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शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

गीत : जीवन-संघर्ष का संवेदना-शिल्प — दिनेश सिंह


नवगीत के उन्नायक दिनेश सिंह का जन्म रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव गौरारूपई पीर अलीपुर (पोस्ट- लालूमऊ) में 14 सितम्बर 1947 को हुआ था। उनकी पहली कविता 'अज्ञेय' द्वारा संपादित 'नया प्रतीक' (1970) में प्रकाशित हुई थी; जबकि उनका पहला काव्य-संग्रह— 'पूर्वाभास' 1975 में प्रकाशित हुआ था। 1984 में उनके नवगीतों को शम्भुनाथ सिंह द्वारा 'नवगीत दशक— तीन' तथा 1986 में 'नवगीत अर्द्धशती' में और 2001 में कन्हैयालाल नंदन द्वारा 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' में संकलित किया गया। मोहनगंज (तिलोई) में रहते हुए 1997 से 2000 के बीच उन्होंने ‘नये-पुराने’ (अनियतकालीन पत्रिका) के छह अंक निकालकर हिंदी नवगीत के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया। उनका दूसरा नवगीत संग्रह— 'टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर' 2002 में और तीसरा नवगीत संग्रह— 'समर करते हुए' 2003 में प्रकाशित हुआ। इसी दौरान वे अस्वस्थ हुए, तिस पर भी उन्होंने ‘नये-पुराने’ के तीन अंक— 'जगदीश पीयूष की रचनाधर्मिता' (2005, अतिथि संपादक— रवींद्र कालिया, ज्ञानपीठ के तत्कालीन निदेशक), 'कैलाश गौतम स्मृति अंक' (2007, विशेष सहयोग— अवनीश सिंह चौहान) एवं 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' ('रचनाकार' पर ई-अंक प्रकाशित, कार्यकारी संपादक— अवनीश सिंह चौहान) और निकाले, जिन्हें साहित्य-जगत में हाथों-हाथ लिया गया। इसी दौरान उनकी चौथी कृति— 'मैं फिर से गाऊँगा' (नवगीत, 2009) प्रकाशित हुई। स्वास्थ्य विभाग से रिटायर होने के लगभग दो वर्ष बाद 2007 में वे मोहनगंज छोड़कर सपत्नीक अपने पैतृक गाँव— गौरारूपई चले आये, जहाँ 2 जुलाई 2012 को ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन उनका गोलोकवास हो गया। 
(यद्यपि इस लेख में आ. दिनेश सिंह जी ने गीत, नवगीत, समकालीन गीत और कविता पर अपने विचार रखे हैं, तथापि उन्होंने गीत शब्द का प्रयोग बृहद अर्थों में किया है) — अवनीश सिंह चौहान

आज हिन्दी गीत की चर्चा करने का अर्थ है— रागबोधी कविता की ऐसी आनुषंगिक रचना की चर्चा करना, जिसके लिए कभी कविता-समीक्षकों की नजरों में समकालीन लेखकीय दायित्वों की चिन्ता करना बहुत जरूरी नहीं रहा। अधिकांश कविताकर्मिेयों तथा उनके समालोचकों का मानना रहा कि गीत अपनी संज्ञा से जिस भावभूमि को संकेतित करता है वह भीतर की भावप्रवणता को उकसाने-जगाने के लिए तो प्रासंगिक है, पर आज के जनजीवन के विकट यथार्थ को अंतर्वस्तु में पचाकर चलना उसके लिए मुश्किल हो सकता है। उनका शायद सोचना रहा कि रागात्मकता जो आदर्श की ही एक गूंज है, गीत का प्रबल तत्व है और वह धीरे-धीरे आज के जीवन से विलुप्त होती जा रही है। आधुनिकता की इतनी तकनीकी चिन्ताएँ जीवन के साथ जुड़ गई हैं और उसी के संग सर्वव्यापी मूल्यहीनता की पैठ हर स्तर पर इस कदर हो चुकी है कि आदर्श का पाठ बेमानी हो गया है। चूंकि आदर्श, मानवता तथा मन की सात्विकता का पुनर्पाठ है, इसीलिए उसकी आवाज समकालीन जीवन की विद्रूपताओं से जुड़ने पर अजीबोगरीब शिल्प अख्तियार कर सकती है, जो न गीत होगा और न अगीत ही। इस सोच के पीछे वर्षों से गीत का बंधा-बंधाया रूपाकार तथा अभिव्यक्ति की रागरंजित जटिलता ही कारगर रही। किन्तु संवादी भाषा में जीवन की समकालीन प्रवृत्तियों से जुड़ी हुई लय के गीत इस दौरान प्रकाश में आये— जीवन के नये सौंदर्य-बोध के साथ।पाठ की गहनता के साथ समाज की आनुभूतिक संगतियों से श्लथ आज के गीत सुपरिचित व पारंपरिक मंच से विरत लगते हैं। इन गीतों के माध्यम से आज के गीत-जगत में एक हलचल-सी दिखाई पड़ रही है। अपने मरणोत्सव के लिए सरंजाम जुटाती यह चर्चित विधा आज पुनर्जीवन के ऊर्जास्त्रोत तलाशने में लगी है। जीवन के प्रति उसकी जगी हुई बेचैनी अब हर जगह दर्ज भी की जाने लगी है। इसकी छांदसिकता की तहें भी खुलने लगीं हैं और नए अर्थान्तों से मौजूदा मानव जीवन की विविधता के स्वर भी संप्रेषित होने लगे हैं, जिनमें जीवन की जय का स्वर भी घुला-मिला है। भारतीय जीवन दर्शन की तात्विक विवेचनाओं के साथ गीतों में जीवन का जय-जयकारा पहले भी सुना गया है, जिसमें विस्तृत मानवीय आयामों का स्वीकार भी समाहित रहा है, किन्तु संघर्षशील जयी चेतना गीतों के अर्थान्तों से खुद-ब-खुद फूटे और धनात्मक रूप से जीवन को ऊर्जस्वित अर्थध्वनियों से आवेषित कर उसे अपने आप ही सबल कर सके, यह तथ्य इधर के गीतों की संभावनाओं में त्वरा के साथ उभरने लगा है। फिर भी ऐसा भी नहीं है कि गीत ने तात्विक स्तर पर अपनी मेड़ें पूरी तरह से तोड़ ही दी हैं। टूटी-फूटी घेरेबंदी उसने अब भी अपने चारों ओर कर रखी है, यह जानते हुए भी कि आज भौतिकता की आंधियों के चलते सावन के बादलों में मोहिनी बरसात का वह करिष्मा नहीं रहा जो आवेगों को उद्दीप्त कर प्रिया के ओठों पर ओंठ रख देने की बेचैनी पैदा कर सके। फिर भी गीत के छंद को भोक्ता जीवन के छंद में ढालने की कोशिशें जरूर होती लग रहीं हैं। इन कोशिशों में शामिल गीतकारों में वे भी धुरंधर हैं जो आज भी गीत को प्रिया, उसके जूड़े के फूल, उसकी काली लटों, मारक चितवनों या नदी, झरनों से झरते ऐन्द्रिक सुख तक ही सीमित रखना चाहते हैं या गीत की भूमिका को बतर्ज डॉ बच्चन ऐकान्तिक अवसाद की वैयक्तिक रागिनियों का रेखांकन भर मानते हैं। जब वे गीत को कवि के निहायत निजी कर्म से जोड़कर देखते हैं तो उन्हें यह विकट पाखंडी दुनिया बड़ी मादक लगने लगती है। अपनी सदेह महबूबा या उसकी अदेह स्मृति अथवा अपने निराकार दुख को वे विषयवस्तु की तरह चुनते हैं और समकालिक साहित्यिक सत्य के अनुसंधान की राह छोड़कर अपनी वायवी दुनिया में आनन्दमग्न हो जाते हैं। खायी-अघायी और अटपटी मानसिकता की यह पहुँच गीत में समय के सत्य और विचार साहित्य की अनदेखी करती है और हमें उन अंधी सुरंगों में ले जाती है, जहाँ की काल्पनिक हवा और रोशनी खुले चमकदार और चमत्कारिक आनन्द लोक का तिलिस्मी एहसास कराती है। यह वह लोक है जो आज के जीवन से लोप हो रहा है। सोचना है कि काल्पनिक सुख की यह साहित्यिक सौगात बटोरकर आज कोई क्या पायेगा, जिसमें मौजूदा जीवन संघर्ष के संकेत नहीं है, ठोस जिजीविषा का कोई बल नहीं है, यहाँ तक कि वह मनुष्य ही नहीं है, जो इस महादेश की मिट्टी में अपना पसीना बहाकर भविष्य के कुछ राहत पल उगाने के लिए आज मर-खप रहा है। जीवन के कैनवास में मनुष्य की किसी वास्तविक छवि का रेखांकन न कर पा सकने वाले ऐसे गीत रेखांकन का सबब भी समझ में आना चाहिए।

आज के गीत की चर्चा करते समय ‘गीत गोविन्द’ तक जाना या निरुद्देश्य छन्द का इतिहास पढ़ाना बेमानी लगता है। कहाँ गए बच्चन के गीत, कहाँ गए महादेवी के गीत या पंत, प्रसाद के गीत, इसका सार्वजनिक अलाप भी बहुत प्रासंगिक नहीं लगता। हाँ, जो गीत साहित्य के ऐतिहासिक क्रम के अध्ययन की विषयवस्तु है, उसे बहुत सहेजकर रखना है। आज तो गीत को आधुनिक होना है, यानी आधुनिकता की विसंगतियों की समझ में उपयुक्त भाषा और छंद की तलाश करनी है— अंर्तवस्तु को बांधना है और कहने के तरीकों में भी तरमीमें करनी हैं। प्रिय और प्रिया तो अपने गीत गाते सिनेमा में चले गए। फूल खेती के काम आ गए। नदियाँ बांधों और बिजलियों के छंदों में बंध गई। पोखर-ताल मत्स्य-उत्पादन के पट्टों पर चढ़ गए। अमराइयों में मुरैलों की कूकें बन्दूकों की रेन्ज में आ गईं। ऐसे में कोयल गाती है कि रोती है, कौन जाने? पर गीत को जिन्दा रहने के लिए जरूर जानना होगा कि यह सब क्या हो रहा है? एक सार्थक माध्यम की तरह उसे इस जानकारी को जनता में संप्रेषित भी करना होगा। ऐसे में नये शिल्प से गढ़े गीतों की ओर श्रोता या पाठक की अभिरुचि को बरकरार रखने की दिक्कत हो सकती है, जिसके लिए सांस्कृतिक परिवर्तनों में रुचियों के परिवर्तित होने की वजह से अपनी अभिव्यक्ति में भी सटीक परिवर्तन लाने की गुंजाइश बनानी होगी— समकालीन संवेदन, भाषा और शिल्प के सहारे। अटपटी विषम व विश्रृंखलित लय में धूम मचाती आज की पॉप-संगीत की दुनियाँ में साहित्यिक गीत किस संगीत की वैशाखी पकड़कर चलेगा, इस पर भी सोचना पड़ेगा।

