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शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

विनय भदौरिया और उनके पाँच नवगीत — अवनीश सिंह चौहान


नवगीत को 'हृदय से हृदय की यात्रा' मानने वाले चर्चित साहित्यकार डॉ विनय भदौरिया का नाम हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित है। उनकी यह प्रतिष्ठा सिर्फ इसलिए नहीं है कि उन्हें काव्य-सर्जना का संस्कार उनके पिताश्री जाने-माने नवगीतकार डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया से मिला है, बल्कि इसलिए भी है कि उनका रचनाकर्म वैविध्यपूर्ण, संश्लिष्ट, जटिल एवं विकसनशील मानव-जीवन को बड़ी सहजता से व्यंजित करता है— शायद इसीलिये उनकी सराहना नवगीत के पाठकों एवं आलोचकों द्वारा ही नहीं, बल्कि कविता की अन्य विधाओं के विद्वानों द्वारा भी की जाती रही है। इस सन्दर्भ में मूर्धन्य नवगीतकार गुलाब सिंह की टिप्पणी महत्वपूर्ण है— "नवगीत विधा की उत्तर पीढ़ी में डॉ विनय भदौरिया का नाम सुपरिचित है। शहरी और ग्राम संस्कृतियों के बीच उत्तर आधुनिक कहे जाने वाले समय में खालिस भारतीयता का जो रंग बचा हुआ है, वही इनके गीतों में आकार लेता है, जिसे नफासत और भदेसपन के छंद से नहीं, बल्कि ग्राम्य-बोध और संस्कार-सृष्टि के नजरिये से देखा जाना चाहिए" (अंतराएँ बोलती हैं, 7)। 

डॉ विनय के नवगीतों में ग्राम्य, नागर एवं उपनागर बोध और भारतीय संस्कारों से सृष्टि की सुरक्षा और संरक्षण का सुमधुर भाव अपना आकार स्वयं लेता है— "जितनी दूर संस्कृति से हम/ जीवन उतना जटिल हुआ।" कहने का एक अर्थ यह भी है कि रचनाकार अपनी बात को अपने ढंग से रखने का माध्यम भर होता है। यदि ऐसा न होता तो डॉ विनय ने अपने एक गीत में यह न लिखा होता— "हमने कोई गीत आज तक लिखा नहीं/ खुद गीतों ने ही आकर लिखवाया है" (अंतराएँ बोलती हैं, 139)। शायद इसीलिये उनके नवगीतों में अनायास ही कभी किसी भक्त की भक्ति परिलक्षित हो जाया करती है, तो कभी प्रणयी-दिल की भाव-भंगिमाएँ दिखाई पड़ जाया करती हैं; कभी आदमी की पीड़ा गीतायित हो जाया करती है, तो कभी सामाज की कोई बुनियादी समस्या मुखरित हो जाया करती हैं।  

लब्बोलबाब यह कि डॉ विनय के नवगीतों में आर्थिक विषमताओं, सामाजिक अंतर्विरोधों एवं राजनीतिक गतिरोधों को सफलतापूर्वक उजागर किया गया है— "पहले सिंहों की खातिर सिंहासन होता था/ काँटों की शैया पर हरदम राजा सोता था/ अब तो राजा का मकसद/ बस अर्थ संजोना है" (अंतराएँ बोलती हैं, 93)। इसीलिये युगान्तकारी भूमिका का निर्वहन करते इन नवगीतों की कहन सार्थक, प्रवाहपूर्ण एवं लयात्मक है। इनमें बैसबारी, खड़ी बोली और अंग्रेजी भाषा का संतुलित प्रयोग किया गया है। इनमें लोक-जीवन और लोक-संवेदना की शक्ति समाहित है। डॉ विनय ने अपने प्रथम नवगीत संग्रह— 'झूठ नहीं बोलेगा दर्पण' (अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, 2008) के आत्मकथ्य में यही तो कामना की थी— "यदि संकलित गीतों में से एक भी पंक्ति आपके अधरों पर ठहर सकी तो अपने कवि-कर्म को धन्य समझूंगा।" कवि-कर्म को धन्य करने वाले इस रचनाकार के नवगीत अपने समय और समाज का बखूबी प्रतिनिधित्व करते हैं।

पेशे से वकील डॉ विनय का जन्म 01 अगस्त 1958 को लालगंज, रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ। घर में पढ़ने-लिखने का माहौल था ही, इसलिए विधि स्नातक करने के बाद उन्होंने हिन्दी में पीएच.डी. कर ली। वकालत के साथ लिखना-पढ़ना जारी रहा— गीत-नवगीत के अतिरिक्त उन्होंने ग़ज़लें, दोहे, समीक्षाएँ और आलेख भी लिखे हैं। 2019 में उनका दूसरा नवगीत संग्रह—  'अन्तराएँ बोलती हैं' अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ था। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य संस्थान (अहमदाबाद) से 'साहित्याचार्य की उपाधि' और जैमिनी अकादमी (पानीपत) से 'राष्ट्र भाषा रत्न सम्मान' से अलंकृत इस चर्चित कवि की रचनाएँ रेडियो एवं दूरदर्शन सहित कई काव्य मंचों से प्रसारित हो चुकी हैं। संपर्क— साकेत नगर, लालगंज, रायबरेली (उ.प्र.), मोब. 09450060729 

