जाने-माने गीतकार, कवि, लेखक, कहानीकार, व्यंग्यकार व शोध निदेशक डॉ रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' का जन्म 5 जुलाई 1949 को फिरोज़ाबाद जनपद (उत्तर प्रदेश, भारत) के गाँव तिलोकपुर में हुआ। शिक्षा : एम.ए., पीएच.डी., डी.लिट. (हिंदी)। इन्होंने एस.आर.के. (पी.जी.) कॉलेज, फिरोज़ाबाद (डा. बाबासाहेब आंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा से सम्बद्ध) के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग में सह आचार्य के रूप में कार्य किया। यहाँ से सेवामुक्त होने पर इन्होंने एमेरिटस फैलो (यूजीसी) के रूप में अपनी सेवाएं दीं। यायावर जी ने अब तक सात नवगीत संग्रह, दो मुक्तक संग्रह, नौ दोहा संग्रह, दो सजल संग्रह, तीन विविध विधाओं के काव्य-संग्रह, दो ब्रजभाषा गीत संग्रह, ग्यारह शोध-ग्रन्थ एवं शोधपरक आलेख संग्रह एवं एक 'नवगीत कोश' साहित्य जगत को प्रदान किये हैं। इन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से 'साहित्य भूषण' (2018) सहित चार दर्जन से अधिक सम्मान/पुरस्कार प्रदान किये जा चुके हैं। संपर्क : 86, तिलक नगर, बाईपास रोड, फिरोजाबाद- 283203 (उ.प्र.), मो. 09412316779, ईमेल: dryayavar@gmail.com
आचार्य भट्टतौत ने कवि-प्रतिभा को परिभाषित करते हुए कहा है, ‘‘प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता‘‘ अर्थात नए-नए अर्थों का उन्मीलन करने वाली प्रज्ञा ही प्रतिभा कहलाती है। नवता काव्य का अनिवार्य लक्षण है। नवता में ही सौन्दर्य और आकर्षण है। इसीलिए आदिशंकराचार्य ने कृृष्णाष्टकम्‘ में कृृष्ण के लिए ‘दिने दिने नवं नवं‘ कहा है और माघ ने भी क्षण-क्षण पर नवीन होते रहने वाले सौन्दर्य को ही रमणीय माना है। (क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति, तदेव रूपं रमणीयताया) मानव-सौन्दर्य या नारी-सौन्दर्य का सृजन- प्रतिभा भी जब श्रेष्ठतम प्रतिच्छवि प्रस्तुत की जाती है तब भी नित्य नवता को ही सौन्दर्य का प्रतिमान बताया जाता है। विद्यापति की गोपी अपनी सखी से प्रेम के आस्वाद का वर्णन करती है। वह कहती है न प्रेम शब्दों में वँध सकता है न रूप। प्रेम तो ‘तिल-तिल नूतन होय‘ है और रूप भी ‘‘जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपति भेल‘‘ हम जन्म भर रूप को देखते रहें तो भी नेत्र तृृप्त नहीं होंगे। जितना-जितना देखें उतना ही उतना नया सौन्दर्य सामने आता है। फिर भला तृृप्ति कैसे सम्भव है। ‘‘ज्यों-ज्यों निहारिये नेरे है नैननि त्यों-त्यों खरी निकसेरी निकाई‘‘ (मतिराम) और ‘‘रावरे रूप की रीति अनूप नयो-नयो लागत त्यों-त्यों निहारिये‘‘ (धनानन्द) स्पष्ट है कि सौन्दर्य देह का हो या कला का, नवता में ही निहित है। जहाँ नवता है, वहीं सौन्दर्य है, वहीं आकर्षण है, वहीं मन को बाँधने-खींचने की क्षमता है। प्रसिद्ध सौन्दर्यशास्त्री आचार्य डाॅक्टर हरद्वारी लाल शर्मा कहते हैं, ‘‘रूप-चेतना जब जहाँ निर्बल हुई और पिष्टपेषण प्रारम्भ तब वहाँ कला संस्कृति से गिरकर, विकृति की ओर बढ़ी। कला के क्षेत्र में विकृृति का अर्थ ही है नूतन के सृृजन के लिए सामथ्र्य की कमी। ‘विकृति का अर्थ है कला की मौत‘। (1)