आज के जीवन के विकट यथार्थ को लेकर सिर्फ राग के सहारे बहुत दूर तक नहीं जाया जा सकता। विशेष रूप से जनजीवन के निहायत तकनीकी होते जाने की वजह से तथा जीवन के कार्यव्यापारों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के भरपूर हस्तक्षेप व आधिपत्य के कारण। फिर भी भाषा की रागात्मक लय ही इस विकटता को कुछ सरलीकृत व सहज कर सकती है— अपनी और समय की सीमाओं में। इधर गीतों में अपनी जद से बाहर निकलने की बेचैनी साफ दिख रही है। समकालीन जीवन की संघर्शषील चेतना तथा कविता की समकालीनता के परिप्रेक्ष्य में विश्वग्राम से उपजी जीवनमूल्यों की भौतिकी आज के गीतों को आंदोलित कर रही है। यह मिजाज गीतों में सर्वस्वीकृत होना तो अभी मुश्किल दिखता है, क्योंकि वहाँ अभी भी विशुद्ध रागात्मकता और जोरदार सांगीतिकता पर ही भावातिरेक को पूरे आवेगों के साथ प्रक्षेपित करने वाले स्वरों की भी भरमार है। आज के आदमी की जिन्दगी का संघर्ष, भौतिकता की मजबूरी और मजबूरी में फंसती जाती उसकी जीवन लय और इससे निसृत कुण्ठा, खीझ और अन्य मानसिक विपर्ययों का उसकी जिन्दगी में हस्तक्षेप तथा बढ़ती जरूरतों के हिसाब से हाथ पैर फैलाने के लिए अपने संसार को गणितीय मिथकों पर स्थापित करने की जद्दोजहद तथा अरुचियों को भी अभिरुचियों की तरह स्वीकार करने की विडम्बना आदि-आदि से प्रणयी स्वरों का परिचय ही नहीं है या वे इन प्रभावों को गीत के फार्म में स्वीकार करना ही नहीं चाहते। समीक्षकों को तो उनकी बहुत चिन्ता करनी ही नहीं पड़ेगी, क्योंकि वे उनके दायरे में आयेंगे ही नहीं। लौकिक प्रेम की अबूझी बीथियों में घूमने पर अपरिचित सामाजिक स्थितियों में गुजर-बसर के लिये जूझते मनुष्य को ये अनुभूतियाँ बहुत राहत भी नहीं दे सकेंगीं। हाँ, सिने गीत भले ही किसी खास पीढ़ी की रचनात्मकता को उलझाए रखकर उनकी प्रवृत्तियों को उत्तेजक बना सकते हैं, पर जटिल सामाजिक संदर्भों में आज उनके प्रणय गीत भी कितनी ताकत दे पाएंगे, महसूस किया जा सकता है। साहित्यिक प्रणय गीतों में, यदि वे शिल्प और लय से कलात्मक हैं तथा छन्द में कुछ नया करके लाते हैं, जो प्रेषणीयता को सांगीतिक लय का बल दे रहा हो, तो काफी राहत पहुंचा सकते हैं और मन की उदात्ता को उभार सकते हैं— पर कितनी देर तक? जरूरत पर ओम प्रभाकर ने भी ऐसे गीतों की नई मादक लयें गढ़ीं हैं (फिर फूले कचनार) या केदारनाथ सिंह ने (रात पिया पिछुआरे पहरु टपका किया) तथा औरों ने भी ऐसे प्रयोग किए हैं।

आज की साहित्यिक सामाजिकता समकालीन आधुनिकता को उसकी विकासशील प्रवृत्तियों के साथ जिस तरह अपने में समा लेने को आतुर है, उसे गीत रचना के समय कहाँ तक छोड़ दिया जाएगा? यदि छोड़ दिया जायेगा तो क्या आज के जनजीवन की सच्ची तस्वीर उभर पायेगी या फिर इतिहास इसे गीत-समय की पलायन घटना की तरह अपने पृष्ठों पर सहेज लेगा? यदि गीत आज केवल गाये भी ही नहीं जाते, लिखे भी जा रहे हैं या उनकी केवल मौखिक परम्परा ही नहीं है, बल्कि पाठकीय भी बन रही है, तो आज के लेखकीय दायित्वों से उन्हें काटकर कैसे अलग किया जा सकता है? क्या गीत को साहित्य सृजन की वृत्ति से अलग करके रखा जायेगा? राग, माधुर्य, सांगीतिकता तथा आत्मरंजन के दृष्टिकोण से तो यह काम कमोवेश सिनेगीत ही कर रहे हैं, जिनके साथ भावावेग से भरी आज की नई पीढ़ी बीच चैराहे पर उछलकूद करती देखी जा सकती है। ऐसे में उनकी हल्की पड़ रही मानसिकता को जीवन की सार्थकता की ओर मोड़ने एवं उसे सांघर्षिक चेतना का घनत्व उपलब्ध कराने के लिए गीत लेखन को साहित्यिक लेखन के दायरे में लाना ही है, यह भी आज के दायरे में यानी समकालीन जीवन के दायरे में— आज के जनजीवन की सारी प्रवृत्तियों को उसी की भाषा-लय में उभारते हुए। दरअसल जीवन की समकालीनता के संदर्भ में देखा जाये तो गीतों में प्रासंगिक वैचारिकता का घनत्व बहुत कम है और जो है भी, समकालीन जीवन की भाषा-लय से बहुत अंतरंग नहीं है। फिर भी इधर गीतों की भावप्रवणता नये जीवन की नई भाषा-लय में अपना संस्कार गढ़ रही है। मनुष्य का यह भी सांस्कृतिक मिजाज ही है कि समय के साथ नापसंदगी की चीजें भी थोड़े दिनों में वर्दाश्त होने लगतीं हैं। शुरू में एक झोंका आता है जो उन्हें उस जगह से हटा देना चाहता है जहाँ वे अप्रत्याषित रूप से आकर जम गई हैं। उन्हें हटाना होता है तो हट जाती हैं अन्यथा एक दो बार हिलाने-डुलाने पर ना-नुकुर करके अपनी जगह पर स्थापित हो जातीं हैं— दूरियाँ नापने के लिए जरूरी मील के पत्थरों की तरह।

गीत भारतीय संस्कृति के संरक्षण की चिन्ता करता है और इस संरक्षण के नाम पर वह अपने को अप संस्कृति के विरुद्ध योद्धा की भांति प्रस्तुत करता है— कहता भी यही है। पर संस्कृति मनुष्य से या जीवन से इतर कोई अबूझी चीज तो नहीं है जो अपने रूपाकार में जड़ वस्तु की तरह कहीं एक ही जगह पर स्थापित हो। संस्कृति तो जीवन के समकालीन एवं स्वीकार्य क्रिया-व्यापारों, भाषा, सोच, विचारों, रीति रिवाजों, इतिहास, भूगोल, अपने जीवन से इतर जीवन के प्रति अपने दृष्टिबोध, आदर्श, यथार्थ आदि के तमाम अंतर्संबंधों से बनती है। अतः इन्हीं अंतर्संबंधों के पारस्परिक मेल-जोल का जो संश्लिष्ट प्रवाह है और जिसके केन्द्र में मानव-जीवन है, वही समय की संस्कृति है। "संस्कृति कभी भी किसी को नहीं बचाती, न ही उचित ठहराए जाने के तर्क देती है, लेकिन वह मनुष्य निर्मित हैं। अपने को वह संस्कृति के माध्यम से व्यक्त करता है और उसमें ही अपने को पहचानता है। यह आलोचनात्मक आईना ही उसे उसकी तस्वीर दिखाता है" (ज्यां-पाल सार्त्र— 'शब्द' से)। अतः कहा जा सकता है कि आज की संस्कृति जीवन का वह दृष्टिबोध है जो ठीक-ठीक वैसा नहीं है, जैसा पूर्व में रह चुका है— वहाँ भी वस्तुगत फर्क हो सकता है, पर स्वभावगत भले ही कम हो। समय का यह दृष्टिबोध गीत को (सांस्कृतिक प्रक्रिया होने के कारण) कितना प्रभावित कर सकता है या छिटककर उससे कितनी दूर पड़ सकता है— यह तो हमें जानना ही होगा।

डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय का कथन है कि "भूमंडलीकरण अपने वर्तमान चरित्र में उपनिवेशवाद का ही पुनर्पाठ है। वैश्विकता की हलचलें जितनी तेज हुई हैं उतनी ही तेजी से विश्व-भावना और मानवीय चिन्ता का लोप हुआ है।" इस कथन का संदर्भ लेकर जरा सोचें कि विश्व-भावना और मानवीय चिन्ता के इस विलोपीकरण में गीत की क्या स्थिति होगी? उसका क्या स्वरूप होगा? क्या जलते हुए शहर से बाहर बैठकर ऐसे ही गीत की वंशी बजाई जा सकेगी? क्या ऐसे में भी गीत को अमरत्व का वरदान मानने भर से ही काम चल जाएगा या कि इन कोरे नारों से ही समय की यह आग बुझाई जा सकेगी कि “गीत ब्रह्म हैं— वह रचना की व्यासपीठ है”? जब दुनिया सिर्फ दुनियादारी भर की ही रह जाएगी, जीवन अपनी ही पहचान में लोप हो जाएगा तो गीत क्या प्रेत या चुड़ैलें गाएंगी और गाएंगी भी तो उनकी लयान्वितियों पर झूमेगा कौन? भावना के विलोपीकरण में रस-राग और वैयक्तिकता के अनुबंधों से बंधे गीतों को गाने वाला वक्त की वैचारिकता से आधार पर कितना दिवालिया माना जाएगा और समय के संकट से भागने वाला भगोड़ा भी— इसकी चिन्ता कौन करेगा? आज के सांस्कृतिक परिदृष्य में चूंकि समय एक संकट की तरह उपस्थिति हुआ है, इसलिए इस संकट से जूझने-टकराने के लिए गीत को भी कोई तैयारी करनी होगी या नहीं। समय और रचना की टकराहट को इंगित करता 'समकालीन जीवन' शब्द-युग्म-गीत के साथ भी अपना संदर्भ जोड़ पायेगा या नहीं? ये गीत के लिए समय के सवाल हो सकते हैं, जिनके समक्ष गीतकारों को इस निर्णय के साथ जाना है कि गीत भी समय की रचना है या नहीं। वर्तमान समय में उसे भविष्य के लिए लेखकीय दायित्वों से जोड़ा जा सकता है या नहीं? क्या गाना-गुनगुनाना भर ही हिन्दी गीत की नियति हो सकती है? गीत अगर कविता है तो ललित सुरजन की इस बात पर भी विचार करना होगा कि "कविता जीवन का उत्सव है, लेकिन उसी के बिल्कुल साथ-साथ कविता जीवन का संघर्ष भी है। लेकिन यह याद रखना होगा कि उत्सव के लिए पर्याप्त कारण व सही समय होना चाहिए, दूसरी ओर संघर्ष के लिए बेहतर उद्देष्य व सही दिशा। अगर ऐसा नहीं है तो उत्सव कुत्साजनक हो सकता हे और संघर्ष एक क्षणिक आवेश से ज्यादा कुछ नहीं।"