1. चलो चलें 

चलो चलें
उस देश जहाँ
केवल आनंद विहार है

जहाँ पहाड़ों की गोदी से
झर-झर-झरते झरने
देख मनोरम दृश्य स्वयं ही
मनवा लगे ठहरने

आठों पहर 
बिना बदरा के 
लगातार झरिहार है

लाल समन्दर में मिलतीं सब
सतरंगी सरितायें
है प्रकाश का महासिन्धु वो
डूबें या उतरायें

कोई सीमा नहीं 
वहाँ पर 
वह अनन्त विस्तार है 

है वो ऐसा देश जहाँ पर
सूरज कभी न डूबे 
मधुरिम स्वर मे बजे बँसुरिया
जियरा कभी न ऊबे

वहाँ चतुर्दिक
रस का केवल
फैला कारोबार है। 
      
2. पूरी रात कटे चिन्‍ता में 

पूरी रात कटे चिन्‍ता में 
दिखे न कुछ उम्‍मीद
कैसे आये नींद रे भइया
कैसे आये नींद

महँगी सब्जी, तेल, मसाले
आसमान को छूतीं दालें
बच्‍चों की हर फरमाइश पर
रहते हैं हम चुप्‍पी घाले

मुहँ लटकाये रहती परबें
क्‍या होली क्‍या ईद 

जीने की बदली स्‍टाइल
मेहनत छोड़ हुए हम काहिल
खाली पेट भले सो जायें
पर न रहे भूखा मोबाइल

नई आफतें बिन पैसे के
हर दिन रहे ख़रीद

कहाँ पांव यह नही ध्‍यान है
ताक रहे बस आसमान हैं
नभ हथियाने की ख्‍वाहिश है
नकली पंखों से उडा़न है

जो ईमान जी रहे उनकी
मिट्‍टी हुई पलीद। 
          
3. नहीं पता है
        
नहीं पता है
मेरा बेटा 
कब घर आता है

आइपैड, लैपटाप कभी
मोबाइल हाथों में
जाने क्‍या करता रहता है
जग कर रातों में

घर वालों को 
छोड़ सभी से
वह बतियाता है

विश्‍वग्राम की ताजा़ ख़बरें 
उसकी मुट्‍ठी में 
घर मे क्‍या होना है, जाये
चूल्‍हे भठ्‍ठी में 

ट्‍यूटर और
फेसबुक में 
अब उसका खाता है

नभगामी उडा़न के आगे
दूर हुए सब अपने
दादी माँ के पाले-पोशे
चूर हुए सब सपने

देख नदी में 
खालिश रेती
जी भर आता है

4. माचिस की तीली

माचिस की तीली
हैं सीली,
है उन्हें ज़रूरत गर्मी की

वैसे इनमें है भरी आग
पर अपनी ताक़त भूली हैं
नासमझी वे समझ रहीं
सबकी सब लँगड़ी-लूली हैं

जो होश दिलाकर
जोश भरे,
चाहत ऐसे युगधर्मी की

अब तक जिसको सौंपा बगिया
कर दिया डूँड़ डाली-डाली
लकवा मारा विश्‍वास पड़ा 
किससे करवायें रखवाली

सब ठोंक रहे
अपनी पीठें
हद है ऐसी बेशर्मी की

एक ही मसाला एक वस्‍तु
जिससे ये हैं सब बनी हुईं
फिर कौन तत्‍व है क्रियाशील
जो आपस मे हैं तनी हुईं

समरसता का
अमरित घोले
है खोज उसी सत्कर्मी की। 

5. अच्‍छे दिन आने वाले हैं

अच्‍छे दिन आने वाले हैं,
यही कहा था, है ना?
अच्‍छे दिन लाने का
कोई वादा नही किया। 

ये तो दुनिया है जो 
अपनी गति से चलती है
नियति-नटी भी बारी-बारी
छलती, फलती है

अच्‍छे जन आने वाले हैं,
यही कही था, है ना?
अच्‍छे जन लाने का कोई 
वादा नही किया। 

राजनीति दोमुँहा साँप है
इसे जानते हो
फिर काहे इनके जुमलों को
सही मानते हो

सच्‍चे जन आने वाले हैं,
यही कहा था, है ना?
सच्‍चे जन लाने का कोई
वादा नही किया

घर का मुखिया अगर
घूमने का हो जाये आदी
उस घर के लिलार में खुद ही
लिख जाती बरबादी

काला धन आने वाला है,
यही कहा था, है ना?
काला धन लाने का कोई 
वादा नही किया। 

Navgeet- Dr Vinay Bhadauriya

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