इधर के दो वर्षों में नवगीत में नव्यता के संकट को लेकर नवगीत के हितैषियों (?) में बड़ी चिन्ता बढ़ी है। इण्टरनेट पर कुछ आलेख इस चिन्ता को प्रकट करते हुए पोस्ट किए गए हैं। एक दो आलेख कुछ पत्रिकाओं में भी देखने को मिले। इनके सम्बन्ध में कुछ उग्र प्रतिक्रियायें भी सुनने-देखने और पढ़ने को मिलीं-
1.‘‘यह नवगीत में नव्यता का संकट नहीं, वरन नेतृृत्व का संकट है। नवगीत की समृृद्ध परम्परा को नकारकर किसी नए नाम से गीत का नेतृृत्व हथियाने की चेष्टा की जा रही है।"
2. गीत के नवाचार के प्रतिमान नवगीत की विरासत को नजूल की जमीन समझकर उसे हथियाने के माफियायी हथकण्डे का नाम ही ‘नवगीत में नवता का संकट' है।
3. नवगीत की लोकप्रियता देखकर नवगीत-सृृजन में अपनी अक्षमता को छिपाने का कुत्सित प्रयास ही नवगीत में नवता का संकट देख सकता है अर्थात ‘‘मैं कुछ नया नहीं रच पा रहा, इसका अर्थ है नवगीत पर नव्यता का संकट गहरा गया है‘‘ प्रकारान्तर से यही कहा जा रहा है।
4. ‘‘नवगीत में नवता नहीं रही, इसलिए नवगीत अब मर चुका है, प्रकारान्तर से ऐसा कहकर ‘गीत की मृृत्यु‘ वाले खुर्राट धुरन्धरों के मिथ्या वक्तव्य की पुष्टि की गयी है।"
व्यक्तिगत रूप से मैं उपर्युक्त में से किसी भी प्रतिक्रिया से सहमत नहीं हूँ मैं मानता हूँ कि नवगीत को लेकर जो भी चिन्ता प्रकट कर रहे हैं, वे सभी विद्वज्जन उसके हित-साधक हैं। वे नवगीत की उत्थान और विकास ही देखने के इच्छुक हैं परन्तु जब हम किसी भी विधा में नव्यता के संकट की चर्चा करें तो उस विधा के उदीयमान युवा सर्जकों के सृृजन, सोशल मीडिया पर उपस्थित नवीनतम सृृजन और एक दो वर्षों में प्रकाशित समवेत और एकल संग्रहों तथा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित नवीनतम रचनाओं को अवश्य दृृष्टिपथ में ले आना चाहिए परन्तु दुर्भाग्य से नवगीत में नवता के संकट की चर्चा करने वाले किसी महानुभाव ने ऐसा किया है यह प्रतीत नहीं होता।
नवगीत या किसी भी विधा में नवता के मूल्यांकन के चार आधार बन सकते है-
1. युवा पीढ़ी की सृृजन-सक्रियता और उसमें नवगीतीय तत्व
2. आगत पीढ़ी की सृजन-सक्रियता और उसमें नवगीतीय तत्व
3. पहले से सक्रिय रचनाकारों का सृृजन और उसमें नवता
4. प्रिंट मीडिया और सोशल मीडिया में विधा के रचनाधर्मियों की सक्रियता और उनमें नवता
बीसवीं सदी के अन्तिम दर्शक से एक ऊर्जास्वित, युवा, रचनाकारों की पीढ़ी नवगीत को सम्पन्न बनाने में लगी है। चित्रांश बाघमारे तो 40 की आयु पार कर गये परन्तु उनके भी बाद की एक समृृद्ध व नवगीत रचना में समक्ष युवा पीढ़ी प्रभूत मात्रा में नवगीत-सृृजन में रत है। शुभम श्रीवास्तव‘ओम‘, गरिमा सक्ससेना, राहुलशिवाय, राघवेन्द्र शुक्लआदि तो नितान्त नये स्वर हैं। ये वे स्वर हैं जो आज की जिन्दगी के विद्रूपित यथार्थ को नवगीत के मुहावरे में ढाल रहे है। (अ)श्रम के हिस्से रोज पसीना। लाल हुई आँखें (योगेन्द्र प्रताप मौर्य), (ब) फोटो शाॅपित तथ्यों के/भ्रमजाल मिलेंगे। आभासी दुनिया में सच बेहाल मिलेंगे (रविशंकर मिश्र), (स) उत्सव होगा पतझारों का/सारे वसंत जल जाएँगे (चित्रांश बाघमारे), (द) सीमेटेड फर्शों पर उगती/दीखी जिद््दी घास। धूल फाँकती हुई यहाँ/पगडण्डी पड़ी