पिछले दिनों जाने-माने गीतकवि एवं आलोचक आ. वीरेन्द्र आस्तिक जी ने वासंती मौसम में राग-रँग-फाग के लिए लोकप्रिय पर्व होली और कोविड महामारी के वैश्विक प्रभावों को केंद्र में रखकर एक नवगीत— "बौर आ गए" रचा था, जिसे दैनिक जागरण ने अपने 'साहित्यिक पुनर्नवा' पृष्ठ पर 22 मार्च 2021 को ससम्मान प्रकाशित किया। जन-मानस द्वारा सराहे गये इस महत्वपूर्ण नवगीत में ध्वन्यात्मक तुकान्तों का प्रयोग कर आस्तिक जी ने हिंदी तुकांत कोश को समृद्ध किया है। आस्तिक जी का यह प्रयोग कट्टर 'रूढ़िवादी' कवियों-आलोचकों एवं तुकान्तों में सरकारी भाषा का अंधानुकरण करने वाले भद्रजनों द्वारा कितना पसंद (या नापसंद) किया जायेगा या नवगीत की 'परंपरा, प्रयोग एवं नवता' को पसंद करने वाले सुहृदयी भावकों द्वारा इसका कितना स्वागत किया जायेगा, यह तो समय ही बताएगा। किन्तु, इतना तो कहा ही जा सकता है कि आस्तिक जी का यह प्रयोग उनकी अवधारणा— "नवगीत ने गीत की व्याकरणिक मान्यताओं के साथ-साथ हिन्दी भाषा विज्ञान का सहारा लेते हुए हिन्दी भाषा को व्यापकता की ओर ले जाने का प्रयास हमेशा किया है" का ही परिविस्तार है। — अवनीश सिंह चौहान
संशय कोविड का
बना हुआ, पर
बौर आ गए
महक उठी है अमराई
अब तो असर नहीं
इतना कि रहें हम
बंद घरों में
बचा-खुचा जल जाए
कोविड
होली की लपटों में
हम फगुहारे
मास्क पहनकर
फाग न गायी
रँगों की बौछारों में
है राधा
नखशिख लाल
अब तो दूरी
जाय न झेली
उड़-उड़ कहे गुलाल
छुआ न जब तक
गाल, हमें
होली ना भायी
भीड़ बढ़ी है
लौट रही है
धंधों पर बेखटके
मगर ध्यान में
कोविड रहता
दिखते कुछ हटके
जीवन में
एक सजगता
कोविड से आयी।
इधर व्हाट्सएप्प के माध्यम से उपर्युक्त नवगीत को लेकर दो प्रतिक्रियाएँ पढ़ने को मिलीं, सोचा इन्हें भी यहाँ चस्पा कर दिया जाय : —
आस्तिक जी को भेजा गया सन्देश
प्रिय भाई आस्तिक जी, जागरण में छपा आपका गीत दुबारा पढ़ा तो कुछ बिंदुओं पर ध्यान गया। आप ने 'अमराई' के मेल में जो 'गायी', 'भायी', 'आयी' तुक मिलाया है, सरकारी भाषा प्रयोग में 'यी' का चलन 'ई' के रूप में किया जाता है, लेकिन नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी और ज्ञानमंडल के अनुसार 'यी' का क्रिया-पद के रूप में प्रयोग तो शुद्ध है, किंतु उससे इतर 'ई' ही मान्य होगा।
पहले अंतरे की टेक की पंक्ति में— "हम फगुआरे/ मास्क पहन कर/ फाग न गायी" में 'गायी' की जगह 'गाया' होता तो उचित था, लेकिन तुक से मेल नहीं खाता। इसी तरह अंतिम टेक में— "एक सजगता/ जीवन में/ कोविद से आयी" में 'आयी' की जगह 'आई' होता तो ज्यादा उचित था।
मक्खन का एतराज क्या था, उनसे बात करके पता करने का प्रयास करूँगा।
शुभाकांक्षी,
माहेश्वर तिवारी
25 मार्च 2021
माहेश्वर तिवारी जी को भेजा गया सन्देश
आ. बड़े भाई, आप का कथन पढ़ा, हमें कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु प्रश्न तुकांत का है और हमें नवगीत की रचना प्रक्रिया (तुकांत आदि) पर ध्यान केंद्रित करना है।
पहली बात— नवगीत में प्रायः तुकांत स्वर विग्यान पर चलते हैं, यानी कि अक्षर पर न चल कर उच्चरण पर चलते हैं। स्वर विग्यान के अनुसार 'अमराई' तथा 'गायी' या 'भायी', इन तीनों शब्दों का स्वरांत 'आई' या आयी' आता है। यही अभीष्ट है। 'ई' हो या 'यी' उच्चारण विधि एक ही है, दूसरी नहीं हो सकती है। नवगीत में ऐसी ध्वनियाँ, ऐसे स्वरांत स्वीकृत हैं, तथापि मेरी रचना दोषमुक्त है।
दूसरी बात— नवगीत एक विकासशील विधा है। यह सर्वमान्य तथ्य है।
तीसरी बात— नवगीत एक प्रयोगशील विधा है। यह भी सर्वमान्य है।
चौथी बात— प्रयोग के स्तर पर वह पारम्परिक गीत की व्याकरणिक मान्यताओं का विस्तार करता हुआ चलता है।
पाँचवीं बात— प्रयोग के स्तर पर नवगीत पारम्परिक गीत की रूढ़ियों से मुक्त विधा है।
छठवीं बात— भाषा के स्तर पर नवगीत तत्सम, तद्भव तथा हिन्दी की बोली के शब्दों में सामंजस्य स्थापित करता हुआ चलता है। इस दृष्टि से वह हिन्दी भाषा को व्यापकता की ओर ले जाने वाला काव्य-रूप है।
सातवीं बात— नवगीत भी एक गेय विधा है, इस दृष्टि से संगीत उसका अभिन्न अंग है।
भाई साहब, ज्यादा जानकारी के लिए उनसे (मक्खन जी) कह दें कि वे कृपया जगन्नाथ प्रसाद भान का 'छन्द प्रभाकर' उठा कर देख लें। मैं पिछले 40-45 सालों से उपरोक्त तथ्यों का हिमायती रहा हूँ ... और आज भी हूँ।... आशा ही नहीं विश्वास है, आप हमारी बात की तह तक जाकर उन्हें समझा लेंगे ... कोई गलती हो तो क्षमा करना।
आपका अनुज
वीरेन्द्र आस्तिक
25 मार्च 2021
इन दो महत्वपूर्ण टिप्पणियों के बाद कोई तीसरी लिखित टिप्पणी अब तक मुझे प्राप्त नहीं हुई है। मिलते ही प्रकाशन के लिए विचार किया जाएगा।
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