दरअसल गीत की समकालीनता वह नहीं है जो वर्तमान छन्दमुक्त कविता की है। गीत के साथ जो समकालीनता है वह वर्तमान भारतीय जीवन के परिप्रेक्ष्य में संदर्भित समयबोधक विशेषण है; जबकि छन्दमुक्त कविता की समकालीनता का अर्थ वैश्विक फलक पर ‘फीवर्स’ के रूपाकार व प्रवृत्ति प्रकृति के विश्लेषणात्मक व तात्विक व भाषायी रवैये की समरूपता से है। विश्वग्राम की अवधारणा में वहाँ बराबरी की सहभागिता की बेकली अवश्य है, पर विशिष्टता की नहीं। यह विशिष्टता गीतों की समकालीनता से उभर सकती है— उभर रही है। आज का गीत विश्वग्राम में रहकर भारतीयता की अलग पहचान बनाए रखकर कविता को भी विशिष्ट बनाए रख सकता है। समाकालीनता के संदर्भ में गीत की यह जरूरी विशिष्टता कही जा सकती है। फिर भी प्रश्न खड़ा होगा कि ऐसे में गीत समकालीन कविता की मुख्यधारा में तैरता हुआ फूल बना रहे कि किसी झरने की तरह उससे मिलजुलकर बहे। पर यदि यह मेलजोल गीतात्मक शर्तों पर ही होगा तो आज की खुश्क और ताकतवर कविता को भी रागात्मक कांति मिल सकेगी। जिससे समग्र कविता के रूप परिष्कार से अर्थ और समय संगति की एक नई समन्वित लय सधेगी जो विश्व कविता बाजार में विशिष्ट छवि के कारण महत्वपूर्ण हो सकेगी। गीत और गीतेतर कविता का यह अंतर्भेदी सद्भाव विश्वग्राम की अवधारणा को कुछ नए रूप और मूल्य हस्तान्तरित कर सकेगा, जिससे विश्व कविता की बराबरी के लिए आयोजित दौड़ में उससे आगे भी निकल जाने की संभावनाएँ झलक सकेंगीं और यह नई गीत-कविता अपने गीतात्मक आवेग की उष्णता पाकर समग्र कविता के बीच अधिक सम्पन्न दिखेगी, यथार्थ के गीत नियोजन में अपनी भावप्रवणता के कारण। भावप्रवणता सिर्फ भावुकता या रूमानियत भर ही नहीं है। दूसरे के सरोकारों को अपने सरोकारों की तरह समझने का आवेष है— लय है। यह भावप्रवणता कविता के बौद्धिक आयामों को शिथिल नहीं करती, बल्कि संप्रेशणीयता की त्वरा से उसके लिए सर्व स्वीकृति का वातावरण बनाती है। गीत के लिए उसकी पहचान की यह संगति जरूरी है। यह भावप्रवणता समीक्षकीय दृष्टिबोध के लिए बहुत सहायक न हो, यह अलग बात है, पर उसको बाधित भी नहीं करती, न उसके लिए कोई असुविधा ही पैदा करती है। चूंकि विश्लेषण तो वस्तुतत्व का ही अंतिम रूप से होना है, इसलिए गीतों की मीमांसा में जब वस्तुतत्व के साथ की यह विशिष्ट संगति छोड़ दी जाती है तो समीक्षक को लग सकता है कि बात कुछ कमजोर हो गई है, किन्तु सच यह है कि शिल्प तत्व की मीमांसा को सैद्धान्तिक रूप से साथ रखने पर भावप्रवणता की एक अतिरिक्त लय से बंधे होने के कारण मनोविश्लेषक में उसे सहज प्रेषणीयता का अतिरिक्त लाभ भी मिल रहा है तथा वस्तुतत्व की गद्यात्मकता को एक विशिष्ट रागात्मक स्वर भी। अतः सच तो यह है कि समीक्षा के समय इस लयात्मक सरलीकरण के उसे अतिरिक्त अंक मिलने चाहिए। आज जरूरत है कि भावप्रवणता या रागात्मकता को व्यवहृत जीवन की भाषा-लय में समोया जाए; आग्रही ललित शब्द संकेतों की कान्त पदावलियों से उसे स्थूल न बनाया जाये। आज के गीतों के समक्ष अंतर्वस्तु को राग से आवेशित करने का सवाल प्रमुख है, न कि राग के लिए अंतर्वस्तु को ही सरलीकृत करके प्रस्तुत करने का आग्रह। अंतर्वस्तु जिन अनुभवों से निकलती है उन्हें सीधे-सीधे गीत में रखने से काम नहीं बनता, बल्कि उन अनुभवों से अंतर्वस्तु को निचोड़कर रागावेशित करने से ही गीत को लयात्मकता मिल सकती है।

गीत के संदर्भ में जब भी आधुनिकता और परम्परा की बात आती है तो जैसे नये-पुराने की बात आती है, जिसे अलग-अलग करके देखने की इच्छा रखने वाले अलगाववादी स्वप्न दृष्टा अपने व्यक्तित्व तथा मौजूदा सांस्कृतिक उपादानों को अपने गुण-बीजों की भूमिका से काटकर अलग देखना चाहते हैं। वे अपनी जमीन और उसकी पर्तो में छिपी उर्वरा शक्ति का उपयोग करते हुए भी केवल सामने खड़ी फसलों के आग्रही भर बने रहना चाहते हैं, जबकि सूजन रुडाल्फ जैसे अभारतीय मनीषियों ने भी परम्परा को आधुनिकता का प्रतिद्वन्दी न मानकर उसे आधुनिकता का अनुपूरक मानने का विचार ही सामने रखा है, तब भी भारतीय कविताधारा का यह चिन्तन-सृजन (गीत) अपनी तमाम उदात्तताओं के बाबजूद सोच में असहिष्णु कैसे हो सकता है।

दिक्कत यह है कि अधिकांश गीतधर्मी आधुनिकता को परंपरा का प्रतिद्वन्दी मानते हैं— अनुपूरक नहीं; उसी तरह जैसे छन्दमुक्त कविता को गीत का प्रतिद्वन्दी मानते हैं। आखिर आधुनिक जीवन पद्धति आज जिन आयामों पर टिकी है, क्या वे परंपरा के ही विकसित आयाम नहीं हैं। क्या आधुनिकता अपने और कथित परंपरा के बीच कोई स्पष्ट रेखा खींचकर अपने तई उसे गैर दुनिया की चीज मानती है या वह समय चक्र की वर्तमान चाल में पारंपरिक सहिष्णुता का गुण बिना वजह ही खोती जा रही है— इन बिन्दुओं को भी गीत-चिन्तन के दायरे में लाना होगा। किन्तु अधिकांश गीतकार शायद गौर भी नहीं कर रहे हैं कि ऐन्द्रिक सुखवाद पर एकाग्र आधुनिक नई संस्कृति का एक छोर बाजार में तथा दूसरा छोर मनुष्य के भीतर हांफती पाशविक आदमिकता तक पसरा हुआ है। आज आधुनिकता के नाम पर जिस समाज की रचना हो रही है, वह भूमंडलीकरण के भीतर तकनीकी और इलेक्ट्रॉनिक क्रान्ति के सम्मिलित प्रभाव से रचा गया वह समाज है जिससे कभी भी हमारा सामना नहीं हुआ और जो गीत संस्कृति को विस्तार देते समय अब तक हमारे अनुभवों या अनुमानों में कहीं भी उपस्थित नहीं रहा है।

बाजार के बढ़ते सामाजिक वर्चस्व में तथा जीवन में उसके जरूरी होते जाते हस्तक्षेप में हिन्दी साहित्य के गीतों पर खतरे बढ़ सकते हैं, क्योंकि उत्पादकता और उपभोक्ता के जरूरी होते जाते लोकप्रिय रिश्तों में लोकप्रियता ही रचना-ग्राह्यता का प्रमुख मानदण्ड बन सकती है जिसमें उत्तेजना और सस्तेपन की विखंडित लय गीतधर्मिता की प्रमुख लय हो सकती है। इस संदर्भ में इधर लोकप्रिय साहित्य की चर्चा चली है— विशेषकर उत्तर आधुनिकता के छोरों से। कविता संदर्भ में गीत के लिए यह लोकप्रियता लोकगीत को तो संकेतित नहीं करती, किन्तु लोक से जुड़े होने के कारण भाषा-स्तर पर बोली-बानी के नजदीक जाने के लिए प्रेरित तो करती ही है। बोली-बानी से मतलब है, लोकप्रिय और सर्वसंवादी भाषा से जो भारतीय जीवन की सोच में समाहित है। प्रथम दृष्टया तो यह क्षेत्रीयता के खेमें में बंटी दिखती है, पर सांस्कृतिक धरातल पर राष्ट्रीय या देशीय अस्मिता के दखल से सहज संवादी भाषा का ही रुख अख्तियार करती है। भाषा का इस्तेमाल स्वभावतः रचना में स्वतःस्फूर्त होता है, जिसे होने के बाद ही रचनाकार भी महसूस करता है। यही समय की भाषा है, जिसके बनाव-रचाव में जीवन की तत्कालीनता तक का हाथ होता है— समकालीनता के साथ ही साथ। लोकप्रियता की कसौटी में लोक की मानसिकता भी शामिल है, इसलिए सुसंस्कृत लोकमानस में ही साहित्यिक संप्रेषण अधिक सहजता से हो सकता है। मशीनों पर साहित्यिक अभिरूचियों का टिकाव या मशीनों से साहित्यिक अभिरूचियों का उत्पाद तकनीकी लोक में ही संभव है। तकनीक के प्रभाव को आज पूंजीवादी व्यवस्था के कुप्रभाव द्वारा जिस प्रकार लोक में संक्रमित किया जा रहा है और जिस तरह हतप्रभ भारतीय लोक उससे अपने को चमत्कृत महसूस करता है, उससे गीत संदर्भ में लोकप्रियता का अर्थमाधुर्य और रंजन के पान— बीड़े में लपेटी वस्तुत्व की कतरी हुई सुपाड़ी सा लगता है।

