निश्छल हृदय एवं सहज स्वाभाव के धनी कीर्तिशेष नवगीतकार रामानुज त्रिपाठी (1946 - 2004) ने अपनी सकारात्मक ऊर्जा, लगन एवं मेहनत से साहित्य में जो कुछ किया, वह मील का पत्थर भले ही न हो, किन्तु भारतीय जनमानस की संघर्षमयी चेतना को मुखरित करती उनकी रचनाएँ भावकों को आज भी प्रेरणा प्रदान करती हैं। शायद इसीलिये उनके आकस्मिक निधन से व्यथित उनके कवि-पुत्र अवनीश त्रिपाठी ने अपने पिताश्री की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए कुछ बेहद महत्वपूर्ण कार्य किये। अवनीश जी ने पत्र-पत्रिकाओं आदि से अपने पिताश्री की रचनाओं को संकलित कर उनकी तीन काव्य कृतियाँ— 'यादों का चंदनवन' (गीत-नवगीत संग्रह, 2009), 'धुएँ की टहनियाँ' (नवगीत संग्रह, 2017) एवं 'जंगल का स्कूल' (बालगीत संग्रह, 2017) अपने संसाधनों से प्रकाशित करवायीं और साहित्य-सेवा के निहितार्थ 'पं. रामानुज त्रिपाठी सृजन संस्थान' (गरयें, सुलतानपुर) की स्थापना की। इस संस्थान के द्वारा प्रतिवर्ष एक साहित्योत्सव का आयोजन किया जाता है।
गीतकवि के रूप में पिता की विरासत को आगे बढ़ाने में आज कई रचनाकारों के नाम चर्चा में हैं, यथा— योगेन्द्र दत्त शर्मा, विनय भदौरिया, यश मालवीय, मनोज कुमार 'मनोज', सोनरूपा विशाल, कीर्ति श्रीवास्तव आदि। इन्हीं कवियों की सूची में अवनीश त्रिपाठी का नाम भी ससम्मान जोड़ा जा सकता है। युवा कवि अवनीश त्रिपाठी का जन्म 27 दिसंबर 1980 को ग्राम गरयें, जनपद— सुलतानपुर, उ.प्र. में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके पैतृक गाँव में हुई। उन्होंने हाईस्कूल (1997) परमहंस कॉलेज, शिवगढ़, सुलतानपुर से, इंटरमीडिएट (1999) श्री बजरंग विद्यापीठ इण्टर कॉलेज, देवलपुर सहिनवा, सुलतानपुर से, बी.ए. (2002) इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से, बी.एड. (2005) छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर से और हिंदी में एम.ए. (2020) राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय, प्रयागराज से किया। इंटरमीडिएट करते ही (1997 में) उनका विवाह पंकज मिश्र से कर दिया गया, किन्तु गौना (विदाई) की रस्म 2002 में संपन्न हुई। वर्तमान में वह श्री बजरंग विद्यापीठ इण्टर कॉलेज, देवलपुर सहिनवा, सुलतानपुर में प्रशिक्षित स्नातक अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।
सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक विषयों पर सारगर्भित एवं सामयिक सृजन करने वाले बहुआयामी युवा शब्द-शिल्पी अवनीश त्रिपाठी को काव्य-सर्जना का संस्कार भले ही उनके पिता रामानुज त्रिपाठी से मिला है, किन्तु वह साधना की भट्टी में तपकर ही इस मुकाम पर पहुँचे हैं। उनकी यह साधना, यह तपस्या गीत, नवगीत, ग़ज़ल, दोहा, नई कविता, आलोचना, संपादन आदि सर्जनात्मक कार्यों का निष्पादन करने में कारगर सिद्ध हुई है। किन्तु, सच तो यही है कि कई विधाओं में साधनारत इस कलमकार का झुकाव गीत-नवगीत की ओर कुछ अधिक है। शायद तभी वह साधिकार यह कहता भी है— "प्रकृति के साथ-साथ कदमताल करते हुए यदि किसी विधा ने सर्वत्र मानवीय संवेदनाओं और उसके मूल्यों को पूर्णरूपेण समझने का वीड़ा उठाया है तो वह विधा है गीत" (धुएँ की टहनियाँ, पृ. 15)।