उदास (गरिमा सक्सेना), (य) अन्तहीन दुश्चिन्ताओं की/ गिरती हुई सलाखें कैंद हुए वन, डार घोंसले। टुकुर-टुकुर हैं आँखें (शुभम श्रीवास्तव ‘ओम‘) जैसी पंक्तियाँ नवगीत में नई ताजी प्राणवायु जैसी लगती हैं। समान्यतः नारी-रचनाकारों (वे किसी भी विधा की क्यों न हों) पर आरोप लगाया जाता है कि उनका संवेदना-संसार सीमित होता है। वे घर-संसार से बाहर के यथार्थ को न देख पातीं हैं न कह पाती हैं परन्तु गरिमा सक्सेना जैसी युवा नवगीतकार कहती है-
जठरानल के हिस्से आए/ हैं अकाज के दिन
दौड़ रहीं प्रतिभाएँ/ फाइल ले दफ्तर-दफ्तर
कितने सपनों में सलीब सा/ढोतीं काँधे पर
सदियों जैसे बीत रहे हैं/ जीवन के पल-छिन।
ये पंक्तियाँ इस आरोप की सच्चाई को तार-तार करतीं प्रतीत होतीं हैं। नवगीत के मूल तत्व हैं 1. समकालीन जीवन के विद्रूपित यथार्थ की लयात्मक अभिव्यक्ति 2. बिम्ब और प्रतीकों के माध्यम से अपनी गहन संवेदना की अभिव्यक्ति 3. मुँह लगी सहज और दैनंदिन प्रयोग की अर्थगर्भी भाषा का प्रयोग 4. दूसरी भाषाओं या लोकभाषाओं के नये शब्दों को ग्रहण करके अपनी भाषा को समृद्ध करना तथा 5. पुराने शब्दों को शब्दकोषीय अर्थ से आगे के गहन अर्थ तक पहुँचाकर भाषा की जीवन्तता बनाए रखना। एक और युवा स्वर राघवेन्द्र शुक्ल के एक नवगीत का गीतांश देखें-
भीड़ चली है भोर उगाने
हाँक रहे हैं जुगनू सारे
शुभ्रदिवस के श्वेत ध्वजों पर
कालिख मलते हैं हर कारे
नयनों के परदे ढँक सब को
मात्र दिवस का स्वप्न दिखाने। (2)
इन पंक्तियों में भीड़, भोर, जुगनू, उल्लू, शुभ्रदिवस, श्वेतध्वज, कालिख और दिवस सब अर्थगर्भी प्रतीक हैं और भोर उगाने, जुगनूओं द्वारा हाँकना आदि नितान्त नए भाषिक प्रयोग है। इसी तरह भीड़ चली है (गति बिम्ब) हाँक रहे हैं (क्रिया बिम्ब) शुभ्र दिवस और श्वेत ध्वजों तथा कालिख मलते हैं हरकारे (चाक्षुक बिम्ब) आदि का प्रयोग भी गीत की नवता और भाषा की वंकिम भंगिमा के सूचक तत्व हैं।
आगत पीढ़ी से आशय है वह पीढ़ी जिसने जीवन के अधिकांश वसन्त किसी दूसरी काव्य विधा के सृजन में बिताए और उस विधा में पर्याप्त सम्मान प्राप्त किया परन्तु नवगीत की लोकधर्मी चेतना और वैभव से आकर्षित होकर वे नवगीत-सृजन में रत हुए इस पीढी में दो नए नाम प्रतिनिधि रूप में लिए जा सकते हैं 1. डाॅ. कृष्ण कुमार ‘नाज‘ तथा 2. विज्ञानव्रत। दोंनो ने गजल के क्षेत्र में सक्रिय रहकर प्रतिष्ठा अर्जित की। 2019 तक डाॅ. नाज के 4 गजल संग्रह एक सम्पादित गजल संग्रह और एक गजल के व्याकरण की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, 2019 में उनके द्वारा सम्पादित एक पुस्तक ‘नवगीत मंथन‘ प्रकाशित हुई। वे इसकी भूमिका में कहते हैं, ‘‘मेरी दृष्टि में नवगीत, तलवार की धार पर चलने के हुनर का नाम है, काँच के टुकड़ों पर नृत्य करने वाली कला का नाम है, बंद कमरे की घुटन से निकलकर खुली हवा में साँस लेने वाली असीम संभावनाओं का नाम है और मौसम की पहली बारिश के बाद धरती से उठने वाली सोंधी सुगंध का नाम है।" (3)
