. राधेश्याम शर्मा कथावाचक, 'चंदा मामा दूर के' जैसी बाल-कविता के ख्यात कलमकार निरंकार देव सेवक, बरेली पत्रकारिता के जाने-माने स्तम्भ चन्द्रकान्त त्रिपाठी, 'चंदन वन डूब गया' के रस-सिद्ध गीतकवि किशन सरोज, बॉलीवुड फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा, जाने-माने कवि-अनुवादक एवं ऑनलाइन साहित्यिक पत्रकारिता के पुरोधा अनिल जनविजय आदि इसी शहर के ही तो हैं।
28 जुलाई 1957 को भूड़, बरेली (उत्तर प्रदेश) के एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे हिन्दी और हिन्दी साहित्य के प्रति जी-जान से समर्पित 'कविताकोश' और 'गद्यकोश' के पूर्व (संस्थापक) संपादक और 'भाषान्तर' के संस्थापक-संपादक अनिल जनविजय सीधे-सरल स्वभाव के ऊर्जावान व्यक्ति हैं। अनिल जी की इस ऊर्जा का विस्तार इतना अधिक है कि वह अनायास ही सोशल मीडिया में अपने सृजन, अनुवाद, प्रतिवाद (कभी-कभी बकवाद भी) के कारण चर्चा में बने रहते हैं। इसका परिणाम यह भी हुआ कि सोशल मीडिया में सक्रिय तमाम लोग उनकी साहित्यिक प्रस्तुतियों को सहज रूप से स्वीकार कर लेते हैं, तो वहीं कई लोग ऐसे भी हैं जो उनकी साहित्येत्तर चीजों को कई बार पूरी तरह से नकार भी देते हैं। कुछ भी हो यह व्यक्ति दिल का अच्छा है और साहित्य सेवा में सच्चा है— जो कहना होता है सो कह देता है, जो करना होता है सो कर लेता है। बाकी सब 'राम जी भला करें।'
कहने का आशय यह भी है कि अपनी माटी—अपनी जड़ों से अगाध प्रेम तथा भारत-रूस के बीच मजबूत पुल का कार्य करते हुए पुश्किन सम्मान के संस्थापक अनिल जी वर्षों से अपनी सर्जना एवं संपादन से हिन्दी के लिए विशिष्ट कार्य कर रहे हैं। उनके इस विशिष्ट सेवाभाव में कोई स्वार्थ नहीं है— वह तो पूरी तरह से निस्वार्थी हैं— न छपने-छपाने की कोई इच्छा, न पुरस्कार-सम्मान की कोई लालसा। इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने कभी किसी की सेवा ही नहीं ली— इसका मतलब तो बस इतना ही है कि वह आग्रह और अपेक्षा से एक सीमा तक मुक्त हैं— कभी किसी ने स्वतः ही अपनी पत्र-पत्रिका में उन्हें 'स्पेस' दे दिया तो ठीक, न दिया तो भी ठीक; किसी ने पूछ लिया तो ठीक, न पूछा तो भी ठीक; किसी ने मान दे दिया तो ठीक, न दिया तो भी ठीक।
जिज्ञासु विद्यार्थी रहे अनिल जनविजय को प्रारम्भिक शिक्षा के लिए बरेली स्थित केन्द्रीय विद्यालय भेजा गया। बचपन में पढ़ाई ठीक चल रही थी; साथ में कहानियों, उपन्यासों का पाठ भी चल रहा था; दिन मजे से गुजर रहे थे कि तभी एक दिन उनकी माँ का निधन हो गया और उन्हें अपने दादा-दादी के पास दिल्ली जाना पड़ा। यात्रा के अपने सुख-दुख होते हैं— उनकी बरेली से दिल्ली की यह यात्रा भी बहुत कुछ इसी प्रकार की ही थी। किन्तु, दिल्ली पहुँचकर उनका पढ़ना-लिखना जारी रहा। 1977 में दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.कॉम करने के बाद उन्होंने हिन्दी में स्नातकोत्तर तो कर लिया, किन्तु पढ़ाई से अब भी मन नहीं भरा था। इसलिए उन्होंने 1980 में पुनः जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के रूसी भाषा और साहित्य संकाय से स्नातकोत्तर करने के लिए प्रवेश ले लिया। समय धीरे-धीरे बीत ही रहा था कि उन्हें 1982 में उच्च अध्ययन के लिए सोवियत सरकार की छात्रवृत्ति के रूप में एक सुनहरा अवसर मिल गया। छात्रवृत्ति पाकर वह मास्को विश्वविद्यालय पहुँचे। 