सनातन संस्कृति में कुम्भ, मत्स्य, चक्र, गदा, शंख, सूर्य, चंद्र, श्रीफल, धनुष, चरण-चिन्ह, कदली, आम्र, गज, स्वस्तिक, त्रिभुज आदि को मंगल-प्रतीक माना जाता है। शुभता एवं श्रेष्ठता को व्यंजित करते इन मंगल-प्रतीकों में कुम्भ का अपना पौराणिक आख्यान है। 'स्कंद पुराण' में 'समुद्र-मंथन' की दिव्य-कथा का वर्णन है, जिससे पता चलता है कि दुर्वासा ऋषि के श्राप से देवताओं के राजा इन्द्र जब श्री-हीन हो गये तब श्रीविष्णु के उपदेशानुसार देवताओं एवं दैत्यों ने मैत्री कर क्षीर सागर को मथने की योजना बनायी। तदनुरूप मंदराचल को मथानी और वासुकि को नेती बनाकर क्षीर सागर का मंथन प्रारंभ हुआ, जिससे चौदह रत्न— हलाहल (विष), कामधेनु, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पद्रुम, रंभा, लक्ष्मी, वारुणी (मदिरा), चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष, शंख, धन्वंतरि वैद्य, अमृत-कलश प्राप्त हुए; किन्तु देवताओं और दैत्यों के बीच अमृत-कलश के बँटवारे को लेकर सहमति नहीं बन सकी। इसलिए इंद्र का संकेत पाकर उनका पुत्र जयंत अमृत-कलश लेकर वहाँ से निकल पड़े; यह सब देख कुछ दैत्य भी जयंत के पीछे-पीछे दौड़ पड़े। परिणामस्वरूप दैत्यों और देवताओं के मध्य युद्ध छिड़ गया।
बारह दिन (देवताओं के) तक चले इस देवासुर संग्राम में अमृत की सुरक्षा के लिए कुम्भ को बारह स्थानों पर रखा गया, जिनमें चार स्थान— हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक (कुम्भ-पर्व-स्थल) पृथ्वी पर और आठ स्थान देवलोक में अवस्थित माने जाते हैं। इस अमृत-कलश को लाने-ले-जाने (गरुड़ और जयंत के माध्यम से) में अमृत की कुछ बूँदें श्री धाम वृन्दावन में कालिय हृद के पास स्थित उस कदम्ब वृक्ष पर भी पड़ीं, जिस पर चढ़कर श्रीकृष्ण ने कालिय हृद (श्री यमुना जी) में छलाँग लगाकर कालियनाग को नाथा था। अमृत की बूँदों के पड़ने से यह वृक्ष जहाँ 'शस्य-श्यामल' हो गया, वहीं श्रीकृष्ण की चरण-रज पाकर यह (कृष्ण-कदम्ब) बड़भागी भी हो गया— "कदंबं इति भाविन श्रीकृष्ण चरणस्पर्श भाग्येन स एकः तत्तीरे न शुष्कः इति ज्ञातव्यम्।/ अमृतमाहरता गरुत्मताऽऽक्रांतत्वात इति च पुराणान्तरम् (भावार्थ दीपिका- श्रीधर स्वामी, 10/16/06)।
श्री धाम वृन्दावन में कालिय-दमन से ब्रज संस्कृति की पोषक श्री यमुना जी, जोकि मधुवन के समीप बहती हैं, जब विष-प्रदूषण से मुक्त हुईं तब उनका जल भी 'नीरामृत' हो गया। सूर्य की पुत्री, मृत्यु के देवता यम की बहिन और लीलावतार श्रीकृष्ण की प्राण-प्रिया अमृतजला श्री यमुना जी ब्रजवासियों की चिर-वन्दनीय माता हैं (ब्रज में इन्हें यमुना मैया भी कहा जाता है, जिसका वर्णन 'श्रीमद्भागवत महापुराण', 'ब्रह्म पुराण' आदि ग्रंथों में भी मिलता है)। इसी वृन्दावन की पावन भूमि पर मोर-मुकुट पीतांबर-धारी भगवान श्रीकृष्ण एवं बृज की दुलारी श्री राधारानी जी ने अपनी दिव्य-लीलाओं से रसामृत की अद्भुत वर्षा की है। रसिकों, सिद्धों, योगियों के लिए वृन्दावन का यह 'रागानुगा-रसामृत' देश के अन्य स्थलों— हरिद्वार (पुनर्जन्म को खण्डित करने हेतु), प्रयाग (पुण्यार्जन हेतु), उज्जैन (मोक्ष एवं सिद्धियों की प्राप्ति हेतु) और नासिक (भुक्ति-मुक्ति एवं पापनाश हेतु) पर अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्ति के लिए मनाये जाने वाले कुम्भ-पर्व आदि से कहीं अधिक श्रेयस्कर है। शायद इसीलिये श्रीधाम वृन्दावन में सूर्य और गुरु के कुम्भ राशि में स्थित होने पर फाल्गुन मास में कुम्भ-पर्व (अर्धकुंभ, मिनी कुंभ अथवा वैष्णव कुंभ के नाम से भी चर्चित) का भव्य आयोजन होता है, जहाँ संतों, भक्तों, सद-गृहस्थों को 'रागानुगा-रसामृत' का पान करने का शुभ अवसर प्राप्त होता है।
श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित एक श्लोक— "तत्तात गच्छ भद्रं ते यमुनायास्तटं शुचि।/ पुण्यं मधुवनं यत्र सान्निध्यं नित्यदा हरे:॥" (श्रीमद्भागवत, 4/8/42) में नारद मुनि ने ध्रुव महाराज को श्री हरि का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए वृन्दावन में यमुना तट पर स्थित मधुवन जाने का उपदेश किया है, क्योंकि वे जानते हैं कि श्री धाम वृन्दावन तो रसभूमि है, जहाँ श्री युगल सरकार नित्य विराजते हैं और अपने रसिक भक्तों पर अनुग्रह करते हैं। इसीलिये किसी कवि ने सच ही कहा है—
वृन्दावन सो वन नहीं, नन्दगाँव सो गाँव।
बंशीवट सो वट नहीं, कृष्ण नाम सो नाँव।।
ब्रज का ह्रदय कहे जाने वाले वृन्दावन के प्राकृतिक सौंदर्य को व्यंजित करता जन-सामान्य में प्रचलित उपरलिखित दोहा अपने आप ही बहुत कुछ कह दे रहा है। यह दोहा जहाँ नन्दगाँव, बंशीवट और कृष्ण-नाम की महत्ता पर प्रकाश डाल रहा है, वहीं श्री यमुना जी के तट पर विद्यमान श्री वृन्दावन के मनोरम वनों को भी सलीके से रेखांकित कर रहा है। ऐसे में जिज्ञासुओं के मन में प्रश्न उठ सकता है कि आखिर वृन्दावन में वन कहाँ से आ गये? भौगोलिक दृष्टि से यह प्रश्न स्वाभाविक भी है। परन्तु, कई बार स्वाभाविक भी अस्वाभाविक लगता है और अस्वाभाविक भी स्वाभाविक लगने लगता है। इसलिए वृन्दावन के निराले वनों के स्वरूप पर एक श्लोक और देख लिया जाय— "वृन्दाया तुलस्या वनं वृन्दावनं" — अर्थात जहाँ तुलसी के वन विशेष रूप से पाये जाते हैं, उसे वृन्दावन कहते हैं। यहाँ फिर एक प्रश्न कि अब तो तुलसी के वन वृन्दावन में कहाँ दिखाई पड़ते हैं? कुछ हद तक यह सच भी हो सकता है। किन्तु, आज भी वृन्दावन के तमाम घरों, आश्रमों, मंदिरों, खेतों-क्यारियों में प्रचुर मात्रा में तुलसी देखने को मिल जाएगी और उसकी स्तुतियाँ भी— "ॐ श्री तुलस्यै विद्महे।/ विष्णु प्रियायै धीमहि।/ तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।" शायद इसीलिये वृन्दावन के सद गृहस्थ, भक्त, संत, महंत, दिगंत तुलसी का प्रयोग सदैव श्री-ठाकुर-सेवा में करते हैं और वृन्दावन के बाहर से पधारे आस्थावान लोग भी वृन्दावन से तुलसी अपने साथ अपने घर ले जाते हैं। भक्त संत मीराबाई ने भी अपने एक पद में इस बात की पुष्टि की है—
आली, म्हांने लागे वृन्दावन नीको।
घर-घर तुलसी, ठाकुर पूजा, दरसण गोविन्दजी को।
