पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) के मनोरम प्राकृतिक वातावरण में जन्मी (जन्म तिथि 27 जून 1955) और पली-बढीं पूर्णिमा वर्मन का प्रकृति, पर्यावरण, अध्यात्म एवं ललित कलाओं के प्रति बचपन से ही विशेष आकर्षण रहा है। समय के साथ यह आकर्षण अभिरुचि में बदल गया और अभिरुचि सृजन और संस्कार में रूपांतरित हो गयी— दूसरे शब्दों में कहा जाय कि पीलीभीत से मिर्ज़ापुर और मिर्जापुर से इलाहाबाद आगमन पर यहाँ की माटी ने उनके भीतर साहित्य और संस्कृति के अनूठे रँग भर दिए। इन्हीं रँगों में रँगी संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर एवं पत्रकारिता व वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा धारक पूर्णिमा जी इलाहाबाद से लखनऊ और फिर लखनऊ से शारजाह (यूएई, 1995) की लम्बी यात्रा पर निकल पड़ीं। शारजाह पहुँचकर खाली समय में जलरंग, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से अपने आपको पूरी तरह से जोड़ कर अपनी रचनात्मक ऊर्जा को विस्तार देने लगीं।
यहाँ पूर्णिमा वर्मन को पत्रकारिता से विशेष लगाव होने से साहित्यिक पत्रकारिता में अपना भविष्य दिखाई देने लगा। शायद इसीलिये उन्होंने 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' नामक दो वेब पत्रिकाओं की परिकल्पना की और इंटरनेट पर हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार में योगदान देने का मन बना लिया। इस हेतु उन्होंने 1996 में दीपावली के आसपास 'जियोसिटी' पर एक छोटा-सा अनियमित प्रयास भी शुरू कर दिया, जो समय (विशेष रूप से 15 अगस्त 2000 से अब तक) के साथ विस्तार पाकर प्रतिष्ठित जाल-पत्रिकाओं के रूप में अब हमारे सामने है।
'अनुभूति' एवं 'अभिव्यक्ति' को विस्तार देने के उद्देश्य से पूर्णिमा वर्मन ने 2011 में एक और योजना बनाई। यह योजना— 'अभिव्यक्ति विश्वम' संस्थान के रूप में ओमेक्स सिटी, लखनऊ में करीने से विगत कई वर्षों से कला, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान दे रही है। यानी कि वर्तमान में 'अभिव्यक्ति विश्वम' के परिसर में जहाँ छोटे बच्चों को संस्कारित करने के उद्देश्य से एक स्कूल चलाया जा रहा है, वहीं कला, साहित्य, संस्कृति एवं दर्शन को केंद्र में रखकर महत्वपूर्ण आयोजन (विशेष रूप से नवगीत महोत्सव) एवं सम्मान समारोह (नवांकुर पुरस्कार आदि) किये जा रहे हैं। आने वाले समय में इसमें एक इनडोर थियेटर, एक आउटडोर थियेटर, पुस्तकालय, रेकार्डिंग रूम, चाय गुमटी, रेस्त्रां, आर्ट स्टूडियो, आर्ट गैलरी, नृत्य स्टूडियो और कुछ अतिथि कक्षों की सुविधाएँ उपलब्ध कराने का भी प्रावधान किया गया है।
लेखन, संपादन, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन और कला-कर्म में व्यस्त पूर्णिमा वर्मन एक चर्चित व्यक्तित्व हैं। 'वक्त के साथ' (कविता संग्रह, 2003) एवं 'चोंच में आकाश' (नवगीत संग्रह, 2014) आदि उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। उन्होंने वतन से दूर' (कहानी संग्रह, 2011) एवं 'नवगीत 2013' (चर्चित साहित्यकार डॉ जगदीश व्योम के सहयोग से नवगीत की पाठशाला से चुनी हुई रचनाओं का संग्रह, 2013) पुस्तकों का संपादन किया है। इतना ही नहीं, उनकी कई रचनाओं— फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में) आदि का बेहतरीन अनुवाद हो चुका है। कई वर्षों से वह इंटरनेट पर 'संग्रह और संकलन', 'चोंच में आकाश', 'नवगीत की पाठशाला', 'शुक्रवार चौपाल' आदि ब्लॉग्स भी संचालित कर रही हैं।
वेब पर हिंदी को लोकप्रिय बनाने के अपने प्रयत्नों के लिए उनको भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण— 'अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान' (2006) रायपुर-छत्तीसगढ़ की संस्था सृजनगाथा द्वारा 'हिंदी गौरव सम्मान' (2008), दिल्ली से साहित्यशिल्पी द्वारा 'जयजयवंती सम्मान' (2008) तथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के 'पद्मभूषण डॉ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार' (2008) से विभूषित किया जा चुका है। वर्तमान में ओमैक्स सिटी, लखनऊ में निवास कर रहीं हिंदी विकिपीडिया के प्रबंधकों में से एक पूर्णिमा वर्मन हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के कार्यों से जुड़ी हुईं है। पूर्णिमा जी के पाँच नवगीत भी यहाँ प्रस्तुत हैं :-
1. राम भरोसे
अमन चैन के भरम पल रहे
राम भरोसे!