समकालीन कथ्य और शिल्प की अवधारणाओं की गहरी समझ रखने वाले अवनीश त्रिपाठी की रचनाधर्मिता को समझने के लिए मस्तिष्क के साथ ह्रदय भी चाहिए। यद्यपि मस्तिष्क और हृदय एक दूसरे के पूरक होते हैं, तथापि उन्हें देखने-समझने के लिए निष्पक्ष और सटीक दृष्टि की आवश्यकता होती है। इस सन्दर्भ में समकालीनता और नवीनता के अन्तर्भेदी रिश्तों की पड़ताल कर उसके महत्व को रेखांकित करती इस रचनाकार की वैचारिकी प्रासंगिक ही नहीं, प्रामाणिक भी है— "चुभन बहुत है वर्तमान में/ कुछ विमर्श की बातें हों अब/ तर्क-वितर्कों से पीड़ित हम/ आओ! समकालीन बनें।/ कथ्यों को प्रामाणिक कर दें/ गढ़ दें अक्षर-अक्षर,/ अँधकूप से बाहर निकलें/ थोड़ा और नवीन बनें" (दिन कटे हैं धूप चुनते, पृ. 60)।
अवनीश त्रिपाठी की दो काव्य कृतियाँ— 'शब्द पानी हो गये' (कविता संग्रह, 2009) एवं 'दिन कटे हैं धूप चुनते' (नवगीत संग्रह, 2018 ) अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने 'नयी सदी के नये गीत' (नवगीत संकलन, 2019), 'पाँव गोरे चाँदनी के' (गीत संकलन, 2020) एवं 'सिसक रहा उपसर्ग' (दोहा संकलन, प्रकाशनाधीन) का सफल संपादन किया है। उनकी रचनाएँ 'नेह के महावर', 'संवदिया', 'समकालीन गीतकोश', 'नई सदी के नवगीत' (खण्ड 5), 'गुनगुनाएँ गीत फिर से', 'नयी सदी के नये गीत' आदि समवेत संकलनों और देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संकलित की जा चुकी हैं। उन्हें साहित्य प्रोत्साहन संस्थान, मनकापुर, गोण्डा द्वारा 'नवगीतश्री' (2018), साहित्य सेवा संस्थान, मिल्कीपुर, फैज़ाबाद द्वारा 'काव्यश्री' (2018), अखिल भारतीय गीतकार मंच, लखनऊ द्वारा 'महेश अनघ स्मृति सम्मान' (2018), हिंदी भाषा साहित्य परिषद, खगड़िया, बिहार द्वारा 'हरिवंशराय बच्चन स्मृति रजत सम्मान' (2019) आदि से अलंकृत किया जा चुका है।
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गीत : ठहरी शब्द नदी — अवनीश त्रिपाठी
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चढ़े हाशिये
पर सम्बोधन
ठहरी शब्द-नदी
चुप्पी साधे पड़े हुए हैं
कितने ही प्रतिमान यहाँ
अर्थहीन हो चुकी समीक्षा
सोई चादर तान यहाँ
खुद की ही
सम्वेदित छवियाँ
नेकी और बदी
अपशब्दों की भीड़ बढ़ी है
आज विशेषण के आँगन में
सर्वनाम रावण हो बैठा
संज्ञा शिष्ट नहीं है मन में
संवादों
की अर्थी लेकर
आई नई सदी
अक्षर-अक्षर आयातित हैं
स्वर के पाँव नहीं उठते हैं
छलते संधि-समास पीर में
रस के गाँव नहीं जुटते हैं
अलंकार ले
चलती कविता
सिर से पाँव लदी।
Yuva Kavi-Sampadak Awanish Tripathi- A note by Abnish Singh Chauhan
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