निरमल नीर बहत जमुना में, भोजन दूध-दही को।
रतन सिंघासन आप बिराजैं, मुगट धर्यो तुलसी को॥
कुंजन कुंजन फिरति राधिका, सबद सुनन मुरली को।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भजन बिना नर फीको॥
निर्मल नीर, दूध-दही-माखन, कुञ्ज-निकुंज, सबद-भजन, मुरली-मुकुट और तुलसी। घर-घर तुलसी और उसका अद्भुत सम्मोहन। इन तुलसी-वनों को विज्ञान और अध्यात्म के संगम के रूप में भी देखा जा सकता है। तुलसी के साथ यहाँ और भी कई प्रकार के पेड़-पौधे बहुतायत में देखने को मिल जाते हैं, जैसे— बंशीवट, कदम्ब, अशोक, नीम, आम, तमाल, करील, बबूल आदि। श्रीराधा-कृष्ण के प्रतिबिम्बों का दर्शन कराते ये भाँति-भाँति के पेड़-पौधे और उनके फल-फूल-लताएँ भावक के मन में हर्ष और उल्लास का संचार करते हैं। ऐसी मान्यता है कि जब लीलावतार श्रीकृष्ण और श्री राधारानी रासलीला करते हैं, तो ये तमाम पेड़-पौधे गोपियाँ बनकर उनके साथ नृत्य करने लगते हैं। भक्तजन यह सब जानते-समझते हैं और शायद इसीलिये वे श्रीधाम वृन्दावन की परिक्रमा करते समय मार्ग में स्थित इन तमाम पेड़-पौधों को प्रणाम करते हुए आगे बढ़ते हैं। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है; परन्तु, ऐसे आश्चर्य तो वृन्दावन में होते ही रहते हैं— "अचरज नहिं मानहिं, जिनके विमल विचार" (कवि-कुल कमल बाबा तुलसीदास)।
सावन-भादों जैसी हरियाली और उत्सव जैसा परिवेश वृन्दावन के कण-कण को रसमय बना देता है। यह रस जितना प्रकृति में है, उससे कहीं अधिक यहाँ के प्रेमी भक्तों, संतों, महंतों में है। यह प्रेम का धाम है। अखंड भक्ति का धाम है। योगीराज श्रीकृष्ण और जगत-स्वामिनी श्रीराधारानी का धाम है। यही कारण है कि लाखों भक्तजन यहाँ पर खिंचे चले आते हैं और यहाँ होने वाली रासलीलाओं, भगवत्कथाओं, साधु-संगतों, हरिनाम संकीर्तन आदि में भाग लेकर रसमग्न होते हैं— "कैसो सजीलो सजो हिंडोरो/ रस रास रसीलो रसभींजो रसमग्न रसिक हियो" (स्वामी हरिदास)। वैष्णव भक्तों— स्वामी वल्लभाचार्य, स्वामी हरिदास, स्वामी हितहरिवंश, मलूक दास, काठिया बाबा, स्वामी ललितमोहनदास, उड़िया बाबा, भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, देवरहा बाबा, जगद्गुरु कृपालु जी आदि एवं संत कवियों— सूरदास, रसखान, मीराबाई आदि ने वृन्दावन के इस प्रकार के वैभव की बहुत ही सुन्दर व्यंजना की है। इससे सम्बंधित तमाम ग्रन्थ एवं पांडुलिपियाँ ब्रज कला, संस्कृति, साहित्य एवं इतिहास के संरक्षण व संपोषण हेतु समर्पित 'वृन्दावन शोध संस्थान', 'ब्रज संस्कृति शोध संस्थान', रसभारती संस्थान, हित परमानंद शोध संस्थान एवं जीवा इंस्टीट्यूट वृन्दावन में देखी जा सकती हैं। इतना ही नहीं, कई पुराणों— हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत महापुराण, विष्णु पुराण आदि और अन्य साहित्यिक ग्रंथों में भी वृन्दावन की अक्षय कीर्ति का बखान किया गया है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार मथुरा नरेश कंस के अत्याचार से दुखी होकर नंद जी अपने घर-परिवार