डाॅ. नाज ने इस संकलन में 21 नवगीतकारों के नवगीत संकलित किए हैं और 17वें क्रमांक पर अपने नवगीत भी रखे हैं। "शिष्टता के नाम पर हम जंगलीबन/खेत में व्यवहार के बोने लगे हैं। वृक्ष बूढ़े हो गए हैं सत्य के अब। झूठ के पौधे युवा होने लगे हैं" (पृष्ठ 133) जैसी पंक्तियाँ उनके गीतों के नवगीतीय तत्वों से सम्पन्न होने की साक्षी देते हैं। विज्ञानव्रत जी भी हिन्दी-गजल का जाना-माना स्वर है। छोटी बहर में गजल कहने में वे अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं रखते उनके सात गजल-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 2019 में उनका स्वतन्त्र एकल नवगीत संग्रह ‘नेपथ्यों में कोलाहल‘ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह का शीर्षक गीत दृष्टव्य है- ‘‘मंचों ने/खामोशी ओढ़ी/नेपथ्यों में कोलाहल है/सभी पात्र हैं गूँगे-बहरे/सिर्फ दिखाई देते चेहरे/दर्शक गण भी/समझ रहे हैं/ सोचा-समझा ये छल-बल है/भाषा और संवाद नहीं है/अभिनेता आजाद नहीं है/अभिनय में भी/नहीं दक्षता/ऐसा लगता सिर्फ नकल है।" (4)
दोंनों उपर्युक्त गजलकारों ने नवगीत को पूरी अस्मिता के साथ स्वीकारा है और पूरी आस्था के साथ नवगीत-सृजन किया है। ये नवगीत में नवता के प्रति सजग हैं, इसकी साक्षी उनकी रचनाएँ देतीं हैं।
नवगीतकारों की एक सक्रिय पीढ़ी बहुत लम्बे समय से नवगीत रचना में सक्रिय हैं। इनमें से अनेक वीसवीं सदी के सातवें दशक से ही सक्रिय हैं और कुछ उसके बाद के वर्षों में सक्रिय हुए हैं। क्या यह पूरी पीढ़ी चुक गयी है? क्या यह अपने आपको दुहरा रही है? या नवता के मन्त्र को विस्मृत कर चुकी है? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए पहले प्रकाशित नवगीत संग्रहों और समीक्षात्मक कृतियों के परिमाण को देखें। 2018 में लगभग 32, 2019 में 28 और 2020 में 15 सकल नवगीत संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इन्हीं वर्षों में मेरे द्वारा सृजित नवगीत कोश और नवगीतः नये सन्दर्भ जैसी समीक्षात्मक कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं। वरिष्ठ गीतकार मधुकर अष्ठाना जी की दो, डाॅ. इन्दीवर, डाॅ. वीरेन्द्र आस्तिक और नचिकेता की एक-एक आलोचनात्मक कृति भी प्रकाशित हुई है। साहित्य त्रिवेणी कोलकाता और संवदिया (बिहार) जैसी पत्रिकाओं के श्रेष्ठ नवगीत विशेषांक भी प्रकाशित हुए हैं। 2020 का पूरा वर्ष कोरोना संकट की भेंट चढने के बावजूद अनेक संग्रह प्रकाशित हुए हैं और अनेक प्रकाशन पथ पर हैं। आयु के 93 बसन्त पार कर चुके यीतन्द्र नाथ ‘राही‘ जी का नया संग्रह प्रकाशन पथ पर है जिसकी भूमिका मैंने लिखी है। नवगीत रचनाओं का परिमाण ही नहीं बढ़ा है अपितु अनेक संवेदनात्मक आकाश और अभिव्यक्ति कौशल ने भी नए-नए द्वार उद्घटित किए हैं। बीसवीं सदी तक प्रणय और परिवार के आत्मिक सम्बन्धों की संवेदना नवगीतों से लगभग विलुप्त थी परन्तु इक्कीसवीं सदी में यथार्थ अनुभूति के प्रणय और परिवार दोनों की स्वीकृति बढ़ी है। इक्कीसवीें सदी में परिवारों का स्वरूप बदला है। अब एकल परिवारों की संख्या बढ़ी है। नौकरी और व्यवसाय की व्यस्तता के कारण ग्रामवासी युवाओं को शहर में अपने एकल परिवारों के साथ रहना पड़ रहा है परन्तु गाँव के साथ उनका सम्बन्ध नाभि-नाल-सम्बन्ध है। नवगीत ने इस पारिवारिक संवेदना को पकड़ा है। यथा- ‘‘माँ-बाबूजी आज गाँव से/शहर पधारे हैं/ऐसा लगा कि मेरे घर में/तीरथ सारे हैं। आज शहर की लड़की/बहू सरीखी दीख रही/वट-सावित्री का व्रत कैसे/ करना सीख रही/मोह-छोह के रिश्ते-नाते/बाँह पसारे हैं।" (5)