यह पहले भी कहा जा चुका है कि आज के गीत की प्रासंगिक भूमिका विचार साहित्य व गीतेतर साहित्य के व्यापक व गहन पाठ से जुड़ी हुई है— ज्ञानात्मक संवेदना के विशिष्ट रागात्मक तौर-तरीकों से भी पीछे हम देखते हैं और देखते ही रह जाते हैं कि हमारे पूर्ववर्ती कवि-मनीषियों ने अपने समय के समग्र यथार्थ को कविता माध्यम की सिर्फ छांदसिकता के ही बल पर व्यक्त किया और अभिव्यक्ति को पूर्ण रूप से सार्थक किया, चाहे वह ओज-सोच का वीरगाथा काल हो, चाहे वह भक्तिकाल का सांस्कृतिक संक्रमण काल रहा हो, चाहे राजश्रयी मानसिकता की सामंतीवृत्ति के नीचे पलता स्वच्छन्दतावादी एकाधिकार का रूमानी रीतिकाल हो, चाहे स्वतंत्रता आन्दोलन की जूझ में राष्ट्र की एकात्म भावना से संश्लिष्ट जातीय स्वर का जागरण काल हो अथवा छायावाद की शीतल आवेग भरी कारुणिक व सूक्ष्म मनःस्थिति का अध्ययन काल हो— अकेले छंद ने तत्कालीन जीवन की सामाजिक व सांस्कृतिक स्थितियों-प्रवृत्तियों को इस तरह उभारा कि तत्कालीनता के सारे सामाजिक उद्योग सांस्कृतिक विकास की भागीदारी में अपनी भूमिका को पूरे अर्थ बिम्बों के साथ स्पष्ट कर सके और निरे छंद के बल पर जीवन और समाज के सापेक्ष्य कविता के क्रमिक विकास का व्यौरा, इतिहास से लेकर वर्तमान तक का, प्रमाणिक रूप से उपलब्ध करा सके। छायावाद तो हिन्दी गीत साहित्य का अद्भुत एवं ऐतिहासिक दस्तावेज है ही, जो तत्कालीन जीवनानुभवों की आत्मीय व अंतरंग अनुभूतियों की सूक्ष्मता का परिचय हमें जाने-पहचाने संवेदनों में ढालकर कराता है। वस्तुतः छायावाद हमारे अन्तर्मन के विविध सूक्ष्म आयामों के अध्ययन का कालखंड है। उसे गीत का स्वर्णयुग कहना तो उसे चालू मुहावरे में कैद करना भर है, जबकि वास्तविकता यह है कि छायावाद सीधे-सीधे कविता का गीतयुग रहा है, यानी छांदसिकता के करिश्में ने हिन्दी कविता के एक समूचे युग को गीत युग के रूप में बांधे रखा— उसकी समूची संवेदना के साथ। वस्तुतः छांदसिकता कविता को केवल छन्द के बंधनों में बांधने का शिल्प ही नहीं है, बल्कि वह कविता का वह प्राणतत्व है जो भावप्रवणता और रागात्मक लय से जीवन में आवेगमयी धड़कनें पैदा करता है। यानी यह कविता की एक विशिष्ट प्रवृत्ति है जो छन्दमुक्त कविता में भी उपस्थित रहकर उसे जीवंत और जीवनोन्मुखी बना सकती है और जो गीत की केन्द्रीय प्रवृत्ति के रूप में पहचानी भी जा सकती है; किन्तु आज जरूरी है कि ऐसी छन्दसिकता कला के प्रखर दबाब में न आकर अंतर्वस्तु को सहज लयात्मकता में ढाल सके। गद्य-जीवन की गद्यात्मक अंतर्वस्तु की मनोलय का प्रवाह अधिकाधिक प्रेषणीय बनाता है और अभिरुचि से हिलमिल कर अपने संदेश को आसानी से संप्रेषित करता है। निराला के समय तो उनकी छंदमुक्त कविता भी पूरी तरह लयात्मक रही है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के शुरुआती दिनों में गीतों में आशा और उल्लास के मादक स्वर अधिक मुखर हुए तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में साझेदारी की समझ से सामाजिकता के दबाव ने भी उन्हें प्रभावित किया। गीतों में इस सामाजिकता का संकेत निराला ने अपने बाद के गीतों में देने का प्रयास किया। सामाजिकता की इस पैठ के पुरजोर होने पर सामाजिक विसंगतियों से टकराते जीवनानुभवों के अक्स खुद-ब-खुद गीतों में उभरने लगे। गीतों में यह एक ऐसा परिवर्तन रहा जिसे कविता समीक्षा के दायरे में रखकर जांचा-परखा जाना चाहिए था, क्योंकि यह परिवर्तन गीत के लिए उतना ही क्रान्तिकारी रहा जितना कि कविता की छन्दबद्धता को तोड़कर समकालीनता की विश्लेषणकारी प्रवृत्तियों के साथ उसे छन्दमुक्त कविता में ढालने का अभियान। जैसे इस अभियान में भाषा-शिल्प के तमाम अनुसंधानों व अध्ययनों का दौर चला तथा अंतर्वस्तु के लिए नए भाषा-शिल्प का उपयोग किया गया, वैसे ही गीत में भी नई सामाजिक संवेदनाओं के साथ नए छंदों व नई-नई कहनों का सिलसिला चला। विषय-वस्तु के विस्तार के साथ गीत में सामाजिकता का यह रुझान उसकी मनोलय में स्वीकार किया गया। यानी निराला ने स्वातंत्रयपरक चेतना से अलग-थलग पड़े सर्वहारा की घेरेबंदी किए बैठे दुखों के भीतर पैठी स्थितियों को उजागर करने का दायित्व बोध आगामी गीतों को जिम्मेदारी की तरह सौंपा और वैयक्तिकता की परिधियों को तोड़कर केन्द्रीय मानवीय आवेग को समाजिकता के विराट संसार से जोड़ा, दुख में भी, सुख में भी। निराला का सुख जन की पीड़ा का बयान बनकर उनमें क्रान्तिधर्मी चेतना का रुझान पैदा करने के संघर्ष में निहित रहा। बाकी तो वे आजीवन दुखों से महासमर की गाथा ही बने रहे।

आधुनिक सामाजिकता के संदर्भ में वर्तमान लेखकीय दायित्वों को स्वीकार कर गीत लिखने में बड़ी दुश्वारियाँ हैं, जिसमें सार्थक व संवादी भाषा की तलाश की समस्याएँ प्रमुख हैं, क्योंकि यहाँ गीत की भाषा और जीवन की भाषा के बीच एक लायात्मक संबंध का निर्वाह भी जरूरी है और जरूरी है कि यह भाषा-लय गीत की भी हो और समकालीन जीवन की भी। भावाकुलता से अधिक घनात्मक रूप से जुड़े होने के कारण गीत यथार्थ के उलझाव को समझने और उसे अभिव्यक्ति के फलक तक लाने के लिए स्वाभाविक कल्पनाशीलता के आवेश का भी इस्तेमाल करता है, सो उसकी भाषा-लय सहेजते समय वायवीयता के खतरे बरकरार रह सकते हैं। रागजनित मन्तव्यों में ऐसी वायवीयता भाषा का मिजाज बन सकती है— अन्य कविता विधाओं की अपेक्षा अधिक। यद्यपि प्रसन्न कुमार चौधरी का मत है कि कल्पना यथार्थ का विस्थापन नहीं है। यह हमारे जटिल जीवन का जटिल हिस्सा है। हमारी इच्छा से स्वतंत्र एक सच्चाई। यथार्थ की क्षैतिज रेखा को काटती हुई इस काल्पनिक ऊध्र्व रेखा के बिना मनुष्य की आकृति अधूरी रह जाती है। दरअसल कल्पनाशीलता अपने भावोद्रेक में रूमानियत के आस-पास ही ठहरती है, जो गीतों के लिए कोई पाप नहीं है, किन्तु यह रोमानी भाव-बोध किसके प्रति हो, इसका चुनाव आधुनिक जीवन संदर्भों के प्रति वर्तमान साहित्यिक दायित्वबोध के साथ किया जाए। कवि के लिए सौंदर्यबोधी कवि मन अपने ‘कन्टेन्ट’ के लिए जिस रागजनित भाषा-शिल्प का चुनाव करता है, वह इसी संस्कारशीलता को अपना मानक बनाता है। शिव और सुन्दर के सापेक्ष्य ही चीजों को देखने का संस्कार अभिव्यक्ति को निरापद सत्य के स्तर तक ले जाता है। यह सत्य बीभत्स भी हो सकता है। सो आज के आदमी का समाजशास्त्र हो, उसकी सांस्कृतिक चेतना हो या विसंगत स्थितियों से घिरा उसका जीवन, सब उसके अनुभव की भाषा-लय में ही संप्रेषित हो, किन्तु लय की संश्लिष्ट रागात्मकता बनी रहे और गीत एक अलग निजी मिजाज में जनजीवन की सामाजिकता को वस्तुपरक नजरिये से निरख रहा हो— ठीक वैसे ही जैसे वह अपना रचाव कर रही हो और जैसे—जिस प्रकार अपने में घटित हो रही हो। आज के आर्थिक वैज्ञानिक युग में किसी एकायामी व सहज जीवन में उपलब्धियों की कोई मीमांसा संभव नही है। बहुआयामी जटिल जीवन, जिसकी पर्ते इतनी बारीक हैं या यों कहें कि उन पर्तों का छद्म इतना सूक्ष्म है कि युगबोध के नाम पर भावबोध का स्थूल भाषा-शिल्प उसके वास्तविक स्वरूप को पारदर्शी नहीं बना सकता और न उस बहुआयामी लय को ही पकड़ सकता है जिस पर आज का अत्याधुनिक जीवन अपने कार्यव्यापारों को संचालित करता है और अवसर के अनुकूल अपनी सोच के प्रतिमान गढ़ता है। अतः जरूरी है कि गीत की भाषा और उसके भावबोध को उसी सूक्ष्म लय तक लाया जाए, जिसमें आज का बहुआयामी जीवन जिया जा रहा है। यही गीत का आधुनिक होना है। पर क्या गीत आधुनिकता की इन शिल्पकारियों को अपनाकर सहज दिख पाएगा? यह प्रश्न विचारणीय भी है और गीतकार की उस संवेदनात्मक पहुँच से ताल्लुक रखता है जो सचेत रूप से वैचारिक व ज्ञानात्मक है। प्रायः गीतकार तो व्यक्तित्व स्तर पर (रचना स्तर पर नहीं) अपने को कबीर मानता रहा है जिसे मसि और कागद छूने की बहुत जरूरत नहीं रही है। उसे तो प्रमुखतः मंच की ही तलाश रही है, जिस पर चढ़कर वह अपने कंठ-स्वर से समाने बैठे श्रोताओं की उलझी सोचों को बंटी हुई रस्सी की ऐंठन की तरह छुड़ा कर उन्हें ऐन्द्रिक संवेदनाओं की खूंटियों से बखूबी बांध सकता हो। कम से कम उतनी देर के लिए ही सही जितनी देर तक वह ‘माइक’ के मुंह से अपना मुंह चस्पा रख सके। किन्तु इधर के दो ढाई दशकों के भीतर गीत में सर्वथा नई चेतना का संचार हुआ है और वे कई आयामों पर सर्वथा नई संवेदनाओं, श्रव्यता की मंचधर्मिता से इतर पाठ्य होकर लेखकीय धर्म से भी एक साथ जुड़े हैं। आज निश्चय ही गीत के आगे की चिन्ता भाषा-शिल्प की वह लय है जिसे अरसे से वह कडु़ई व अपनी स्वदेशी भाषा में अपरिचित घोषित कर जा चुकी है। विश्वग्राम के रेले-मेले में दर-दर का पानी पी-पीकर पीली दिख रही भाषा-लय के समक्ष भारतीय जीवनलोक की यह व्यवहारिक भाषा यदि आधुनिक जीवन की समग्रता को धारदार जुबान और शील-संवेदन को लयात्मक प्रवाह दे सकती है तो वह गीत के सुष्ठ शरीर को रास क्यों नहीं आ सकती, साथ ही जातीय अस्मिता की चिन्ता में वह अपने रागबोध का उपयोग क्यों नहीं कर सकती है। पारंपरिक नजरिए से इस भाषा-लय के गीत अबूझे और अटपटे लग सकते हैं, क्योंकि स्थूल राग से अधिक ऐसे गीतों में भाषा की भूमिका ही प्रधान होगी और वही गीत लय की संवाहक होगी। भाषा का यह अनुसंधान (प्रयत्न) और उसका सार्थक उपयोग तंत्र-युग में भी मानवीय चेतना के पुनर्जागरण का हेतु हो सकता है पर आज उसे समग्र कविता के दायरे में रखकर ही देखना होगा अन्यथा समय सापेक्ष कारगर माध्यम के अभाव में गीत सिर्फ गाने और गुनगुनाने भर की चीज रह जाएगी और सामाजिक दायित्वों से जुड़ी भूमिका के उसके नारे खोखले हो जाएंगे या वैसी कोई भूमिका ही नहीं बन पाएगी।