के लोगों को साथ लेकर गोकुल से वृन्दावन चले आये थे। रघुवंश काव्य में आदिकालीन महाकवि कालिदास ने इंदुमती-स्वयंवर के समय शूरसेनाधिपति सुषेण के माध्यम से वृन्दावन के मनोरम उद्यानों का उत्कृष्ट वर्णन किया है। महाकवि कालिदास के समय में ही नहीं, बल्कि आज से लगभग 50-60 वर्ष पहले भी श्री वृन्दावन में मनोरम उद्यान, बाग़-बगीचे एवं ऊँचे-नीचे टीले जहाँ-तहाँ खूब दिखायी पड़ते थे। समय बदला और आधुनिकतवाद और उपभोक्तावाद के इस दौर में वृन्दावन भी अछूता नहीं रहा— वहाँ भी अप्रत्याशित परिवर्तन हुए। समय एक बार फिर करवट ले रहा है और सद विप्र श्री चन्द्रलाल शर्मा (संस्थापक अध्यक्ष- ब्राह्मण सेवा संघ) जैसे श्रेष्ठ वृंदावनवासी एकजुट होकर वृन्दावन में प्राकृतिक सौंदर्य को अक्षुण बनाये रखने के लिए सराहनीय कार्य कर रहे हैं।
ब्रज के केन्द्र में स्थित वृन्दावन, जोकि मथुरा से 15 किमी की दूरी पर है, ब्रज क्षेत्र का एक प्राचीन तीर्थ स्थल है। यह तीर्थ स्थल भगवान श्रीकृष्ण की लीला-स्थली रहा है। यहाँ पर श्री कृष्ण और श्री राधारानी के कई सुन्दर मन्दिर हैं— विशेषकर श्री बांके विहारी जी का मंदिर व राधावल्लभ लाल जी का मंदिर। इन मंदिरों के अतिरिक्त यहाँ श्री राधा दामोदर, श्री राधारमण, श्री राधा श्याम सुंदर, निधिवन (हरिदास का निवास कुंज), कालियादह, सेवाकुञ्ज, गोपीनाथ, श्री गोपेश्वर महादेव, पागलबाबा का मंदिर, रंगनाथ जी का मंदिर, श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिर, कात्यायनी पीठ, प्रेम मंदिर, श्री कृष्ण-बलराम मन्दिर (इस्कॉन टेम्पल), वैष्णो माता मंदिर, गोरेदाऊ जी मंदिर, चामुण्डा मंदिर आदि दर्शनीय हैं। इन ऐतिहासिक महत्व के मंदिरों के अलावा यहाँ कई भव्य आश्रम— अखण्डानंद सरस्वती आश्रम, आनन्द वृन्दावन आश्रम, उड़िया बाबा आश्रम, श्री हितहरिवंश आश्रम, श्रोतमुनि आश्रम, काठिया बाबा आश्रम, गीता आश्रम, टटिया धाम आश्रम, फोगला आश्रम, बाबा नीब करौरी आश्रम, बैरागी बाबा आश्रम, भक्ति आश्रम, भक्ति निकेतन, भागवत कृपा निकुंज, मानव सेवा संघ, रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम, वात्सल्य ग्राम, वेदांत आश्रम, शरणागत आश्रम, सुदामा कुटी, हनुमान टेकरी आश्रम आदि एवं महत्वपूर्ण पीठ— कात्यायनी शक्ति पीठ, उमा शक्ति पीठ, मलूक पीठ आदि और सुव्यवस्थित गौशालाएँ— इस्कॉन गौशाला, श्री कृष्ण गौशाला, श्री पंचायती गौशाला, श्रीपाद बाबा गोशाला, गोरेदाऊ जी गौशाला, मलूकपीठ गौशाला, वृन्दावन गौशाला, वात्सल्य ग्राम गैशाला आदि भी हैं। वैष्णव (माधव, वल्लभ, राधावल्लभ, निम्बार्क, रामानंदी, बैरागी, सखी, हरिदासी, गौड़ीय, गौड़ीय वैष्णव आदि) एवं वैदिक संप्रदायों के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक क्रिया-कलापों के लिए प्रसिद्ध वृन्दावन की शोभा इन मंदिरों के साथ श्री यमुना जी के तट पर विद्यमान घाटों— श्री वराह घाट, कालीयदमन घाट, सूर्य घाट, युगल घाट, श्रीबिहार घाट, श्रीआंधेर घाट, इमलीतला घाट, श्रृंगार घाट, श्रीगोविन्द घाट, चीर घाट, श्रीभ्रमर घाट, श्रीकेशी घाट, धीरसमीर घाट, श्रीराधाबाग घाट, श्रीपानी घाट, आदिबद्री घाट, श्रीराज घाट आदि से भी है। ये मंदिर और घाट वृन्दावन में आस्था और विश्वास के केंद्रों के रूप में पूजे जाते रहे हैं, जिनके केंद्र में राधा-कृष्ण का अद्भुत सम्मोहन ही है— "ऐसा तेरा सम्मोहन/ एक सुमन में बसा हुआ लगता है वृन्दावन/ ऐसा तेरा सम्मोहन" (श्री वीरेन्द्र आस्तिक)।