1989 में उन्होंने मास्को स्थित गोर्की लिटरेरी इंस्टीटयूट से सर्जनात्मक लेखन में एम.ए. कर लिया। इसी दौरान (1983 से 1992 तक) वह मास्को रेडिओ की हिन्दी प्रसारण सेवा से भी जुड़े गये। कुछ वर्ष और बीते और उन्हें 1996 में मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी में ’हिन्दी साहित्य’ और 'अनुवाद’ का अध्यापन कार्य करने का एक और अवसर मिल गया। फिर क्या था- मास्को में ही विवाह हो गया— एक बेटी और दो बेटे हुए— और इस प्रकार समय के साथ उनकी जीवन-यात्रा में कुछ और पड़ाव भी आते गये।
अनिल जनविजय की जीवन-यात्रा के इन महत्वपूर्ण पड़ावों में कुछ पड़ाव साहित्य सर्जना के भी रहे, जिन्हें यहाँ संक्षेप में रखना उचित ही है— उन्होंने 1976 में पहली कविता लिखी थी, किन्तु पहली बार 1977 में साहित्यिक पत्रिका 'लहर' में उनकी कविताएँ प्रकाशित हुईं और 1978 में पहली बार 'पश्यन्ती' के कवितांक (विशेषांक) में उनकी कविताएँ सम्मिलित की गयीं। इससे उनका उत्साह बढ़ गया और वह पूरे मनोयोग से कविताई करने लगे। परिणामस्वरूप उनका पहला कविता संग्रह— 'कविता नहीं है यह' 1982 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद उनके दो महत्वपूर्ण कविता-संग्रह— 'माँ, बापू कब आएंगे' (1990), 'राम जी भला करें' (2004) एवं 'दिन है भीषण गर्मी का' (2015) तो प्रकाश में आये ही, अनुवाद पर केंद्रित उनकी लगभग डेढ़ दर्जन पुस्तकें भी अब तक प्रकाश में आ चुकी हैं— 'माँ की मीठी आवाज़/ अनातोली परपरा', 'तेरे क़दमों का संगीत / ओसिप मंदेलश्ताम', 'सूखे होंठों की प्यास / ओसिप मंदेलश्ताम', 'धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा / येव्गेनी येव्तुशेंको', 'यह आवाज़ कभी सुनी क्या तुमने / अलेक्सान्दर पूश्किन', 'चमकदार आसमानी आभा / इवान बूनिन' (सभी रूसी से हिन्दी), 'पहाड़ पर चढ़ना चाहते हैं सब / ज्यून तकामी' (जापानी से हिन्दी), 'यूनानी कवि ग्योर्गोस सेफ़ेरिस की कविताएँ', 'फ़्रेंच कवि गैयोम अपोल्लीनेर की कविताएँ' (सभी अँग्रेज़ी से हिन्दी), 'तुर्की कवि नाज़िम हिक़मत की कविताएँ' (रूसी और अँग्रेज़ी से हिन्दी), 'एल सल्वादोर के कवि रोके दाल्तोन की कविताएँ' (स्पानी से हिन्दी), 'अमेरिकी कवि इद्रा नोवे की कविताएँ' (अँग्रेज़ी से हिन्दी) आदि। अनिल जी ने प्रतिष्ठित साहित्यकार लीलाधर मंडलोई के साथ मिलकर 'तार सप्तक' की तर्ज पर 'कवि एकादश' (2008) पुस्तक का बेहतरीन संपादन भी किया है। लब्बोलबाब यह कि हिन्दी, रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य की गहरी समझ रखने वाले इस बहुभाषी रचनाकार ने न केवल उम्दा कविताएँ, आलेख आदि लिखे हैं, बल्कि विभिन्न भाषाओँ की रचनाओं को हिन्दी और रूसी भाषा में सलीके से अनुवाद भी किया है।
यदि हिन्दी और हिन्दी साहित्य के लिये बतौर संपादक महायज्ञ करने वालों की अति संक्षेप में बात की जाय तो आ. सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', धर्मवीर भारती, हरिशंकर परसाई, कन्हैयालाल नन्दन, राजेंद्र यादव, रवींद्र कालिया, दिनेश सिंह, पूर्णिमा वर्मन, रवि रतलामी, जयप्रकाश मानस, सुमन कुमार घई आदि आधुनिक भारत के विलक्षण हिन्दी-सेवियों की सूची में अनिल जनविजय का नाम भी ससम्मान जोड़ा जा सकता है— ऐसा मेरा मानना है।