रचनाकार के लिए भाषा अपने सृजन में कोई सीख या पाठ नहीं होती, बल्कि वह अपने सांस्कृतिक परिवेश से रचनाकार की चेतना में स्वयं संक्रमित होती है। यह उस व्यवहार की भाषा होती है जो समकालीनता के सापेक्ष्य जीवन की लय के साथ-साथ चलती है। विश्वग्राम की अवधारणा में तेजी से हो रहे— सर्वग्राही परिवर्तन, जो हमारी परिचित संस्कृति को विसंक्रमित कर उसे अबूझ रास्तों में ले जा रहे हैं, उनकी पूरी-पूरी पहचान न हो पाने के कारण हम आज उसे सांस्कृतिक अवसन्नता मानते हैं, पर नई सदी की सामाजिक संस्कृति किस स्थायी रूपाकार में उभरकर सामने आएगी यह समझने के लिए कुछ इन्तजार करना होगा। हाँ, भरपूर यांत्रिक जीवन में हम अपनी अब तक की पहचान के मुकाबले प्रायः अबूझे और अजाने हो जायेंगे— यह धारणा तात्कालिक सामाजिक संकेतों तथा साहित्यिक विमर्शों से उभरकर सामने आ रही है।

यदि अर्नेस्ट फिशर के मन्तव्य का हवाला लेकर कि 'रचना में समकालीनता' से आगे की चेतना कितनी है, 'यह उसका अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष है'— गीत का संदर्भ उठाया जाए, तो हम आज भी आधुनिकता से उत्तर आधुनिकता तक की दौड़ लगा सकते हैं।

इधर भारतीय साहित्य में उत्तर आधुनिकता की जो अजान सुनाई पड़ रही है, वह अभी डूबते हुए की गुहार जैसी ही है। फिर भी यह वक्त है कि गीत को समय की धड़कनों के साथ अपनी बढ़ती हुई जिम्मेदारी के प्रति सजग हो जाना चाहिए। विद्रूप स्वरों के शोर में भागते-हांफते आदमी को लयात्मकता का सहारा देकर सहज किया जा सकता है। उत्तर आधुनिकता की सोच में इतिहास आड़े आता है, जैसा कि हर अराजक सोच के साथ होता है, सो सांस्कृतिक चेतना से तिरस्कृत इस आधुनिकता का चित्त इतिहास की अवहेलना करता है ओर सिर्फ समय की तत्कालीनता में ही समा जाना चाहता है, यह भूलकर कि समय को भी अंततः इतिहास-क्रम में ही विलीन हो जाना पड़ता है। हर कालक्रम की अनुरेख इतिहास में ही खिंचती है। सबको मारकर भी काल को मारा नहीं जा सकता, क्योंकि वह रेखीय और चक्रीय दोनों आयों में गतिशील है और यों गति में द्वन्दात्मक होकर भी लय में अद्वैत है। सो उत्तर आधुनिकता का संवेदनहीन संसार बिखरी हुई चीजों की फुटकर सामाजिक क्षेत्रीयता, शब्द-संवेदना के द्वन्द की घोषणा, स्थानिकी का वर्चस्व तथा तकनीक का मायाजाल दरअसल जीवन का ही मायाजाल है— उस जीवन का जो नई सदी के रास्ते से हममें प्रवेश कर रहा है। उत्तर आधुनिकता को इस अर्थ में सांस्कृतिक अराजकता का संकेत माना जा सकता है कि वह मिथकों, स्मृतियों और गुजरे हुए कालखंडों की दीप्त छवियों में मुंह चुराती है और इतिहास के आइने में अपना चेहरा देखने से डरती है। इसीलिए वह समय की चादर से ढके भविष्य के सामने दहाड़ें मारकर रोती है और इतिहास के मृत्यु की घोषणा करती है। चूंकि यह पश्चिमी चिन्तन इतिहास को केवल युद्ध, भुखमरी, बेहाली और बेबसी का शास्त्र मानता है, सो यह भविष्य के उस काल खंड को, जो पास ही अंधेरे में छाया की तरह झिलमिला रहा है, वर्तमान से भविष्य तक के पूरे कालखंड को मूल्य स्तर पर डरावना बनाता है। जीवन को सिर्फ भौतिकतावादी एवं बहिर्मुखी विकास की प्रक्रिया के रूप में देखने की यह सीमित और संकुचित दृष्टि भारतीयता के मानवीय व रागात्मक चिन्तन में संवेदनाओं के सही स्वरूप को नजरअंदाज करती रहेगी, जिसका प्रभाव गीत पर भी पड़ेगा। तमाम साहित्यिक माध्यमों पर ऐसा प्रभाव उन्हें जटिल रेखांकन के रूप में या मात्र मनोरंजन के रूप में उभार सकता है। चूंकि गीत तरल संवेदनाओं के प्रवाह से, उनकी धार से बंधा है, इसलिए इस प्रकार के तमाम प्रतिरोधी प्रभावों की हिलकोर से वह अधिकाधिक अर्थबिम्बों में दमक सकता है और अपने द्रावक संकेतों को सौगुनी आभा से भर भी सकता है, बशर्ते कि वह अपना लोकमन सुरक्षित-संरक्षित रख सके। गीत के पास अपनी निजी सांस्कृतिक परम्परा है। यह विकासशील परम्परा जीवन मूल्यों में होने वाले कालगत हेरफेर के साथ आधुनिकता तक जाती है। उत्तर आधुनिकता तक जाने के लिए उसे तकनीक और मीडिया के दबाबों से होकर गुजरना पड़ेगा। फिर भी परंपरा से उसका अंतर्संबंध इस शर्त पर बना रहेगा कि पश्चिम के आर्थिक माॅडल को ही आदर्श न मान लिया जाए और भारत देश के जातीय दर्शन को भी संश्लेषित करते रहा जाए। उत्तर आधुनिक चिन्तन अपनी सारी उदारताओं के बावजूद जितना कुछ असहिष्णु दिखाई पड़ रहा है, उसे उतना ही जातीय राग से दाबा जाए। यह काम कविता-क्षेत्र में गीत ही बखूबी कर सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि आत्मबोध और इतिहासबोध की समन्वित चेतना से अनुस्यूत परम्परा और आधुनिकता के परिपूरक अंतर्संबंध गीत स्वरूप की रक्षा कर सकते हैं— और गीत कविता-स्वरूप की, तब भी जब आधुनिकता उत्तर आधुनिकता में बदल जाए और हमारे अधिकांश पारम्परिक माध्यम तकनीक और मीडिया के हाथों में चले जाएँ। यह दृष्टि हमने अपनी विकासमान चेतना की अंतःप्रक्रिया से पायी है।

