सनातन संस्कृति में कुम्भ, मत्स्य, चक्र, गदा, शंख, सूर्य, चंद्र, श्रीफल, धनुष, चरण-चिन्ह, कदली, आम्र, गज, स्वस्तिक, त्रिभुज आदि को मंगल-प्रतीक माना जाता है। शुभता एवं श्रेष्ठता को व्यंजित करते इन मंगल-प्रतीकों में कुम्भ का अपना पौराणिक आख्यान है। 'स्कंद पुराण' में 'समुद्र-मंथन' की दिव्य-कथा का वर्णन है, जिससे पता चलता है कि दुर्वासा ऋषि के श्राप से देवताओं के राजा इन्द्र जब श्री-हीन हो गये तब श्रीविष्णु के उपदेशानुसार देवताओं एवं दैत्यों ने मैत्री कर क्षीर सागर को मथने की योजना बनायी। तदनुरूप मंदराचल को मथानी और वासुकि को नेती बनाकर क्षीर सागर का मंथन प्रारंभ हुआ, जिससे चौदह रत्न— हलाहल (विष), कामधेनु, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पद्रुम, रंभा, लक्ष्मी, वारुणी (मदिरा), चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष, शंख, धन्वंतरि वैद्य, अमृत-कलश प्राप्त हुए; किन्तु देवताओं और दैत्यों के बीच अमृत-कलश के बँटवारे को लेकर सहमति नहीं बन सकी। इसलिए इंद्र का संकेत पाकर उनका पुत्र जयंत अमृत-कलश लेकर वहाँ से निकल पड़े; यह सब देख कुछ दैत्य भी जयंत के पीछे-पीछे दौड़ पड़े। परिणामस्वरूप दैत्यों और देवताओं के मध्य युद्ध छिड़ गया।
बारह दिन (देवताओं के) तक चले इस देवासुर संग्राम में अमृत की सुरक्षा के लिए कुम्भ को बारह स्थानों पर रखा गया, जिनमें चार स्थान— हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक (कुम्भ-पर्व-स्थल) पृथ्वी पर और आठ स्थान देवलोक में अवस्थित माने जाते हैं। इस अमृत-कलश को लाने-ले-जाने (गरुड़ और जयंत के माध्यम से) में अमृत की कुछ बूँदें श्री धाम वृन्दावन में कालिय हृद के पास स्थित उस कदम्ब वृक्ष पर भी पड़ीं, जिस पर चढ़कर श्रीकृष्ण ने कालिय हृद (श्री यमुना जी) में छलाँग लगाकर कालियनाग को नाथा था। अमृत की बूँदों के पड़ने से यह वृक्ष जहाँ 'शस्य-श्यामल' हो गया, वहीं श्रीकृष्ण की चरण-रज पाकर यह (कृष्ण-कदम्ब) बड़भागी भी हो गया— "कदंबं इति भाविन श्रीकृष्ण चरणस्पर्श भाग्येन स एकः तत्तीरे न शुष्कः इति ज्ञातव्यम्।/ अमृतमाहरता गरुत्मताऽऽक्रांतत्वात इति च पुराणान्तरम् (भावार्थ दीपिका- श्रीधर स्वामी, 10/16/06)।
श्री धाम वृन्दावन में कालिय-दमन से ब्रज संस्कृति की पोषक श्री यमुना जी, जोकि मधुवन के समीप बहती हैं, जब विष-प्रदूषण से मुक्त हुईं तब उनका जल भी 'नीरामृत' हो गया। सूर्य की पुत्री, मृत्यु के देवता यम की बहिन और लीलावतार श्रीकृष्ण की प्राण-प्रिया अमृतजला श्री यमुना जी ब्रजवासियों की चिर-वन्दनीय माता हैं (ब्रज में इन्हें यमुना मैया भी कहा जाता है, जिसका वर्णन 'श्रीमद्भागवत महापुराण', 'ब्रह्म पुराण' आदि ग्रंथों में भी मिलता है)। इसी वृन्दावन की पावन भूमि पर मोर-मुकुट पीतांबर-धारी भगवान श्रीकृष्ण एवं बृज की दुलारी श्री राधारानी जी ने अपनी दिव्य-लीलाओं से रसामृत की अद्भुत वर्षा की है। रसिकों, सिद्धों, योगियों के लिए वृन्दावन का यह 'रागानुगा-रसामृत' देश के अन्य स्थलों— हरिद्वार (पुनर्जन्म को खण्डित करने हेतु), प्रयाग (पुण्यार्जन हेतु), उज्जैन (मोक्ष एवं सिद्धियों की प्राप्ति हेतु) और नासिक (भुक्ति-मुक्ति एवं पापनाश हेतु) पर अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्ति के लिए मनाये जाने वाले कुम्भ-पर्व आदि से कहीं अधिक श्रेयस्कर है। शायद इसीलिये श्रीधाम वृन्दावन में सूर्य और गुरु के कुम्भ राशि में स्थित होने पर फाल्गुन मास में कुम्भ-पर्व (अर्धकुंभ, मिनी कुंभ अथवा वैष्णव कुंभ के नाम से भी चर्चित) का भव्य आयोजन होता है, जहाँ संतों, भक्तों, सद-गृहस्थों को 'रागानुगा-रसामृत' का पान करने का शुभ अवसर प्राप्त होता है।