कविता नहीं है यह
बढ़ती हुई समझ है
एक वर्ग के लोगों में
दूसरे वर्ग के खिलाफ़
कविता नहीं है यह
आँखों में गुनगुना समन्दर है
निरन्तर फैलता हुआ चुपचाप
खौल जाने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
बन्द पपड़ाए होंठों की भाषा है
लहराती-झिलमिलाती हुई गतिमान
बाहर आने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
चेहरे पर उगती हुई धूप है
तनी हुई धूप
बढ़ती ही जा रही है अन्तहीन
कविता नहीं है यह
छिली हुई चमड़ी की फुसफुसाहट है
कंकरीली धरती पर घिसटते हुए
तेज़ शोर में बदलती हुई
कविता नहीं है यह
पसीना चुआंते शरीर हैं
कुदाल और हल लिए
ज़मीन गोड़ने की तैयारी में
कविता नहीं है यह
मज़दूर के हाथों में हथौड़ा है
भरी हुई बन्दूक का घोड़ा है
कविता नहीं है यह।
2. माँ के बारे में
माँ
तुम कभी नहीं हारीं
कहीं नहीं हारीं
जीतती रहीं
अंत तक निरन्तर
कच-कच कर
टूटकर बिखरते हुए
बार-बार
गिरकर उठते हुए
घमासान युद्ध तुम लड़ती रहीं
द्वंद्व के अनन्त मोरचों पर
तुम कभी नहीं डरीं
दहकती रहीं
अनबुझ सफ़ेद आग बन
लहकती रही
तुम्हारे भीतर जीने की ललक
चुनौती बनी रहीं
तुम जुल्मी दिनों के सामने
चक्की की तरह
घूमते रहे दिन-रात
पिसती रहीं तुम
कराही नहीं, तड़पी नहीं
करती रहीं चुपचाप संतापित संघर्ष
जब तक तुम रहीं
फिर एक दिन तुम
आसमान में उड़ीं
उड़ती रहीं, बढ़ती रहीं
अनंत को चली गईं
खो गईं।
3. उसकी दुनिया
उसकी दुनिया
बिल्कुल अलग है
मेरी दुनिया से
उसकी दुनिया में सपने हैं प्यार के
कहीं दूर से उसे ब्याहने को आए राजकुमार के
प्रेम है वहाँ, स्नेह है
हृदय में वात्सल्य का अजस्र स्रोत
पक्षियों की उड़ान है उसके भीतर
फूल हैं, हरे-भरे बाग हैं
दूर आसमान को पार कर
सूरज और चाँद तक पहुँच जाने की इच्छा
हेलबोप्प पुच्छल तारे को छूकर
लौट आने की इच्छा
कहीं किसी वन में
हिरणी की तरह दौड़ लगाना चाहती है वह
अपने पीछे नर-हिरण को भगाना चाहती है वह
उसकी दुनिया में सपने हैं यार के
दिन-रात उसके पास रहे, ऐसे दिलदार के
बिल्कुल अलग है उसकी दुनिया
मेरी दुनिया से
उसकी दुनिया में अभी भूख नहीं है
बेरोज़गारी, बेकारी नहीं है
आर्थिक संकट की सूली नहीं है उसकी दुनिया में
घर तो है पर घर का हिसाब नहीं है
बेशुमार बच्चे तो हैं, पर उनका शाप नहीं है
नौकरी की इच्छा, पैसा कमाने की होड़
प्रतिद्वंद्विता, तनाव
अभाव, अक्षमता, बेचारगी
ऋण, सूद, सूदखोर, बेबसी
गिद्ध, साँप, छल-कपट, दगा, धोखा
छाती पर दला मूँग, युद्ध, हत्यारे
विपत्तियाँ, चिंताएँ और परेशानियाँ
खर्चे दुनिया भर के नहीं हैं वहाँ
चर्चे दुनिया भर के नहीं हैं वहाँ
उसकी दुनिया
बिल्कुल अलग है
मेरी दुनिया से।
4. प्रार्थना
यह दुनिया
औरतों के हाथों में दे दो
रोटी की तरह गोल और फूली
इस पृथ्वी पर
प्रेम की मधुर आँच हैं
रस माधुर्य का स्रोत हैं
इस सृष्टि में
जीवन की पवित्र कोख हैं औरतें
औरतों के हाथों में
सम्हली रहेगी यह दुनिया
बेहतर और सुन्दर बनेगी
रचना की प्रेरणा हैं औरतें
सूर्य की ऊष्मा हैं
ऊर्जा का उदगम हैं
हर्ष हैं हमारे जीवन का
उल्लास हैं
उज्ज्वल, निर्द्वन्द्व ममता की सर्जक हैं
हे पुरुषो !