श्री चैतन्य महाप्रभु, श्री लोकनाथ, श्री भूगर्भ गोस्वामी, श्री सनातन गोस्वामी, श्री रूप गोस्वामी, श्री गोपालभट्ट गोस्वामी, श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, श्री रघुनाथदास गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी आदि गौड़ीय वैष्णवाचार्यों की साधना-स्थली वृन्दावन में वृन्दावनवासियों का जीवन जीने का अपना ढंग है— न कोई दिखावा, न कोई छल-छद्म, न कोई अहंकार, न कोई डर-भय। वे सहज हैं, निर्मल हैं, निश्छल हैं, भगवत-भक्त हैं। उनके घर सामान्य और मोहल्ले छोटे-छोटे हैं। देखने लायक यह भी है कि उनके ज्यादातर मोहल्लों के नाम सनातन संस्कृति से जुड़े हुए हैं, जैसे— ज्ञानगुदड़ी, गोपीश्वर, बंशीवट, गोपीनाथबाग, गोपीनाथ बाज़ार, राधानिवास, केशीघाट, राधारमणघेरा, निधुवन, पाथरपुरा, गोपीनाथघेरा, नागरगोपाल, चीरघाट, मण्डी दरवाज़ा, सेवाकुंज, कुंजगली, व्यासघेरा, श्रृंगारवट, रासमण्डल, किशोरपुरा, धोबीवाली गली, रंगी लाल गली, अहीरपाड़ा, मदनमोहन जी का घेरा, बिहारी पुरा, अठखम्बा, गोविन्दबाग़, लोईबाज़ार, रेतियाबाज़ार, बनखण्डी महादेव, छीपी गली, टट्टीया स्थान, रमण रेती, सरस्वती विहार, गौशाला नगर, हनुमान नगर, कैलाश नगर, गोधूलिपुरम आदि। इस सनातन संस्कृति को केंद्र में रखकर किसी कवि ने वृंदावन की महिमा का गुणगान करते हुए सच ही कहा है—
एक बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे।
चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार-बार जाके बद्रिनाथ घूम आओगे॥
कोटि बार काशी, केदारनाथ रामेश्वर, गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे।
होंगे प्रत्यक्ष जहाँ, दर्शन श्याम-श्यामा के, वृन्दावन-सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे॥
वृन्दावन की महिमा अनंत है— "धन वृन्दावन धाम है, धन वृन्दावन नाम। धन वृन्दावन रसिक जो, सुमिरै स्यामा-स्याम।" कहने का आशय यह कि मन को पुलकित कर देने वाली यह पावन भूमि योगेश्वर श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं की अनुभूति कराने में सक्षम है— "उसका ठौर ठिकाना, उसकी/ रहन सहन के क्या कहने/ उसके आलिंगन में लगते हैं/ सारे मधुरस बहने/ देह बची ही नहीं/ आत्मा मगन लगी" (श्री रमाकांत)। शायद तभी जब कोई भावक वृन्दावन की धरती पर आता है, तो वह अनायास ही अनुभव करने लगता है कि उसका ह्रदय असीम आनंद से भर गया है और तब उसके मुख से 'राधे-राधे' महामंत्र स्वतः ही झरने लगता है। इसी को वृन्दावनवासी सद-गृहस्थ-भक्त श्री चंद्रलाल शर्मा कुछ इस प्रकार से कहते हैं— "वृन्दावन मन-भावन जिसकी/ महिमा अद्भुत न्यारी है।