जिनके नीत्शे (ईश्वर की मृत्यु), इलियट (उपन्यास का अंत), एडमंड विल्सन (पारंपरिक कविता का अंत), लायनल ट्रिलिंग (लेखक का अंत), और देरिदा (डिस्कन्स्ट्रशन) ही आदर्श हैं, उनकी बात और है। पर जिनके पास कालिदास, जयदेव, पदमाकर, विद्यापति, सूर, कबीर, तुलसी, प्रेमचंद, निराला और नागार्जुन ही हों, वे अपने पैमाने किसके ‘डस्टविन’ में फेंककर उनके लिए अपनी झोली खाली कर सकेंगे। भारत देश की राग-रंजित धरती दिल-दीवानों की धरती है। राग-अनुराग उसके संस्कार की लय है। तो क्या इस पारंपरिक सोच की बिना पर गीत को तकनीकी समय में पूरी तरह नकारा जा सकता है। या उसे उस शिल्प में ढाला जा सकता है जिसमें विचार और कला की मृत्यु की घोषणाओं का समर्थन हो और जीवन के उदात्त संकेतों का निरस्तीकरण हो और वह भी स्पष्ट रूप से हो। साहित्य के तात्विक विश्लेषण में यह रागविहीनता जिस संदर्भ में कसी जायेगी उसमें विषय का निजी राग तो उभरकर फिर भी सामने आ जाएगा। इस देश की मिट्टी का मिजाज ही कुछ और है जिसमें राग से आग का अनुसंधान और उसके ताप से जीवन को उतप्त बनाए रखने की फितरत शामिल है। इस मिट्टी के आम, महुआ, लीची केवल खाने के या गुठलियों के दाम गिनाने भर के ही नहीं हैं, बल्कि मन को महमहाने की भी हिकमतों से लैस हैं और यहाँ का आदमी एक नजर पर जिन्दगी भर के लिए दीवाना हो जाने के सुरूर से सुर्खरू है। एक अनोखी कुब्बत का करिश्मा है उसके पास। यदि यह करिश्मा किसी बीमार मानसिकता का संकेत है, तो यह बीमारी ही इस मिट्टी की पहचान का गौरवमय साक्ष्य है। अति आधुनिकता या उत्तर आधुनिकता तो भूमंडलीकरण की हवा में पूंजीवाद के विस्तार का ही प्रभाव है, जहाँ सामाजिक कार्य-व्यापार में बाजार ही केन्द्र में है। बाजार में तो सामंजस्य और सामंजस्स की तमाम व्यवस्थाएँ तमाम स्तरों पर उपलब्ध रहती हैं, किन्तु भारतीय जीवन में कुछ अनुशासनात्मक तत्व भी तकनीकी रूप से सक्रिय रहते है, सो वहाँ किसी विद्रूप से किसी भी प्रकार के समझौते कारगर नहीं हो सकते। अतः हमें यह मानकर चलना चाहिए कि बाजार होती जाती इस दुनियाँ में यह भारत भूखंड हमेशा जीवन की जीत का राग अपनी मिट्टी से महकाता रहेगा। अंत में उत्तर आधुनिकतावादी संवादों की कचरघार के बीच भी जीवन की रागमयी आस्था और उसकी निष्ठा बराबर बरकरार रहेगी। यहाँ के सबेरे सदैव सुगंधों से भरे रहेंगे और यहाँ की सांझों की पलकें दिन की भावभीनी विदाई की रस्म अदायगी में भीगी रहेंगी और अगले दिन की आमद के लिए राहों में पलक- पाँवड़े भी साथ-साथ बिछाए रहेगी। ये पलकें उन आँखों पर सजी हैं, जो सुख ओर दुख दोनों में भारी हो जाती हैं। गीत इन्हीं भरी आँखों का संगीत है। आंसुओं से उसकी अनुरक्ति है। अतः यह बात कभी भी गीत के गले नहीं उतर सकती कि इस देश की जो मनोलय है, उसके पीछे जो ‘आइडियोलॉजी’ है, उसे मिटाकर उसका स्थान पूर्णतया तकनालाजी ले सकती है। सब कुछ तकनीकी हो जाने के बाद भी ‘मन’ बचा ही रहेगा और यों गीत की मनोलय भी बचेगी रहेगी। इसी विश्वास के बल पर तथा अपनी माटी की महिमा की महक से गीत सदैव हमारे मन में घुमड़ते रहेंगे, जो प्रखर आधुनिकता के प्रभाव से विचलित संवेदनाओं को भी गीतात्मकता में समेटे रहेंगे। चूंकि गीत मन की भाषा है, सो मन के साथ रहने पर हर स्थिति व समय में वे अपना रचना शिल्प व अपनी मनोलय गढ़ते ही रहेंगे।

जहाँ तक शम्भुनाथ सिंह के नवगीत दशकों के आयोजन की बात रही, तो वह नवगीत के नाम से तत्कालीन गीत-धारा का इतना प्रासंगिक व प्रमाणिक दस्तावेज था कि उसे देखकर जाने कितने लोगों को इस धारा में छलांग लगाने का मन हुआ। जितनों को हुआ, वे तमाम, इधर-उधर सीपी-शंखों की तरह बिखरे पड़े हैं। लगता है कि उस समय जब गीत की मृत्यु की घोषणाएँ हो रही थीं, तो गीत को चुनौती स्वीकार करते हुए बहुत सावधानी से अपने कदम बढ़ाते हुए सामने आना था— अपने विकास की जमीनी चेतना के साथ, जिसका विकासशील आयाम नवगीत दशकों के गीतों में स्पष्ट था। उसके आगे की यात्रा में कुछ गिने-चुने ही आगे बढ़ सके। पर जरूरत तो सबके लिए उसी रचना की थी जो समय के जीवन में जिए जाने की संस्कृति में थी और जिसके संकेत दशकों की लय में आ चुके थे। पर बात तो बदलते जीवन के सापेक्ष्य उसके आगे की लय विस्तार की कोशिशों में निहित थी। उसी गीत भाषा की जरूरत थी जो अपने समय-जीवन के कार्य-व्यापार के रूप में रही थी। अतः गीत की भावप्रवणता या लय की रागात्मकता के लिए जो भी प्रयास रचनाकार की तरफ से होने थे, उसमें यह भी देखना था कि कहीं उस प्रयास में जीवन की सच्चाई और उसकी वस्तुनिष्ठता अतिराग की वजह से बहुत मंद तो नहीं हो रही है। फिर भी इसी दौरान बीच की अवधि में बहुत से गीतकार ऐेसे भी अपने गीतों को लेकर सामने आये, जिन्होंने समय के सापेक्ष्य गीत की रचनाधर्मिता व उसकी भाषा-लय को नहीं समझा या कहें कि दशकों के आयाम को न टटोल पाने के कारण आगे के विकास की सही दिशाएँ नहीं तलाश सके। कइयों ने उसे जमकर लोकभाषा का रूप दिया, कुछ लोगों ने उत्साह के अतिरेक और उत्तेजना में विखंडित लयों को भी गीतलय की पहचान देने का प्रयास किया। कुछ ने असंतुलित फार्म को स्वीकृत कराने तथा टेढ़े-मेढ़े सांचों को और उन लयमुक्त सांचों के तमाम ऊबड़-खाबड़ खांचों में गीत को जबरिया फिट किया। बिम्ब के नाम पर भी अराजक प्रयोग हुये। इस प्रकार गीतों की एक प्रयोगशाला तैयार हो गई, जहाँ प्रासंगिक अंतर्वस्तु तथा भाषा-लय को महत्व नहीं दिया गया और गीत की हालत गरीब की लुगाई सी हो गई। ताज्जुब यह कि ऐसे प्रयोग करके भी इन प्रयोगकर्ताओं के गीत इधर-उधर छपते भी रहे— संकलनों के रूप में भी और फुटकर भी, जिनमें से अधिकांश को अपनी तिकड़बाजियों से समर्थ गीतकार का ओहदा भी मिला। इस प्रकार वे अपनी करनी के लिए अमर कर दिये गये। इस भागमभाग और मारामारी की जिन्दगी को लयात्मक प्रवाह में अपने समय की पहचान का अभ्यास उसी के तेवर में करता-कराता चले, जिससे वह उसके माध्यम से अपनी सार्थकता की तलाश करने की बेचैनी खुद में पैदा कर सके। वर्तमान राजनैतिक संगठनों की तरह बाहर से सांगठनिक समूहों में तथा भीतर से अलग-अलग बिखरी यह बहुरंगी गीतात्मकता वर्तमान कविता साहित्य के सामने रचना स्तर पर एक निरापद व मजबूत छवि नहीं बना पाई और मनुष्य तथा उसके आधुनिक जीवन के संदर्भ में कोई सार्थक या पॉजिटिव साहित्यिक संकेत भी समग्र रूप से नहीं दे पाई। जो ज्यादातर नवगीत दशकों के माध्यम से नए गीत-जगत में अधिकाधिक रूप से नामित किए गए, कुछ और भी गिने-चुने जो वहाँ किसी वजह से छूटे गए ओर जो वस्तुतः उल्लेखनीय थे, को हटा दिया जाये तो बाद की स्थिति बहुत मजबूत नहीं लगती, यद्यपि नवगीतपरक समीक्षकीय चर्चाओं की ओर से बहुतों को सांगठनिक प्रश्रय भी मिला लगता है कि गीत दशकों के बाद तात्कालिक गीत स्थितियों को देखकर जिस समग्र हिन्दी कविता के परिप्रेक्ष्य में सांगठनिक ताकत की जरूरत महसूस की गई होगी वह बहुत सार्थक व रचनात्मक सोच से जुड़ी चिन्ता नहीं थी। और न अंत की घोषणाओं को कुंद करने के लिए अपरिहार्य ही साबित हो पाई, बल्कि कमोवेश अराजकता की स्थिति जरूर बनी। अस्पष्ट, अबूझे शिल्प प्रवृत्तियों की इस मारामारी से सांगठनिक शक्ति का सफल उपयोग नहीं हो पाया, क्योंकि वहाँ केन्द्र में गीत रचना को नहीं और उस रचना में आज के मनुष्य को नहीं, बल्कि पूरी सोच में नेतृत्व की चाह और इस चाह को संतुष्ट करने के लिए चारों ओर घेरे खड़े कथित नवगीतकारों की संख्या बल का जोड़-घटाना ही ज्यादा रखा गया।