परिवार का यह चित्र हमारी समृद्ध सांस्कृति परम्परा, उदान्त मूल्यबोध, पारिवारिकता की भीनी गन्ध और अपनत्व का सुहावना स्वरूप प्रस्तुत करता है। अब शहरों में परिवार का एक और बदला हुआ स्वरूप दिखाई पड़ता है। पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं। माता-पिता साथ ही रहते हैं। ऐसे परिवारों में सबेरे-सबेरे घनघोर व्यस्तता और भागमभाग रहती है। बच्चे पढ़ने के लिए स्कूल जाते है। ऐसे घरों में 8 घण्टे बुजुर्गों को एकान्तवास झेलना पड़ता है परन्तु उनके लिए शाम और रात का समय आनन्द से परिपूर्ण होता है क्योंकि उसी समय पूरा परिवार एकसाथ होता है। परिवार के इस बदले हुए स्वरूप को भी नवगीतों ने संवेदनात्मक धरातल पर प्रस्तुत किया है। दृष्टव्य है-
"यज्ञ-धूम सी पावन घर में/ बैठी है चुपचाप उदासी/ ज्ञान पीटने गया सबेरे/लदा-फदा बस्ते से बचपन/ हबड़-तबड़ में घनी व्यस्तता/लाद पीठ पर भागा यौवन/ पीछे छूट गयी है घर में/ शुभकामना बाँटती खाँसी/ साँझ ढले लौटी है हलचल/ घर में आयीं थकीं थकानें/ अस्त-व्यस्त बस्ता/ सूखा मुँह/थकन-पसीना और मुस्कानें/ चाय-चूय किस्से-गप्पें, घुन/ हँसी-कहानी और उबासी/ पाँव दबाता घूँघट गायब/पर आशीष वही अम्मा सी।" (6)
नई सदी में नवगीत ने प्रणय की संवेदना की अभिव्यक्ति को भी स्वीकृति दी है परन्तु आज के नवगीत की प्रणयानुभूति यथार्थ-संबलित है। इसमें 70की आयु में पूर्व प्रेमिका की स्मृति है। यथा- ‘‘अर्द्धसदी बीत गई/मन-गगरी रीत गई/उसकी भी देह-यष्टि टूट गई होगी।’’ अनमना सिंगारदान लम्बी उम्र पार कर/पहुँच गया होगा कबाड़ी के द्वार पर/आँखों ने दर्पण से तलाक ले लिया होगा/मेंहदी भी हथेलियों से रूठ गई होगी।" (7)
आशय यह है कि जीवन जैसा है, जितना है, जिस रूप में है उसके यथार्थ को वाणी देकर नवगीत ने अपने संवेदना के कोष को समृद्ध किया है। नवगीत की नई पीढ़ी हो या मध्यवर्ती पीढ़ी सभी संवेदना के स्तर पर नयेपन को स्वीकार कर चल रहे हैं। बाजारबाद का संकट, संस्कृति की विकृति, मूल्यों का ध्वंस, राजनीति में नैतिकता का बन्ध्याकरण, उर्वर खेतों को निगलतीं कालोनियाँ, सड़कें, ओवरव्रिज और फैक्टरियाँ, गाँव के पनघटों पर पसरा सन्नाटा, चुनाव के चक्रव्यूह में फँसी जनता की विवशता, मौसम की दुर्दान्त मार, अनास्था का संकट, ंिहंसा और काम-विकार परोसते टी.वी. सीरियल और बेव सीरीज, शोषित दलित और पीड़ित की पीड़ा, शब्दों से गायब होते अर्थ, राष्ट्रीय अस्मिता के साथ खिलबाड़ करते धूर्त राजनेता, प्रश्नों के मरूस्थल में भटकती जिन्दगी, दुर्घटनाओं का कब्रगाह बने हुए अखबार आदि-इत्यादि जीवन में जहाँ जो कुछ है, वह नवगीत का अंग बन रहा है। फेंगसुई और एंड्रायड मोबाइल और उनके प्रभाव तक नवगीतों में कथ्य बनकर उतर रहे हैं।