कैसे-कैसे शहर जल रहे
राम भरोसे!
जैसा चाहा बोया-काटा
दुनिया को मर्ज़ी से बाँटा
उसकी थाली, अपना काँटा
इसको डाँटा, उसको चाँटा
रामनाम की ओढ़ चदरिया
कैसे आदमज़ात छल रहे
राम भरोसे!
दया धर्म नीलाम हो रहे
नफ़रत के ऐलान बो रहे
आँसू-आँसू गाल रो रहे
बारूदों के ढेर ढो रहे
जप कर माला विश्वशांति की
फिर भी जग के काम चल रहे
राम भरोसे!
2. बाग वाला दिन
उदासी में खुशी की
आस वाला दिन
आज फिर बाग वाला दिन
मधुर छनती
झर रही यह धूप सर्दी की
याद आती चाय
अदरक और हल्दी की
पाँव के नीचे
नरम है दूब मनभावन
चुभ रही फिर भी
हवाएँ कड़क वर्दी-सी
बरोसी में सुलगती
आग वाला दिन
आज फिर बाग वाला दिन
खींच कर
आराम कुर्सी एक कोने में
तान दी लंबी दुपहरी
सुस्त होने में
रह गए यों ही पड़े
जो काम करने थे
गुम रहे हम अपने भीतर
आप होने में
सुगंधों में उमगती
याद वाला दिन
आज फिर बाग वाला दिन।
3. कोरे खाली नुक्कड़
कैसे कोरे खाली नुक्कड़
यह विदेश है
चाय की दूकान नहीं है
सिगरेट, बीड़ी, पान नहीं है
पैदल चलने वालों का भी
कोई नाम निशान नहीं है
ना ही भीड़, नहीं आवाज़ें
सन्नाटा बिखरा भदेस है
यह विदेश है
सुख दुख हैं वातानुकूलित
विलासिता से व्याकुल हर चित्त
आचारों में निरा दुराग्रह
कोई न अपना, नेह सशंकित
खुली हवा है, ढेर दवा है
संतुष्टि का नहीं लेश है
यह विदेश है।
4. खोया-खोया मन
जीवन की आपाधापी में
खोया-खोया मन लगता है
बड़ा अकेलापन लगता है
दौड़ बड़ी है,
समय बहुत कम
हार-जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें अपनापन लगता है
चैन कहाँ अब
नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर खप कर के जितना जोड़ा
कितना भी हो कम लगता है
सफलताओं का
नया नियम है
न्यायमूर्ति की जेब गरम है
झूठ बढ़ रहा ऐसा हर पल
सच में बौनापन लगता है
खून-ख़राबा,
मारा-मारी
कहाँ जाए जनता बेचारी
आतंकों में शांति खोजना
केवल पागलपन लगता है।
5. चोंच में आकाश
एक पाखी
चोंच में आकाश लेकर
उड़ रहा है
एक राजा प्रेम का
इक रूपरानी
झूलती सावन की
पेंगों-सी कहानी
और रिमझिम
खोल सिमसिम
मन कहीं सपनों सरीखा
जुड़ रहा है
एक पाखी
पंख में उल्लास लेकर
उड़ रहा है
जो व्यथा को
पार कर पाया नहीं
वह कथा में सार
भर पाया नहीं
छोड़ हलचल
बस उड़ा चल
क्यों उदासी की डगर में
मुड़ रहा है
एक पाखी
साँस में विश्वास लेकर
उड़ रहा है।
Purnima Verman : Time, Literature and Editing by Abnish Singh Chauhan
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