श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित एक श्लोक— "तत्तात गच्छ भद्रं ते यमुनायास्तटं शुचि।/ पुण्यं मधुवनं यत्र सान्निध्यं नित्यदा हरे:॥" (श्रीमद्भागवत, 4/8/42) में नारद मुनि ने ध्रुव महाराज को श्री हरि का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए वृन्दावन में यमुना तट पर स्थित मधुवन जाने का उपदेश किया है, क्योंकि वे जानते हैं कि श्री धाम वृन्दावन तो रसभूमि है, जहाँ श्री युगल सरकार नित्य विराजते हैं और अपने रसिक भक्तों पर अनुग्रह करते हैं। इसीलिये किसी कवि ने सच ही कहा है—
वृन्दावन सौं वन नहीं, नन्दगाँव सौं गाँव।
बंशीवट सौं वट नहीं, कृष्ण नाम सौं नाँव।।
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कार्यक्रम की रूपरेखा
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वसन्त पंचमी
16 फरवरी 2021, मंगलवार
(वृंदावन वैष्णव महाकुंभ का शुभारंभ, ध्वजारोहण)
माघी पूर्णिमा
27 फरवरी 2021, शनिवार
(वृन्दावन वैष्णव महाकुंभ प्रथम स्नान)
फाल्गुन कृष्ण एकादशी
09 मार्च 2021, मंगलवार
(वृन्दावन वैष्णव महाकुंभ द्वितीय स्नान)
फाल्गुन अमावस्या
13 मार्च 2021, शनिवार
(वृन्दावन वैष्णव महाकुंभ तृतीय स्नान)
रंगभरनी एकादशी
25 मार्च 2021, गुरुवार
(वृंदावन की शाही पंचकोसी परिक्रमा)
वृन्दावन की महिमा को जानने-समझने के लिए कृपया क्लिक करें : http://www.poorvabhas.in/2020/03/vrindavan.html
1. वृन्दावन तो वृंदावन है
वृन्दावन तो वृंदावन है,
प्रेम-राग की रजधानी
प्रेम यहाँ बसता राधा में
मुरली मधुर मुरारी में
प्रेम यहाँ अधरों की भाषा
नयनों की लयकारी में
प्रेम यहाँ रस-धार रसीली,
मीठा यमुना का पानी
प्रेम यहाँ पर माखन-मिश्री
दूध-दही, फल-मेवा में
प्रेम यहाँ पर भोग कृष्ण का
भक्ति-भाव नित सेवा में
प्रेम यहाँ पर ब्रज-रज-चंदन,
शीतल-संतों की वाणी
प्रेम यहाँ तुलसी की माला
नाम, जाप, तप, मोती में
प्रेम यहाँ मंदिर की घण्टी,
जगमग-जगमग जोती में
प्रेम यहाँ पर ध्यान-साधना,
मुक्ति-प्रदाता, वरदानी।
2. वृन्दावन की माटी चंदन
वृन्दावन की माटी चंदन
माथ लगाते नर-नारी-जन।
फूल मनोहर वृक्ष-लताएँ,
गऊ, घाट, यमुना का पानी
परिकम्मा में रमण बिहारी
रुनझुन-रुनझुन राधारानी
वृन्दावन का नित अभिनंदन,
प्रेम-मुदित करते तुलसी वन।
घर-घर मंदिर, मंदिर में घर
जहाँ विराजें कृष्ण-मुरारी
हरि-चर्चा, पद, भजन-कीर्तन
करते-सुनते भक्त-पुजारी
वृन्दावन का शत-शत वंदन
करते साधू-संत-महाजन।
3. केशव मेरे
पाना मुझको
जितना, जो भी
तुमको पाना
सखा सहज तुम
केशव मेरे
हर पल यह मन
तुमको टेरे
लगे अधूरा,
जीवन का
तुम बिन हर गाना
मन की सच्ची
अभिलाषा को
दया-क्षमा की
परिभाषा को
जितना, जो कुछ
जाना-माना
तुमको माना
तुमसे जानी
जगत-कहानी
ज्ञान-ध्यान की
महिमा-वाणी
बना मुझे जिज्ञासु
डगर में
छोड़ न जाना।
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