/ गऊ, घाट, वट, वृक्ष, लताएँ,/ पावन यमुना प्यारी है।" वृन्दावन मन-भावन हो, तो वृन्दावन का पानी अमृत लगने लगता है (जब यमुना जी प्रदूषित नहीं थीं, तब भक्त-श्रद्धालु गंगाजल की तरह ही यमुनाजल को अपने घर ले जाया करते थे) और वृन्दावन की माटी 'श्रीकृष्ण का माटी भोग' लगने लगता है। वृन्दावन रज, जिसे भक्तजन वर्षों से अपने माथे पर चन्दन की तरह लगाते रहे हैं और चुटकी भर रज को प्रसादरूप में लेते रहे हैं, की महिमा का मनोहारी वर्णन करते हुए कभी संत शिरोमणि सूरदास जी ने भी कहा था—
हम ना भई वृन्दावन रेणु।
तिन चरनन डोलत नंद नन्दन नित प्रति चरावत धेनु।
हम ते धन्य परम ये द्रुम वन बाल बच्छ अरु धेनु।
सूर सकल खेलत हँस बोलत संग मध्य पीवत धेनु॥
यहाँ भक्त-कवि सूरदास जी के वृन्दावन प्रेम से तुक-ताल मिलाते अवनीश सिंह चौहान के एक गीत की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं—
वृन्दावन की माटी चंदन/ माथ लगाते नर-नारी-जन।
फूल मनोहर वृक्ष-लताएँ,/ गऊ, घाट, यमुना का पानी/
परिकम्मा में रमण बिहारी/ रुनझुन-रुनझुन राधारानी/
वृन्दावन का नित अभिनंदन,/ प्रेम-मुदित करते तुलसी वन।।
और श्री धाम वृन्दावन का क्या आनंद है, जरा देखिये—
वृन्दावन तो वृंदावन है,/ प्रेम-राग की रजधानी।
प्रेम यहाँ बसता राधा में/ मुरली मधुर मुरारी में/
प्रेम यहाँ अधरों की भाषा/ नयनों की लयकारी में/
प्रेम यहाँ रस-धार रसीली,/ मीठा यमुना का पानी।।
श्री धाम वृन्दावन से सम्बंधित एक पौराणिक कथा भी है। भगवान श्रीकृष्ण ने तीर्थराज प्रयाग को तीर्थों का राजा बना दिया। सभी तीर्थ तीर्थराज प्रयाग को कर देने लगे। किन्तु, वृन्दावन कभी कर देने नहीं पहुँचे। तीर्थराज प्रयाग ने श्रीकृष्ण से इसकी शिकायत की। श्रीकृष्ण ने तीर्थराज प्रयाग से कहा कि वृन्दावन मेरा घर है और भला कोई किसी को अपने घर का भी राजा बनाता है। तब तीर्थराज प्रयाग को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। एक स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण ने वृन्दावन को अपना श्रीविग्रह (देह) कहकर भी सम्बोधित किया है— "पंचयोजनमेवास्ति वनं मे देह रूपकम।" इसलिए जो लोग इस वृन्दावन में वास करते हैं, उन पर निश्चय ही भगवान श्रीकृष्ण की अनुकम्पा हुई है। यह अनुकम्पा अद्भुत है, क्योंकि यह इस प्रकार से अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन, भला इतने से काम कहाँ चलने वाला। ब्रज में रहना है तो राधे-राधे कहना है, यानी कि इस अनुकम्पा में ब्रज की महारानी श्री राधारानी की कृपा भी शामिल होनी चाहिए— "कृपयति यदि राधा, बाधिता शेष बाधा।" आनंदकंद घनश्याम एवं लाड़ली किशोरी जी की नित्य विहार लीला-स्थली श्री धाम वृन्दावन को मैं अकिंचन कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ—
राधा मेरी स्वामिनी, मैं राधे कौं दास।
जनम-जनम मोहि दीजौं, श्रीवृन्दावन वास।।
लेखक :
'वंदे ब्रज वसुंधरा' सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।
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