एक ही प्रार्थना है तुमसे
यह हमारी दुनिया
औरतों के हाथों में दे दो
अगर तुम सुरक्षित रखना चाहते हो इसे
अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए।
5. दिल्ली
बीस बरस पहले की
अपनी वो आश्नाई
मुझे याद है
मैं भूला नहीं हूँ अब तलक
कसमें जो भी
तब तूने मुझे दिलाईं
मुझे याद हैं
मैं भूला नहीं हूँ अब तलक
बिन तेरे
महसूस होती थी जो तन्हाई
मुझे याद है
मैं भूला नहीं हूँ अब तलक
तब मुझसे तूने किए थे
जो वादे
मुझे याद हैं
मैं भूला नहीं हूँ अब तलक
फिर तूने तोड़ दिया था
मेरा शीशा-ए-दिल
मुझे याद है
मैं भूला नहीं हूँ अब तलक
सबके सामने तूने
की थी मेरी रुसवाई
मुझे याद है
मैं भूला नहीं हूँ अब तलक
तेरी ही वज़ह से
तब हुई थी जगहँसाई
मुझे याद है
मैं भूला नहीं हूँ अब तलक।
6. नया वर्ष
नया वर्ष
संगीत की बहती नदी हो
गेहूँ की बाली दूध से भरी हो
अमरूद की टहनी फूलों से लदी हो
खेलते हुए बच्चों की किलकारी हो नया वर्ष
नया वर्ष
सुबह का उगता सूरज हो
हर्षोल्लास में चहकता पाखी
नन्हें बच्चों की पाठशाला हो
निराला-नागार्जुन की कविता
नया वर्ष
चकनाचूर होता हिमखण्ड हो
धरती पर जीवन अनन्त हो
रक्तस्नात भीषण दिनों के बाद
हर कोंपल, हर कली पर छाया वसन्त हो।
7. तुम भी आओ
अपने को खतरनाक
घोषित करते हुए
नारे उछालना
मैंने नहीं सीखा
मैंने नहीं सीखा
यूक्लिप्टस का पेड़ हो जाना
जब जंगल के अन्य सारे पेड़
नीम और बबूल बन
महामारी का विरोध कर रहे हों
मैं नदी नहीं हो सका
बढ़ी हुई-चढ़ी हुई / आवेग में-उन्माद में
प्रलय बन खड़ी हुई
तालाब बना रहा / या फिर झील
ठण्डी-गर्म रातों को
मैंने पहाड़ बनने की भी
कोई कोशिश नहीं की
कठिन था मेरे लिए
सूरज को रोज़-रोज़ डूबते देखना
और फिर सारी रात
सुबह की प्रतीक्षा करते रहना
आकाश टटोलते हुए
मैं ज़मीन बना रहा
नीम और बबूल उगाता रहा
तालाब और झील के पानी को
उबालता रहा
सूरज बनाता रहा अपने ही बीच
निरन्तर रोशनी के लिए
आओ
तुम भी
ज़मीन बन जाओ।
8. आधी रात को
रात है, आधी रात है
नदी किनारे वन में खड़ा हूँ मैं
सिर्फ़ पूरनमासी के चमचमाते
चाँद का साथ है
साफ़ और चटक इस रात में
बंसवारी के हरे पत्ते
हवा के साथ अठखेलियाँ कर रहे हैं
ऐसा लग रहा है मानो
चाँद कोई रुपहली मछली हो
जिसे पकड़ेने के लिए बाँस की पत्तियों ने
अपना सुनहरा हरा जाल बिछा दिया हो
मैं चन्द्रमा और पत्तियों के इस खेल में डूबा हूँ
नकटिया नदी की कल-कल
गूँज रही है कानों में
तभी कोई अलबेला पक्षी
कू-कू की मीठी आवाज़ करता
मेरे सिर पर से गुज़र जाता है
और रात का यह अलबेला क्षण
मेरे मन में कहीं गहरे उतर जाता है।
9. समय के उस पार
समय के उस पार
खड़ी थीं तुम
मैं समय के इस पार था
बीच हमारे
नभ-वितान अपार था
तुम थीं
उस लोक की वासी
मैं इस लोक में प्रवासी
बीच हमारे
बस स्नेह-दुलार था
तुम गगन
रति-मति की अवतार
मैं अनिल
हठी-गति का विस्तार
बीच हमारे
अब अलंघ्य पहाड़ था।
10. तुम गाती हो
तुम गाती हो
गाती हो जीवन का गीत
और धूप-सी खिल जाती हो।
तुम गाती हो
गाती हो सौन्दर्य का गीत
और फूल-सी हिल जाती हो।
तुम गाती हो
गाती हो प्रेम का गीत
और रक्त में मिल जाती हो।
मैं चाहूँ यह
तुम गाओ हर रोज़ सवेरे
कोई समय हो
हँसी हमेशा रहे तुम्हें घेरे।
A Note about Anil Janvijay by Abnish Singh Chauhan.
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