अब वीसबीं सदी के सातवें दशक से ही सृजनरत नवगीतकारों की पीढ़ी या अन्तिम दशक से सक्रिय हुई पीढ़ी हो सब ने कथ्य ही नहीं शिल्प और भाषा के क्षेत्र में भी नए प्रयोग किए हैं। भाषा के स्तर पर संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली से सम्पन्न, लोकभाषा की शब्दावली से समृद्ध और अंग्रेजी व उर्दू की सहज सुपाच्य आगत शब्दावली से सम्पन्न सभी रूपों की भाषा को अपनाकर नवगीत सम्पन्न हो रहा है परन्तु मुख्य उद्देश्य अर्थ-गाम्भीर्य उत्पन्न करना और शब्दों को उनके प्रचलित अर्थ से आगे ले जाकर प्रतीयमान अर्थ तक पहुँचाना रहता है। जैसे ‘‘ उग रही बारूद फलती गोलियाँ‘‘ जैसी पंक्ति काअर्थ वह नहीं है जो इन शब्दों के शब्दकोषीय अर्थ से उभरता है बल्कि इसका अर्थ है हिंसा का अछोर विस्तार और आतंकवाद की विभीषिका।
इसी तरह ‘‘टिनोपाल से घुला यहाँ पर हर बगुला का पर उजला है" (मधुकर अष्ठाना) जैसी पंक्ति का अर्थ शब्दकोषीय सीमा से बहुत आगे का व्यंग्यार्थ है। यह राजनेताओं के दुहरे चरित्र ऊपर से लोकहित की बातें और लोककल्याण के मोहक नारे देकर जनता को ठगने वाले चरित्र, को उद्घाटित करता है। भाषा में विचलनपरक और व्यंजनापरक प्रयोग बढ़े हैं। अर्थकी अभिव्यक्ति के लिए मुहावरों का प्रयोग भी बढ़ने लगा है।
छन्द और लय को लेकर नवगीत के सम्बन्ध में बड़ा भ्रम उत्पन्न करने का प्रयास किया गया। कुछ नवगीतकारों में यह भ्रम का व्याप्त है कि नवगीत लयप्रधान विधा है उसमें छन्द का अनुगमन अनिवार्य नहीं। गंगा प्रसाद ‘विमल‘ जैसे नई कविता के वर्चस्व वाले युग के विद्वान और सोम ठाकुर जी जैसे कुछ नवगीतकारों को छोड़ दें तो अब नवगीतकारों ने यह समझ लिया है कि छन्द और लय अन्योन्याश्रित हैं और गीत की रचना छंद में ही होनी चाहिए। इस भ्रम के उत्पन्न होने (या करने) के पीछे मूल कारण यह है कि नवगीत को अर्थखण्ड में लिखा जाता है और पारम्परिक गीत लयखण्ड में लिखे जाते हैं। अर्थखण्ड में लिखे जाने से छन्द का एक पद कई पंक्तियों में बँट जाता है और छन्दहीनता का भ्रम उत्पन्न करने लगता है। यहाँ युवा नवगीतकार डॉ अवनीश सिंह चौहान की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
धूप सुनहरी, माँग रहा है
रामभरोसे आज
नदी चढ़ी है
सागर गहरा
पार उसे ही करना
सोच रहा वह
नैया छोटी
और धार पर तिरना
छोटे-छोटे चप्पू मेरे
साहस-धीरज-लाज (8)
इस नवगीतांश को अर्थखण्ड की माँग पर 10 पंक्तियों में लिखा गया है परन्तु लयखण्ड की दृष्टि से यदि इसे यों लिख लिया जाय-
धूप सुनहरी माँग रहा है/ रामभरोसे आज (27)
नदी चढ़ी है, सागर गहरा,/ पार उसे ही करना (28)
सोच रहा वह नैया छोटी/ और धार पर तिरना (28)
छोटे-छोटे चप्पू मेरे/ साहस-धीरज-लाज। (27)
तो छन्द की दृष्टि से ये चार पंक्तियाँ ही है। ध्रुवपद (मुखड़ा) और समापिका पंक्ति 27 मात्रा के सरसी (कबीर) या समुन्दर छन्द में निबद्ध है जिसमें 16 व 11 मात्राओं पर यति और अन्तरा की पंक्तियाँ छन्द की दृष्टि से दो 28 मात्रा के सार या ललित छन्द में निबद्ध हैं।