आज विसंगतियों की चर्चा वर्तमान हिन्दी कविता साहित्य में (गीत में भी) इस कदर हावी है कि जीवन के नये उन्मेषों का परिचय ही नहीं मिलता। तमाम आधुनिक संघर्षों के बीच भी आज के जीवन को स्पंदित करने वाली अदम्य जिजीविषा के तत्व भी उभर कर सामने नहीं आते। वस्तुतः आज तत्कालीनता के जोश में ऐसे तत्वों को तलाशने और उन्हें कविता (गीतों) के फलक पर लाने का प्रयास ही नहीं हो पाता। आक्रोश, समस्याएँ और आर्थिक तंत्र की चिन्ताओं के अतिरिक्त भी आज के जीवन में कुछ मधुर और मादक शेष हो सकता है, इसकी पड़ताल जब रागात्मक विधाएँ भी नहीं करती तो सारा समां युद्ध का सा ही लगता है, जहाँ मोर्चे ही मोर्चे हैं, शिविर ही शिविर हैं, योद्धा ही योद्धा हैं और संग्राम ही संग्राम हैं। हमें ध्यान देना चाहिए कि इनमें मन-ग्राम के वाशिंदों की संगत संवेदनाएँ कहाँ हैं— इस मारामारी की दुनिया में छाँव का प्रिय होना कहाँ हैं? जिन कोनों-अंतरों में आज के आदमी की जीवनीशक्ति छिपी हुई है— जहाँ से उसे ऊर्जा लेनी है। जीवन की जय का घोष यदि गीत की तरफ से होता है तो वही जीवन के प्रति उसकी रागात्मक संगति है। गीत इस प्रवृत्ति को अपनी संगति में समाविष्ट करके ही जीवन के प्रति भावात्मक व धनात्मक आवेग पैदा कर सकता है। राग भरे आवेग की रचना की मुख्य और निजी लय राग ही है। गीत का संगीत महज इसी रागमयी चेतना का प्रवाह है, यानी राग की संगति का प्रवाह ही गीत का संगीत है। गीत में जब हम फूल के सौंदर्य को देख रहे होते हैं तो हमें ध्यान देना चाहिए कि हम उसमें उसकी खुशबू को भी मिलाकर देख रहे होते हैं या केवल उसके रंग-रूप को ही। एक स्थूल है और दूसरा बिल्कुल सूक्ष्म। एक केवल दिख रहा है, दूसरा केवल महसूस हो रहा है। दोनों ही अलग-अलग खंडित है, समग्र तो उनका संश्लेष है। पूरा सौन्दर्यबोध तो इसी संश्लेष से निःसृत है। और इसी संश्लेष को आत्मीय होकर निरखना-परखना ही गीत का रागबोध है।

गीत की बात करते समय छंन्दमुक्त कविता से नाक-भौं सिकोड़ने वाले या उसे अटपटा मानने वालों को भी अपने भीतर झांकना चाहिए। संवेदना से लेकर अंतर्वस्तु के स्तर तक दोनों विधाएँ एक-दूसरे की अनुपूरक हो सकती हैं। आज की वैज्ञानिक सोच के रुझान में गीत ज्यों-ज्यों वस्तुनिष्ठता की ओर बढ़ रहे हैं, विषयवस्तु स्तर पर, ये नजदीकियाँ काफी कुछ पारदर्शी भी हो चली हैं, किन्तु भाषा-स्तर पर भी दोनों में समकालीन जीवन की व्यवहृत भाषा का दबाब बढ़ रहा है। गीत को तमाम सूचनाएँ और जानकारियाँ भी ‘फ्रीवर्स’ से उपलब्ध हो रही हैं। अतः यह ईमानदारी ही होगी कि दोनों में संवाद और अभिव्यक्ति के अंतःसंबंधी रिश्ते भी स्वीकार किए जा सकें।

गीत की समीक्षा में द्वन्दबद्धता की शर्त से अधिक समीक्ष्यकृति की किसी शास्त्रीयता से टकराने का सवाल ही नहीं उठता, बल्कि निःसृत सामाजिकता तथा उससे उसके सांस्कृतिक संदर्भों का ही विश्लेषण अंतर्वस्तु की बिना पर किया जाए, जिससे मनोलय के साथ रचनात्मकता का मन्तव्य पूरी तौर पर साफ हो सके। गीत रचना की प्रासंगिकता कारगर ढंग से उसकी समीक्षा के इसी सिद्धान्त पर सिद्ध की जा सकेगी। सामाजिकता चूंकि समय से निबद्ध रहती है इसलिए किसी भी शास्त्रीयता से अधिक सामयिक चेतना का विश्लेषण ही समीक्षा पद्धति से आज के गीत में हो सकता है।

आज दिक्कत यह भी है कि कविता के समीक्षक गीतों को नए कवि कर्म के दायरे से बाहर पाते हैं, सो उस पर लिखने में संकोच बरतते हैं। गीतधर्मी जो समीक्षकीय प्रयास करते हैं उसमें उनके आग्रह, निजी संस्कार और निजी परिवेश इतने प्रबल होते हैं कि वस्तुत्व के ईमानदार विश्लेषण से उन्हें भटकाकर उनकी निजी आस्थाओं में खीच ले जाते हैं। गंभीर रचनाकर्मी और समीक्षक मानते हैं कि गीत अभी उस मुकाम तक नहीं आया है, जहाँ उसकी समीक्षा बहुत जरूरी लग रही हो— आज की समीक्षकीय जरूरतों के हिसाब से। दरअसल गीत प्रायः भावप्रवणता के अतिरेक में फंस जाते हैं जहाँ वे शब्दों या स्थितियों से सम्मोहित होने लगते हैं। चूंकि अभी तक वे अपनी कक्षाएँ स्वयं ही चलाते रहे हैं— बिना किसी मास्टर की छड़ी के, सो वे खरी व चुटीली समीक्षकीय टिप्पणियों से अपने को आहत भी महसूस करते हैं— स्वाभिमान के स्तर पर, किन्तु रचनाकर्म के स्तर पर गीत को ताकतवर व प्रासंगिक बनाने के लिए समकालीन जीवन व उसकी भाषा-लय के दोहरे स्तर पर ही उसे जांचना-परखना और सृजित करना होगा— कन्टेन्ट और फार्म में सामंजस्य और समरूपता रखते हुए। यहाँ यह भी बात ध्यान देने की है कि यदि हम समकालीन जीवन के यथार्थ तक बहुत तनावग्रस्त होकर जाते हैं तो भाषा भी नसैनी की तनी डोर-सी दिखती है और गीत कविता का रागात्मक स्वर उस चढ़ाई में फिसल-फिसल जाता है। परन्तु जब बहुत सहज होकर अपनी जमीन से इसी यथार्थ को परखा जाता है तो राग का स्वर स्वयं ही भाषा को अपने में बांधने लगता है।

दरअसल पूरे समीक्षा सिद्धान्त के केन्द्र में तो रचना ही है और आज रचना के केन्द्र में समकालीन जीवन है, जो तमाम अंतर्द्वंदों और परस्पर विरोधी विचारधाराओं, मूल्यों तथा सहमति-असहमति के द्वन्दात्मक आयामों से संश्लिष्ट है। ऐसे में इस जीवन को आज जब गीत के माध्यम से उसकी समग्र व्यावहारिकताओं, सोचों, उपलब्धियों, खामियों के साथ अपने ऐतिहासिक, अनुभवों के आधार पर रागात्मकता के साथ व्यक्त किया जाएगा, तो उसकी समीक्षा के समय उस अभिव्यक्ति के आशय को पूरी जमीन देखते-परखते उभारने का दायित्व समीक्षा के जिम्मे स्वतः आ जाएगा। इस दायित्व को निभाते समय रचना के गुण दोषों की भी जानकारी समीक्षा के द्वारा ही दी जाएगी। रचनाकार अपने आशय को स्पष्ट करने में कहाँ-कहाँ चूका है, इस चूक में उसकी शिल्पगत लयात्मकता की कितनी चूक शामिल है— एक सार्थक समीक्षा से इसके भी संकेत मिल जाएंगे। डॉ प्रेमशंकर ने अपने एक आलेख में इस मुद्दे को बहुत साफ तौर पर उठाया है और कहा है कि "रचना का आधार जीवन है और समीक्षा का आधार रचना है पर एक प्रासंगिक प्रश्न यह भी है कि क्या समीक्षा केवल शास्त्रीय अथवा अकादमिक प्रयत्न है और जीवन से उसका कोई सरोकार नहीं है? संभवतः इसी विसंगति के कारण वर्तमान समय में समीक्षा की प्रासंगिकता पर प्रश्न-चिन्ह लगाए जाते हैं। समीक्षा का एक नैतिक दायित्व यह भी है कि रचना जिस भूमि पर स्थित है, वह उसकी जांच-पड़ताल और ईमानदारी से उसके गुण-दोषों पर विचार करते हुए मूल आशय को पाठक तक पहुँचाये।"

अंतर्वस्तु के संदर्भ में जहाँ तक गीत की चिन्ताओं का सवाल है वहाँ वे मानवीय, राजनैतिक व सामाजिक तीनों की होंगी। प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर का यह कथन यहाँ भी सटीक बैठेगा कि मानवीय, राजनीतिक और सामाजिक चिंताएँ— अगर ये तीनों एक नहीं हैं तो मुझे लिखने का कोई अधिकार नहीं है। चूंकि ये तीनों चिंताएँ एक हैं, इसीलिए मैं लिखता हूँ। यदि मेरी केवल मानवीय चिंताएँ होतीं तो मैं किसी मठ का महन्त होता; केवल सामाजिक चिंताएँ इन दोनों से न जुड़तीं तो मुझे लिखने की जरूरत नहीं थी।

कविता तो विचार भाव का समन्वित रूपाकार है जिसमें कला और कविता कौशल लय की तरह घुला-मिला होता है। गीत में भावप्रवणता भले ही कुछ अधिक लयाश्रित होती है और वही उसकी कलाधर्मिता के रूप में आंकी जाती है, किन्तु सर्वोपरि तो अंतर्वस्तु ही होती है जो विचार में संश्लिष्ट होती है। यह विचार गीतकार का होकर भी उन समस्याओं से निसृत होता है जो अन्तर्वस्तु के केन्द्र में गूंज रही होती हैं। इसमें दुखी जन की पीड़ा से लेकर परिवेश के दबाब तक की गाथा हो सकती है। आज के संघर्षरत जीवन की चिंताएँ इसी गूंज से मुखरित हो सकती हैं, बशर्ते गीतकार ने अपनी निजी कोई भाषा-लय न अपनाकर विषयवस्तु के सापेक्ष्य एक संगत व सार्थक भाषा-लय का इस्तेमाल किया हो, जो जिये गये जीवन से फूटकर गीत में संचरित हुई हो और जो प्रेषणीयता के संकट को काट भी रही हो। यानी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं राजकिशोर जी को उद्धृत करना चाहूँगा— "कविता एक विचार है/ लेकिन वह एक विचार बनी रहकर/ जीवित नहीं रहेगी।/ कविता में भाव होते हैं/ पर सिर्फ भावों के सहारे/ वह बहुत दूर तक नहीं जा सकती/ कविता को बचाना है/ तो विचार को भाव में और भाव को विचार में।/जमकर फेंटिए/ और उसके बाद/ एक ईमानदार छलाँग लगाइए।/ सम्यता के इस अंधेरे में/ जिसकी लपट से हर चीज जली जा रही है।/ कविता यदि कौशल है/ तो कवि ही कवि हैं हमारे पास/ कविता यदि कला है, तब भी कवियों की कमी नहीं/ हमारी अधेड़ हिन्दी में भी/ लेकिन क्या वह जीने का एक ढंग भी हो सकती है।/ जैसे नादिरशाह की लूट/ या कबीर की भक्ति है।/ कविता का सिमटते जाना/ मौजूदा समय की लाक्षणिक मजबूरी है।/ इसलिए कहता हूँ।/ मित्रों/ कविता का संकट दरअसल/ कविता और उसके नागरिक की दूरी है।"