नवगीत के शिल्प में प्रतीक और बिम्ब का भी विशेष महत्व है अब नए युग के नवगीतों में मिथकीय प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग बढ़ा है। इसके अतिरिक्त भी प्रतीकों और बिम्बों में जो नायापन आया है उसके लिए अलग से शोध की महती आवश्यकता है, उदाहरणार्थ महेश ‘अनघ‘ ने आतंकवादियों और हिंसा के समर्थकों के लिए एक नया प्रतीक लिया है- ‘‘आते हैं बारूदमुखी दोपाये हड़काना/ लाना रे वृन्दावन मेरी वंशी तो लाना।" (9) बारूदमुखी दोपाये नितान्त नया प्रतीक है। इसी तरह ऐन्द्रिक, स्मृत, कल्पित, सरल, मिश्र, एकल और संश्लिष्ट, स्थिर और गतिशील (क्रिया) जैसे बिम्बों के साथ संक्षिप्त बिम्बों की नूतनता भी बढ़ी है। उदाहरणार्थ- "नाप रहा पेड़ों का आराघर/ कुर्सियाँ निकलती हैं इतराकर।" (10) इस संक्षिप्त पंक्ति में क्रिया, गति, भाव, दृश्य बिम्ब से समन्वित संश्लिष्ट बिम्ब हैं।
अब आवश्यकता चैथे विन्दु मीड़िया (प्रकाशित और इलैक्ट्रोनिक) में नवगीत की संिक्रयता को देखने और उसके निहितार्थ तलाशने की है। फेसबुक पर नवगीत के 7 समूह देखने को मिल रहे हैं जो निरन्तर नवगीत के रचनात्मक और समीक्षात्मक विकास और उसमें आयी नूतनता को प्रस्तुत कर रहे हैं। वे हैं- 1.नवगीत की पाठशाला 2.नवगीतः नए रूझान 3.नवगीत लोक 4.नवगीत चर्चा 5. नवगीत विमर्श 6. नवगीत वार्ता तथा 7. नवगीत संवाद। इसके अतिरिक्त ‘वागर्थ‘ जैसे कुछ स्वतन्त्र पटल पूरी तरह नवगीत को समर्पित हैं। इन सभी समूहों के संचालक स्वयं श्रेष्ठ नवगीतकार हैं। इनके अतिरिक्त वाट्सएप पर भी अनेक समूह सक्रिय हैं जो निरन्तर नवगीत के विकास के लिए सतत प्रयासरत है। जैसे 1.संवेदनात्मक आलोक 2.गीत नवगीत सलिता 3. नवगीत चर्चा, ये पूर्णतः नवगीत को केन्द्र में रखकर चलने वाले समूह हैं। कुछ अन्य साहित्यिक समूह भी वाट्सएप् पर कार्यरत हैं जो सप्ताह में एक दिन या दो दिन गीत नवगीत दिवस आयोजित करते हैं यथा- 1. सजल-सर्जना मथुरा 2. तूलिका बहुविधा मंच 3.सजल वाग्धारा 4. सजल सृजन मध्य-प्रदेश 5. साहित्य सृजन संस्था 6. सजल सृजन छत्तीसगढ़ आदि। यह तो मोटा-मोटा इलैक्ट्रोनिक मीडिया में नवगीत की सक्रियता का संक्षिप्ततम विवरण रहा। प्रकाशन मीडिया में काव्य पर आधारित लगभग हर पत्रिका अब हर अंक में नवगीत प्रकाशित कर रही है। साहित्य त्रिवेणी (कलकत्ता) संवदिया (अररिया) और अभी-अभी वीणा (इन्दौर म.प्र.) अपने नवगीत विशेषांक भी प्रकाशित कर चुकी है जिसमें नए नवगीतकार तो आ ही रहे हैं। नए और पुराने सभी के नवगीतों में काव्य और शिल्प के स्तर पर नूतनता भी झलक रही है। उदाहरणार्थ सजल-सर्जना समूह पर 20 जनवरी 2021 बुधवार के गीत-नवगीत दिवस में प्रस्तुत एक युवा महिला नवगीतकार का नवगीत देखें- "फेंगसुई के उत्पादों ने/ घर-घर सेंध लगाई है/ बुद्ध हो गए लाफिंग बुद्धा/ तुलसी हुई पराई है।" हो सकता है इस नवगीत का शिल्प कुछ समान्य लगे परन्तु इसका कथ्य नूतन है।
एक और तथ्य की ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। वीसबीं सदी में साहित्य के केन्द्र में नारी-विमर्श और दलित-विमर्श रहे। लोकचेतना और महानगरीय जीवन की यातनाएँ भी रहीं परन्तु इक्कीसवीं सदी में वनवासी-गिरिवासी या आदिवासी-विमर्श केन्द्र में आ गया है। नवगीतकार ‘श्याम लाल शमी वीसबीं सदी में ही आदिवासियों की पीड़ा और संवेदनाओं पर नवगीत लिख रहे थे। इस दृष्टि से वे ‘पोस्टडेटेड नवगीतकार कहे जा सकते हैं। सत्यनारायण ने भी आदिवासी समस्याओं पर अनेक गीत रचे हैं परन्तु 2019 में आचार्य भगवत दुबे का एक नवगीत संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘भूखे भील गए‘ इस शीर्षक गीत में आचार्य जी कहते हैं,‘‘कभी न छँट पाया/जीवन से विपदा का कुहरा/ राजनीति का इन्हें/ बनाया गया सदा मुहरा/दिल्ली/लोककला दिखलाने/भूखे भील गए।‘‘ (11) यही नहीं उन्होंने इस संग्रह में घुमन्तू बंजारा जाति पर भी नवगीत लिखा है। राजस्थान के ‘गाड़िया लुहारों‘ की पीड़ा को वाणी देते हुए उन्होंने कहा है, ‘‘जन्मजात हम रहे घुमन्तू/हम बेघर बंजारे है/’’’’’’’रहा पीठ पर पूरा डेरा/ अपना भी कुछ स्वाभिमान है/ किन्तु आपदाओं ने घेरा/हम पर अँधियारे का पहरा/उजयारा तो दुश्मन ठहरा/आँच जान पर यदि आये तो/बन जाते अंगारे हैं।(12)
वस्तुतः ‘नवगीत कोश‘ के लिए सामग्री जुटाते समय मुझे नए-पुराने सभी नवगीतकारों, नवगीत संग्रहों और नवगीत सम्बन्धी समीक्षा को खँगालना पड़ा था। तब आश्चर्यजनक रूप से नवगीत के क्रमिक विकास और कथ्य और शिल्प में आए तमाम नूतन परिवर्तन मुझे दिखाई दिए। ‘ठहराव‘ और ‘दुहराव‘ कहीं नहीं दिखा। न एक नवगीतकार के गीतों में, न नए नवगीतकारों के गीतों में। हाँ यह अवश्य है कि जब कोई विधा अत्याधिक लोकप्रिय होती है तो उसमें ‘जेनुइन‘ रचनाओं के साथ थोड़ा बहुत घटिया सृजन भी आ ही जाता है। परन्तु काल की छलनी बड़ी निर्मम है। वह उत्तम को रखती है और थोथे को फेंक देती है। नवगीत में नवता कल भी थी, आज भी है और जब तक सृजनशील प्रतिभायें सक्रिय रहेेंगी, उनकी नूतनोद्भावनी कल्पना जीवित रहेगी तब तक नवगीत गीत-रसिकों और मनीषी समीक्षकों को प्रभावित करता रहेगा।
इत्यलम्
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सन्दर्भ
1. सुन्दरम्- डाॅ. हरद्वारी लाल शर्मा- पृ. 16 हिन्दी समिति उत्तर प्रदेश शासन लखनऊ प्रथम संस्करण फरवरी 1975
2. नयी पीढ़ी के गीत- सम्पादक अवनीश त्रिपाठी- पृ. 65 (राघवेन्द्र शुक्ल का नवगीत) बेस्ट बुक बडीज, नई दिल्ली-19 प्रथम संस्करण 2019
3. नवगीत मंथन- (आत्म मंथन)-सम्पादक-कृष्ण कुमार ‘नाज‘- पृ. 05 किताबगंज प्रकाशन-गंगापुर सिटी जिला-सवाई माधवपुर-प्रथम संस्करण- जनवरी 2019
4. नेपथ्यों में कोलाहल- विज्ञानव्रत- पृ.-34, अयन प्रकाशन, महरौली दिल्ली-30 प्रथम संस्करण-2019
5. आँगन में कल्पवृक्ष- ऋषिकुमार मिश्र- पृ.-88, निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्टीव्यूटर्स आगरा-प्रथम संस्करण-2018
6. टुकड़ा कागज का - अवनीश सिंह चैहान - पृ. 51- बोधि प्रकाशन, लखनऊ- 2014
7. मुस्कानों का जंगल- चन्द्रपाल शर्मा ‘शीलेश‘- पृ-80 श्रुतसेवा निधि न्यास फीरोजाबाद प्रथम संस्मरण 8 जुलाई 2012
8. नयी सदी के नये गीत- सम्पादक-राहुल शिवाय पृ. 33 (अवनीश सिंह चैहान का नवगीत), किताबगंज प्रकाशन-गंगापुर सिटी-322201-प्रथम संस्करण-जनवरी 2019
9. फिर मांडी रांगोली- महेश ‘अनघ‘ - पृ. 151 निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्टीव्यूटर्स आगरा-10 प्रथम संस्करण-2018
10. गीत विहंग बिहार- सम्पादक- रणजीत पटेल- पृ. 189 (बुद्धिनाथ मिश्र का नवगीत) अभिधा प्रकाशन राम दयालु नगर मुजफ्फरपुर (बिहार) 842002 प्रथम संस्करण 2014
11. भूखे भील गये- आचार्य भगवत दुबे- पृ. 23 पाथेय प्रकाशन जबलपुर प्रथम संस्करण-2019
12. वही पृष्ठ-31
Dr Ramsanehi Lal Yayavar
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