अतः आज के गीतकार को भी सोचना है कि उसके भीतर के कवि मन और नागरिक के बीच की दूरी को अधिकाधिक कम करने के लिए जरूरी है कि विचार, कला और भाव को एक साथ फेंटकर ही उसे गीत की लयात्मकता दी जाए, जिससे रचना का एकांगीपन भी श्लथ हो सके और रचना के सारे अवयव उसकी वैचारिकता में स्वाभाविक रूप से समाहित हो सकें— संश्लेष के रूप में और एक सार्थक गीत रचना के साथ अंतर्वस्तु का लयात्मक उद्घाटन हो सके— पूरी संप्रेषणीयता के साथ। 'नये-पुराने' के पिछले अंक में गीत-दृष्टि या गीत-लय के संदर्भ में लोकमन की बात की गई थी और यह भी स्पष्ट किया गया था कि यह मन है जो भारतभूमि की मिट्टी में धड़क रहे तीन-चैथाई से अधिक जीवन की लय में पिरोया है। दरअसल वहाँ जिस लोकमन की बात की गई थी उसका पूरी तौर पर उन लोकतत्वों से संश्लिष्ट होना जरूरी नहीं है जो अब तक सैद्धांतिक रूप से लोक जीवन के नाम पर गिनाए जाते रहे हैं। दरअसल यह एक विडम्बना ही रही कि हिन्दी साहित्य में सांस्कृतिक चेतना की समग्र भारतीयता को आरंभ से ही लोक जीवन (पिछड़ा जीवन) और अभिजात्य जीवन (नागर जीवन) के दो खेमों में वर्गीकृत करके लोकजीवन की संस्कृति को कुछ ऐसा विशिष्ट बनाया गया कि आज वह स्वयं अलग होकर नागर जीवन के लिए प्रदर्शन, शोभा और सज्जा की सामग्री बनकर रह गया और पूरे साहित्य में लोकसाहित्य के पृथक अध्ययन की व्यवस्था स्थापित हो गई। इन वर्गीकृत दो संस्कृतियों के समन्वित रूपाकार की कल्पना करके भारतीय जीवन को समग्र सांस्कृतिक जातीय आयाम देने का प्रयास नहीं हुआ। इनकी अलग-अलग सैद्धान्तिक चर्चाओं एवं प्रस्तुतियों ने साहित्य में विभेदकारी अध्ययन की परंपरा स्थापित की। किन्तु इसे समग्र सांस्कृतिक बोध नहीं कहा जा सकता। हमारा लोकमन से मन्तव्य उन जीवनानुभावों की संवेदनाओं से है, उस अस्सी प्रतिशत जीवन की लय से है, जो अपने पसीने और अपनी भूख के बीच एक स्थायी और सर्वोपरि रिश्ता बनाए रखने को मजबूर है एवं जाॅगर तथा जरूरतों के बीच ही अपने सपनों को सजाने-संवारने की सीमाओं में कैद हैं, वह गाँव में हो कि शहर में, कोई फर्क नहीं पड़ता। वह बोली से काम चलाते हों या भाषा से— एक ही बात है। सांस्कृतिक सोच की एकरूपता तो उनके समग्र जीवन-धारा के साथ-साथ बहती चलती ही है। ऐसे सांस्कृतिक मन का श्रमजीवी रागजनित स्वर आज के गीत के लिए अधिक प्रासंगिक व सार्थक हो सकता है। आधुनिक हिन्दी गीत-संस्कृति में क्षेत्रीयतावार विकेन्द्रीकरण की जरूरत भ्रामक है। अवधी, बुन्देलखंडी, ब्रज, संथाल आदि-आदि में गीत संस्कृति की समग्रता का बटवारा करना दृष्टि-विपन्नता का ही परिचायक माना जाएगा। 'नये-पुराने' के 'गीत अंक-3' की संपादकीय में कहा गया था कि 'किसी भी सांस्कृतिक रचना प्रक्रिया को देशकाल की समग्रता में पहचानना होता है, तमाम तरह की भाषाओं, बोलियों, रहन-सहन के तौर-तरीकों, भिन्न परम्पराओं, पूजा पद्धतियों और भाषायी टोन की भिन्नताओं के बावजूद भी उनके बीच उनकी सम्पूर्ण एकल पहचान बनाने वाले जातीय बोध और उससे निसृत सामूहिक संस्कृति को सांस्कृतिक समग्रता में ही आंकना होगा। क्षेत्रवार बोलियों-भाषाओं के आधार पर उसके अलग-अलग मानकों से मूल्यांकन करने की चेष्टा बचकानापन है। समीक्षा की अवधारणा में इस वर्गीकरण को नासमझी के अलावा कुछ नहीं माना जा सकता, क्योंकि समीक्षक अपनी समग्र दृष्टि के आलोक में ही रचना का परीक्षण करता है। अतः मानता हूँ कि सांस्कृतिक बटवारे की यह प्रथा, समग्र समीक्षा-दृष्टि के लिए असुविधाजनक है। यदि इस तरह की क्षेत्रीयता के खेमों में समग्रता के भिन्न व परस्पराग्रही सांस्कृतिक अवयवों को अलग-अलग सुरक्षित रखकर जाँचा-परखा गया तो यह समग्र सांस्कृतिक चेतना को आहत करना होगा और तटस्थ व पूर्ण मूल्यांकन के लिए तमाम भिन्न मानक तलाशने होंगे, जो गीत की एकात्मकता को बाधा ही पहुंचाएंगे तथा एक संश्लिष्ट संस्कृति की सकारात्कता के प्रवाह को भी बाधित करेंगे।

हिन्दी-भाषा के विकासक्रम के शुरुआती दौर से ही गीत साहित्यिक उपक्रम से जुड़ा रहा, इसलिए वह इस सांस्कृतिक वर्गीकरण की प्रक्रिया से प्रभावित रहा, क्योंकि उसके पीछे मन का मर्म टटोलता हुआ लोकगीतों का एक विराट संसार था, सो उनके बीच की साहित्यिक गीत को पारंपरिक तौर-तरीकों के साथ विशिष्ट दिखना-दिखाना था। लोकगीतों की भावप्रवणता व रागात्मकता के प्रभावों को उनकी अंतर्वस्तु से अपना संश्लेष बनाना ही था। छन्दमुक्त कविता इस अतिरिक्त प्रयास की मजबूरी से बरी रही, क्योंकि उसका अवतरण बाद में हुआ, जब आधुनिकता की हवाएँ बहना शुरू हो गईं, यानी उसे पारंपरिकता का बहुत दबाब नहीं झेलना पड़ा।

गीत की मानकसिकता सोचें तो लगता है कि उसका आधुनिक काव्य भाषा के साथ एक द्वन्द है। एक भारतीय भाषा-संस्कार पूर्व से ही उसके खून में समाहित है, साथ ही आधुनिकता की वैश्विक हलचलों से वह बाहर से संक्रमित भी हो रहा है। इस द्वान्दिक प्रक्रिया में पहले का दबाब गीत के साथ ज्यादा है, जबकि छन्दमुक्त कविता के साथ दूसरा अधिक जोरदार संगति बनाता है क्योंकि उसके खून में भारतीय भाषा-संस्कार का उतना प्रबल प्रवाह नहीं है जितना कि बाह्य परिवेश का है। समकालीन छन्दमुक्त कविता उस पीढ़ी—युग की कविता है जिसके खून में संस्कार की तरह आधुनिकता है और उसका द्वन्द अति आधुनिक या उत्तर आधुनिक भाषा-संस्कार के साथ है, सो उसके स्वरूप के बहुत नजदीक तक पहुँचने में गीत को बड़ी दुश्वारियाँ हैं। इस कारा-परिवेश को आत्मसात करने की चिन्ता में या नई भाषा-लय के गढ़ने में भावप्रवणता को कहाँ और कितना छोड़ा जाएगा।

आधुनिक गीत ने समकालीन छन्दमुक्त कविता से बहुत कुछ लिया है। उसकी संवेदनाओं को भी न्यूनाधिक अपनी संवेदनाओं में आत्मसात किया है या उनसे संक्रमित हुआ है और अपने दृष्टिबोध में भी उसके वस्तुपरक नजरिए का समावेश किया है। आज के गीत को इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। यदि गीत अपने विषयवस्तु में समकालीन सामाजिकता को पूरे मनोयोग से संदर्भित करता है तो उसके साथ यह सब तो होगा ही, जो उसके मौलिक स्वरूप को प्रतिक्रियात्मक रूप से ऐसे में प्रभावित करेगा। समकालीन छन्दमुक्त कविता और गीत के रिश्ते अंतर्भेदी होते जायेंगे। चूंकि गीत ने यह राह पकड़ ली है, इसलिए उसे निहायत वैयक्तिक अवसाद व प्रखर एकान्तिकता की प्रवृत्तियों में लौटाना मुश्किल ही होगा और अब यह बहुत उचित नहीं लगेगा कि गीतों की चर्चा करते समय राग और बोध का संदर्भ लेकर लिजलिजी भावुकता के बंटखरे रखे जायें और सम्पूर्ण कवितात्मक प्रवृत्तियों के वजन न चढाए जायें। यानी अब आधुनिक जीवानुभवों को केन्द्र में रखकर वस्तुपरक विश्लेषणात्मक प्रवृत्तियों से गीत को भी परखना होगा। फिर भी संरचनात्मक विभेद को भूलकर गीत को पूरी तरह समकालीन छन्दमुक्त कविता की प्रवृत्तियों में नहीं ढाला जा सकता, क्योंकि वैज्ञानिक चिन्तन के दायरे में रागात्मकता से हाथ छुड़ाने की चिन्ता छन्दमुक्त कविता का स्वभाव है जिससे गीत का स्वभाव मेल नहीं रख सकता।

[उपर्युक्त लेख 'नये-पुराने'— गीत अंक-5, सम्पादक— दिनेश सिंह, प्रकाशक— राजेन्द्र राजन, द्वारा-नेहरू युवा केन्द्र, सीतापुर, उ. प्र., मुद्रक— माहेश्वरी एण्ड संस, नाका हिंडोला, लखनऊ, उ.प्र., वर्ष— 1999, मूल्य— रु 40/-, पृष्ठ— 234 की संपादकीय से यहाँ साभार प्रस्तुत किया गया है।]

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